यह रोचक भी है और विरोधाभासी भी।
गए कोई दो बरस पहले मैंने एक निर्णय लिया था - जहाँ कहीं, किसी आयोजन/कार्यक्रम में अतिथि (मुख्य/विशेष), अध्यक्ष, निर्णायक आदि के रूप में बुलाया जाऊँगा वहाँ, स्वागत के नाम पर न तो माला पहनूँगा, न ही गुलदस्ता (बुके) स्वीकार करूँगा। गुलाब का (या और कोई) फूल स्वीकार नहीं करूँगा और न ही किसी भी प्रकार का कोई स्मृति-चिह्न ही स्वीकार करूँगा। शॉल-श्रीफल भी इस अस्वीकार में शरीक रहेगा।
इसके पीछे मेरा प्रकृति-प्रेम या वैराग्य-भाव कहीं नहीं है। फूल/हार से स्वागत को लेकर मुझे बरसों से लगता रहा है कि यह क्रूर अपव्यय से अधिक कुछ नहीं है। अतिथि के गले में डालने के फौरन बाद ही मालाएँ टेबल पर धर दी जाती हैं। बहुत हुआ तो मालाएँ अतिथि की कार पर डाल दी जाती हैं। किन्तु उनका अन्तिम स्थान अन्ततः कूड़ादान ही होता है। गुलदस्ते (बुके) एक-दो दिन घर की शोभा बढ़ाते होंगे लेकिन वे भी पहुँचते कूड़े में ही। यही स्थिति एकल फूल की भी होती है। माला हो या गुलदस्ता (बुके) हो या फूल, सब अच्छे-खासे मँहगे होते हैं। गुलाब का एक फूल भी (मेरे कस्बे में) अब तो पाँच रुपयों से कम में नहीं मिल रहा। गुलदस्ते तो मँहगे होते ही हैं किन्तु मैंने देखा है कि विशेष रूप से बनवाए हार उनसे भी मँहगे होते हैं। स्वागत के नाम पर मुझे यह अनावश्यक और निरर्थक प्रदर्शन ही लगता है और जब इस प्रदर्शन में प्रतियोगिता-भाव जुड़ जाता है तो स्थिति ‘कोढ़ में खाज’ जैसी हो जाती है।
एक और कारण इसके पीछे है। ‘पुष्प हारों से स्वागत’ के नाम पर काफी समय बर्बाद हो जाता है। कभी-कभी तो यह ‘स्वागत श्रृंखला’ इतनी लम्बी और उबाऊ हो जाती है कि कार्यक्रम शुरु होने से पहले ही श्रोता समुदाय ‘भुनभुनाने’ लगता है। ऐसे समय कार्यक्रम के प्रति उनके मन में उपजी वितृष्णा उनके चेहरों पर आसानी से देखी/पढ़ी जा सकती है।
स्मृति चिह्न और शॉल-श्रीफल अस्वीकार करने का कारण नितान्त व्यक्तिगत सुविधा है। मैं अपने 66वें वर्ष में चल रहा हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध 57वें वर्ष में। ‘बच्चों के सम्बन्ध के लिए लोग आएँगे तो क्या सोचेंगे’ की पारम्परिक चिन्ता के अधीन उत्तमार्द्धजी ने, मेरे मना करने के बाद भी, आवश्यकता से कहीं अधिक बड़ा मकान बनवा लिया। उसी अनुपात में घर का सामान भी बसा लिया। बड़े बेटे का विवाह हो गया। नौकरी के कारण वह बाहर रहता है। कभी-कभार आता है तो मेहमान की तरह - आया बाद में, लौटा पहले। छोटा बेटा भी बी. ई. करने के बाद नौकरी कर रहा है। उसका विवाह नहीं हुआ लेकिन आने के नाम पर वह तो अपने बड़े भाई का बड़ा भाई बना हुआ है। बड़ा बेटा तीन बार आता है तो छोटा बेटा एक बार। ऐसे में, मकान की और सामान की देख-भाल करना अपने आप में सबसे बड़ा और सबसे कठिन काम हो गया है। केवल उम्र का प्रभाव ही नहीं, मोटापे के कारण भी हम दोनों अपेक्षित शारीरिक श्रम नहीं कर पाते। ऐसे में, स्मृति-चिह्न और शॉल-श्रीफल लाना याने ‘एक तो मियाँ बावरे, ऊपर से पी ली भाँग’ वाली स्थिति बना लेना। शॉलें बाँटो भी तो कितनी बाँटो और किसे बाँटो? हमारे आस-पासवाले पहले ही ‘शॉलवान’ हो चुके हैं। इसीलिए मैंने ये दो निर्णय लिए।
ये निर्णय ही रोचक और विरोधाभासी स्थितियाँ बनाते रहते हैं।
अब होता यह है कि जब भी मुझे ऐसा कोई न्यौता मिलता है जो मुझे स्वीकार करने जैसा लगता है तो पहले मैं अपने ये दोनों निर्णय सूचित करता हूँ। हर बार ऐसा हुआ कि मेरी बात पर किसी ने भी पहली बार विश्वास ही नहीं किया। ‘हाँ! हाँ! तब की तब देखी जाएगी’ वाला जवाब मिलता है। मैं अपनी बात दुहराता हूँ और कहता हूँ - ‘आप इसे मेरी विनम्रता या शालीनता मत समझिएगा। यदि आपने स्वागत के लिए जोर आजमाइश की तो मैं तत्क्षण ही चला आऊँगा।’ मेरी इस चेतावनी पर उनके कान खड़े होते हैं। कहते हैं - ‘लेकिन बाकी अतिथियों को असुविधा होगी।’ मैं कहता हूँ - ‘आप यदि मुझे बुला रहे हैं तो सबसे पहले आप मेरी सुविधा की चिन्ता कीजिए। यदि आपको मेरी चिन्ता नहीं है तो फिर मेरी जगह खुद को रख कर बताइए कि मैं आपके यहाँ क्यों आऊँ?’ उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यही स्थिति स्मृति-चिह्न और शॉल श्रीफल को लेकर होती है। अन्ततः वे मेरी बात मान जाते हैं।
मेरे इन निर्णयों के कारण, कई आयोजनों में मंचासीन अतिथियों को भी असुविधा हुई। कुछ-एक ने मुझे टोका भी। मैंने यथासम्भव विनम्रता बरतते हुए कहा - ‘मेरे साथ क्या व्यवहार किया जाए, यह तय करने की सुविधा और अधिकार मुझे देने की कृपा करें।’ स्मृति-चिह्न को लेकर तो मुझे कई बार बड़ा मजा आया। संसाधन सम्पन्न आयोजकों ने परोक्षतः सूचित कर मुझ ललचाया/उकसाया - ‘हमार बजट अच्छा-खासा है और स्मृति-चिह्न भी उसी के मुतािबक है।’ कुछ आयोजनों में सह-अतिथियों ने भी इसी तरह ‘समझाया।’ हर बार मैंने परिहास किया - “बैरागी को बैरागी ही बना रहने दीजिए। वैसे भी जिस उम्र में आ गया हूँ उसमें अब मुझे ‘संग्रह’ से विरक्त होकर ‘विसर्जन’ पर ध्यान देना चाहिए।” उन सबकी बड़ी कृपा यही रही कि मुझे मेरे निर्णय पर अमल करने में उदारतापूर्वक सहयोग किया।
किन्तु, एक अकल्पनीय पक्ष भी सामने आया। मेरे इस निर्णय से, आयोजकों को भी कोई राहत मिल सकती है - यह मैंने बिलकुल नहीं सोचा था। कम से कम तीन आयोजक संस्थाओं के अध्यक्षों ने, मेरे इस निर्णय की न केवल प्रशंसा की अपिुत इसके लिए मुझे धन्यवाद दिया, मेरे प्रति आभार प्रकट किया। तीनों की बातों का सार यह रहा कि संस्थाओं की कार्यकारिणी या संचालक मण्डल के सदस्यों में मंच पर जाने की होड़ रहती है। हर कोई मंच पर आकर, अतिथि को माला पहनाते हुए फोटू खिंचवाना चाहता है। कभी, किसी को बुलाना रह गया तो कार्यक्रम समाप्ति से पहले ही एक ‘समानान्तर कार्यक्रम’ शुरु हो जाता है। एक संस्था के अध्यक्ष ने तो रुँधे कण्ठ से धन्यवाद दिया - ‘आप नहीं जानते, आपने कितनी बड़ी आफत से मुझे बचा दिया।’ उनकी संस्था की कार्यकारिणी में 27 सदस्य हैं। प्रत्येक आयोजन में ये सबके सब मालाएँ पहनाते हैं, फोटू खिंचवाते हैं। ऐसे फोटुओं के दो-दो सेट बनवाने पड़ते हैं। एक सेट संस्था के रेकार्ड में रहता है और दूसरे सेट के फोटू की एक-एक प्रति सम्बन्धित सदस्य को पहुँचानी पड़ती है।
मेरे इस निर्णय की प्रशंसा तो सब करते हैं किन्तु कहते हैं - ‘फैसला तो आपका बहुत अच्छा है लेकिन बाकी सबका स्वागत करें और आपका नहीं करें, बाकी सबको स्मृति-चिह्न दें और आपको नहीं दें, यह अच्छा नहीं लगता।’ मैं कहता हूँ - ‘आप अपने कार्यक्रम को अच्छा बनाने के जिए मुझे बुलाते हैं। मैं आ गया। आपका कार्यक्रम अच्छा हो गया। अब आप मेरे अच्छा लगने की फिकर करें ताकि मैं भी कह सकूँ कि आपके यहाँ आकर मुझे अच्छा लगा।’
यह ऐसा ‘अच्छा’ है जिससे वे सहमत होते हैं, जिसकी प्रशंसा करते हैं, जिससे उन्हें राहत मिलती है, जिससे उन्हें ‘बड़ी आफत से मुक्ति’ मिलती है, कहते हैं कि सबने ऐसा ही करना चाहिए पर जिस पर अमल करना उन्हें ‘अच्छा’ नहीं लगता।
मेरे विचार से हमें जीवनोपयोगी पुस्तकें उपहार में देकर व्यक्तियों का स्वागत-सम्मान करना चाहिए. वह भी तभी जब वे इसके लिए राजी हों.
ReplyDeleteलेकिन हार-गुलदस्ते बनानेवालों का तो धंधा ही इससे चल रहा है.
आपके जैसी सबकी विचारधारा हो जाए तो देश का नक्शा ही बदल जाये । आपके इस निर्णय के लिए आपको साधुवाद ।
ReplyDeleteसच है, बहुत समय और अपव्यय बच जाता है।
ReplyDeleteउपहार स्वीकार करना या न लेना आपकी मर्ज़ी किन्तु परम्परा को बाधित करना आप जैसे विचारवान व्यक्ति का निजी मामला न्यायोचित? संग्रह न करें सुपात्र को मुक्त हस्त विप्र भाव से दान कर दें . यह भी आपके की निजी राय .
ReplyDeleteगूगल पर श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteइसे पढकर ऐसा लगा कि कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें पाखण्ड और नौटंकी और फालतू खर्च अच्छा नहीं लगता। आप उनमें से एक हैं। धीरे-धीरे एक के ग्यारह हो जाऍंगे।