निहाल हुए हम बूढ़े हो कर



अदम्य : जन्म शाम 7.04 पर। यह चित्र 7.55.41 बजे का। 

इससे मिलिए। यह है ‘अदम्य’ - हमारी मौजूदा गृहस्थी की तीसरी पीढ़ी का पहला सदस्य। हमारा पहला पोता। इसका जन्म तो हुआ 22 मार्च की शाम 7 बजकर 4 मिनिट पर पर। किन्तु उस सुबह 5 बजे से ही हमारी सम्पूर्ण चेतना, सारी गतिविधियाँ, सारी चिन्ताएँ, सारे विचार इसी पर केन्द्रित हो गए थे - इसकी माँ, प्रशा को उसी समय इसने अपने आगमन की पहली सूचना दी थी। 

21 मार्च की शाम को, प्रशा को, डॉक्टर को दिखाया था। डॉक्टर ने कहा था - 15 अप्रेल को या उसके बाद ही प्रसव होगा। किन्तु 21 और 22 मार्च की सेतु रात्रि में, कोई दो बजे से प्रशा असामान्य हो गई। कोई तीन घण्टे तक वह सहन करती रही। अन्ततः, सुबह पाँच बजे अपनी सास, मेरी उत्तमार्द्ध को उठा कर अपनी स्थिति बताई। उन्होंने मुझे उठाया और फौरन ही डॉक्टर से फोन पर बात की। डॉक्टर ने कहा - ‘स्नान-ध्यान कर आठ बजे ले आइए।’

सुबह 8 बजे प्रशा को अस्पताल में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने पहले ही क्षण कहा - ‘डिलीवरी आज ही होगी। शाम चार बजे तक नार्मल की प्रतीक्षा करेंगे। नहीं हुआ तो सीजेरियन करना पड़ेगा।’

परिवार में हम दो ही सदस्य और दोनों ही अस्पताल में। याने हमारा पूरा परिवार अस्पताल में। सुबह नौ बजे बेटे वल्कल को, मुम्बई सूचित किया। शाम छः बजे वल्कल पहुँच गया। मुम्बई से इन्दौर तक वायुयान से और इन्दौर से रतलाम तक मोटर सायकिल से यात्रा की उसने।

चार बजे तक तो हम सब सामान्य थे किन्तु उसके बाद से, ‘सीजेरियन’ की कल्पना से ही घबराहट होने लगी। प्रशा को चार बजे से ही डाक्टर और नर्सों ने ‘लेबर रूम’ में ले लिया था। उनकी भाग-दौड़ हमें नजर तो आ रही थी किन्तु कोई भी हमसे बात नहीं कर रहा था। घड़ी के काँटे जैसे-जैसे सरकते जा रहे थे, मेरी आँखों के आगे चाकू-छुरे नाचने लगे थे। अस्पताल के कर्मचारियो में से कोई भी हमसे कुछ नहीं कह रहा था किन्तु मुझे बार-बार ‘आपमें से कौन खून दे रहा है?’ सुनाई दे रहा था। मेरी नसें खून का दबाव नहीं झेल पा रही थीं। मैं अपनी ही धड़कनें साफ-साफ सुन रहा था। मेरी कनपटियाँ चटक रहीं थीं। घबराहट के मारे मुझसे बोला नहीं जा रहा था। मैं ईश्वर से एक ही प्रार्थना कर रहा था - प्रशा को सीजेरियन से बचा ले।

पाँच बज गए। छः बज गए। नर्सों की आवाजाही कम हो गई थी। सात बज गए। लेकिन कहीं से कोई खबर नहीं। मैं पस्तहाल हो, ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेंच पर बैठ गया। लगभग सात बजकर दस मिनिट पर एक नर्स बाहर आई और मेरी उत्तमार्द्ध से बोली - ‘आप कुछ कपड़े लाए या नहीं? लाइए! कपड़े दीजिए।’ मेरी उत्तमार्द्ध पूरी तैयारी से आई थी। फौरन ही कपड़े दिए। कपड़े लेकर नर्स जिस तरह से अचानक प्रकट हुई थी, उसी तरह अन्तर्ध्यान हो गई। न तो उसने बताया और न ही उसने पूछने का मौका दिया कि कपड़े माँगने का मतलब क्या है। मैं ही नहीं, हम सब सकते में थे। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। तभी, मेरी बाँह थपथपाकर, ढाढस बँधाते हुए मेरी उत्तमार्द्ध बोलीं - ‘खुश हो जाइए। डिलीवरी हो गई है। आप दादा बन गए हैं।’ मुझे विश्वास नहीं हुआ। नर्स ने तो कुछ नहीं कहा! फिर ये कैसे कह रही हैं? मैंने पूछा - ‘आपको कैसे मालूम? नर्स ने तो कुछ भी नहीं कहा।’ वे सस्मित बोलीं - ‘ईश्वर ने यह छठवीं इन्द्री हम औरतों को ही दी है। कुछ पूछिए मत। किसी को फोन कीजिए। फौरन मिठाई मँगवाइए।’ मैं नहीं माना। मैं कुछ पूछता उससे पहले नर्स फिर प्रकट हुई। मैं कुछ बोलूँ उससे पहले ही वह, हवाइयाँ उड़ती मेरी शकल देख, मुस्कुराती हुई मेरी उत्तमार्द्ध से बोली - ‘सर को अभी भी समझ में नहीं आया होगा। डिलीवरी हो गई है। नार्मल हुई है और बाबा हुआ है।’ कह कर नर्स एक बार फिर हवा हो गई।

ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठे हम तमाम लोग एक क्षण तो कुछ भी समझ नहीं पाए। लेकिन पलक झपकते सब समझदार हो गए। सब हमें और एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे। लेकिन हम दोनों? पता नहीं क्या हुआ कि ‘डिलीवरी नार्मल हुई है’ सुनकर हम दोनों के हाथ अपने आप ही आकाश की ओर उठ गए। हम दोनों की आँखें झर-झर बह रहीं थीं। उस क्षण हमें भले ही अपना भान नहीं था किन्तु हमें, अपनी वंश बेल बढ़ने से अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि हमारी प्रशा, सीजेरियन का आजीवन कष्ट भोगने से बच गई। ईश्वर की यह अतिरिक्त कृपा हमें अनायास ही ‘उसके प्रति’ नतमस्तक किए दे रही थी। हमें सामान्य होने में तनिक देर लगी और जब हम खुद में लौटे तो रोमांचित थे - ‘अरे! हम तो दादा-दादी बन गए!’ हम दोनों आपस में कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे। थोड़े सहज हुए तो हम दोनों ने वल्कल को बधाइयाँ और आशीष दी। तभी नर्स, हमारे परिवार की अगली पीढ़ी के पहले सदस्य को कपड़ों में लिपटाए लाई और मेरी उत्तमार्द्ध को थमा दिया। उपस्थित लोगों के मोबाइल की फ्लेश गनें चमकने लगीं। 

इसके बाद जो-जो होना था, वह सब हुआ। हमारी जिन्दगी बदल चुकी थी। क्या अजीब बात है कि एक नवजात शिशु ने पल भर में हमें बूढ़ा बना दिया था और हम थे कि निहाल हुए जा रहे थे!

फुरसत में तो हम पहले भी नहीं थे किन्तु इस शिशु ने हमें अत्यधिक व्यस्त कर दिया। हमारी व्यस्तता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 22 मार्च के बाद मैं अब यह पोस्ट लिख पा रहा हूँ - कोई डेड़ माह बाद। ये तीन पखवाड़े हम लोग जिन्दगी भर नहीं भूल पाएँगे। 

22 मार्च को पोता आया और 30 मार्च को मेरी जन्म तारीख थी। दोनों प्रसंगों पर हमारे परिवार पर और मुझ पर, कृपालुओं/शुभ-चिन्तकों की जो अटाटूट कृपा-वर्षा हुई, उस सबके प्रति मैं धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापित करने का न्यूनतम, सामान्य शिष्टाचार भी नहीं निभा पाया। 

मेरी इस पोस्ट को ही मेरा धन्यवाद/कृतज्ञता ज्ञापन और मेरी क्षमा याचना मानें, स्वीकार करें और उदारमना हो, मुझे क्षमा करने का उपकार करें। 

इन तीन पखवाड़ों के हमारे अनुभव आपको निश्चय ही आनन्द देंगे। आप सब हमारे मजे ले सकें, इसलिए वह सब लिखूँगा - जल्दी से जल्दी।


पोते को निहारती दादी: चित्र 7.45.39 बजे।



अपने बेटे के साथ मुदित मन माता-पिता, प्रशा और वल्कल। चित्र 7.51.04 बजे।



अपने नवजात बेटे को देख खुश हो रहा पिता, वल्कल। चित्र 7.55.11 बजे।

ऐसी प्रताड़ना सबको मिले


नहीं। मुझे मिली इस अनूठी प्रताड़ना को आप तक पहुँचाने के लिए मैं शब्दों की कोई सजावट नहीं करूँगा। सब कुछ, वैसा का वैसा ही रख दूँगा जो मेरे साथ हुआ। सजावट, आकर्षक या नयनाभिराम भले ही लगे किन्तु वास्तविकता को ढँक सकती है। विरुदावलियों की सुन्दरता, तथ्यों को नेपथ्य में धकेल सकती हैं।

‘आपको यह सवाल पूछने की जरूरत क्यों पड़ी? आपने मेरे या हमारी फेमिली के किसी भी मेम्बर के व्यवहार में ऐसा क्या देख लिया या किसी ने आपसे ऐसा क्या कह दिया कि आपने यह सवाल पूछ लिया?’ यह सवाल नहीं था। यह सीधी डाँट-फटकार, प्रताड़ना थी। मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मैं विजय से आँखें मिलाऊँ। लेकिन इससे भी पहली बात यह थी कि विजय खुद ही मुझसे आँखें मिलाने से बचते हुए मुझे डाँट रहा था। विजय के संस्कार कहिए या कि मेरे प्रति उसके मन में बैठा आदर भाव  िकि वह चाहकर भी गुस्सा नहीं कर पा रहा था। मेरे अब तक के जीवन में यह पहली ही बार था कि डाँटनेवाला खुद ही नजरें बचा रहा हो।

विजय याने विजय कान्त माण्डोत। चन्दू भैया का इकलौता छोटा भाई। चन्दू भैया याने चन्द्रकान्त माण्डोत जिनके बारे में मैंने, कोई चार बरस पहले, यहाँ लिखा था। सामने आ रही 25 मई को चन्दू भैया सत्तावनवें साल में प्रवेश कर जाएँगे। विजय उनसे चार साल छोटा है। 19 अप्रेल को तरेपन साल पूरे कर लेगा। (चित्र में बाँयी ओर विजय तथा दाहिनी ओर चन्दू भैया।)

दोनों भाई पितृ-विहीन। मुझ जैसे ही। गृहस्थियाँ अलग-अलग हैं किन्तु परिवार एक ही है। गैस एजेन्सी और विज्ञापन एजेन्सी का काम है। कौन सा काम कौन करता है - यह या तो आय-कर विभागवाले जानते होंगे या इनके कर सलाहकार या फिर इनका हिसाब-किताब देखनेवाला। हम सबकी तरह ये दोनों भी सामान्य और अपूर्ण मनुष्य हैं - कमियों-खामियों, अच्छाइयों-बुराइयों, विशेषताओं-विसंगतियों से भरे। किन्तु दोनों को जमाने की हवा नहीं लग पाई है। चन्दू भैया दादा-नाना बन गए और विजय अभी-अभी ‘ससुरा’। किन्तु दोनों के दोनों अभी तक ‘पिछड़े हुए’ ही हैं-एक दूसरे की चिन्ता करते हैं और लिहाज पालते हैं। विजय के लिए ‘बड़ा भाई, बाप बराबर और भाभी, माँ समान’ तो चन्दू भैया के लिए विजय, अपने बेटे पीयूष के बराबर। बात परिवार की हो या व्यापार की, सारे फैसले चन्दू भैया के जिम्मे ही होते हैं किन्तु जिम्मेदारी के इस भाव ने चन्दू भैया को कभी मनमानी नहीं करने दी। अन्तिम फैसला जरूर चन्दू भैया का किन्तु भावनाएँ सबकी।

मुझसे परिचय होने के बाद इनके परिवार के प्रायः सारे बीमे मुझे ही मिले। किसका, कितना बीमा करना है, यह फैसला जरूर चन्दू भैया ने ही किया लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझसे पहली बार बात करने के बाद चन्दू भैया ने मुझे सेवा का मौका दिया। कोई भी बीमा देने से पहले उन्होंने मुझे कम से कम दो-दो बार तो बुलाया ही। जाहिर है कि पहली बार मुझसे जानकारी ली और अन्तिम निर्णय पर पहुँचने से पहले ‘आपस’ में बात की। एक भी बीमे के बारे में मुझे कभी भी विजय से बात नहीं करनी पड़ी।

अभी, 2 दिसम्बर 2012 को विजय के बड़े बेटे अंकुर का विवाह हुआ। अंकुर पहले से ही मेरा पॉलिसीधारक है किन्तु विवाहोपरान्त हम बीमा एजेण्टों के लिए सम्भावनाएँ बन भी जाती है और बढ़ भी जाती हैं। इसी ‘स्वार्थी और लालची’ मनःस्थिति में मैं चूक कर बैठा।  विजय से पूछ बैठा - ‘अंकुर और नई बहू के बीमे के बारे में मुझे किससे बात करनी है - चन्दू भैया से, तुमसे या अंकुर से?’ बिना सोचे-विचारे बोलने की मूर्खता मैं कर चुका हूँ - यह बात तत्क्षण समझ में तो आ गई थी किन्तु बात जबान से निकल चुकी थी। अब मरम्मत का न तो अवसर था और न ही कोई गुंजाइश। जवाब वह आया जो आप पहले पढ़ चुके हैं। 

विजय की शकल बता रही थी कि मेरी बात उसे जहर भरे तीर की तरह चुभी है। उसकी ‘पारिवारिकता’ पर मैंने अविश्वास जता दिया था। बड़े भाई के प्रति उसकी श्रद्धा और निष्ठा पर सन्देह कर लिया था। संस्कारशीलता से उपजी विवशता के कारण वह मुझ पर गुस्सा नहीं कर पा रहा था। लेकिन उसकी खिन्नता, अप्रसन्नता, असहजता, छुपाए नहीं छुप पा रही थी। खुद को संयत बनाए रखने में उसे कितनी कठिनाई हो रही है-यह मैं उसके चेहरे पर पढ़ रहा था। मुझे अपने पर झेंप आ रही थी - ‘मैं यह क्या कर बैठा?’

मैंने अपनी मूर्खताभरी चूक दुरुस्त करने की कोशिश की जरूर किन्तु मैं कामयाब नहीं हो पाया। मैं अपनी ही नजरों में हास्यास्पद हो चुका था। झेंप के बारे मेरा बुरा हाल था। मैंने सीधे-सीधे माफी माँगी। मेरे मन में उपजे वे कारण बताए जिनके अधीन मैंने यह मूर्खता की थी। लेकिन जब, मेरी बातें मुझे ही खोखली लग रही थीं तो भला, विजय उन पर कैसे विश्वास करता?

हम दोनों एक दूसरे के सामने चुप खड़े थे। धान मण्डी की भीड़ की आवाज पर हमारे बीच पसरा मौन भारी पड़ रहा था। मैंने एक बार फिर माफी माँगी। मैंने देखा, विजय की आँखें पनीली हो आई थीं। भीगी-भीगी, धीमी आवाज में बोला - ‘आप पहले भी चन्दू भैया से ही पूछते रहे हैं। अभी भी उनसे ही पूछिएगा। वे ही सब कुछ तय करते आए हैं। आगे भी वे ही तय करेंगे।’ और विजय बाहर निकल गया - निःशब्द।

अब इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता कि चन्दू भैया से मेरी क्या बात हुई या कि मुझे नये जोड़े का बीमा मिला या नहीं। मतलब रह जाता है तो बस यही कि विजय की प्रताड़ना ने मुझे विगलित कर दिया। निहाल हो गया मैं।

सम्बन्धों की ऊष्मा कम होने, आत्मीयता और परस्पर चिन्ता के क्षय होने, ‘कुटुम्ब’ तो दूर रहा, परिवार भी ‘एकल’ से नीचे उतर कर ‘सूक्ष्म’ होने के इस दौर में, जबकि बेटा अपने माँ-बाप की सुपारी दे रहा हो, मुझे विजय की यह प्रताड़ना, भारतीयता की जड़ों में विश्वास दिला गई।

हे! ईश्वर! ऐसी प्रताड़ना मुझे (और मुझे ही क्यों? हर किसी को) रोज-रोज मिले। इस प्रताड़ना  को किसी की नजर न लगे।

पत्रकारिता याने ‘निपटा दो स्सा ऽ ऽ ऽ ले को’


17 मार्च रविवार को, ‘जनसत्ता’ में, ‘अनन्तर’ स्तम्भ में श्री ओम थानवी के, ‘अक्ल बड़ी या भैंस’ शीर्षक आलेख के, तीसरे पैराग्राफ के पहले दो वाक्यों ‘अखबारों की सबसे बड़ी समस्या है, समझ और सम्वेदनशीलता की कमी। इसके कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि का उनमें अभाव दिखता है।’ ने मुझे यह संस्मरण लिखने को विवश कर दिया।

यह, 1970 से 1975 के बीच की बात है। मैं मन्दसौर में, ‘दैनिक दशपुर दर्शन’ का सम्पादक था। जिला युवक काँग्रेस के अध्यक्ष श्री सौभाग्यमल जैन ‘करुण’, अखबार के मालिक थे। मन्दसौर तब आठ तहसीलोंवाले अविभाजित मन्दसौर जिले का मुख्यालय था। कालान्तर में इसका विभाजन हो गया और चार तहसीलें मिला कर नीमच जिला बना दिया गया। उन दिनों मन्दसौर की जनसंख्या एक लाख से भी कम थी।

अखबार यद्यपि ‘काँग्रेसी का’ था किन्तु ‘काँग्रेस का’ नहीं था। ऐसी प्रत्येक कोशिश को मैंने असफल किया। सौभाग्य भाई की पीठ सुनती है कि उन्होंने एक बार भी मुझे रोका-टोका नहीं। मेरी इन ‘हरकतों’ के कारण उन्हें काँग्रेस के, प्रादेशिक स्तर के नेताओं से प्रायः ही खरी-खोटी और अच्छी-बुरी सुननी पड़ती रहती थी।

पूरे अविभाजित मन्दसौर जिले पर भारतीय जनसंघ का दबदबा था। एक समय वह भी था कि वहाँ की सातों ही विधान सभा सीटों पर भारतीय जनसंघ का ‘दीपक’ जगमगा रहा था। किन्तु 1967 में पहली बार जनसंघ के इस ‘अभेद्यप्रायः दुर्ग’ में दरार आई जब दादा ने श्री सुन्दरलालजी पटवा को हराया था। बाकी छहों सीटों पर जनसंघ का कब्जा कायम रहा था। पटवाजी जिले के ‘एकमात्र पराजित जनसंघी उम्मीदवार’ बने थे।

मैं जिन सज्जन की बात कर रहा हूँ ‘वे’ मन्दसौर जिले के एक विधानसभा क्षेत्र से विधायक थे। अपने विधान सभा मुख्यालय पर नहीं रहते थे। मूलतः, मन्दसौर के पास के एक गाँव के निवासी थे और मन्दसौर में रहते थे। मैं उनका नाम नहीं लिखूँगा। ‘वे’ अब दुनिया में नहीं हैं। 

‘वे’ प्रखर वक्ता थे। जन-रोचकता और आक्रामकता उनके भाषणों के प्रमुख तत्व हुआ करते थे। संघ/जनसंघ/(और आज की भाजपा) के सामान्य वक्ताओं की तरह ‘वे’ भी ‘विचार’ की दुहाई देकर ‘व्यक्ति’ पर प्रहार करने में विशेषज्ञ थे। दादा तब तक लोकप्रिय जननेता के रूप में स्थापित हो चुके थे - इस सीमा तक कि जनसंघ के लगभग प्रत्येक वक्ता का भाषण, दादा के व्यक्तित्व-हनन के बिना कभी पूरा नहीं होता था। किन्तु कुछ लोग इस क्रम में दादा को पीछे छोड़ मेरी भाभीजी तक को निशाने पर लेने में संकोच नहीं करते थे। जैसा कि होता ही है, घटिया उपमाओं, अभद्र भाषा-शब्दावली से सजे ऐसे भाषण लोगों को खूब पसन्द भी आते। ‘वे’ भी ऐसा ही करते थे। मुझे बहुत बुरा लगता। गुस्सा आता। तमतमा कर दादा से कहता - “आप तो ‘सरस्वती-पुत्र’ हैं। बड़ी सुन्दरता और शालीनता से सबको जवाब दे सकते हैं। जवाब क्यों नहीं देते?” दादा हर बार मुस्कुरा कर, कभी मेरी पीठ, कभी मेरा कन्धा तो कभी मेरा माथा थपथपाते हुए कहते - ‘तू क्या समझता है मुझे तकलीफ नहीं होती? होती है। लेकिन अपन भी वैसा ही करने लगे तो उनमें और अपने में फरक ही क्या रह जाएगा? लोगों की समझ पर भरोसा रख। लोग सब समझते हैं। तेरी भाभी का मजाक उड़ानेवाले उनके भाषणों पर तालियाँ बजानेवाले भी उन्हें ही बुरा कहेंगे।” दादा की ऐसी बातें मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं।

यह वह जमाना था जब मन्दसौर जैसी छोटी जगहों से निकलनेवाले अखबार, छपाई मशीन सहित सारे कामों पर पूरी तरह से मानव-श्रम पर निर्भर होते थे। स्टिक-कम्पोजिंग, गेली में पेज बनाना, हाथ से संचालित मशीन पर पेज का प्रूफ निकालना, पूरे पेज को ‘चेस’ में कस कर मशीन पर चढ़ाना और एक-एक पेज छापना। पाँव से चलाई जानेवाली ट्रेडल मशीन पर अखबार छपता था। दोपहर में 2 बजकर 40 मिनिट पर आकाशवाणी से प्रसारित होनेवाले ‘धीमी गति के समाचार’ मुखपृष्ठ के मुख्य समाचार का स्रोत होते थे। शाम तक तीन पेज छाप लिए जाते। रात आठ बजते-बजते मुखपृष्ठ तैयार हो जाया करता था। आकाशवाणी से, रात पौने नौ बजे प्रसारित होनेवाले समाचार की प्रतीक्षा की जाती थी। उस बुलेटिन में कुछ काम का हुआ तो ठीक वर्ना फटाफट अखबार छापने की तैयारियाँ शुरु हो जातीं। मुखपृष्ठ का मशीन प्रूफ देखकर मैं अपनी कुर्सी पर निढाल हो जाता। एक दिन की मजदूरी पूरी।

ऐसे ही एक दिन, अपराह्न में खबर मिली कि ‘उनकी’  सयानी बेटी, एक मुसलमान युवक के साथ घर छोड़ कर चली गई है। आज से  लगभग 45-50 बरस पहले भी, संघ का कट्टर हिन्दुत्व, आनुपातिक रूप से तनिक भी कम नहीं था। मुसलमानों के प्रति नफरत और उन्हें राष्ट्र विरोधी निरूपित करना आज से कम नहीं था। होली पर साम्प्रदायिक दंगे होना मन्दसौर की पहचान बन गया था - कुछ इस तरह कि तय करना मुश्किल हो जाता था कि लोग होली की प्रतीक्षा कर रहे हैं या दंगों की। ऐसे में, कट्टर हिन्दुत्ववाले, कट्टर हिन्दू की, वह भी हिन्दू नेता की, बेटी का, घर से छोड़ कर चले जाना, वह भी किसी मुसलमान युवक के साथ!  कल्पना की जा सकती है कि मन्दसौर में क्या स्थिति बन गई होगी। पूरे शहर में सनसनी फैल गई। बिना किसी के कहे, दुकानों के शटर/दरवाजे आधे-आधे बन्द हो गए। हर कोई दहशतजदा था। स्कूलों में अघोषित छुट्टी हो गई। जिला प्रशासन एकदम ‘हाई अलर्ट’ पर आ गया - पंजों के बल, अंगुलियों पर खड़ा।

दस-पाँच मिनिट बीतते-न-बीतते, मेरा फोन घनघनाना शुरु हो गया - लगातार। एक से बात कर, रिसीवर रखकर हाथ हटाऊँ उससे पहले ही दूसरी घण्टी। और फोन भी केवल मन्दसौर शहर से नहीं, जिले के अन्य कस्बों से भी। मानो इतना ही पर्याप्त न हो, एक के बाद एक, ‘शुभ-चिन्तकों’ का आना शुरु हो गया। मेरी टेबल के सामने चार कुर्सियाँ रखी रहती थीं। वे चारों कभी की भर चुकी थीं। शाम होते-होते मेरा दफ्तर छोटा पड़ गया। मेरे दो सहायकों सहित तमाम कर्मचारियों का काम करना दूभर हो गया। एक के बाद एक, कोई न कोई चला आ रहा था और प्रत्येक के पास, इस मामले से जुड़ी, कोई न कोई अनूठी/अनछुई याने कि ‘एक्सक्लूसिव’ चटपटी-मसालेदार सूचना थी। सबकी एक राय थी - “आज इसे छोड़ना मत। इसने कभी, कोई कसर नहीं छोड़ी। दादा को तो ठीक, इसने भाभी पर भी छींटाकशी की है। भाभी को क्या-क्या नहीं कहा? तुझे याद है कि नहीं, बाजारू औरतों की लाइन में बैठाया था इसने भाभी को? आज इसे बिलकुल मत छोड़ना। बढ़िया मौका मिला है। निपटा दे इस स्सा ऽ ऽ ऽ ले को आज।”

घटना की सूचना मिलने के बाद, बड़ी देर तक मैं भी यही सब सोच रहा था - नफरत और प्रतिशोध की आग में जलते हुए। मैंने सौभाग्य भाई से पूछा - ‘क्या करना है?’ उन्होंने सदैव की तरह कहा - ‘जो तू ठीक समझे।’ किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया, मेरे विवेक ने मुझे सहलाना शुरु किया। विचार आया - “यही घटना ‘इनके’ साथ न होकर किसी औसत आदमी के साथ होती तब मैं क्या करता?” बस! इस विचार ने मेरी सारी दुविधा दूर कर दी। तमाम शुभ-चिन्तकों को जैसे-जैसे विदा किया। मुखपृष्ठ का काम निपटाया। हमारा मुख्य कम्पोजिटर रमेश मुझ पर बराबर नजरें टिकाए हुए था। वह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट था और मेरी काँग्रेसी पृष्ठभूमि के कारण मुझसे, नफरत करने की सीमा तक चिढ़ता था। मेरी फजीहत करने का कोई मौका, कभी नहीं छोड़ता था। उसने एक शब्द भी नहीं कहा लेकिन उसकी आँखें लगातार बोल रही थीं।

छपाई के लिए मुखपृष्ठ की चेस मशीन पर चढ़ाई जाने लगी तो रमेश मेरे पास आया और रुँधे कण्ठ से, बहुत ही  मुश्किल से (मैं किसी भी तरह नहीं बता पाऊँगा कि कितनी मुश्किल से) कुछ ऐसा बोला - “मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी कि आप यह शराफत बरतेंगे। मैंने मान लिया था कि आपकी तो शादी भी नहीं हुई इसलिए आप बेटी के बाप का दर्द क्या जानेंगे? मैं बेटी का बाप हूँ। ‘उनसे’ मैं भी सहमत नहीं हूँ। मुझे पक्का भरोसा था कि आज आप राजनीति खेलेंगे और ‘उनको और ‘उनकी’ बेटी को, चौराहे पर टाँग देंगे। लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। आज आपने ‘उनकी’ नहीं, तमाम बेटियों की और तमाम बेटियों के बापों की इज्जत बचा ली। मैं भगवान को नहीं मानता लेकिन आज मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि आपको लम्बी उम्र दे और आपके जरिए इसी तरह बेटियों की, बेटियों वालों की हिफाजत करता रहे। आज आपने मुझे अपना गुलाम बना लिया।’

मैं हक्का-बक्का रह गया। रमेश ने मेरा मन कब और कैसे पढ़ लिया? मैंने भी बिलकुल यही सोचा था - इस घटना का कोई सामाजिक महत्व तो है नहीं! इसे न छापने से मेरे अखबार को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन छापने से एक परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा पर खरोंच अवश्य आ जाएगी। यदि यह घटना ‘उनके’ परिवार में न हुई होती तो मेरे लिए इसके कोई मायने नहीं होते। किन्तु, चूँकि मैं ‘उनसे’ मर्माहत हूँ, उन्हें लेकर बदले की आग में जल रहा हूँ, इसीलिए इस घटना का महत्व है। इस मामले में तो मैं खुद एक पक्ष हूँ? भला, न्यायाधीश जैसी भूमिका कैसे निभा सकता हूँ?

अब अकेला रमेश नहीं रो रहा था। मैं भी उसके साथ रो रहा था। लेकिन यह रोना, अपनी आत्मा का कलुष धुल जाने, और (किन्हीं भी कारणों से) पत्रकारिता की छवि को कलुषित करने से बच जाने से उपजी प्रसन्नता का रोना था।

संयत होकर मैंने ‘उनके’ घर का नम्बर डायल किया। मेरा नाम सुनते ही, उधर से मुझे टालने की कोशिश की गई। मैंने कहा - ‘उनसे कहिए कि उनका सबसे बड़ा बेटा बात करना चाहता है।’ वे फोन पर आए। उनकी ‘हेलो’ सुनते ही मैंने कहा - ‘दादा! कुछ मत कहना। मैं जो कह रहा हूँ, चुपचाप सुन लेना। मुझे अपने परिवार का सबसे बड़ा बेटा समझना और मेरी ओर से निश्चिन्त रहना। मैं आपसे मिलना चाहूँगा लेकिन आपकी सेवा में तभी हाजिर होऊँगा जब आप बुलाएँगे।’ जवाब में मुझे जो ‘विलाप क्रन्दन’ सुनाई दिया, वह इस क्षण भी मेरे कानों में गूँज रहा है। वे कुछ नहीं बोल पा रहे थे। लगातार रोए जा रहे थे - धाड़ें मार-मार कर, बेटी का नाम ले-ले कर। मैं तो कुछ बोल ही नहीं रहा था। कुछ पलों के बाद किसी आवाज सुनाई दी। कोई उन्हें कह रहा था - ‘क्या कर रहे हो? वो अपना दुश्मन है। उसके सामने रोना अच्छा नहीं लगता। चुप हो जाओ।’ और ‘उन्हें’ समझाते हुए, दूसरी आवाजवाले व्यक्ति ने रिसीवर रख दिया।

अगले दिन, क्या हुआ, कैसे उन्होंने खुद मुझे फोन किया, तत्काल अपने घर बुलाया, क्या-क्या कहा - यह सब लिखने का कोई अर्थ नहीं। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि क्या हुआ होगा। ‘अपने हिय से जानियो, मेरे हिय की बात।’

लेकिन हाँ, यह सब लिखते हुए इस समय मुझे सचमुच में ताज्जुब हो रहा है कि मैं यह विवेक कैसे बरत पाया? उस समय मेरी उम्र 28 वर्ष थी। गरम खून और वह भी बदला लेने को उबलता हुआ! नफरत से लबालब! जब ‘बुद्धि’ उकसा रही हो - ‘ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। तुझसे पूछने वाला, सवाल-जवाब करनेवाला कोई नहीं। निपटा दे स्साले को।’ तब मैं कैसे संयमित रह पाया? थानवीजी का यह लेख पढ़ते हुए अब अनुभव हो रहा है कि अपने से बेहतर पत्रकारों की छाया में बैठने से, उन्हें काम करते हुए, ऐसे मामलों में उनकी बातें सुनते हुए, उनसे मिले संस्कारों का ही प्रभाव रहा होगा कि मैं कच्ची उम्र में समझदारी बरत पाया।   

कौन हेमन्त करकरे?


इस पोस्ट की विषय-वस्तु मुझे अभी-अभी फेस बुक से मिली है।

यह चेहरा किसी परिचय का प्रार्थी नहीं। 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई आतंकी हमले के अमर शहीद हेमन्त करकरे को न जानना, किसी आत्म-धिक्कार से कम नहीं है।

अमर शहीद हेमन्त करकरे ने एलआईसी और एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी से 25-25 लाख रुपयों की बीमा पॉलिसियाँ ले रखी थीं।

श्री करकरे की शहादत की खबर मिलते ही एलआईसी के लोग सक्रिय हुए और एलआईसी की दादर शाखा ने, करकरे की शहादत के पाँचवें दिन ही, बीमे की रकम, उनकी पत्नी को भुगतान कर दी।

इसके विपरीत, एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी की दादर शाखा ने दावा अस्वीकार कर, दावे की रकम भुगतान करने से इंकार कर दिया।

दावा खारिज करने के पीछे एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी ने कारण बताया कि श्री करकरे ने, खुद को बचाने के लिए अपेक्षित पर्याप्त सावधानी नहीं बरती। कम्पनी के अनुसार, श्री करकरे जानबूझकर उस इलाके में घुसे जहाँ गोलीबारी हो रही थी। वे जानते थे कि  ऐसा करने से उनकी जान जोखिम में आ जाएगी। फिर भी उन्होंने ऐसा किया। कम्पनी की नजर में यह अनुचित कृत्य था और इसीलिए कम्पनी ने दावा अस्वीकार कर, भुगतान करने से इंकार कर दिया।


प्रसंगवश उल्लेख है कि एलआईसी का दावा भुगतान प्रतिशत 98.6 है जो विश्व में सर्वाधिक है।

प्रसंगवश यही जिज्ञासा भी समानान्तर रूप से जागी कि राष्ट्र और शहीदों के नाम पर अपनी दुकानें चलानेवालो में से किसी का ध्यान इस ओर  अब तब नहीं गया। शायद जाएगा भी नहीं। क्योंकि ऐसे कामों के लिए तो केवल सरकार पर ही दबाव बनाया जा सकता है। किसी निजी बीमा कम्पनी पर भला किसी का क्या जोर!

इस मामले में हेमन्त करकरे के लिए बोलने की फुरसत अभी किसी को नहीं है।


स्पष्टीकरण भी और क्षमा-याचना भी

इस मामले में, एलआईसी से जुड़े एकाधिक मित्रों ने  मुझे व्यक्तिशः फोन कर  वही  बात  सूचित  की जो स्वप्न मंजूषाजी ने अपनी टिप्पणी में कही थी कि एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी ने, दावा  खारिज  करने के दो दिनों बाद दावा भुगतान कर दिया था।

इन मित्रों ने बताया कि इण्डियन एक्सप्रेस के, 12 फरवरी 2013 वाले अंक में इस बारे में विस्तृत समाचार प्रकाशित हुआ था जिसमें, एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी के अभिलेखों का सन्दर्भ देते हुए कहा गया था कि इस कम्पनी ने, दो दिनों बाद दावा भुगतान कर दिया था। इसी समाचार में, इस कम्पनी द्वारा, एलआईसी को मानहानि का नोटिस देने की बात भी कही गई थी।

जैसा कि टिप्पणियों में आप पाएँगे - स्वप्न मंजूषाजी की टिप्पणी मुझसे, गलती से डिलिट हो गई थी जिसे मैंने अपने मेल बॉक्स से लेकर, स्वप्न मंजूषाजी के नाम सहित, अपनी ओर से प्रकाशित किया था। इतना ही नहीं, टिप्पणी के गलती से डिलिट किए जाने की सूचना मैंने स्वप्न मंजूषाजी को देते हुए उनसे पूछा था कि डिलिट की गई टिप्पणियों को यदि पुनः प्राप्त किया जा सकता हो तो वैसा रास्ता बताएँ। प्रत्युत्तर में स्वप्न मंजूषाजी ने कृपापूर्वक अपनी टिप्पणी फिर से अंकित की जिसे टिप्पणियों में पढ़ा जा सकता है। 

इसी प्रकार श्री शिवम मिश्रा की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में की गई मेरी टिप्पणी भी मेरा आशय प्रकट करती है जिसमें मैंने अपनी चूक स्वीकार करते हुए उसके लिए समस्त सम्बन्धितों से बिना शर्त, सार्वजनिक क्षमा याचना की है।

मेरी इस पोस्ट का लक्ष्य, बीमा कम्पनियों का व्यवहार नहीं अपितु, करकरेजी के परिवार के प्रति सामाजिक व्यवहार के माध्यम से हमारे दोहरे आचरण को रेखांकित करना था। यह संयोग ही है कि मैं एलआईसी का एजेण्ट हूँ और मेरी इस पोस्ट से मेरी इस सम्बद्धता को जोड़ा जाना स्वाभाविक ही था।

मैं स्पष्ट कर रहा हूँ कि किसी भी बीमा कम्पनी के व्यवहार पर टिप्पणी करना, मेरा लक्ष्य बिलकुल भी नहीं था।

मेरी इस पोस्ट से यदि एचडीएफसी स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी के प्रबन्धन को, इससे जुड़े किसी भी महानुभाव को, इसके सहयोगियों/समर्थकों/शुभ-चिन्तकों को यदि किसी भी प्रकार से कोई भी असुविधा हुई हो, किसी अवमानना की अनुभूति हुई हो, कोई पीड़ा पहुँची हो या ऐसा ही और कुछ भी हुआ हो तो मैं समस्त सम्बन्धितों से, बिना शर्त, अपने अन्तर्मन से सार्वजनिक क्षमा याचना करता हूँ।

मेरी इस क्षमा-याचना के बाद भी यदि किसी को मेरी इस पोस्ट से कोई असुविधा हो तो कृपया सूचित करें ताकि मैं खुद को सुधार सकूँ। 

वीआईपी सुरक्षा : मन्त्री को लोगों की फटकार


मनुष्य क्या खोजता/चाहता है? शायद वही, जो उसके पास नहीं होता। मनुष्य की सारी चेष्टाओं और मानव मनोविज्ञान के मूल में यही अवधारणा होगी सम्भवतः। शायद इसी कारण लोग, कोई चालीस बरस पहले जिस बात की माँग किया करते थे, आज उसी से चिढ़ रहे हैं।

वीआईपी सुरक्षा को लेकर चारों ओर मचे हल्ले पर ध्यान गया तो यही बात मन में आई और उसके साथ ही साथ आ गई, कोई चालीस बरस पहले हुई घटना।

बात 1969 से 1972 के बीच की है। तब दादा, मध्य प्रदेश सरकार में राज्य मन्त्री थे। 1968 में मैंने बी.ए. कर लिया था। मैदानी पत्रकारिता कर रहा था। लेकिन पत्रकारिता से पेट भर पाना मुमकिन नहीं था। सो, काम-काज भी तलाश रहा था। इसी दौरान बस कण्डक्टरी का अस्थायी काम मिल गया था। चूँकि पत्रकारिता, नौकरी नहीं थी सो बड़े मजे से दोनों काम कर पा रहा था। लेकिन दादा जब भी मन्दसौर जिले के दौरे पर आते, मैं उनके साथ हो लेता। यह संस्मरण, दादा के राज्य मन्त्री बनने के शुरुआती समय का है।

दादा, मनासा विधान सभा क्षेत्र से चुन कर आए थे। सो, उनके दौरे, मनासा विधान सभा क्षेत्र में ही अधिक होते थे। वे जब भी दौरे पर आते, तब पुलिस और सरकारी अधिकारियों का अच्छा-खासा लवाजमा, पाँच-सात गाड़ियों में उनके साथ चलता था। गृह नगर में आते ही उन्हें डाक बंगले पर ले जाया जाता जहाँ उन्हें ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ दिया जाता। ये दोनों ही बातें मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं। आज भी नहीं लगतीं। सुरक्षा तथा प्रशासकीय सहायता के नाम पर साथ में बना हुआ पुलिस और प्रशासकीय अधिकारियों का अमला मुझे, जन-प्रतिनिधि और उसके मतदाताओं के बीच ऐसा अप्रिय व्यवधान लगता है जो कहीं न कहीं मतदाता और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी बढ़ाता है और अन्ततः सम्वादहीनता की स्थिति बना देता है। कल तक जो जन-प्रतिनिधि, ‘अपने लोगों’ से घिरा रहकर, उनके दुःख-सुख की बातें सुनता/करता था, पता ही नहीं चलता कि कब वह उन सबसे दूर हो कर सरकारी अमले का कैदी बन गया है और उस तक वे ही बातें पहुँच रही हैं जो सरकारी अमला पहुँचा रहा है। मेरा मानना रहा है कि अपने ही मतदाताओं के बीच किसी जन-प्रतिनिधि को भला सुरक्षा की आवश्यकता क्यों कर होनी चाहिए? इसी तरह, ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ को मैं अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की घिनौनी, परम्परा मानता हूँ। दरिद्रता और विपन्नता की हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि में तो ये दोनों बातें मुझे कभी भी हजम नहीं हुईं।

मुझे जब-जब भी मौका मिलता, अपनी ये दोनों बातें दादा के सामने रखता और आग्रह करता कि वे इन दोनों बातों से बचें। दादा हर बार मुझसे सहमत हुए लेकिन हर बार सूचित करते कि इस लवाजमे की माँग उन्होंने कभी नहीं की। ऐसे ही एक दौरे के समय मैं कुछ अधिक ही अड़ गया। मेरी बात का ‘मान’ रखते हुए उन्होंने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को बुलाया और कहा कि अब से वे न तो कहीं ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ लेंगे और न ही उनके साथ सरकारी लवाजमा जाएगा। दोनों अधिकारियों ने विनम्रतापूर्वक कहा कि ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ वाली बात तो ‘मन्त्रीजी की व्यक्तिगत इच्छा’ पर निर्भर रहती है इसलिए इस दादा की इस इच्छा का पालन तो तत्काल प्रभाव से किया जा रहा है किन्तु सरकारी अमले के मामले में उन्होंने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक यह कह कर क्षमा माँग ली कि इस मामले में वे ‘शासनादेश’ से बँधे हुए हैं। थोड़ी-बहुत खींचतान के बात तय हुआ कि, कुछ अधिकारी तो दादा के साथ रहेंगे ही रहेंगे किन्तु संख्या में इतने ही होंगे कि एक सरकारी गाड़ी में समा जाएँ। याने, दादा के दौरे में, सरकारी अमले के नाम पर अब कुल-जमा एक गाड़ी रहेगी। दादा ने मेरी ओर कुछ इस तरह से देखा मानो, मचले हुए किसी बच्चे को उसका मनचाहा खिलौना थमा कर पूछ रहे हों - ‘बस! अब तो खुश?’ मैंने विजयी भाव और मुख-मुद्रा में, इतरा कर सहमति में इस तरह मुण्डी हिलाई मानो उनसे सहमत होकर मैं उन्हें उपकृत कर रहा होऊँ।

लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसने मुझे मानो औंधे मुँह धरती पर पटक दिया। 

नई व्यवस्था के ठीक बाद वाले पहले दिन दादा जिस-जिस भी गाँव में गए, प्रत्येक गाँव में उन्हें उलाहने सुनने पड़े। बुजुर्गों ने अधिकारपूर्वक उन्हें डाँटा-डपटा, नसीहत दी तो हमउम्र और नौजवान कार्यकर्ताओं ने नाराजी तथा असन्तोष जताया। शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु मन्तव्य एक ही था - ‘यह आना भी कोई आना हुआ? कोई मन्त्री ऐसे आता है भला? आप तो वैसे ही आ गए जैसे कि चुनावों के दिनों में, वोट माँगने आते थे। अब तो आप उम्मीदवार नहीं हो। अब तो हमने आपको मन्त्री बनवा दिया है। आपको मन्त्री की तरह आना चाहिए। लोगों को लगना चाहिए कि उनके गाँव में मन्त्री आया है। मन्त्री के साथ दस-बीस अफसर, पुलिस के जवान और सरकारी जीपों का लाव-लश्कर हो, तभी लगता है कि गाँव में कोई मन्त्री आया है।’ अपने-अपने गाँव से ‘मन्त्रीजी’ को विदा करते हुए सबने मानो हिदायत दी - “आज आ गए सो आ गए। लेकिन आगे से, ऐसे ‘सूखे-सूखे’ मत आना। बाकी गाँवों की बात नहीं करते, बस! हमारे गाँव में ऐसे मत आना। आपको भले ही अपनी इज्जत की फिकर नहीं हो किन्तु ‘हमारा आदमी’ मन्त्री बना है। इसलिए ‘हमारी इज्जत की फिकर’ आपको करनी चाहिए।”

ऐसे प्रत्येक उलाहने, प्रत्येक नसीहत के समय दादा ने मेरी ओर देखा। उनकी नजरों में सवाल और उपहास नहीं, मेरे प्रति दया-ममता और ‘अपने लोगों’ के प्रति करुणा थी। लोगों का यह आग्रह उन्हें भावाकुल भी करता रहा। वे सब, उन्हें मन्त्री बनवानेवाले उनके तमाम मतदाता, दादा के सम्मान में अपना सम्मान देखना चाह रहे थे।

आज जब वीआईपी सुरक्षा को लेकर मचे बवाल को देखता/पढ़ता/सुनता हूँ तो मन अकुलाहट और व्याकुलता से भर आता है। हम कहाँ से चले थे और कहाँ आ गए हैं? जो लोग ‘अपने आदमी’ के आसपास के सरकारी लवाजमे और लाव-लश्कर में अपना महत्व अनुभव करते थे, वे ही लोग आज उसी ‘अपने आदमी’ को, ‘अपने जैसा’ देखना चाह रहे हैं।

लोगों की चाहत में इस बदलाव के कारण कहाँ हैं - लोगों में ही या लोगों के ‘अपने आदमी’ में आ गई मगरूरी में? 

राजा पछाड़ू विलक्षण भारतीय प्रतिभा


तय करना कठिन ही है कि भारतीयों की विलक्षण प्रतिभा के उदाहरण अधिक हैं या चुटकुले। किन्तु यदि कोई विषय विशेषज्ञ, अपनी बात की पुष्टि के लिए किसी ‘परिहासी लोक-कथा’ का सहारा ले तो बात पर विश्वास करने के लिए दिमाग पर जोर नहीं लगाना पड़ता। बात, हँसते-हँसते गले उतर जाती है। स्थिति का आनन्द तब और बढ़ जाता है जब प्रत्येक श्रोता, खुद को उस लोक-कथा के मुख्य कर्ता के रूप में देखने लगता है। तब, आनन्द के साथ-साथ आत्म-मुग्धता आदमी को विभोर कर देती है।

ऐसा ही, इसी 3 मार्च को हुआ। श्रोताओं को यह ‘आत्म-मुग्धतामय आनन्द’ करनेवाले थे, अग्रणी चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट श्री अतुल भेड़ा। वे वित्त वर्ष 2013-14 के लिए प्रस्तुत बजट का विश्लेषण कर रहे थे। भेड़ाजी का निष्कर्ष था कि लोगों से अधिकाधिक कर वसूली के लिए सरकार चाहे जितने फन्दे गूँथे ले, भारतीय करदाता, प्रत्येक फन्दे की काट फौरन ही तलाश लेता है और सरकार के मन्सूबों पर पानी फेर देता है।

अपनी बात को उन्होंने इस लोक-कथा के माध्यम से सुनाया, समझाया और समूचे श्रोता समुदाय को, हँसते-हँसते, सम्पूर्ण आत्मपरकता से सहमत कराया।

बात राजशाही के जमाने की है। अगले वर्ष की वित्तीय नीतियों की घोषण तब भी होती थी। एक बरस राजा ने किसानों पर कराधान की नीति घोषित की - फसल का, जमीन के अन्दरवाला हिस्सा किसान का और जमीन से ऊपरवाला हिस्सा राजा का। किसानों ने आपस में सलाह की और उस बरस सबने आलू बो दिए। किसान मालामाल और राजा हाथ मलते रह गया।

इस दुर्घटना से सबक लेकर राजा ने उसके अगले बरस घोषणा की - फसल का, जमीन के अन्दरवाला हिस्सा राजा का और जमीन से ऊपरवाला हिस्सा किसान का। किसानों ने फिर आपस में सलाह की और इस बरस उन्होंने तरबूज, लौकी, ज्वार, गेहूँ जैसी फसलें बो दीं। इस बार भी वैसा ही हुआ - किसान मालामाल और राजा हाथ मलते रह गया।

राजा को गुस्सा आ गया। उसे लगा, उसकी प्रजा ने दो-दो बार उसे मूर्ख बना दिया। वह प्रतिशोध की आग में जलने लगा। तीसरे बरस उसने बड़ी हुमक से घोषणा की - फसलों का, जमीन के अन्दरवाला और धरती के बाहर का, ऊपरवाला हिस्सा राजा का। केवल बीच का हिस्सा किसान का। किसानों ने इस बरस तनिक अधिक चिन्ता से आपस में सलाह की और राजा की बात का तोड़ निकाल लिया। सबने गन्ना बो दिया। राजा की दशा की कल्पना आसानी से की जा सकती है।

दिल-खोल-हँसी और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भेड़ाजी ने अपनी बात खत्म की। सबको बड़ा मजा आया। बाद में, भोजन करते हुए मैंने लोगों को कुरेदा तो पाया कि हममें से लगभग प्रत्येक ने मान लिया था कि उसी ने राजा को बेवकूफ बनाया था। 

राजशाही में, प्रजा में आज्ञाकारिता का भाव अधिक होता है। राजा की बात की अवहेलना करने का विचार भी शायद ही कोई कर पाता हो।

जब, राजा के राज में लोगों ने राजा को झक्कू टिाक दिया तो आज तो हम लोकतन्त्र में जी रहे हैं! आज हम ‘प्रजा’ नहीं, ‘नागरिक’ हैं। जब राजा की नहीं चली तो बेचारे, संसदीय लोकतन्त्र के किसी वित्त मन्त्री की क्या चलेगी? यहाँ तो लोगों की बात सुननी पड़ेगी। कराधान नीति निर्धारित करने में, राजा ने प्रजा से बात नहीं की तो हाथ मलना पड़े। लिहाजा, ‘नागरिकों’ की जेब से पैसा निकलवाने के मामले में ‘नागरिकों’ से बात करनी ही पड़ेगी। 

लगे हाथ भेड़ाजी के बारे में दो-एक बातें। वे मुम्बई से हैं। गए 27 बरसों से सी. ए. के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। वर्ष 2007 से वे, भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान (आईसीएआई) की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य बने हुए हैं। ‘सेबी’ ओर भारतीय रिजर्व बैंक की अनेक समितियों के संचालक मण्डल के सदस्य रहे हैं और कर विशेषज्ञ के रूप में ‘सीएनबीसी आवाज’ पर लोगों की जिज्ञासा का ‘ऑन-लाइन’ समाधान करते दिखाई देते हैं।  

देख लेना अदृष्यप्रायः रेखा को


यह मेरे लिए अनायास, अनपेक्षित, अतिरिक्त प्राप्ति थी। बिलकुल किसी ‘विस्मय उपहार’ (सरप्राइज गिफ्ट) की तरह। इसका माध्यम बने श्री मनोज फड़नीस। यह अलग बात है कि वे खुद नहीं जानते होंगे कि उनके माध्यम से मुझे यह उपहार मिला।


रतलाम के चार्टर्ड अकाउण्टेण्टों और कर सलाहकारों के दोनों संगठन प्रति वर्ष, केन्द्रीय और प्रान्तीय बजटों के विश्लेषण-व्याख्यान आयोजित करते हैं। देश-प्रदेश के ख्यात, स्थापित और विशेषज्ञ चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट तथा कर सलाहकार यह विश्लेषण करते हैं। ऐसे व्याख्यान मेरे बीमा व्यवसाय में सहायक होते हैं। इन संगठनों के अज्ञात कृपालुओं का यह अनुग्रह ही है कि मुझे प्रति वर्ष इस आयोजन का निमन्त्रण मिलता है। यह निमन्त्रण न मिलता तो भी मैं जाता ही जाता - सचमुच में ‘अनामन्त्रित-अतिथि’ बन कर। इस बार यह आयोजन इसी 03 मार्च, रविवार को आयोजित था। मुम्बई से श्री अतुल भेड़ा तथा इन्दौर से श्री मनोज फड़नीस और श्री शैलेन्द्र पोरवाल विषय-विशेषज्ञ-वक्ता थे। अतुलजी और मनोजजी केन्द्रीय बजट पर बोले और शैलेन्द्रजी प्रान्तीय बजट पर। शैलेन्द्रजी का, ‘वेट’ में यथेष्ठ हस्तक्षेप और अधिकार है।

मनोजजी के उद्बोधन ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। सधे हुए, गम्भीर स्वर में उनका उद्बोधन, ‘धारा के प्रतिकूल’ था। अखबार हों या समाचार चैनल, चारों ओर केन्द्रीय बजट की आलोचना तथा वित्त मन्त्री चिदम्बरम और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह की खिंचाई जमकर हो रही है। चिदम्बरम और मनमोहन सिंह की तो खिल्ली भी उड़ाई जा रही है। अतुलजी ने भी जब-जब मौका मिला, दोनों को बारीक चिकोटियाँ काटीं और तीखी व्यंग्योक्तियाँ कीं। श्रोताओं को खूब आनन्द आया। किन्तु मनोजजी का व्याख्यान एकदम दूसरे छोर पर था। उन्होंने कहा कि चिदम्बरम के इस बजट में न तो राजनीतिक चिन्ता की गई, न चुनाव को ध्यान में रखा गया। इससे परे हटकर यह बजट देश की मौजूदा आर्थिक दशा और राजकोषीय घाटे की चिन्ता पर केन्द्रित है। उन्होंने कम से कम तीन बार कहा कि यह बजट बहुत अच्छा है, इसके अनुकूल प्रभाव धीरे-धीरे अनुभव होने लगेंगे और हम सबने इसका स्वागत करना चाहिए।

केन्द्रीय बजट को लेकर ऐसी प्रतिक्रिया मैंने पहली बार सुनी थी। मेरे लिए यह प्रतिक्रिया ‘धारा के प्रतिकूल’ थी, जैसा कि मैंने पहले कहा है।

किन्तु मनोजजी ने केवल प्रशंसा नहीं की। उन्होंने बजट के कुछ प्रावधानों को अपर्याप्त और अधूरा भी बताया। मनोजजी की जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा वह थी - उन्होंने ने तो प्रशंसा में अतिरेक बरता और न ही उसकी अपर्याप्तता, अधूरापन बताने में। एकदम सन्तुलित। इतना कि उनके उद्बोधन के बीच एक बार भी तालियाँ नहीं बजीं।

मैं खुद को रोक नहीं पाया। कार्यक्रम के बाद, भोजन से पहले उनसे ‘सोद्देश्य’ मिला और दो बातें पूछीं। पहली तो यह कि बजट को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा है, उससे वे खुद से भी सहमत हैं? अकेले में भी उस सब पर कायम हैं? और दूसरी यह कि उन्होंने चिदम्बरम और मनमोहन सिंह पर छींटाकशी क्यों नहीं की?

उन्होंने दोनों ही बातों का जवाब ‘तत्क्षण’ दिया। बिना सोचे। अंग्रेजी में जिसे ‘विदाउट थॉट’ कहते हैं, उसी तरह। उन्होंने कहा कि बजट को लेकर कही अपनी प्रत्येक बात पर वे, खुद के सामने अपनी व्यावसायिक निष्ठा सहित कायम हैं। उन्होंने परिहास किया - ‘लोग तो अकेले में कही बात पर दृढ़ता दिखाने के लिए, उस बात को सार्वजनिक रूप से कहने का आग्रह करते हैं और आप हैं कि सार्वजनिक रूप से कही बात के प्रति, एकान्तिक निष्ठा की पुष्टि चाह रहे हैं?’

मेरी दूसरी बात के जवाब में मनोजजी ने जो कहा, वही मेरे लिए ‘अनायास, अनपेक्षित, अतिरिक्त प्राप्ति’ और ‘विस्मय उपहार’ (सरप्राइज गिफ्ट) थी। उन्होंने कहा कि वे समीक्षक हैं, टिप्पणीकार नहीं। समीक्षक सदैव ‘वस्तुपरक भाव’ से बात करता है। जो अच्छा है, उसे अच्छा बताता है। जो अच्छा नहीं है, उसे अच्छा नहीं बताता है। जो अपर्याप्त, अधूरा है उसे अपर्याप्त, अधूरा बताता है। वह यह नहीं कहता कि यह ‘अच्छा’, ‘अच्छे’ के रूप में और ‘अपर्याप्तता तथा अधूरापन’ इनके इस स्वरूप में ‘क्यों’ रखे गए। समीक्षक का काम केवल यह सब बताने भर का है, इन सबके होने के पीछे कारण जानने और बताने का नहीं। 

मनोजजी की इस बात ने मुझे विचार में डाल दिया। तनिक सोचा तो अनुभव हुआ कि टिप्पणीकार और समीक्षक में यही अन्तर होता है - समीक्षक वस्तुपरक भाव से बात करता है और टिप्पणीकार, आत्मपरक भाव से। इसीलिए टिप्पणियों में प्रशंसा और/या आलोचना, अतिरेक की सीमा स्पर्श कर जाती है और व्यक्तिगतता में अनायास ही प्रवेश कर लिया जाता है।

चीजों को देखने और उन पर अपनी बात कहने को लेकर मुझे मनोजजी ने सर्वथा नई दृष्टि दी। मुमकिन है, अधिकांश लोगों को यह फर्क पता हो किन्तु इस ‘अदृष्यप्रायः’ विभाजन रेखा को मैंने तो पहली ही बार देखा। यह सूत्र मेरे बड़े काम आएगा और मुझे अकारण विवाद स तोे बचाएगा ही, लोगों के बीच मुझे अतिरिक्त रूप से समझदार भी कहलवाएगा। यह सूत्र व्यक्ति के आयतन में भले ही बढ़ोतरी नहीं करे, व्यक्ति के घनत्व में अवश्य बढ़ोतरी करेगा। मैं मनोजजी के प्रति हार्दिक आभार, विनम्र कृतज्ञता प्रकट करता हूँ और उन्हें धन्यवाद देता हूँ।

लगे हाथ, मनोजजी के बारे में दो-एक जरूरी बातें। वे इन्दौरी हैं। बी. कॉम. इन्दौर से ही किया और जनवरी 1987 में चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बने। उनके परिचय में कम से कम दो पन्ने आसानी से भरे जा सकते हैं। मुझे जो दो-तीन बातें उल्लेखनीय लग रहीं वे हैं - वे पाँचवीं बार भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य के रूप में चयनित किए गए हैं। वे, एसोचेम (एसोसिएटेड चेम्बर्स ऑफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री इन इण्डिया) की, वित्त एवम् बैंकिंग सेवाओं की विशेषज्ञ समिति में नामित किए जा चुके हैं और वर्तमान में, केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टेक्सेस) को सुझाव देने के लिए गठित, भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान् की प्रत्यक्ष कर समिति के चेयरमेन हैं।

अच्छा है पर अच्छा नहीं लगता


यह रोचक भी है और विरोधाभासी भी।

गए कोई दो बरस पहले मैंने एक निर्णय लिया था - जहाँ कहीं, किसी आयोजन/कार्यक्रम में अतिथि (मुख्य/विशेष), अध्यक्ष, निर्णायक आदि के रूप में बुलाया जाऊँगा वहाँ, स्वागत के नाम पर न तो माला पहनूँगा, न ही गुलदस्ता (बुके) स्वीकार करूँगा। गुलाब का (या और कोई) फूल स्वीकार नहीं करूँगा और न ही किसी भी प्रकार का कोई स्मृति-चिह्न ही स्वीकार करूँगा। शॉल-श्रीफल भी इस अस्वीकार में शरीक रहेगा।

इसके पीछे मेरा प्रकृति-प्रेम या वैराग्य-भाव कहीं नहीं है। फूल/हार से स्वागत को लेकर मुझे बरसों से लगता रहा है कि यह क्रूर अपव्यय से अधिक कुछ नहीं है। अतिथि के गले में डालने के फौरन बाद ही मालाएँ टेबल पर धर दी जाती हैं। बहुत हुआ तो मालाएँ अतिथि की कार पर डाल दी जाती हैं। किन्तु उनका अन्तिम स्थान अन्ततः कूड़ादान ही होता है। गुलदस्ते (बुके) एक-दो दिन घर की शोभा बढ़ाते होंगे लेकिन वे भी पहुँचते कूड़े में ही। यही स्थिति एकल फूल की भी होती है। माला हो या गुलदस्ता (बुके) हो या फूल, सब अच्छे-खासे मँहगे होते हैं। गुलाब का एक फूल भी (मेरे कस्बे में) अब तो पाँच रुपयों से कम में नहीं मिल रहा। गुलदस्ते तो मँहगे होते ही हैं किन्तु मैंने देखा है कि विशेष रूप से बनवाए हार उनसे भी मँहगे होते हैं। स्वागत के नाम पर मुझे यह अनावश्यक और निरर्थक प्रदर्शन ही लगता है और जब इस प्रदर्शन में प्रतियोगिता-भाव जुड़ जाता है तो स्थिति ‘कोढ़ में खाज’ जैसी हो जाती है।

एक और कारण इसके पीछे है। ‘पुष्प हारों से स्वागत’ के नाम पर काफी समय बर्बाद हो जाता है। कभी-कभी तो यह ‘स्वागत श्रृंखला’ इतनी लम्बी और उबाऊ हो जाती है कि कार्यक्रम शुरु होने से पहले ही श्रोता समुदाय ‘भुनभुनाने’ लगता है। ऐसे समय कार्यक्रम के प्रति उनके मन में उपजी वितृष्णा उनके चेहरों पर आसानी से देखी/पढ़ी जा सकती है।

स्मृति चिह्न और शॉल-श्रीफल अस्वीकार करने का कारण नितान्त व्यक्तिगत सुविधा है। मैं अपने 66वें वर्ष में चल रहा हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध 57वें वर्ष में। ‘बच्चों के सम्बन्ध के लिए लोग आएँगे तो क्या सोचेंगे’ की पारम्परिक चिन्ता के अधीन उत्तमार्द्धजी ने, मेरे मना करने के बाद भी, आवश्यकता से कहीं अधिक बड़ा मकान बनवा लिया। उसी अनुपात में घर का सामान भी बसा लिया। बड़े बेटे का विवाह हो गया। नौकरी के कारण वह बाहर रहता है। कभी-कभार आता है तो मेहमान की तरह - आया बाद में, लौटा पहले। छोटा बेटा भी बी. ई. करने के बाद नौकरी कर रहा है। उसका विवाह नहीं हुआ लेकिन आने के नाम पर वह तो अपने बड़े भाई का बड़ा भाई बना हुआ है। बड़ा बेटा तीन बार आता है तो छोटा बेटा एक बार। ऐसे में, मकान की और सामान की देख-भाल करना अपने आप में सबसे बड़ा और सबसे कठिन काम हो गया है। केवल उम्र का प्रभाव ही नहीं, मोटापे के कारण भी हम दोनों अपेक्षित शारीरिक श्रम नहीं कर पाते। ऐसे में, स्मृति-चिह्न और शॉल-श्रीफल लाना याने ‘एक तो मियाँ बावरे, ऊपर से पी ली भाँग’ वाली स्थिति बना लेना। शॉलें बाँटो भी तो कितनी बाँटो और किसे बाँटो? हमारे आस-पासवाले पहले ही ‘शॉलवान’ हो चुके हैं। इसीलिए मैंने ये दो निर्णय लिए।

ये निर्णय ही रोचक और विरोधाभासी स्थितियाँ बनाते रहते हैं। 

अब होता यह है कि जब भी मुझे ऐसा कोई न्यौता मिलता है जो मुझे स्वीकार करने जैसा लगता है तो पहले मैं अपने ये दोनों निर्णय सूचित करता हूँ। हर बार ऐसा हुआ कि मेरी बात पर किसी ने भी पहली बार विश्वास ही नहीं किया। ‘हाँ! हाँ! तब की तब देखी जाएगी’ वाला जवाब मिलता है। मैं अपनी बात दुहराता हूँ और कहता हूँ - ‘आप इसे मेरी विनम्रता या शालीनता मत समझिएगा। यदि आपने स्वागत के लिए जोर आजमाइश की तो मैं तत्क्षण ही चला आऊँगा।’ मेरी इस चेतावनी पर उनके कान खड़े होते हैं। कहते हैं - ‘लेकिन बाकी अतिथियों को असुविधा होगी।’ मैं कहता हूँ - ‘आप यदि मुझे बुला रहे हैं तो सबसे पहले आप मेरी सुविधा की चिन्ता कीजिए। यदि आपको मेरी चिन्ता नहीं है तो फिर मेरी जगह खुद को रख कर बताइए कि मैं आपके यहाँ क्यों आऊँ?’ उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यही स्थिति स्मृति-चिह्न और शॉल श्रीफल को लेकर होती है। अन्ततः वे मेरी बात मान जाते हैं।

मेरे इन निर्णयों के कारण, कई आयोजनों में मंचासीन अतिथियों को भी असुविधा हुई। कुछ-एक ने मुझे टोका भी। मैंने यथासम्भव विनम्रता बरतते हुए कहा - ‘मेरे साथ क्या व्यवहार किया जाए, यह तय करने की सुविधा और अधिकार मुझे देने की कृपा करें।’ स्मृति-चिह्न को लेकर तो मुझे कई बार बड़ा मजा आया। संसाधन सम्पन्न आयोजकों ने परोक्षतः सूचित कर मुझ ललचाया/उकसाया - ‘हमार बजट अच्छा-खासा है और स्मृति-चिह्न भी उसी के मुतािबक है।’ कुछ आयोजनों में सह-अतिथियों ने भी इसी तरह ‘समझाया।’ हर बार मैंने परिहास किया - “बैरागी को बैरागी ही बना रहने दीजिए। वैसे भी जिस उम्र में आ गया हूँ उसमें अब मुझे ‘संग्रह’ से विरक्त होकर ‘विसर्जन’ पर ध्यान देना चाहिए।” उन सबकी बड़ी कृपा यही रही कि मुझे मेरे निर्णय पर अमल करने में उदारतापूर्वक सहयोग किया।

किन्तु, एक अकल्पनीय पक्ष भी सामने आया। मेरे इस निर्णय से, आयोजकों को भी कोई राहत मिल सकती है - यह मैंने बिलकुल नहीं सोचा था। कम से कम तीन आयोजक संस्थाओं के अध्यक्षों ने, मेरे इस निर्णय की न केवल प्रशंसा की अपिुत इसके लिए मुझे धन्यवाद दिया, मेरे प्रति आभार प्रकट किया। तीनों की बातों का सार यह रहा कि संस्थाओं की कार्यकारिणी या संचालक मण्डल के सदस्यों में मंच पर जाने की होड़ रहती है। हर कोई मंच पर आकर, अतिथि को माला पहनाते हुए फोटू खिंचवाना चाहता है। कभी, किसी को बुलाना रह गया तो कार्यक्रम समाप्ति से पहले ही एक ‘समानान्तर कार्यक्रम’ शुरु हो जाता है। एक संस्था के अध्यक्ष ने तो रुँधे कण्ठ से धन्यवाद दिया - ‘आप नहीं जानते, आपने कितनी बड़ी आफत से मुझे बचा दिया।’ उनकी संस्था की कार्यकारिणी में 27 सदस्य हैं। प्रत्येक आयोजन में ये सबके सब मालाएँ पहनाते हैं, फोटू खिंचवाते हैं। ऐसे फोटुओं के दो-दो सेट बनवाने पड़ते हैं। एक सेट संस्था के रेकार्ड में रहता है और दूसरे सेट के फोटू की एक-एक प्रति सम्बन्धित सदस्य को पहुँचानी पड़ती है। 

मेरे इस निर्णय की प्रशंसा तो सब करते हैं किन्तु कहते हैं - ‘फैसला तो आपका बहुत अच्छा है लेकिन बाकी सबका स्वागत करें और आपका नहीं करें, बाकी सबको स्मृति-चिह्न दें और आपको नहीं दें, यह अच्छा नहीं लगता।’ मैं कहता हूँ - ‘आप अपने कार्यक्रम को अच्छा बनाने के जिए मुझे बुलाते हैं। मैं आ गया। आपका कार्यक्रम अच्छा हो गया। अब आप मेरे अच्छा लगने की फिकर करें ताकि मैं भी कह सकूँ कि आपके यहाँ आकर मुझे अच्छा लगा।’

यह ऐसा ‘अच्छा’ है जिससे वे सहमत होते हैं, जिसकी प्रशंसा करते हैं, जिससे उन्हें राहत मिलती है, जिससे उन्हें ‘बड़ी आफत से मुक्ति’ मिलती है, कहते हैं कि सबने ऐसा ही करना चाहिए पर जिस पर अमल करना उन्हें ‘अच्छा’ नहीं लगता। 

हिन्दी के हत्यारे




मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान समझ रहे होंगे कि वे मध्य प्रदेश को स्वर्णिम मध्य प्रदेश बना रहे हैं। लेकिन यह चित्र कह रहा है कि वे फौरन ही मध्‍य प्रदेश  को छोड दें -  वे केंसर बन गए हैं। केंसर ही नहीं, ‘अनुपम केंसर’ बन गए हैं। अब भला कोई रोग,  किसी व्‍यक्ति या प्रदेश को कैसे निरोग कर/रख सकता है? लिहाजा, शिवराज यदि सचमुच में मध्‍य प्रदेश का भला चाहते हैं, सचमुच में चाहते हैं कि मध्‍य प्रदेश स्‍वर्णिम बने तो महरबानी करें और मध्‍य प्रदेश का पिण्‍ड छोड दें। मध्‍य पद्रेश बचा  रहेगा तो तब ही तो स्‍वर्णिम बन सकेगा?

समाचार में नजर आ रहा समाचार शीर्षक, वस्तुतः एक समाचार शीर्षक का पहला, आधा हिस्सा है। पूरा शीर्षक था - ‘मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह नवोदय केंसर हास्पिटल का उद्घाटन करेंगे।’ किन्तु चैनल ने अपनी सुविधानुसार इसे दो हिस्सों में बाँट दिया और शिवराज सिंह चौहान को ही ‘अनुपम केंसर’ बना दिया।

सोमवार, 04 मार्च की पूर्वाह्न साढ़े ग्यारह बजे से 05 मार्च मंगलवार की शाम तक, तैतीस लोगों को मैंने यह चित्र दिखाया। किसी को रास्ते चलते रोक कर, किसी के पास खुद पहुँच कर और किसी को, यूँ ही बैठे हुए। अधिकांश तो समझ ही नहीं पाए कि यह चित्र मैं उन्हें क्यों दिखा रहा हूँ। सबने उड़ती नजर से देखा और देख कर रह गए। सात लोगों ने सीधे-सीधे पूछा - ‘आप कहना क्या चाहते हैं?’ कुल दो ने अचरज जताया - ‘यह तो बड़ी गम्भीर बात है!’

यह चित्र, मैंने, (04 मार्च को) ई टीवी मध्य प्रदेश समाचार चैनल से लिया है-जैसा कि चित्र में नजर आ रहा है, पूर्वाह्न दस बजकर चौदह मिनिट पर। कम से कम पाँच बार तो मैंने इसे देखा ही। 

भाषा के प्रति हमारी असावधानी और गैरजिम्मेदारी का यह एक छोटा सा उदाहरण है। हिन्दी के साथ हम, कितनी सहजता से अत्याचार किए जा रहे हैं, उसका नमूना है यह।

सारे हिन्दी अखबार और समाचार चैनल यह दुष्कृत्य किए जा रहे हैं। इनमें से किसी को भी, एक क्षण भर को भी अपने इस दुष्कृत्य के प्रति सजग या चिन्तित नहीं देखा।

ये सबके सब हिन्दी के अखबार और चैनल हैं। हिन्दी से अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। हिन्दी से रोटी, पैसा, प्रतिष्ठा, पहचान और हैसियत हासिल कर रहे हैं। अपनी-अपनी टीआरपी और प्रसार संख्या की चिन्ता सबको है। चिन्ता नहीं है तो बस, हिन्दी की नहीं है। न तो इसकी अस्मिता की चिन्ता, न व्याकरण की, न वाक्य रचना की, न ही वर्तनी की शुद्धता की।

कठिनाई यह है कि चैनल घर-घर में खुलता/चलता है - एक ही समय पर, एक साथ। अखबार घर-घर में पड़े रहते हैं और पढ़े जाते हैं - पूरे दिन भर, अपनी-अपनी सुविधा से। याने, बाढ़ कहें या स्खलन, एक साथ आ रहा है। रोज आ रहा है। जैसे-जैसे आ रहा है, वैसे-वैसे स्थिति गम्भीर होती जा रही है और वैसे-वैसे ही, मरम्मत या सुधार की आवश्यकता भी दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। किन्तु ध्वंस तो एक क्षण, एक ही समय में, बहुत बड़े क्षेत्रफल में हो जाता लेकिन मरम्मत में समय लगता है और ध्वंस की तरह मरम्मत, प्रभावित क्षेत्रफल में एक साथ न तो की जा सकती है और न ही हो पाती है। मरम्मत/सुधार एक-एक घर में करना पड़ता है और वह धीरे-धीरे होता है। इसके लिए आवश्यक समय, श्रम, संसाधन और धैर्य किसके पास?

इसी चैनल पर, बीबीसी से लिए गए समाचार भी देखने को मिलते हैं। उन समाचारों की हिन्दी सचमुच में हिन्दी होती है। अंग्रेजी के शब्द उसमें अपवादस्वरूप ही प्रयुक्त किए जाते हैं। क्या रोचक विरोधाभास है कि अंग्रेजी की जमीन से आनेवाले समाचारों में हिन्दी का ध्यान रखा जाता है और हिन्दी की जमीन से प्रसारित किए जा रहे समाचारों में जानबूझकर अंग्रेजी की घालमेल की जाती है - मानो ये सब अंग्रेजी के चैनल हों जिनके लिए हिन्दी कोई परदेसी, अपरिचित भाषा हो।

हिन्दी इन सबको पाल रही है और ये सबके सब मिलकर हिन्दी को मार रहे हैं।

मैथिलीशरणजी गुप्त ने ठीक ही कहा था - पूत, कपूत हो सकता है। माता, कुमाता नहीं होती।

‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ याने पेण्ट-शर्ट के भाव में सफारी


नकली दाँतों की जबानी सुनी मुनाफे की असलियत का मजा अपनी जगह रह गया और ‘यदि आदमी थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अपनी अकल लगा ले तो मुनाफाखोरी से बच सकता है’ सुनकर उपजी जिज्ञासा मन पर हावी हो गई। झटपट चाय खतम की और कहा - ‘जरा, फटाफट बताइए तो कि यह थोड़ी सी अकल लगाने वाली बात क्या है?’ यादवजी बोले - “सुनाता हूँ। आपको सुनने में मजा आ रहा है तो मुझे भी सुनाने में मजा आ रहा है। जानता हूँ कि ये किस्से आप लिखेंगे ही लिखेंगे। बस! इतना ध्यान रखिएगा कि मेरी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ से हताहत हुए पात्र का असली नाम उजागर नहीं करेंगे।”
                                                                                       
मैंने कहा - ‘वादा रहा। पक्का वादा। भरोसा रखिए।’

‘तो फिर सुनिए।’ कह कर यादवजी शुरु हो गए -

“बात कोई चालीस बरस पहले की है। 1971-72 के जमाने की। ‘सफारी’ फैशन में आई-आई ही थी। आते ही इसने धूम मचा दी थी। पेण्ट-शर्ट मानो पिछड़ेपन की निशानी बन गए थे। कपड़ों की दुकान छोटी हो या बड़ी, सब जगह सूटिंग क्लॉथ का कब्जा हो गया था। घर के बाहर चबूतरे पर सिलाई मशीन लेकर बैठनेवाले हमारे छगन से लेकर ‘रतलाम के एक मात्र शो रूम’ में बैठने वाले याकूब टेलर मास्टर तक, सब के सब मानो ‘सफारी-सेवक’ बन कर रह गए थे। किसी को सर उठाने की फुरसत नहीं। काम इतना कि सारे के सारे टेलर ‘झूठे-बलमा’ साबित होने लगे। एक भी माई का लाल ऐसा नहीं रहा जिसने, जिस दिन का वादा किया, उस दिन सफारी तैयार करके ग्राहक को दे दी हो। 

“उधर, सफारी कुछ इस तरह सर पर सवार हुई कि जिसे देखो, या तो सफारी में सजा हुआ चला आ रहा है या फिर सफारी का कपड़ा बगल में दबाए, दर्जी की दुकान की ओर भागा जा रहा है - कुछ इस तरह कि उससे पहले किसी और का नम्बर नहीं लग जाए। दर्जियों की बन आई थी। जो दुकानदार, आसपास के दुकानदारों से नजर बचाकर, दस दुकान आगे जाकर अकेला, चुपचाप चाय पीने जाया करता था, अब अपने ग्राहकों को जबरन चाय पिला रहा था। जो कभी थर्ड क्लास से आगे नहीं बढ़ा, वह फर्स्ट क्लास में सफर करने का हौसला करने लगा था। सफारी सिलाई के भाव, पेण्ट-शर्ट की सिलाई के मुकाबले एकदम दुगुने। अब, उस समय के भाव तो बराबर याद नहीं आ रहे पर आप मान लो कि पेण्ट-शर्ट की सिलाई सौ रुपये (पेण्ट की सिलाई साठ और शर्ट की सिलाई चालीस रुपये) तो सफारी की सिलाई दो सौ रुपये।

“मेरी हालत उस समय यूँ तो ठीक-ठीक ही थी किन्तु तब भी मुझे सफारी, अपनी चादर से बाहर लगती थी। लेकिन सफारी के आकर्षण से मैं खुद को नहीं बचा पाया। अपनी आत्मा की आवाज अनसुनी कर, जी कड़ा कर सफारी का कपड़ा खरीद ही लिया। कपड़ा भी ऐसा-वैसा चालू किसम का नहीं, मॉडेला सूटिंग का।

“अपनी हैसियत से आगे जाकर मँहगा कपड़ा तो मैंने खरीद लिया किन्तु सिलाई के दो सौ रुपये देने की न तो हिम्मत थी और न ही इच्छा। लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि कपड़ा खरीद लो और सफारी नहीं सिलवाओ! तो, अब मुझे सफारी सिलवानी थी और दो सौ रुपयों में नहीं सिलवानी थी। यहीं मैंने अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाई।  

“एक सावधानी मैंने यह बरती  कि सफारी का कपड़ा ‘वन पीस’ नहीं कटवाया। दुकानदार से कह कर दो टुकड़ों में लिया। एक टुकड़ा पेण्ट के लिए और दूसरा शर्ट के लिए।

“एक शाम मैं ‘पेण्ट पीस’ लेकर परशुराम की दुकान पर पहुँचा। आप उसे और उसकी दुकान को जानते हो। दो बत्ती पर ही उसकी दुकान है। रतलाम के बड़े लोगों के और सरकारी अफसरों के कपड़े उसी के यहाँ सिलते थे। इस बात का उसे बड़ा ठसका रहता था। सीधे मुँह बात नहीं करता था। मेरा दोस्त तो नहीं था लेकिन उससे अच्छा-भला मिलना-जुलना था। मैंने उसे कपड़ा दिया और कहा - ‘एक पेण्ट बनवानी है। थोड़ी जल्दी चाहिए।’ पता नहीं कैसे उसने मेरा लिहाज कर लिया। बोला - ‘सिल तो दूँगा लेकिन थोड़ा वक्त लगेगा। देख ही रहे हो कि सफारियों का ढेर लगा है।’ मैंने कहा - ‘खींच-तान कर थोड़ा वक्त निकाल ले और पेण्ट सिल दे भैया!’ शायद मेरी तकदीर अच्छी थी। बोला - ‘ला! कपड़ा दे।’ कपड़ा हाथ में लेते ही बोला - ‘मॉडेला सूटिंग? क्या बात है यार! उसने कपड़ा नापा। फिर मेरा नाप लिया और बोला - ‘अच्छा। तीन दिन बाद आ जाना।’ मैंने पूछा - ‘कितने रुपये लेकर आऊँ?’ उसने, दुकान की दीवार पर टँगी रेट लिस्ट की ओर इशारा किया और बोला - ‘लिखा तो है! साठ रुपये।’ मैंने कहा - ‘एडवांस दूँ?’ परशुराम हँस दिया। बोला - ‘तुझ से क्या एडवांस लेना। हाँ, जब आए तो भुगतान लेकर जरूर आना।’

“तीन दिनों बाद मैं पहुँचा। मुझे ताज्जुब हुआ यह देखकर कि मेरी पेण्ट तैयार थी। मैंने साठ रुपये दिए। अपनी पेण्ट ली। उसकी घड़ी खोलकर, हवा में लहराकर देखी। तबीयत खुश हो गई। परशुराम की सिलाई की बात ही न्यारी थी! परशुराम को धन्यवाद देकर मैं घर चला आया। 

“कोई तीन सप्ताह बाद मैं फिर परशुराम की दुकान पर पहुँचा - अपना शर्ट पीस लेकर। कहा - ‘फिर तकलीफ देने आया हूँ। शर्ट सिलवानी है।’ इस बार फिर उसने दरियादिली दिखाई। सहजता से कपड़ा लिया। उसे नापा। मेरा नाप लिया और बोला - ‘इस बार थोड़ा वक्त लगेगा। हफ्ते भर बाद आना।’ मैंने कहा - ‘ठीक है। लेकिन एक रिक्वेस्ट है। शर्ट में दोनों ओर जेब लगा देना।’ मेरी बात सुनकर उसने एक बार फिर कपड़ा नापा और दो जेबवाली बात रजिस्टर में लिखते हुए बोला - ‘लगा दूँगा।’ इस बार मैंने ‘कितने रुपये लेकर आऊँ?’ वाला सवाल नहीं पूछा। चला आया।

आठवें दिन उसकी दुकान पर पहुँचा तो देख कि मेरी शर्ट तैयार ही नहीं थी, दो जेब लगाने के अलावा, मेरी उम्मीद से आगे बढ़कर उसने सफारी शर्ट वाली कुछ डिजाइनिंग भी कर दी थी। मेरी बाँछें खिल गईं किन्तु मैं सामान्य ही बना रहा।

“चालीस रुपये चुका कर मैंने शर्ट लेने के लिए हाथ बढ़ाया। परशुराम ने मेरी ओर शर्ट बढ़ाई और अचानक ही चिहुँक गया। शर्ट थामे उसका हाथ जैसे हवा में ही टँगा रहा गया। कभी शर्ट को तो कभी मुझे देखते हुए बोला - ‘तू तो बड़ा उस्ताद निकला रे यादव! मैं सारी दुनिया को झक्कू टिका रहा हूँ और तेने तो मुझे ही झक्कू टिका दिया! तेने तो आधे दाम में सफारी सिलवा ली!’ मैंने सामान्य और सहज बने रहते हुए कहा - ‘ऐसी तो कोई बात नहीं भैया। पहले पेण्ट बनवाई थी। अब पैसे आ गए तो शर्ट भी बनवा ली।’ मेरे हाथ में शर्ट थमाते हुए परशुराम बोला - ‘ले! पहले तो अपनी शर्ट पकड़। बैठ।  ईमान से बता, सच्ची में तेने मुझे बेवकूफ नहीं बनाया?’ बात ईमान की थी और वह भी चालीस बरस पहले के जमाने में! मैं झूठ नहीं बोल सका। कहा - ‘हाँ। यह सब मैंने जानबूझकर, सोच-समझकर ही किया। सफारी के नाम पर पेण्ट शर्ट की सिलाई के दो सौ रुपये देना मुझे गवारा नहीं हुआ। इसीलिए यह सब किया।’ परशुराम जस का तस बना रहा। न तो गुस्सा हुआ और न ही नाराज। थोड़ी देर मुझे घूरता रहा। फिर हँस दिया। बोला - ‘ तू बहुत शाणा (सयाना) है। अकलमन्द भी और चालाक भी। आज तेने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। अब एक बात ध्यान रखना। तेने मेरे साथ जो खेल खेला है, इसका जिक्र कभी, किसी से मत करना। तुझे तेरी रोजी की कसम। वरना मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा। अब तुझसे क्या कहूँ! इस सफारी ने एक साल भर में मेरा मकान दो मंजिला कर दिया है। कसम खा कि यह बात तू किसी को नहीं बताएगा।’ मैंने कसम खाई। वह फिर हँस दिया। मैं चलने लगा तो हाथ पकड़कर मुझे बैठा लिया। बोला - ‘चल! तेरी इस बदमाशी का जश्न मना लें। चाय पीकर जा।’

“उसने अपने हाथ काम छोड़ दिया। चाय मँगवाई। हम दोनों ने चाय पी। मैं चुपचाप बना रहा और वह मेरी ओर देख-देख कर मुस्कुराता रहा। मैं उठा तो परशुराम एक बार फिर जोर से हँसा और बोला - ‘यार! यादव! ये बात याद रहेगी। आज तेरे से ठगा कर मजा आ गया।’

“मैं चुपचाप चला आया और मोड़ पर आया (जब उसकी दुकान दिखनी बन्द हो गई) तो मेरी हँसी छूट गई। मैं अकेला ही हँसता रहा। जोर-जोर से। अकेला ही। बड़ी देर तक हँसता रहा। अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाकर मैंने पूरे सौ रुपये बचा लिए थे और परशुराम से शाणा, अकलमन्द और चतुर होने का सर्टिफिकेट भी ले आया था। बस, मुझे तीन सप्ताह तक प्रतीक्षा करने का धैर्य रखना पड़ा।”

यादवजी रुके तो मेरी हँसी छूट गई। मैंने, कोहनियों तक हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया और पूछा - ‘परशुराम ने रोजी की कसम दिलाई थी लेकिन आपने तो पूरा किस्सा सुना दिया! भला क्यों?’ संजीदा होकर यादवजी बोले - ‘अब परशुराम वह परशुराम नहीं रहा। उसके दोनों बेटे विदेश में बस गए हैं। उसके माँगे बिना उसे रुपये भेज देते हैं - इतने कि उससे खर्च नहीं होते। दुकान पर तो वह आज भी बैठता है लेकिन दुकानदारी करने के लिए नहीं, वक्त काटने के लिए। और रही मुझे कसम देने की बात तो अब तो खुद परशुराम ही यह किस्सा मजे ले-ले कर, आने-जानेवालों को, मिलनेवालों को सुनाता है और खुद ही हँसता है।’

यादवजी से मिलना, छोड़ की ‘झन्नाट’ कचोरी खाना और ‘मूल्यवान परिसम्पत्तियों जैसे दो यादगार संस्मरण सुनना - सब कुछ हो चुका था। अब मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा था वहाँ। सो मैंने भी अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाई और यादवजी को धन्यवाद दे, नमस्कार कर चला आया।

मुनाफे की असलियत, नकली दाँतों की जबानी


पहली मार्च की शाम यादव साहब (माँगीलालजी यादव) की दुकान पर चला गया। बहुत दिनों से न तो उनकी शकल दिखाई दी और न ही आवाज सुनाई दी। फोन किया तो बोले - ‘अरे! वाह! आपके बारे मे ही सोच रहा था। फौरन दुकान पर आ जाइए। आज से दुकान पर कचोरी की शुरुआत हुई है। छोड़  की कचोरियाँ (मालवा में हरे चने को ‘छोड़’ कहते हैं) निकल रही हैं। झन्नाट कचौरियाँ हैं। चले आईए! एक बार खाइए और दो बार अनुभव कीजिए।’ मैंने कहा - ‘एक बार खाने पर दो बार अनुभव कैसे?’ मानो, थैली में बँधे, विक्टोरिया छाप, चाँदी के हजारों ‘कल्दार’ (पुराने जमाने के, एक रुपयेवाले सिक्के), थैली का मुँह अचानक खुलने पर फर्श पर बिखर गए हों - कुछ ऐसी ही जोरदार, टनटनाती, खनखनाती हँसी हँसते-हँसते बोले - ‘क्यों? कल सुबह भी तो मालूम पड़ेगा! झन्नाट कचौरियाँ हैं सा’ब!’  

कचौरियाँ हों, न हों, मुझे तो जाना ही था। पहुँचा तो उन्हें प्रतीक्षरत पाया। गर्मजाशी से अगवानी की। मैं बैठूँ उससे पहले ही कर्मचारी को आवाज दी - ‘अरे! मुन्ना! एक कचोरी ला तो!’ मैं बैठकर साँस लूँ और कोई बात करूँ, तब तक, कचोरी लेकर मुन्ना हाजिर। उससे लेकर मुझे थमाते हुए  यादवजी बोले - ‘बाकी सब बातें बाद में। पहले कचोरी खाइए।’ अखबारी रद्दी के दो कागजों पर रखी कचोरी इतनी गरम कि हाथ में थामे रखना असहनीय। जबान जल जाए, इतनी गरम कचोरी भला कोई कैसे जल्दी खा सकता है? सो, कचोरी टेबल पर रख, उनसे मुखातिब हो गया। उधर कचोरी खाने लायक ठण्डी हो रही थी, इधर हमारी बातों में गर्मजोशी आती जा रही थी। मानो, ऊष्मा का स्थानान्तरण हो रहा हो। 

चलते-चलते बात, मुनाफे पर आ गई। मैं जानना चाहता था कि मुनाफे के अंश (प्राफिट मार्जीन) का निर्धारण कैसे होता है और एक ही सामान का भाव सारी दुकानों पर एक जैसा कैसे हो जाता है। क्या, कस्बे के सारे व्यापारी कोई सामूहिक निर्णय लेते हैं? यादवजी बोले - ‘कुछ बातें समझाई नहीं जा सकतीं। आप बाजार में बैठेंगे तो खुद-ब-खुद यह अकल आ जाएगी।’ मुझे अचानक ही याद आया कि एनडीटीवी इण्डिया के ‘जायका इण्डिया का’ कार्यक्रम में विनोद दुआ, लखनऊ के, दुकानदारों से बातें कर रहे थे। मुनाफे को लेकर उनके एक सवाल के जवाब में एक दुकानदार ने कहा था - ‘तिजारत में मुनाफा इतना, खाने में हो नमक जितना।’ मैंने यादवजी को यह जवाब सुनाया तो हँसकर बोले - ‘कुछ बातें कहने-सुनने के लिए होती हैं और कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं। जरूरी नहीं कि वे सब सच हों ही। अभी-अभी का, ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह दिन पहले का, किस्सा सुनिए और अपने सवाल का जवाब खुद ही तलाश कर लीजिए।

यादवजी का यह किस्सा उन्हीं की जबानी कुछ इस तरह रहा -

एक के बाद एक, मेरे चार दाँत गिर गए। डॉक्टर को दिखाया तो उसने नकली दाँत लगाने की सलाह दी। मैंने फौरन ही हाँ भर दी। भाव-ताव किया और सौदा साढ़े तीन सौ रुपयों में तय हुआ। डॉक्टर ने सप्ताह भर बाद आने को कहा।

सातवें दिन मैं डॉक्टर के यहाँ जा ही रहा था कि सामने से मदन आ गया। मेरा दोस्त है किन्तु उम्र में मुझसे छोटा है इसलिए मुझे ‘भैया’ कह कर सम्बोधित करता है। उसे मालूम हुआ कि मैं दाँत के डॉक्टर के यहाँ जा रहा हूँ तो उसने डॉक्टर का नाम पूछा। मैंने नाम बताया तो वो तपाक् से बोला - ‘भैया! रुको। मैं एक छोटा सा काम निपटा कर अभी पाँच मिनिट में आता हूँ। मैं आपके साथ चलूँगा। आप मेरे बिना मत जाना। मुझे थोड़ी देर हो जाए तो राह देख लेना लेकिन चलना मेरे साथ ही।’

मदन की बात सुन कर मैं रुक गया। अपना काम निपटा कर वह जल्दी ही आ गया। हम दोनों चल दिए। मदन को देखकर डॉक्टर खड़ा हो गया। नमस्कार करते हुए बोला - ‘भैया! आप?’ मदन बोला - ‘पहले हाथ काम निपटा। फुर्सत से बात करेंगे। हम बैठते हैं।’

मैंने देखा, डॉक्टर असहज हो गया था। उसने पहले बैठे लोगों को जल्दी-जल्दी निपटाया और मदन से बोला - ‘भैया हुकुम करो। कैसे आना हुआ?’ मदन बोला - ‘हुकुम-वुकुम कुछ नहीं। दिख नहीं रहा, भैया के साथ आया हूँ? भैया का काम कर। जल्दी। भैया को और भी काम हैं।’ ‘जी भैया’ कह डॉक्टर ने मुझे सम्हाल लिया। उसने चारों दाँत तैयार कर रखे थे। मेरे मुँह में फिट किए। मुझसे मुँह चलवाया, बातें करने को कहा। बार-बार मुँह खुलवाया। बन्द करवाया। जोर-जोर से हँसने को, ठहाका लगाने को कहा। नकली छींक छिंकवाई। वह जैसा-जैसा कहता गया, मैं वैसा-वैसा करता रहा। काम उसने अच्छा किया था। नकली दाँत पहली बार लगे थे किन्तु मुझे कोई खास अटपटा नहीं लग रहा था। मैं सन्तुष्ट था। मेरा काम हो गया था। भुगतान करने के लिए मैंने जेब में हाथ डाला तो मदन ने रोक दिया - ‘ठहरो भैया।! मैं रुक गया। मदन ने छत की ओर देख मानो, मन ही मन कुछ हिसाब लगाया और बोला -‘भैया! बीस रुपये दे दो।’ मैं चक्कर में पड़ गया। बात मेरी समझ में नहीं आई। मैंने डॉक्टर की ओर देखा तो पाया कि वह मदन की ओर देख रहा था। कुछ इस तरह मानो बौरा गया हो। मैं चक्कर में पड़ गया। मैं कुछ कहूँ उससे पहले ही मदन बोला - ‘देख क्या रहे हो भैया? बीस रुपये दे दो इसे।’ अब डॉक्टर के बोल फूटे। हिम्मत करके बोला - ‘भैया! बीस रुपये? ये क्या कर रहे हो?’ मदन ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया। हड़काते हुए बोला - ‘क्यों? इसमें गलत क्या है? तुझे घर में घाटा हो रहा हो तो बोल?’ घिघियाते हुए डॉक्टर बोला - ‘बात वो नहीं है भैया.....’ मदन ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी। बोला - ‘मैं कुछ नही कहना चाहता था। लेकिन अब तू ही जबान खुलवा रहा है। अपनी पोल खुलवा रहा है। चल! हिसाब बताता हूँ। तू दो रुपये के भाव से दाँत खरीदता है। चार दाँत के हुए आठ रुपये। इनमें मसाला-वसाला हुआ पाँच रुपयों का। हुए तेरह रुपये। दो रुपये तेरा मेहनताना। ये हुए पन्द्रह रुपये। इनमें पाँच रुपये तेरा मुनाफा मिला दिया। हो गए बीस रुपये। और क्या चाहिए तुझे?’ 

डॉक्टर नीची नजर किए, गूँगे की तरह चुप और मैं सन्न। मदन बोला - ‘गलत हिसाब लगाया क्या मैंने? पन्द्रह रुपयों पर पाँच रुपयों का मुनाफा याने तैंतीस परसेण्ट से भी ज्यादा। यह भी तुझे कम पड़ रहा है? तेरा पेट है या पखाल? जान लेगा क्या लोगों की?’ डॉक्टर चुप बना हुआ था यह बात तो अपनी जगह लेकिन उसकी शकल देख कर मुझे दया आने लगी। यह तो मुझे समझ में आ गया था कि क्यों मदन मुझे अकेला नहीं आने दे रहा था। लेकिन डॉक्टर की दशा भी मुझसे देखी नहीं जा रही थी। हिम्मत करके मैंने कहा - ‘यार! मदन! बीस रुपये तो बहुत कम होते हैं।’ मदन  मुझ पर चढ़ बैठा। बोला - ‘भैया! मैं तो गणित में फेल हूँ। लेकिन आप तो व्यापारी हो। तैतीस परसेण्ट मुनाफा कम होता है? बोलो?’ मदन की बात अपनी जगह सोलह आने सच थी लेकिन मैं तो बँधा हुआ था। सौदा ठहरा चुका था। मैंने अपने मन की बात मदन को कही तो वह झल्ला गया। बाहर निकलते हुए बोला - ‘आप के मारे भी दुखी हैं। डॉक्टर भी मेरा है और आप भी मेरे हो। मैं जो कर रहा हूँ उसमें किसी का नुकसान नहीं है। लेकिन आपको कौन समझाए? जो करना हो, कर लेना। मैं बाहर आपकी राह देख रहा हूँ।’ फिर, आँखें तरेर कर डॉक्टर को बोला - ‘मैं जा रहा हूँ। भैया का ध्यान रखना।’

मदन चला गया। अब डॉक्टर और मैं - हम दोनों ही थे। मैंने डॉक्टर से पूछा - ‘कितने दूँ?’ डॉक्टर की आवाज नहीं निकल रही थी। मानो फुसफुसा रहा हो, इस तरह बोला - ‘अभी भैया आपके सामने ही तो बता गए हैं? बीस।’ मुझे डॉक्टर पर दया आ रही थी और खुद पर झुंझलाहट। हिसाब-किताब इतना साफ हो चुका था कि साढ़े तीन सौ देने की इच्छा नहीं हो रही थी और बीस रुपये देना भी बुरा लग रहा था। लेकिन मैं, साढ़े तीन सौ को कम करूँ भी तो कितना? जैसे-तैसे मैंने पचास का नोट डॉक्टर को थमाया। नकली दाँतों की डिबिया उठाई और खड़ा हो गया। डॉक्टर भी खड़ा हो गया और घुटी-घुटी आवाज में बोला - ‘भैया से कहिएगा जरूर कि मैंने बीस ही माँगे थे। पचास तो आपने अपनी मर्जी से दिए हैं।’ मुझे रोना-रोना आ गया।

बाहर आया। मदन ने उबलते स्वरों में पूछा - ‘कितने दिए?’ मैंने आँकड़ा बताया तो आँखें चौड़ी कर, झल्लाते हुए बोला - ‘क्या? पचास? पूरे ढाई गुना? डॉक्टर की तो लॉटरी खोल दी आपने! अपने हाथों अपनी जेब कटवाना कोई आपसे सीखे। वाह! भैया! वाह! जवाब नहीं आपका। आपने तो कहीं का नहीं रखा। किसी से कह भी नहीं सकते कि आपने यह कारनामा किया है।’ मैं चुप ही रहा। कुछ भी कहना-सुनना बेकार था। कोई मतलब नहीं रह गया था। बाद में मदन ने बताया कि डॉक्टर नकली दाँतों की खरीदी इन्दौर से करता है और ऐसी खरीदी के समय दो-एक बार वह डॉक्टर के साथ इन्दौर जा चुका है।

पूरा किस्सा सुना कर यादवजी बोले - ‘खाने में किसको कितना नमक अच्छा लगता है, यह खानेवाला ही तय करता है। अपने सवाल का जवाब आप ही तलाश कर लीजिएगा।’

मैं बौड़म की तरह यादवजी का मुँह देख रहा था। मेरी दशा देख कर यादवजी हँसकर बोले - ‘लेकिन यदि आदमी थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अपनी अकल लगा ले तो मुनाफाखोरी से बच सकता है।’ मैंने कहा - ‘कैसे?’ यादवजी बोले - ‘पहले कचोरी खतम कीजिए। पानी पीजिए। फिर, चाय पीते-पीते आपको वह भी बताता हूँ।

और, चाय पीते-पीते, यादवजी ने जो किस्सा सुनाया, वह सुनने से पहले आप भी चाय पी लीजिए। जल्दी ही बताता हूँ।    

ओछी पूँजी, बड़ी दुकान, इसीलिए यह राधा नहीं नाचेगी - 3



भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह ने पार्टी के तमाम नेताओं-कार्यकर्ताओं को हड़का दिया है - ‘चुप रहो! नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री बनाने का हल्ला-गुल्ला बन्द करो।’ असर हुआ तो जरूर किन्तु सौ टका नहीं। गुबार बैठा तो सही किन्तु गर्द अभी भी बनी हुई है। शोर थमा तो जरूर किन्तु धीमी-धीमी भिनभिनाहट हवाओं में गूँज रही है। कुछ बिगड़ैल बच्चे हर कक्षा में होते हैं जो अपने-अपने मास्टरजी की नाक में दम किए रहते हैं। देखिए न! राहुल ने सरे आम हड़काया लेकिन बेनी बाबू ने सुना? 

इस बीच, अभी-अभी ही, एक बात और हो गई। वेंकैया नायडू ने कह दिया कि पार्टी की ओर से किसे प्रधान मन्त्री घोषित किया जाए - यह फैसला, भाजपा का संसदीय बोर्ड तय करेगा। नायडू का कहना याने पार्टी का आधिकारिक वक्तव्य! गोया नायडू ने, वायुमण्डल में ठहरी हुई, थेड़ी-बहुत गर्द पर पानी की बौछार कर दी और हवाओं में बनी हुई भिनभिनाहट को म्यूट कर दिया।

ऐसे में अब, जबकि नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री की दावेदारी को लेकर पार्टी, आसमान को साफ और हवाओं को निःशब्द कर चुकी हो, जब मैं खुद ही कह चुका हूँ कि मोदी के प्रधान मन्त्री न बनने का तीसरा कारण ‘सुपरिचित, जगजाहिर और घिसा-पिटा’ है, तो इस तीसरी कड़ी की क्या आवश्यकता और औचित्य?

मुझे किसी की भी सामान्य-समझ (कॉमनसेन्स), दूरदर्शिता और चीजों को समझने की क्षमता पर रंच मात्र भी सन्देह नहीं। लेकिन मैंने अपनी ओर से वादा किया था। सो, उसे ही निभाने के लिए यह तीसरी कड़ी।  

तर्क और अनुमान तो, अपनी सुविधा और इच्छानुसार जुटाए और गढ़े जा सकते हैं किन्तु गणित में यह सुविधा नहीं मिल पाती। तर्क शास्त्र का सहारा लेकर, दो और दो को पाँच साबित करने का चमत्कार दिखानेवाले जादूगर को भी, किराने की दुकान पर पाँचवा रुपया नगद गिनवाकर चुकाने पर ही पाँच रुपयों की कीमत का सौदा-सुल्फ मिल पाता है। तर्कों की अपनी हकीकत हो सकती है किन्तु हकीकतों के कोई तर्क नहीं हो पाते। यह ‘तर्क रहित हकीकत’ ही नरेन्द्र मोदी के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है।

यहाँ फिर एक बार मालवी की एक कहावत मेरी बात को आसान करती है। यह मालवी कहावत है - ‘ओछी पूँजी घर धणी ने खाय।’ अर्थात्, कम पूँजी के दम पर व्यापार नहीं किया जा सकता। कम पूँजी पर व्यापार करनेवाला व्यापारी अन्ततः डूबता ही डूबता है। डूबने से बचने का एक ही उपाय है - प्रचुर पूँजी। यदि प्रचुर न हो तो उसका यथेष्ट (जरूरत के मुताबिक) होना तो अनिवार्य है ही। अपनी पूँजी कम हो और खुद को बचाए रखने की ललक हो तो अपने जैसे, कम पूँजीवाले किसी दूसरे व्यापारी को तलाशा जाता है। तब, कम पूँजीवाले दो व्यापारियों की सकल पूँजी मिलकर जरूरत के मुताबिक हो जाती है। दोनों के मिलने के बाद भी पूँजी कम पड़े तो, कम पूँजीवाले किसी तीसरे की तलाश की जाती है। आवश्यकतानुसार यह सिलसिला बढ़ता चला जाता है और तब ही थमता है जब कि कम पूँजीवाले ऐसे तमाम व्यापारी खुद को बचाए रखने की स्थिति में आ जाएँ। व्यापार में ऐसे उपक्रम को भागीदारी या प्रायवेट लिमिटेड कहा जाता है जबकि राजनीति में इसे ‘गठबन्धन’ कहा जाता है। राजग (एनडीए) और संप्रग (यूपीए), भारतीय राजनीति के, ओछी पूँजीवाले ऐसे ही व्यापारियों के जमावड़े हैं जहाँ खुद को बचाए रखने के लिए साथवाले को बचाए रखना ‘विवशताजनित बुद्धिमानी और व्यवहारिकता’ बरती जा रही है। दिलजले लोग इसे इसे, ‘मीठा खाने के लिए जूठन खाना’ कहते हैं।

अब यह कहनेवाली बात नहीं रही कि दिल्ली में अपने दम पर सरकार बना पाना न तो काँग्रेस के लिए सम्भव है और न ही भाजपा के लिए। दोनों को बैसाखियाँ चाहिए ही चाहिए। मजे की बात है कि सारी की सारी ‘बैसाखियाँ’ इन दोनों दलों पर बिलकुल ही भरोसा नहीं करतीं। भरोसा करना तो बाद की बात रही, सबकी सब इन दोनों से भयाक्रान्त बनी रहती हैं। कभी-कभी तो यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि ये ‘बैसाखियाँ’ किस कारण इन्हें सहारा देती हैं - सत्ता में भागीदारी के लाभ लेने के लिए या येन-केन-प्रकारेण अपना अस्तित्व बचाए और बनाए रखने के लिए? अपने लिए इन्हें इन दोनों में से किसी न किसी के साथ जुड़ना ही पड़ता है। सो, ये सब, ‘कम हानिकारक’ को चुनती रहती हैं। करुणा (निधि), ममता, माया और जय ललिता, के पास ‘दोनों घाटों पर सत्ता-स्नान के अनुभव की अतिरिक्त/विशेष योग्यता’ है। कुछ दल ऐसे हैं जिन्हें या तो भाजपा के ही साथ रहना है या फिर काँग्रेस के साथ ही। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनकी पहचान ‘काँग्रेस विरोध’ है और जो शुरु से हैं तो राजग (एनडीए) के साथ किन्तु पाला बदलने में उन्हें रंच मात्र भी असुविधा नहीं होगी और क्षण भर की देरी नहीं लगेगी। जनता दल युनाइटेड (जदयू) और बीजू जनता दल (बीजद), राजग के ऐसे ही दो साथी हैं। इनका जो आयतन और घनत्व राजग के लिए ‘अपरिहार्य होने की सीमा तक महत्वपूर्ण’ है, इनका वही आयतन और घनत्व, भाजपा के लिए चिन्ता और मुश्किलें बढ़ाता है। उड़ीसा में नवीन बाबू (बीजद) ने भाजपा की बोलती ही बन्द कर रखी है जबकि बिहार में नीतिश की मुस्कान ‘जानलेवा’ बनी हुई है। राजग के घटकों की कम होती संख्या, इन दोनों दलों की अपरिहार्यता और महत्व में बढ़ोतरी ही करती है।

हालाँकि यह कल्पना में भी सम्भव नहीं है किन्तु राजनीतिक आकलन में मूर्खतापूर्ण दुस्साहस बरतते हुए कल्पना की जा सकती है कि बाकी सारे घटक भले ही एक बार, नरेन्द्र मोदी के नाम पर ‘मूक सहमति’ जता दें किन्तु उड़ीसा और बिहार के दोनों जननायक ऐसा कभी नहीं करेंगे। करते तो भला ऐसी, सतही और कच्ची विचार-भूमिवाली आलेख-श्रृंखला की गुंजाइश बन पाती?

यही भाजपा का संकट है और मोदी के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा भी। अकाली दल जैसे घटकों को छोड़ दें तो बाकी सारे घटकों का काम, भाजपा के बिना चल सकता है किन्तु इन सबके बिना भाजपा का काम नहीं चल सकता। सत्ता की व्यसनी काँग्रेस के लिए नवीन पटनायक और नीतिश को कबूल करना तनिक भी कठिन नहीं होगा। समाजवादी विचारधारा के सूत्र काँग्रेस से जुड़ने में कोई मानसिक बाधा नहीं होगी। धर्मनिरपेक्षता की रक्षा और साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर तो बिलकुल ही नहीं। सामान्य समझ रखनेवाला राजनीतिक प्रेक्षक भी जानता है कि नवीन पटनायक और नीतिश को लपकने के लिए काँग्रेस आतुर बैठी है जबकि मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के नाम पर इन्हें राजग में बनाए रखना, भाजपा के लिए असम्भवप्रायः ही है। ऐसे में, यह कहना अधिक ठीक होगा कि इन दोनों को साथ बनाए रखना नहीं  बल्कि इन दोनों के साथ बने रहना भाजपा की अपरिहार्यता भी है और मजबूरी भी।

इसी बीच, राजग के संयोजक और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की, अभी-अभी छोड़ी गई, एक ‘छछूँदर’ ने यदि भाजपा की नींद उड़ा दी हो तो अचरज नहीं। शरद यादव ने, राजग के घटकों में बढ़ोतरी की कोशिशें करने की आवश्यकता जताई है। इस 'छछूँदर' का राजनीतिक पेंच यह कि जितने अधिक घटक दल होंगे, भाजपा को उतने अधिक दलों की खुशामद करनी पडेगी। घटक दलों की अधिकता, भाजपा का वजन भी कम करेगी। अटलजी के बाद भाजपा में ऐसा कोई नेता नहीं बचा है जिसके नाम पर, राजग के सारे घटक सहमत हो जाएँ। यह अटलजी का ही करिश्मा था कि लगभग सवा दो दर्जन दल, राजग में प्रेमपूर्वक बने हुए थे। आज तो स्थिति यह हो गई है कि गिनती के घटकों को सम्हाले रखना भाजपा के लिए सर्कसी-करतब से कम कठिन नहीं हो रहा है। ऐसे में मोदी के नाम का असर इन सब पर बिलकुल वैसा ही होता नजर आ रहा है मानो कनखजूरे पर शकर डाली जा रही हो। 

मौजूदा राजग : ढेर सारे चले गए, गिनती के रह गए

ऐसे में, जबकि 2014 के चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं है, जबकि बाकी सबका काम भाजपा के बिना चलता नजर आ रहा हो लेकिन इनके बिना भाजपा का काम चलना नहीं, जबकि काँग्रेस ने सबके लिए सारे रास्ते खुले रखे हुए हों लेकिन मोदी के नाम पर भाजपा के सारे रास्ते बन्द होते नजर आ रहे हों और सत्ता का मीठा खाने के लिए उसे जब सहयोगी दलों पर ही निर्भर होना है तो उसे ‘राग मोदी’ आलापना बन्द करना ही पड़ेगा। ऐसा वह कर भी लेगी। सत्ता जरूरी है, मोदी नहीं। सत्ता के लिए जब ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘धार्मिक आस्था’ के अपने (राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 जैसे) तमाम ‘बेस्ट सेलेबल मुद्दे’ हिन्द महासागर में डुबाए जा सकते हों (याद करें कि राजग गठन के समय केवल भाजपा ने अपने मुद्दे छोड़े थे, अन्य किसी भी दल ने अपना कोई मुद्दा नहीं छोड़ा था) तो ‘एक आदमी’ से जान छुड़ाना तो बिलकुल ही मुश्किल नहीं होगा। फिर, मोदी के बहाने एक बार फिर वही पुरानी (भाजपा और संघ की, एक साथ दोहरी सदस्यतावाली) बहस शुरु होने की आशंका बलवती हो जाएगी जिसके चलते जनता पार्टी का विघटन हुआ था! भाजपा इस वक्त तो यह जोखिम बिलकुल ही नहीं लेना चाहेगी।

इसलिए, जबकि खाँटी संघी और नादान भाजपाई भी मान रहे हों कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं (कोई भी 160-180 से आगे नहीं बढ़ रहा) और सहयोगी दलों की ‘अनुकम्पा’ के बिना दिल्ली दूर ही रहनी है तो फिर वही किया जाएगा जो करना पड़ेगा - मोदी के नाम से इस तरह मुक्ति पाई जाएगी जैसे कि कोई भी ‘समझदार’ आदमी, खटमलों भरी रजाई से पाता है - उसे फेंक कर। सो, बहुमत का नौ मन तेल नहीं मिलेगा और इसीलिए प्रधानमन्त्री पद पर, राधा के नाच की तरह मोदी नजर नहीं ही आएँगे।

लेकिन, राधा का और नाच का कोई न कोई रिश्ता है तो जरूर! नहीं होता तो भला यह कहावत कैसे बनती? तो ‘नाच’ के नाते से जुड़ी यह राधा यदि नाचेगी नहीं तो ठुमकेगी भी नहीं? इसके पाँव भी नहीं उठेंगे? क्या करेगी यह राधा? 

बेबात की इसी बात में बात तलाश करने की कोशिश, अगली, ‘चकल्लसी’ कड़ी में।