कुछ तो है जो कचोटता है, न चाहते हुए भी अपनी ओर ध्यानाकर्षित करता है, सोचने पर विवश करता है।
मेरे कस्बे की पुलिस ने, सोमवार की रात दस लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें, क्रिकेट और वायदा बाजार के सटोरिए और सोना-चाँदी व्यापारी शामिल हैं। सब के सब, अच्छी-खासी सामाजिक हैसियत रखनेवाले, श्री सम्पन्न और क्षमतावान। पुलिस के अनुसार ये सब जुआ खेल रहे थे।
सारे अखबारों ने (मंगलवार को) यह समाचार प्रमुखता से, चित्र सहित प्रकाशित तो किया किन्तु इस बात का उल्लेख अतिरिक्त महत्व देते हुए विशेष रूप से किया कि इन लोगों को पकड़ने के लिए, पुलिस ने ‘राजा जैसी हिम्मत’ दिखाई। ‘राजा जैसी हिम्मत’ याने, शक्ति का सर्वोच्च और अन्तिम ऐसा संस्थान् जिससे, अपनी कार्रवाई के लिए, कोई पूछ-परख न की जा सके या जो अपने से ऊपरवाले, ‘किसी’ को स्पष्टीकरण देने के लिए बाध्य न हो। इस विशेष उल्लेख के पीछे कारण यह बताया गया कि पकड़े गए तमाम लोगों को बचाने के लिए, काँग्रेस और भाजपा के कुछ प्रभावी नेता, अपने तमाम राजनीतिक मतभेद भुलाकर, पुलिस थाने पहुँचे तो कुछ निर्दलीय नेताओं ने फोन करके इन्हें बचाने की गुहार लगाई। बुधवार को अखबारों ने सूचित किया कि दिल्ली से एक काँग्रेसी नेता ने भी, गिरफ्तार लोगों के समर्थन में पुलिस अधिकारियों को फोन किया।
अखबार, मुक्त-कण्ठ से पुलिस भूमिका की सराहना तो कर रहे हैं किन्तु परोक्षतः भरोसा भी जता रहे हैं कि दो-चार दिनों में मुद्दा ठण्डा हो जाएगा और पुलिस को अन्ततः नेताओं के सामने समर्पण करना ही पड़ेगा। छपे समाचार की पंक्तियों के बीच की खाली जगह में पढ़ा जा सकता है कि ये ही पुलिसकर्मी/अधिकारी आनेवाले दिनों में उन्हीं लोगों के अध्यक्षता और मुख्य अतिथिवाले आयोजनों की व्यवस्था में तैनात नजर आएँगे जिन्हें आज अपराधी करार दिया जा रहा है और जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए ‘राजा जैसी हिम्मत‘ बरती गई है।
मैंने इस समाचार को देखा, बार-बार देखा, खूब ध्यान से देखा किन्तु, गिरफ्तारों की पैरवी करनेवाले एक भी नेता का नाम समाचारों में नजर नहीं आया। मुझे पक्का पता था कि ऐसा ही होगा इसलिए मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। अपनी धारणा की पुष्टि करने के लिए मैंने फेस बुक खोली। एक पत्रकार ने इस समाचार को वहाँ भी ‘राजा जैसी हिम्मत’ वाले विशेषण सहित लगाया हुआ था लेकिन नेताओं के नाम यहाँ भी नहीं थे। हाँ, कुछ टिप्पणियाँ अवश्य उल्लेखनीय थीं। एक टिप्पणी में पत्रकारों और पुलिस की औकात बताई गई थी और गिरफ्तार किए गए लोगों के जल्दी ही छूट जाने की अग्रिम सूचना, अधिकारपूर्वक दी गई थी। दो-एक टिप्पणियों में पत्रकारों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें, नेताओं का नाम बताने की चुनौती दी गई थी तो कुछ टिप्पणियों में पत्रकारों का बचाव किया गया था। किन्तु सारी टिप्पणियों से यह बात साफ-साफ अनुभव हो रही थी सबको इन नेताओं के नाम मालूम थे। बस! बताना कोई नहीं चाह रहा था। मानो प्रत्येक टिप्पणीकार कह रहा था - ‘मुझे तो मालूम है। तुझे मालूम हो तो तू बता। तेरे बताए नाम गलत होंगे तो मैं बता दूँगा।’ याने, ‘नाम बताने का यश’ लेने का लोभ किसी को नहीं! अहा! क्या निस्पृहता है! क्या वीतराग भाव है!
हम जानते हैं कि अपराधियों को सुरक्षा देने का अपराध कौन कर रहा है किन्तु उसका नाम नहीं बताएँगे। चलिए, नाम न बताएँ। कोई बात नहीं। किन्तु अनुचित को संरक्षण और प्रश्रय देनेवाले अपने इन नेताओं को हम टोकेंगे भी नहीं और जब भी ये सामने मिलेंगे तो हम ‘दैन्य’ की सीमा तक विनीत भाव से, इस तरह से झुकते हुए मानो हमारी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, ‘हें! हें!’ करते हुए इन्हें प्रणाम करने की प्रतियोगिता में, कम से कम समय में सबसे पहले प्रणाम करने का खिताब हासिल करना चाहेंगे। बलिहारी! बलिहारी!!
पत्रकारों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। ऐसे मामलों में वे अपनी क्षमता और सीमा का अधिकतम उपयोग करते ही हैं। इस मामले में भी उन्होंने वही किया है। सामाजिक स्खलन के विकराल प्रभाव से त्रस्त इस समय में आज भी शिक्षक, पत्रकार और न्यायपालिका, इन तीन संस्थाओं से सबको अपेक्षाएँ बनी हुई हैं। किन्तु ये तभी हमारी अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं जब हम इन्हें तन-मन-धन से खुला और यथेष्ठ सहयोग, समर्थन और सुरक्षा उपलब्ध कराएँ। भले ही पत्रकारिता अपना मूल स्वरूप खोती जा रही हो किन्तु अवधारणा के सन्दर्भ में उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आएगा भी नहीं। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि अखबारों के जरिए जनभावनाएँ उजागर करनेवाले पत्रकार, उतनी ही पत्रकारिता कर पा रहे हैं जितनी कि वे कर सकते हैं या कि जितनी उन्हें करने दी जा रही है। (वर्ना तो सबके सब नौकरियाँ ही तो कर रहे हैं!) वह जमाना गया जब अखबार वास्तव में अखबार हुआ करते थे। तब, अखबार और पत्रकारिता ‘अभियान’ (मिशन) हुआ करता था। आज यह ‘व्यवसाय’ (प्रोफेशन) से कोसों आगे बढ़ कर ‘बिजनेस’ (व्यापार) हो गया है। निगमित (कार्पोरेट) घरानों के स्वामित्ववाले अखबार अब ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) बन कर रह गए हैं। ऐसे में किसी पत्रकार से अपेक्षा करना कि वह अपनी नौकरी दाँव पर लगाने की, अपने बीबी-बच्चों की परवाह न करने की जोखिम लेकर हमारी ‘सेवा’ करे, न केवल हमारी मूर्खता होगी अपितु पत्रकारों के प्रति अन्याय और अत्याचार भी होगा। हाँ, अखबार मालिक यह जोखिम ले सकता है और मेरा दावा है कि यदि कोई अखबार मालिक जोखिम ले तो पत्रकार सचमुच में अपनी जान पर खेल कर पत्रकारिता कर लेंगे। वर्ना मैं भुक्त भोगी हूँ कि जब पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा लगता है तो, पत्रकारों को मदद करने का वादा करनेवाले सूरमा गुम हो जाते हैं और मुकदमे में हाजरी माफी की अर्जी पर लगाए जानेवाले टिकिट के दो रुपये जुटाने में भी पत्रकार को पुनर्जन्म लेना पड़ जाता है।
मेरे कस्बे की पुलिस ने, सोमवार की रात दस लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें, क्रिकेट और वायदा बाजार के सटोरिए और सोना-चाँदी व्यापारी शामिल हैं। सब के सब, अच्छी-खासी सामाजिक हैसियत रखनेवाले, श्री सम्पन्न और क्षमतावान। पुलिस के अनुसार ये सब जुआ खेल रहे थे।
सारे अखबारों ने (मंगलवार को) यह समाचार प्रमुखता से, चित्र सहित प्रकाशित तो किया किन्तु इस बात का उल्लेख अतिरिक्त महत्व देते हुए विशेष रूप से किया कि इन लोगों को पकड़ने के लिए, पुलिस ने ‘राजा जैसी हिम्मत’ दिखाई। ‘राजा जैसी हिम्मत’ याने, शक्ति का सर्वोच्च और अन्तिम ऐसा संस्थान् जिससे, अपनी कार्रवाई के लिए, कोई पूछ-परख न की जा सके या जो अपने से ऊपरवाले, ‘किसी’ को स्पष्टीकरण देने के लिए बाध्य न हो। इस विशेष उल्लेख के पीछे कारण यह बताया गया कि पकड़े गए तमाम लोगों को बचाने के लिए, काँग्रेस और भाजपा के कुछ प्रभावी नेता, अपने तमाम राजनीतिक मतभेद भुलाकर, पुलिस थाने पहुँचे तो कुछ निर्दलीय नेताओं ने फोन करके इन्हें बचाने की गुहार लगाई। बुधवार को अखबारों ने सूचित किया कि दिल्ली से एक काँग्रेसी नेता ने भी, गिरफ्तार लोगों के समर्थन में पुलिस अधिकारियों को फोन किया।
अखबार, मुक्त-कण्ठ से पुलिस भूमिका की सराहना तो कर रहे हैं किन्तु परोक्षतः भरोसा भी जता रहे हैं कि दो-चार दिनों में मुद्दा ठण्डा हो जाएगा और पुलिस को अन्ततः नेताओं के सामने समर्पण करना ही पड़ेगा। छपे समाचार की पंक्तियों के बीच की खाली जगह में पढ़ा जा सकता है कि ये ही पुलिसकर्मी/अधिकारी आनेवाले दिनों में उन्हीं लोगों के अध्यक्षता और मुख्य अतिथिवाले आयोजनों की व्यवस्था में तैनात नजर आएँगे जिन्हें आज अपराधी करार दिया जा रहा है और जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए ‘राजा जैसी हिम्मत‘ बरती गई है।
मैंने इस समाचार को देखा, बार-बार देखा, खूब ध्यान से देखा किन्तु, गिरफ्तारों की पैरवी करनेवाले एक भी नेता का नाम समाचारों में नजर नहीं आया। मुझे पक्का पता था कि ऐसा ही होगा इसलिए मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। अपनी धारणा की पुष्टि करने के लिए मैंने फेस बुक खोली। एक पत्रकार ने इस समाचार को वहाँ भी ‘राजा जैसी हिम्मत’ वाले विशेषण सहित लगाया हुआ था लेकिन नेताओं के नाम यहाँ भी नहीं थे। हाँ, कुछ टिप्पणियाँ अवश्य उल्लेखनीय थीं। एक टिप्पणी में पत्रकारों और पुलिस की औकात बताई गई थी और गिरफ्तार किए गए लोगों के जल्दी ही छूट जाने की अग्रिम सूचना, अधिकारपूर्वक दी गई थी। दो-एक टिप्पणियों में पत्रकारों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें, नेताओं का नाम बताने की चुनौती दी गई थी तो कुछ टिप्पणियों में पत्रकारों का बचाव किया गया था। किन्तु सारी टिप्पणियों से यह बात साफ-साफ अनुभव हो रही थी सबको इन नेताओं के नाम मालूम थे। बस! बताना कोई नहीं चाह रहा था। मानो प्रत्येक टिप्पणीकार कह रहा था - ‘मुझे तो मालूम है। तुझे मालूम हो तो तू बता। तेरे बताए नाम गलत होंगे तो मैं बता दूँगा।’ याने, ‘नाम बताने का यश’ लेने का लोभ किसी को नहीं! अहा! क्या निस्पृहता है! क्या वीतराग भाव है!
हम जानते हैं कि अपराधियों को सुरक्षा देने का अपराध कौन कर रहा है किन्तु उसका नाम नहीं बताएँगे। चलिए, नाम न बताएँ। कोई बात नहीं। किन्तु अनुचित को संरक्षण और प्रश्रय देनेवाले अपने इन नेताओं को हम टोकेंगे भी नहीं और जब भी ये सामने मिलेंगे तो हम ‘दैन्य’ की सीमा तक विनीत भाव से, इस तरह से झुकते हुए मानो हमारी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, ‘हें! हें!’ करते हुए इन्हें प्रणाम करने की प्रतियोगिता में, कम से कम समय में सबसे पहले प्रणाम करने का खिताब हासिल करना चाहेंगे। बलिहारी! बलिहारी!!
पत्रकारों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। ऐसे मामलों में वे अपनी क्षमता और सीमा का अधिकतम उपयोग करते ही हैं। इस मामले में भी उन्होंने वही किया है। सामाजिक स्खलन के विकराल प्रभाव से त्रस्त इस समय में आज भी शिक्षक, पत्रकार और न्यायपालिका, इन तीन संस्थाओं से सबको अपेक्षाएँ बनी हुई हैं। किन्तु ये तभी हमारी अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं जब हम इन्हें तन-मन-धन से खुला और यथेष्ठ सहयोग, समर्थन और सुरक्षा उपलब्ध कराएँ। भले ही पत्रकारिता अपना मूल स्वरूप खोती जा रही हो किन्तु अवधारणा के सन्दर्भ में उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आएगा भी नहीं। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि अखबारों के जरिए जनभावनाएँ उजागर करनेवाले पत्रकार, उतनी ही पत्रकारिता कर पा रहे हैं जितनी कि वे कर सकते हैं या कि जितनी उन्हें करने दी जा रही है। (वर्ना तो सबके सब नौकरियाँ ही तो कर रहे हैं!) वह जमाना गया जब अखबार वास्तव में अखबार हुआ करते थे। तब, अखबार और पत्रकारिता ‘अभियान’ (मिशन) हुआ करता था। आज यह ‘व्यवसाय’ (प्रोफेशन) से कोसों आगे बढ़ कर ‘बिजनेस’ (व्यापार) हो गया है। निगमित (कार्पोरेट) घरानों के स्वामित्ववाले अखबार अब ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) बन कर रह गए हैं। ऐसे में किसी पत्रकार से अपेक्षा करना कि वह अपनी नौकरी दाँव पर लगाने की, अपने बीबी-बच्चों की परवाह न करने की जोखिम लेकर हमारी ‘सेवा’ करे, न केवल हमारी मूर्खता होगी अपितु पत्रकारों के प्रति अन्याय और अत्याचार भी होगा। हाँ, अखबार मालिक यह जोखिम ले सकता है और मेरा दावा है कि यदि कोई अखबार मालिक जोखिम ले तो पत्रकार सचमुच में अपनी जान पर खेल कर पत्रकारिता कर लेंगे। वर्ना मैं भुक्त भोगी हूँ कि जब पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा लगता है तो, पत्रकारों को मदद करने का वादा करनेवाले सूरमा गुम हो जाते हैं और मुकदमे में हाजरी माफी की अर्जी पर लगाए जानेवाले टिकिट के दो रुपये जुटाने में भी पत्रकार को पुनर्जन्म लेना पड़ जाता है।
हम समाज से और तमाम सामाजिक कारकों से सहयोग और सुरक्षा तो चाहते हैं किन्तु खुद कुछ नहीं करना चाहते। हम अधिकारों की दुहाइयाँ देते हैं और कर्तव्य भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि जिस ‘समाज’ से हम अपेक्षाएँ कर रहे हैं, वह हमारा ही बनाया हुआ है, हम ही उसकी आधारभूत इकाई हैं। समाज हमारी भव्य इमारत है और हम उसकी नींव के वे पत्थर जिन पर इस इमारत की मजबूती और बुलन्दगी निर्भर है। हम अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो इस इमारत का, भरभराकर ढहना निश्चित है।
जैसे हम हैं, वैसा ही हमारा समाज है। हमें वैसे ही नेता मिले हैं, वैसी ही पुलिस मिली है और वैसे ही पत्रकार भी मिले हैं जैसे हम हैं। इनमें से कोई भी बाहर से नहीं आया है। ये सब हममें से ही हैं, हमारे ही भेजे हुए, हमारे ही बनाए हुए।
वस्तुतः ‘वे’, वे नहीं हैं - ‘हम’ ही हैं।
जैसे हम हैं, वैसा ही हमारा समाज है। हमें वैसे ही नेता मिले हैं, वैसी ही पुलिस मिली है और वैसे ही पत्रकार भी मिले हैं जैसे हम हैं। इनमें से कोई भी बाहर से नहीं आया है। ये सब हममें से ही हैं, हमारे ही भेजे हुए, हमारे ही बनाए हुए।
वस्तुतः ‘वे’, वे नहीं हैं - ‘हम’ ही हैं।
सौ प्रतिशत सही.सब हम ही हैं.........
ReplyDeleteकुछ नी ओ सक्ता
ReplyDeleteहमारे समाज का एक चेहरा.
ReplyDeleteशुभकामनायें ही दे सकते हैं भाई जी ! .
ReplyDeleteव्यक्ति ही समष्टि में व्यक्त हो जाती है।
ReplyDelete@ चलिए, नाम न बताएँ। कोई बात नहीं। किन्तु अनुचित को संरक्षण और प्रश्रय देनेवाले अपने इन नेताओं को हम टोकेंगे भी नहीं और जब भी ये सामने मिलेंगे तो हम ‘दैन्य’ की सीमा तक विनीत भाव से, इस तरह से झुकते हुए मानो हमारी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, ‘हें! हें!’ करते हुए इन्हें प्रणाम करने की प्रतियोगिता में, कम से कम समय में सबसे पहले प्रणाम करने का खिताब हासिल करना चाहेंगे। बलिहारी! बलिहारी!!
ReplyDeleteबात सही है, मगर हर प्रकार का लाभ चाहते भी असुविधा लेना कोई नहीं चाहता। और फिर प्रशासन भी ऐसे माहौल के अनुकूल नहीं है। आप तो जानते ही हैं (और आगे आपने ज़िक्र भी किया है). खुशी की बात है कि "ए फ़्यू गुड मैन" अभी भी मौजूद हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई,
ReplyDeleteजो मैं देखन आपनो, मुझसा बुरा न कोई.
sahi doha kuch aisa hai;
Deleteबुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।।
papa dhanyawaad.
Har Dalaal ko kisi n kisi ki Aadhat me kaam karte rahna hai. Aadhatiya shaktishali aur sthaayee hai.Dalal to aate-jaate rahte hain.
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