वेलेण्टाइन डे: संस्कृति रक्षा का पुनीत प्रतीक्षित अवसर


बन्धु! यह क्या? वेलण्टाइन डे में चौबीस घण्टे भी नहीं बचे हैं और तुम बिस्तर में ही हो? ऐसा कैसे चलेगा? ऐसे तो भारतीय संस्कृति की रक्षा का ठेका हमारे हाथ से निकल जाएगा! 

क्या कहा? तुम्हारी आत्मा तुम्हें रोक रही है? संस्कृति की रक्षा के बीच में यह आत्मा कहाँ से आ गई? संस्कृति और आत्मा का आपस में क्या लेना-देना? पता नहीं वो किसने कहा था-परसाई ने या शरद जोशी ने या काशीनाथ सिंह ने या,  हिन्दी के ऐसे किसी कलमघिस्सू ने कि यह आत्मा बड़ी कुत्ती चीज है। जो इसके लपेटे में आ गया वो गया काम से। सब कुछ मटियामेट कर देती है। इसके कारण राजकुमार महल छोड़, जंगलों में चले गए। अच्छे-भले कर्मठ लोग साधु बन गए। तुम न तो राजकुमार हो न ही कोई कर्म-वीर। आत्मा के चक्कर में आना किसी भले आदमी को शोभा नहीं देता। आत्मा का हवाला तो केवल उपदेश देने के काम में आता है। तुम्हारे-हमारे जैसा आदमी, आत्मा की आवाज सुनना अफोर्ड नहीं कर सकता। अरे! जब हमारे नामधारी साधु ही आत्मा पर आसन जमाए बैठे हैं तो तुम-हम कहाँ लगते हैं? उठो! बिस्तर छोड़ो और काम पर लग जाओ!

अरे! फिर वही बात? हाँ यह ठीक है कि अपन सब अपने, अपने बच्चों के, अपने नेता के जन्म दिन पर केक काटते हैं। बन्द कमरे में ही नहीं, सरे आम चौराहे पर काटते हैं। कभी-कभी हनुमानजी के मन्दिर में भी काट लेते हैं। लेकिन इसका और भारतीय संस्कृति की रक्षा का क्या लेना-देना? हाँ! हाँ! मालूम है कि केक काटना अंग्रेजों की संस्कृति है, हमारी नहीं। लेकिन यह सब करते हुए आज तक किसी ने हमें टोका? जब किसी ने नहीं टोका तो तुम अपने आप से क्यों परेशान हो रहे हो? कोई टोकेगा तब देखा जाएगा। वैसे बेफिकर रहो। किसकी माँ ने सवा सेर सोंठ खाई है जो हमें टोके? टोक कर तो देखे कोई माई का लाल! मालूम है कि पीठ पीछे सब हमें कोसते, गालियाँ देते हैं। लेकिन उससे क्या? यह भारतीय संस्कृति ही है कि लोग मुँह पे कुछ नहीं कहते। ऐसी संस्कृति की रक्षा नहीं करोगे? चलो! फटाफट उठो! ब्रश करो और तैयार हो जाओ!

अब क्या हुआ? क्या? रिंग सेरेमनी? क्या हुआ रिंग सेरेमनी का? कमाल है! मुझे क्या बता रहे हो? अब यह भी कोई बतानेवाली बात है कि रंग सेरेमनी हमारी नहीं, इसाइयों की संस्कृति है? है तो है? इससे हमें क्या? अच्छा! तुम मेरे बेटे और अपने भतीजे की शादियाँ याद दिला रहो हो! हाँ। अपने दोनों ने इन शादियों में रिंग सेरेमनियाँ करवाई थीं। अब करवाई थीं तो करवाई थीं! नहीं करवाते तो क्या करते? बच्चे अड़ गए थे। नहीं मान रहे थे। सारा ताम-झाम, सारा ढोल-ढमाका, सब कुछ बच्चों की खुशी के लिए हो तो किया था! ऐसे में, अगर बच्चों का ही दिल टूट जाए तो फिर इस सबका क्या मतलब? और फिर केवल तुम्हारा-हमारा ही कसूर तो नहीं। पण्डित तो दोनों में एक ही था! वही! अपने संगठन का वार्ड अध्यक्ष! अरे! जब संगठन का वार्ड अध्यक्ष ही मन्त्र बोल-बोल कर रिंग सेरेमनी करवा रहा हो तो तुम-हम क्या कर सकते थे? और फिर जरा यह भी तो याद करो कि किसी ने हमें रोका-टोका नहीं। सब तालियाँ बजा रहे थे! है कि नहीं? वो सब तो हमें मजबूरी में करना पड़ा। लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करना तो हमारी जिम्‍मेदारी है! फालतू बातें दिमाग से निकालो और उठो! वैसे ही बहुत देर हो गई है।

अरे? फिर वही आत्मा? तुम्हारी इस आत्मा के चलते तो भारतीय संस्कृति का बण्टाढार ही हो जाएगा। अब तुम जो बता रहे वह तो शहर का बच्चा-बच्चा जानता है! अपन लोग कान्वेण्ट स्कूलों को इसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बता-बता कर उनका विरोध करते हैं और जमकर करते हैं। वह हमारा काम है। हमें अपनी भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए यह करना पड़ता है। लेकिन इससे इस बात का क्या लेना-देना कि अपन दोनों के बच्चे उसी सेण्ट जोसेफ कान्वेण्ट में पढ़ते हैं? यह तो अपने बच्चों के भविष्य का, उनके केरीयर का सवाल है! विरोध अपनी जगह और बच्चों का केरीयर अपनी जगह। जिस दिन वह कान्वेण्ट बन्द हो जाएगा उस दिन हमारे बच्चे अपने आप वहाँ पढ़ना बन्द कर देंगे! वह कान्वेण्ट तुम्हारा-मेरा तो नहीं है ना? फिर इसमें आत्मा बीच में कहाँ से आ गई?

बन्धु! जरा अकल से काम लो। कुछ बातें कहने के लिए होती हैं और कुछ करने के लिए। दोनों एक समान हो, यह बिलकुल ही जरूरी नहीं। और यह तो बिलकुल ही जरूरी नहीं कि दूसरों को जो उपदेश दे रहो हो उस पर खुद भी अमल करो ही। याद रखो - अपने यहाँ धार्मिक होना नहीं, धार्मिक दिखना जरूरी है। भटजी खुद भटे खाते रहते हैं और लोगों को भटे से परेहज करने की सलाह देते रहते हैं। इसलिए, केक काटते रहो, रिंग सेरेमनियाँ करते रहो, अपने बच्चों को क्रिश्चियन मिशनरी के कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाते रहो लेकिन भारतीय संस्कृति की दुहाइयाँ देते रहो, उसके डूब जाने का डर दिखा-दिखा कर हल्ला मचाते रहो। अपन अब तक यही करते रहे रहे हैं और आगे भी यही करना है। यही तो अपनी पहचान है!

इसलिए बन्धु! आत्मा को गोली मारो। उठो! फटाफट तैयार हो जाओ। जिस-जिस ग्रीटिंग कार्डवाले ने हमें गए साल मुफ्त में कार्ड नहीं दिए, जिस फूलवाले ने अपने भिया के स्वागत समारोह के लिए फोकट में मालाएँ और गुलदस्ते नहीं दिए, उन सबको, गिन-गिन कर निपटाना है। हिसाब भी हो जाएगा और भारतीय संस्कृति की रक्षा भी। बड़ा मजा आएगा। खूब हुड़दंग करेंगे। दुकानदारों के, घबराहटभरे और रंगत उड़े चेहरे देख-देख कर छाती ठण्डी हो जाएगी। स्साले! यूँ तो लिफ्ट नहीं मारते लेकिन कल देखना, कैसे गिड़गिड़ाते हैं! 

पुलिसवालों की फिकर बिलकुल मत करो। अपना ही राज है। अपने भिया ने सब सेट कर लिया है। फिर भी कुछ पकड़ा-धकड़ी हो गई तो कह देंगे कि कुछ असामाजिक तत्व हमारे प्रदर्शन में घुस आए थे। उनके लिए हमें कैसे जिम्मेदार ठहरा सकते हैं? गए साल भी तो भिया ने यही कहकर अपन सब को छुड़ाया था! 

इसलिए बन्धु! उठो! भारतीय संस्कृति तुम्हारी ओर आशा भरी नजरों से देख रही है। तुम्हारी बाट जोह रही है। चलो! बढ़ो! संस्कृति की रक्षा भी करो और अपने हाथों की खुजली भी मिटाओ। एक टिकिट में दो शो का आनन्द लो। 

हाँ! देखना! विलीयम की दुकान का ध्यान रखना। उसे बचाना। मैं उस दुकान में स्लीपिंग पार्टनर हूँ और उस दुकान का बीमा भी नहीं करवा रखा है।

16 comments:

  1. धन्य भाग सेवा का अवसर पाया
    पढे अँग्रेजी बच्चों को वही पढ़ाया ...



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  2. संस्कृति के खोल का ढोल न बजाने लगें लोग..

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  3. पश्चिम की है सभ्यता, प्रेमदिवस का वार।
    लेकिन अपने देश में, प्रतिदिन प्रेम अपार।
    --
    आपकी इस पोस्ट का लिंक आज के चर्चा मंच पर भी है!
    सूचनार्थ!

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  4. आज कल तो हर रोज ही कोई न कोई दिवस होता है |कोई कब तक याद रखे |प्यार के इजहार के लिए भी तिथि महूर्त हो यह बड़ी अजीब सी बात लगती है |अच्छा लेख |
    आशा

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  5. पहली बार सौभाग्य मिला चर्चा मंच के द्वारा-
    उत्कृष्ट लेखन -
    आभार आदरणीय -
    हर दिन तो अंग्रेजियत, मूक फिल्म अविराम |
    देह-यष्टि मकु उपकरण, काम काम से काम |
    काम काम से काम, मदन दन दना घूमता |
    करता काम तमाम, मूर्त मद चित्र चूमता |
    थैंक्स गॉड वन वीक, मौज मारे दिल छिन-छिन |
    चाकलेट से रोज, प्रतिज्ञा हग दे हर दिन ||

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  6. बहुत-बहुत धन्‍यवाद रविकरजी। कृपा है आपकी। टिप्‍पणी के रूप में आपकी पंक्तियॉं मेरे लिए किसी 'विशेषज्ञ की राय' से कम नहीं।

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  7. AABHAAR AADARNIY

    वेला वेलंटाइनी, नौ सौ पापड़ बेल ।
    वेळी ढूँढी इक बला, बल्ले ठेलम-ठेल ।


    बल्ले ठेलम-ठेल, बगीचे दो तन बैठे ।
    बजरंगी के नाम, पहरुवे तन-तन ऐंठे।

    ढर्रा छींटा-मार, हुवे न कभी दुकेला ।
    भंडे खाए खार, भाड़ते प्यारी वेला ।।

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  8. हाँ,गुड़ खानेवाला गुलगुलों से परहेज़ करे तो इसमें क्या गलत.ये तो अपना मन है!

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  9. आप कुछ भी लिखो,पब्लिक को कोई फर्क नही पड़ने का-वो तो मनाएगी ही-वेलेण्टाइन डे,और जिनको विरोध करना है,वे भी अपना धर्म निभाएंगे । इसलिए कायकू दिमाग पर ज़ोर डालने का ।

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  10. सुन्दर प्रस्तुति...
    प्यार पाने को दुनिया में तरसे सभी, प्यार पाकर के हर्षित हुए हैं सभी
    प्यार से मिट गए सारे शिकबे गले ,प्यारी बातों पर हमको ऐतबार है

    प्यार के गीत जब गुनगुनाओगे तुम ,उस पल खार से प्यार पाओगे तुम
    प्यार दौलत से मिलता नहीं है कभी ,प्यार पर हर किसी का अधिकार है

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  11. ले देके एक ठौ तो दिन हैं मिलन मनाने का बाकी दिन तो खाप के हैं .बढिया तंज कलमुँहों पर .

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  12. App ka yaha lekh bhot hi badhiya hain lekin samaj kanthako par in sab chijo ka kabi koi asar nahi pada hain aur na padenga, diye ko khud pata nahi hota k us k niche kitna andhera hota hain. aise hi samaj kanthak log hote hain.

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  13. आपने संस्कृति के तथाकथित रक्षकों के मुखौटे उतार दिए हैं

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  14. आपने संस्कृति के तथाकथित रक्षकों के मुखौटे उतार दिए हैं

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  15. हर रोज ही दिवस होता है आजकल विष्णु जी

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