‘पत्नी से अधिक पैना और विश्वस्त मित्र और कोई नहीं होता।’ यही लिखा था दादा ने। विवाह के कोई डेड़ बरस बाद, अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाने, दो वक्त की रोटी की तलाश में, घर छोड़ कर रतलाम आया था। रतलाम के पते पर मिला, उनका यह पहला पत्र था।
विवाह के बाद के कुछ बरस जितने स्मरणीय होते हैं, उतने ही अवर्णनीय भी। तब, आसमान इन्द्रधुनषों से भरा रहता है, आँखें खुली रहें या झपकी हुईं - चारों ओर रंगीन गुब्बारे तैरते नजर आते हैं, रूमानी काव्य पंक्तियाँ, शेर, रुबाइयाँ होठों पर बनी रहती हैं, कानों में घण्टियाँ बजती रहती हैं। अपना जीवन साथी दुनिया का ‘सुन्दरतम, अनुमप’ प्रतिमान लगता है, ईश्वर की ‘पूर्ण-कृति’ लगता है। उसमें कोई कमी नहीं होती। उसके बोल शहतूत की मिठास को मात करते लगते हैं। जी करता है, उस सुन्दरतम और अनुपम का सामीप्य बना रहे। कुछ भी न किया जाए। कुछ भी करने के लिए न कहा जाए। बस! उसके साथ बैठा रहा जाए। बोलें, बतियाएँ भले ही नहीं। तब भी कानों में शहनाइयाँ बजती रहती हैं, शहद की मिठास घुलती रहती है। इसी सबके बीच और इसी सबके साथ, जिन्दगी धीरे-धीरे, जिन्दगी बनती रहती है। इतनी धीरे-धीरे कि आदमी को मालूम ही नहीं पड़ता कि कब वह ‘प्रेमी’ से ‘गृहस्थ’ बन गया! तब, अभावों के अनुरूप खुद को ढाल लेना करिश्मा नहीं लगता, रोमांचित नहीं करता। ‘प्रेमी’ तो वह तब भी बना रहता है और आसमान तब भी इन्द्रधनुषों से ही भरा रहता है किन्तु उसे देखना दूसरी वरीयता पर आ जाता है।
इस बीच गृहस्थी विस्तारित हो जाती है। पहले जो दो, एक दूसरे के लिए जी रहे थे, जिनके बीच में कोई तीसरा नहीं था, वे अब दो नहीं रह जाते। जीते तो अब भी वे साथ ही हैं और बीच में तीसरा आता भी है तो ऐसा कि दोनों के जोड़ को अधिक सुदृढ़ता देता है। तब वे दोनों मानो उस तीसरे के लिए जीने लगते हैं। न समझ में आनेवाले, मीठे-मीठे तुतले बोल सारे दुःख भुला देते हैं। लेकिन इसके समानान्तर ही, दोनों के सम्वादों की भाषा में बदलाव आने लगता है। आसमान में तैरते गुब्बारे कम होने लगते हैं। धर्मेन्द्र-राखी अभिनीत, राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘जीवन मृत्यु’ के गीत ‘झिलमिल सितारों को आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा’ का स्थान, ‘प्रसाद’ की ‘कामायनी’ की पंक्तियाँ ‘मानव जीवन वेदी पर, परिणय है विरह मिलन का। दुःख-सुख दोनों नाचेंगे, है खेल आँख का, मन का’ लेने लगती हैं। ‘पूर्ण कृति’ में कुछ-कुछ कसर लगने लगती है। लगता है, अब ‘उसे’ न तो फुरसत है और न ही परवाह। ऐसे में, एक ओर से क्षुब्ध-आहत स्वरों में, ‘भई! जरा याद रख लिया करो। मैं भी घर में हूँ?’ वाला उलाहना सुनाई देता है तो दूसरी ओर से, औसत भारतीय पत्नी की शाश्वत-सनातन व्यथा उजागर होती है - ‘पड़ौसवाले भाई साहब को देखो! सुबह पाँच बजे उठ जाते हैं। पानी भर देते हैं, बच्चों को तैयार करने में भाभीजी की मदद करते हैं। और एक तुम हो जो नौ बजे तक उठते नहीं। बिस्तर में पड़े रहते हो।’ और इससे लगा-लगाया वह वाक्य आता है जो एक आदर्श भारतीय पत्नी, अपने वैवाहिक जीवन में कम से कम एक बार तो कहती ही कहती है - ‘ये तो मैं हूँ जो निभाए जा रही हूँ। कोई और होती तो अब तक छोड़ कर कभी की जा चुकी होती।’ इस बात का कोई जवाब नहीं होता क्योंकि कहनेवाली खुद जानती है कि उसी समय, उसकी पड़ोसन भी अपने जीवन संगी से यही सब कह रही होती है।
यह सब होते-होते पता ही नहीं चलता के कब बच्चे बड़े हो गए, वे गृहस्थ हो गए। अब उन्हें आपकी सलाह की आवश्यकता आपवादिक ही होती है। आपके पास समय ही समय है लेकिन उनके पास साँस लेने का भी समय नहीं है। आप उनकी चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं और वे आपकी इस दशा पर झुंझला रहे हैं। आप हैं कि टोकने से बाज नहीं आते और आपके इस टोकने पर बच्चों की प्रतिक्रिया से (आपको अपमानित अनुभव कर) आहत, आपका जीवन संगी आपको झिड़कने लगता है, आपको चुप रहने और चुप बने रहने की सलाह देते हुए-आपकी चिन्ता करते हुए। कल तक जो बच्चे आप दोनों के बीच सेतु बने हुए थे, आज, आपका जीवन संगी उन्हीं बच्चों और आपके बीच सेतु बन जाता है-सन्तुलन साधते हुए, समन्वय करते हुए।
अचानक ही आप सम्भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं। तय नहीं कर पाते कि जिन्दगी चल रही है या ठहर गई है या कि, रुक-रुक कर चल रही है या चलते-चलते रुक रही है? विवाह के शुरुआती कालखण्ड के, प्रेमावेग की ऊष्माभरे पल आपको संस्मरण लगने लगते हैं जिन्हें अनुभवों की तरह सुनाने लगते हैं। आपको लगता है, वह सब अब केवल ‘कहने-सुनने-याद रखनेवाली बातें’ बन कर रह गया है। आप पाते हैं कि कल तक आपका जो पूरक, आपको ईश्वर की पूर्ण कृति मान रहा था, वही आज आपमें खमियाँ ही खामियाँ देख रहा है और गिनवा रहा है। तब तक जिन्दगी आपको इतनी अकल दे चुकी होती है कि समूचा ‘दोष-वर्णन’ सुन कर आपको गुस्सा नहीं आता। उलटे, आप मन्द-मन्द मुस्कुराने लगते हैं। जान जाते हैं कि यह दोष वर्णन, आलोचना नहीं, शुभेच्छा है - ‘काश! आपमें ये कमियाँ भी न रहें।’ असंख्य असहमतियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक जीने में और इस तरह जीने का आनन्द उठाने में आप निष्णात् हो चुके होते हैं। तब तक यह तथ्य कोई रहस्य नहीं रह जाता कि आप और आपका पूरक अब एक दूसरे की ‘जरूरत’ नहीं, ‘आदत’ बन चुके होते हैं।
नहीं जानता कि एक गृहस्थ के रूप में मैं सफल रहा या असफल। मैं पूरी तरह से अपनी उत्तमार्द्ध पर निर्भर हूँ। यह कह कर कोई नई बात नहीं कह रहा। मेरे आत्म परिचय में पहले ही लिख चुका हूँ। मुझे तो यह भी पता नहीं कि मेरे अन्तर्वस्त्र कहाँ रखे होते हैं। मैं अपनी उत्तमार्द्ध से बीसियों बातों पर दुःखी और पचासों बातों पर असहमत हूँ जबकि ‘वे’ सैंकड़ों बातों पर मुझसे असहमत और हजारों बातों पर मुझसे दुःखी हैं। गृहस्थी में मेरे योगदान और भूमिका के आधार पर उन्हें यह कहने का अधिकार सहजभाव से मिल गया है कि विवाह तो मेरा हुआ, वे तो फँस गईं।मैं यदि आज तक कुछ कर पाया और बन पाया तो उसका समूचा श्रेय मेरी उत्तमार्द्ध को ही है। मैं अपने लिए जी रहा हूँ और वे पूरी गृहस्थी के लिए। घर से बाहर मेरी पतलून की क्रीज और कमीज की सफेदी उन्हीं की वजह से है। मुझ जैसे अटपटे, अनियमित और अव्यवस्थित आदमी को निभा लेना उन्हें सबसे अलग और सबसे विशेष बनाता है। वे नहीं होतीं तो आज मैं, मैं नहीं ही हो पाता।
कल रात साढ़े नौ बजे ही सो गया था। शायद इसीलिए सुबह चार बजे नींद खुल गई। सुबह-सुबह के जरूरी काम-काज निपटा कर यह सब लिख रहा हूँ। घर में अकेला हूँ। मेरे बड़े साले की बिटिया बबली को बेटा हुआ है। नानी बनने के उछाह से हुमस कर मेरी उत्तमार्द्ध मायके गई हुई हैं।
17 फरवरी 1976 को हमारा विवाह हुआ था। आज हमारा वैवाहिक जीवन अड़तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। आशीर्वाद दीजिए और ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि एक दूसरे से भरपूर दुःखी और असहमत बने रहकर हम इसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक, जीवन का आनन्द लेते रहें।
हमारा यह चित्र, हाश्मीजी ने, 06 जनवरी 2013 की शाम को, विजन 2020 लायब्रेरी पर लिया था।
इस काव्यमय यात्रा विवरण को साझा करने के लिए आभार।आप दोनों को प्रणाम।
ReplyDeleteबधाई हो!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुभकामनायें आदरणीय / आदरेया
ReplyDeleteस्वस्थ और सानन्द रहें -
पैनापन विश्वास पर, सुन्दरतम सामीप्य ।
जीवन रूपी दाल में, पत्नी छौंका *दीप्य ।
*जीरा / अजवाइन
पत्नी छौंका *दीप्य, बढे जीवन रूमानी ।
पुत्र पुत्रियाँ पौत्र, तोतली मनहर वाणी ।
शुभकामना असीम, लड़ाओ वर्षों नैना ।
पर नंदी ले देख, हाथ में उनके ----।।
अब आप ही पूरा कर दें यह पंक्ति-
मुझमें यह सूझ, समझ और क्षमता क्षमता कहॉं? इसके अधूरे रहने का अपना ही आनन्द है। अपने हिय से जानिए, मेरे हिय की बात।
Deleteबड़ा पैना जवाब दिया है आदरणीय आपने-
Deleteआभार-
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteयह तो बोनस है! अवाक् हूँ। कृतज्ञ भी।
Deleteशुभकामनायें!
ReplyDeleteआपके इस कृपा स्पर्श से मैं सम्मानित हुआ। आभार।
ReplyDeleteविदेहराज विष्णु बैरागी भाई साहब जिंदगी को इतने सिद्दत से जीने और निर्वहन करने के लिए आप दोनों को बधाई .. जिंदगी ऐसे ही ठगते ठगाते बीत जाती है सुन्दर जीवन शैली जहां जीवन जीवंत भाव से विचरती ...
ReplyDeleteआप दोनों का फोटो ध्यान से देखा , वे आपसे अधिक अच्छी और बुद्धिमान लग रही हैं :)
ReplyDeleteआप दोनों को सादर प्रणाम !
सुखी भविष्य के लिए मंगल कामनाएं भाई जी !
अच्छी तो वे हैं ही। किन्तु उनके बुध्दमान होने के, आपके मन्तव्य पर मुझे तनिक सन्देह है। वे बुध्दिमान होतीं तो भला मुझसे ब्याह करतीं? और यदि आपका मन्तव्य सही है तो फिर वह तनिक अधूरा है। उस दशा में वे अत्यधिक उदार और साहसी भी हैं और इसीलिए मुझसे ब्याह करने का जोखिम ले बैठीं।
Deleteशादी की सालगिरह पर हार्दिक बधाई और आशीर्वाद बैरागी जी |
Deleteआशा
आप दोनों इस संसार का भरपूर आनंद हँसते हुए लें ...यही कामना है !
Deleteसबसे पहले तो शादी की सेतीसवी साल गिरह की बधाई । इसके बाद अपनी ये आत्मकथा प्रस्तुत करने की बधाई । प्रत्येक पति-पत्नी की ये जीवन की सत्य कथा है,केवल नाम बदलता है -विष्णु-वीणा,रवि-पुष्पा । इसलिए घबराईए नही हम आपके साथ है । अभी तो बहुत कुछ और देखना और लिखना रहेगा । हा ऊपर की सारी टिप्पणियाँ भी शानदार लगी । सभी को बधाई ।
ReplyDeleteआपकी वैवाहिक सालगिरह पर आपको बधाई , आपने कथानुमा जीवन वृतांत बहुत उम्दा तरीके से प्रस्तुत किया है पढते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई चलचित्र देख रहें हैं !!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई और शुभ कामनाएं.
ReplyDeletethamks for writting such a good and very realistic article......
ReplyDeleteबहुत-बहुत बधाई और मंगल कामनाएँ - आप दोनों इसी प्रकार हँसते-खिलखिलाते तीसरी पीढ़ी को अपने अनुभव सुनाएँ !
ReplyDeleteगूगल पर मेरे बडे बेटे की टिप्पणी -
ReplyDeleteपापा प्रणाम,
बहुत ही अच्छा लिखा है। शादी की 37वी वर्षगाठ पर आको फिर से बहुत बहुत बधाइयाँ।
आपका बेटा,
वल्कल
गूगल पर, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteविष्णुजी! बहुत-बहुत बधाइयॉं, आपको और उन्हें।आप हमेशा हमारी बातों को उजागर कर देते हैं।
खूब आनन्द में रहें।
aap dono ki jodi bani rahe ... khub mangal ho !!!
ReplyDeleteढेरों शुभकामनायें...निर्भर हो जाना प्रगाढ़ता की निशानी है।
ReplyDeleteमैं पूरी तरह से अपनी उत्तमार्द्ध पर निर्भर हूँ। यह कह कर कोई नई बात नहीं कह रहा। मेरे आत्म परिचय में पहले ही लिख चुका हूँ। मुझे तो यह भी पता नहीं कि मेरे अन्तर्वस्त्र कहाँ रखे होते हैं। मैं अपनी उत्तमार्द्ध से बीसियों बातों पर दुःखी और पचासों बातों पर असहमत हूँ जबकि ‘वे’ सैंकड़ों बातों पर मुझसे असहमत और हजारों बातों पर मुझसे दुःखी हैं। गृहस्थी में मेरे योगदान और भूमिका के आधार पर उन्हें यह कहने का अधिकार सहजभाव से मिल गया है कि विवाह तो मेरा हुआ, वे तो फँस गईं।मैं यदि आज तक कुछ कर पाया और बन पाया तो उसका समूचा श्रेय मेरी उत्तमार्द्ध को ही है। मैं अपने लिए जी रहा हूँ और वे पूरी गृहस्थी के लिए। घर से बाहर मेरी पतलून की क्रीज और कमीज की सफेदी उन्हीं की वजह से है। मुझ जैसे अटपटे, अनियमित और अव्यवस्थित आदमी को निभा लेना उन्हें सबसे अलग और सबसे विशेष बनाता है। वे नहीं होतीं तो आज मैं, मैं नहीं ही हो पाता।
ReplyDeleteये पंक्तियाँ तो मेरी अपनी कहानी से चुराई सी लगती हैं... :)
भाईसाहब और भाभी को सादर चरण स्पर्श ! बधाई ! शुभकामनाएं
ReplyDeleteअपनी जीवन यात्रा को अपनी उत्तमार्द्ध के परस्पर सहयोग की कहानी बनाने के लिए बहुत बहुत बधाईयाँ।
ReplyDeleteपढ़ कर मन प्रसन्न हुआ। 38वें वर्ष में प्रवेश कर रही आपकी वैवाहिक गामिनी की ये यात्रा सुखद बनी रहे।
यह लेख पढ़ कर शायद आज का (पुरुष) युवा खुद को आने वाले कल के लिए तैयार कर सके।
लिखते रहिएगा...और याद रखियेगा की यह 'बेनाम' आपको लगातार पढ़ रहा है।
'मुझे पढा जा रहा है' यह विचार सदैव ही 'भयाक्रान्त' किए रहता है और उत्साहवर्ध्दन पर लिखते रहने को प्रोत्साहित-प्रेरित भी करता रहता है।
Delete'बेनाम' के साथ केवल 'बेनाम' होने की कठिनाई नहीं है मुझे। 'बेनाम' का 'गुमचेहरा' होना उत्सुक बनाता है और तनिक बेचैन करता है।