तय करना कठिन ही है कि भारतीयों की विलक्षण प्रतिभा के उदाहरण अधिक हैं या चुटकुले। किन्तु यदि कोई विषय विशेषज्ञ, अपनी बात की पुष्टि के लिए किसी ‘परिहासी लोक-कथा’ का सहारा ले तो बात पर विश्वास करने के लिए दिमाग पर जोर नहीं लगाना पड़ता। बात, हँसते-हँसते गले उतर जाती है। स्थिति का आनन्द तब और बढ़ जाता है जब प्रत्येक श्रोता, खुद को उस लोक-कथा के मुख्य कर्ता के रूप में देखने लगता है। तब, आनन्द के साथ-साथ आत्म-मुग्धता आदमी को विभोर कर देती है।
ऐसा ही, इसी 3 मार्च को हुआ। श्रोताओं को यह ‘आत्म-मुग्धतामय आनन्द’ करनेवाले थे, अग्रणी चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट श्री अतुल भेड़ा। वे वित्त वर्ष 2013-14 के लिए प्रस्तुत बजट का विश्लेषण कर रहे थे। भेड़ाजी का निष्कर्ष था कि लोगों से अधिकाधिक कर वसूली के लिए सरकार चाहे जितने फन्दे गूँथे ले, भारतीय करदाता, प्रत्येक फन्दे की काट फौरन ही तलाश लेता है और सरकार के मन्सूबों पर पानी फेर देता है।
अपनी बात को उन्होंने इस लोक-कथा के माध्यम से सुनाया, समझाया और समूचे श्रोता समुदाय को, हँसते-हँसते, सम्पूर्ण आत्मपरकता से सहमत कराया।
बात राजशाही के जमाने की है। अगले वर्ष की वित्तीय नीतियों की घोषण तब भी होती थी। एक बरस राजा ने किसानों पर कराधान की नीति घोषित की - फसल का, जमीन के अन्दरवाला हिस्सा किसान का और जमीन से ऊपरवाला हिस्सा राजा का। किसानों ने आपस में सलाह की और उस बरस सबने आलू बो दिए। किसान मालामाल और राजा हाथ मलते रह गया।
इस दुर्घटना से सबक लेकर राजा ने उसके अगले बरस घोषणा की - फसल का, जमीन के अन्दरवाला हिस्सा राजा का और जमीन से ऊपरवाला हिस्सा किसान का। किसानों ने फिर आपस में सलाह की और इस बरस उन्होंने तरबूज, लौकी, ज्वार, गेहूँ जैसी फसलें बो दीं। इस बार भी वैसा ही हुआ - किसान मालामाल और राजा हाथ मलते रह गया।
राजा को गुस्सा आ गया। उसे लगा, उसकी प्रजा ने दो-दो बार उसे मूर्ख बना दिया। वह प्रतिशोध की आग में जलने लगा। तीसरे बरस उसने बड़ी हुमक से घोषणा की - फसलों का, जमीन के अन्दरवाला और धरती के बाहर का, ऊपरवाला हिस्सा राजा का। केवल बीच का हिस्सा किसान का। किसानों ने इस बरस तनिक अधिक चिन्ता से आपस में सलाह की और राजा की बात का तोड़ निकाल लिया। सबने गन्ना बो दिया। राजा की दशा की कल्पना आसानी से की जा सकती है।
दिल-खोल-हँसी और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच भेड़ाजी ने अपनी बात खत्म की। सबको बड़ा मजा आया। बाद में, भोजन करते हुए मैंने लोगों को कुरेदा तो पाया कि हममें से लगभग प्रत्येक ने मान लिया था कि उसी ने राजा को बेवकूफ बनाया था।
राजशाही में, प्रजा में आज्ञाकारिता का भाव अधिक होता है। राजा की बात की अवहेलना करने का विचार भी शायद ही कोई कर पाता हो।
जब, राजा के राज में लोगों ने राजा को झक्कू टिाक दिया तो आज तो हम लोकतन्त्र में जी रहे हैं! आज हम ‘प्रजा’ नहीं, ‘नागरिक’ हैं। जब राजा की नहीं चली तो बेचारे, संसदीय लोकतन्त्र के किसी वित्त मन्त्री की क्या चलेगी? यहाँ तो लोगों की बात सुननी पड़ेगी। कराधान नीति निर्धारित करने में, राजा ने प्रजा से बात नहीं की तो हाथ मलना पड़े। लिहाजा, ‘नागरिकों’ की जेब से पैसा निकलवाने के मामले में ‘नागरिकों’ से बात करनी ही पड़ेगी।
लगे हाथ भेड़ाजी के बारे में दो-एक बातें। वे मुम्बई से हैं। गए 27 बरसों से सी. ए. के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। वर्ष 2007 से वे, भारतीय चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट संस्थान (आईसीएआई) की केन्द्रीय परिषद् के सदस्य बने हुए हैं। ‘सेबी’ ओर भारतीय रिजर्व बैंक की अनेक समितियों के संचालक मण्डल के सदस्य रहे हैं और कर विशेषज्ञ के रूप में ‘सीएनबीसी आवाज’ पर लोगों की जिज्ञासा का ‘ऑन-लाइन’ समाधान करते दिखाई देते हैं।
सच में करों की यही स्थिति है..
ReplyDeletePhir bhi sarkaar janataa kee nahee sunati hai,manmaani hee karti hai.Jitana zyaada sarkaar kar lagayegi,utani zyadaa chori badhegi.Yaane sarkaar hee nahee chahati kee chori band ho.
ReplyDeleteवाह.सी ए साहब,खूब कही.हम भारतीय तो टैक्स चोरी के वैसे ही विशेषज्ञ हैं,आप ने एक फार्मूला और बता दिया.वास्तव में अनुभवी सी ए का बहुत फर्क पड़ता है.
ReplyDeleteकिस्सा बहुत भाया.
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