शादियों का ‘सीजन’ है। बड़ी मुश्किल हो रही है। एक दिन में तीन-तीन तो कभी चार शादियाँ ‘अटेण्ड’ करनी पड़ रही हैं। छोड़ भी नहीं सकता। बीमा एजेण्ट जो हूँ! किसी को नाराज करने की जोखिम मोल नहीं ले सकता। ‘दो पैसों का लालच’ हर बार मजबूर कर देता है।
लेकिन मुश्किल यही नहीं है। मुश्किल यह भी है कि लिफाफे में ‘कितना’ रखा जाए। याद करना पड़ता है कि जब अपने यहाँ काम पड़ा था तो सामनेवाले ने कितना ‘व्यवहार’ किया था। और, जिसके यहाँ पहली बार काम पड़ रहा है तो मुश्किल और भी बढ़ जाती है। अपनी हैसियत से करो तो कम लगता है और सामनेवाले की हैसियत से करो तो ‘बैरागी’ बनने की नौबत आ जाए।
इसी उहापोह में एक ‘राजसी विवाह आयोजन’ याद हो आया और कुछ रास्ता सूझ रहा है।
बात 1980 के आसपास की है। मैं एक ‘लक्ष्मी-पुत्र’ की बारात में गया था। अपने मेजबान की हैसियत की बड़ी अकड़ थी हम सब बारातियों को। लेकिन जैसे ही लड़कीवाले के यहाँ पहुँचे, हमारी बोलती बन्द हो गई। हमने पाया कि हमारे पास एक ही ‘प्लस प्वाइण्ट’ है - ‘हम लड़केवाले हैं।’ (आज भले ही स्थितियाँ बदल रही हों किन्तु उस काल खण्ड में तो यह बहुत बड़ा ‘प्लस प्वाइण्ट’ हुआ करता था।) अन्यथा, आर्थिक हैसियत के मामले में लड़कीवाला ‘विराट’ था और हमारा मेजबान, लक्ष्मी-पुत्र, किसी भी हालत में, ‘वामन’ से अधिक नहीं। लड़कीवाला रत्नों की सिल्लियों का थोक व्यापारी और विदेशों में जिसकी दुकानें।
वैसी शादी मैंने उसके बाद आज तक दूसरी नहीं देखी। ‘वैभव का चरम’ जैसे शब्द अभी भी अपर्याप्त लग रहे हैं मुझे। उस समय, साठ फीट का मंच, पूरे समारोह की, सोलह एमएम फिल्म शूटिंग, शायद ही कोई क्षण ऐसा रहा होगा जिसमें केमरे की फ्लेश गन नहीं चमकी हो। केमरे में रोल लोड करने के लिए तीन-तीन सहायक।
खातिरदारी ऐसी कि हम कुछ सोचें, उससे पहले ही ‘मुराद’ पूरी हो जाए। पाँच सितारा व्यवस्थाएँ और ‘कोर्सवाइज’ भोजन क्या होता है - हममें से अधिकांश ने पहली बार जाना। हमने तीन समय भोजन किया किन्तु पानी और नमक के अतिरिक्त एक भी चीज/व्यंजन ऐसी नहीं थी जो थाली में दुबारा नजर आई हो। बाकी लोगों का पता नहीं लेकिन अपनी कहूँ तो मैं पूरे समय ‘प्रभावित’ से कोसों आगे बढ़कर ‘आतंकित’ जैसा रहा उन व्यवस्थाओं में। मेरे लिए तो वह सब बिलकुल ‘न सुना, न देखा’ जैसा था - लोक-कथाओं या परी-लोक जैसा।
किन्तु बारात की बिदा-वेला में, कन्या के पिता ने जो किया, उसने (कम से कम मुझे तो) ‘नत-मस्तक’ कर दिया। कहते हैं कि पैसा सर पर चढ़कर बोलता है। या फिर कि, वह पैसा ही क्या जो सर पर चढ़कर न बोले? लेकिन समापन क्षणों में समझ में आया कि पैसा तो बोल रहा था लेकिन सर पर चढ़कर नहीं।
अन्तिम भोजन के समय, कन्या के पिता ने प्रत्येक बाराती को तिलक लगा कर जो बिदा-भेंट दी, उसने हम सबको चौंका दिया। किसी को विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी हो सकता है? लेकिन ‘सकता’ क्या होता, हो चुका था। कन्या के पिता ने बिदा-भेंट के रूप में प्रत्येक बाराती को दो-दो रुपये दिए। नोट तो सारे के सारे कड़क थे किन्तु थे दो-दो रुपयों के ही। हम सब अपना-अपना नोट हाथ में ले, विस्फारित नेत्रों से एक दूसरे को देखे जा रहे थे और कन्या के पिता, अत्यन्त विनम्र भाव और मुद्रा में, तिलक निकाल कर, नोट थमाते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। विनम्रता का चरम यह कि जब वे हमारी बस के ड्रायवर को बिदाई देने लगे तो हममें से एक ने टोका - ‘यह तो हमारा ड्रायवर है।’ उत्तर में वे हाथ जोड़कर बोले - ‘ये ड्राइवर होंगे आपके यहाँ। मेरे यहाँ तो ये, मेरे माथे के मौर बन कर पधारे हैं।’ यह ऐसा विरोधाभास था जो न तो समझ में आ रहा था और न ही सहन हो पा रहा था। हम सब एक-दूसरे को टटोल रहे थे, कन्या के पिता के इस ‘अजूबे व्यवहार’ का रहस्य जानने के लिए। लेकिन सब के सब जिज्ञासु थे - सयाना एक भी नहीं।
मुझे यह बात हजम नहीं हुई। रहा नहीं गया और हाथ जोड़कर (सचमुच में हाथ जोड़कर) कन्या के पिता के सामने खड़ा हो गया। पूछा - ‘यह, दो रुपयों वाली बात समझ में नहीं आई।’ उन्होंने जो कुछ कहा, वह मेरे लिए किसी भी ‘जीवन सूत्र’ से कम नहीं था। नीची नजर किए, बहुत ही धीमी आवाज में (शायद यह कोशिश करते हुए कि कोई सुन न ले) वे बोले - ‘विष्णुजी! बारात के लिए मैंने जो कुछ किया, वह तो मेहमानदारी था। वह तो मुझे अभी भी बहुत कम लग रहा है। लेकिन आप जो पूछ रहे हैं, वह मेरा व्यवहार है। मेरे खानदान के बुजुर्गों ने मुझे हमेशा यही समझाया कि व्यवहार ऐसा करो जिसे सब निभा लें। (फिर, हम बारातियों की ओर इशारा करते हुए बोल) क्या पता, ईश्वर की कृपा से मुझे किसी के आँगन में, किसी प्रसंग पर उपस्थित होना पड़े तो उस समय व्यवहार निभाने में किसी को असुविधा या संकोच नहीं झेलना पड़े। इसलिए, मेरा व्यवहार तो यह, दो रुपयों का ही है।’
सुनकर मेरी जो दशा तब हुई थी, वही की वही अभी, इस समय, यह सब लिखते हुए हो रही है। तब मुझसे कुछ बोला नहीं गया था और इस समय कुछ लिखा नहीं जा रहा। इस जीवन सूत्र को जिस तरह से और जिस स्तर पर अनुभव किया था, उसे व्याख्यायित करना मेरे लिए न तब सम्भव हुआ था न अब हो पा रहा है।
यह कठिन काम आप ही कर लीजिएगा और तय कर लीजिएगा कि लिफाफे में कितना रखना है।
वाकई यह जीवन सूत्र है। हर मोड़ पर काम आने वाला। आभार आपका जो आपने इसे हम सब से साझा किया।
ReplyDeleteवाकई बहुत उहापोह की स्थिती होती है कई बार, हमने भी यही नियम कई बरसों से बना रखा है, खैर अब आधुनिकता की दौड़ में इतना आगे बड़ चुके हैं कि समाज में संबंध खो चुके हैं, क्योंकि हर ३-४ वर्ष में या तो हमारा शहर बदल जाता है या फ़िर रहने की जगह, मुझे तो अच्छे से याद भी नहीं कि रिश्तेदारी के अलावा मैं आखिरी बार पिछले ६-७ वर्षों में किसी शादी में गया हूँ, इस तरह के संबंधों को बनाने के लिये वाकई समाज बहुत समय लेता है यह भी एक तरह से बहुत बड़ा घाटा है हमारे लिये और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये भी ।
ReplyDeleteव्यवहार की बात बहुत महत्व की है. शहरों की लिफ़ाफ़ेवाजी की तो क्या कहिए पर हां हमारे यहां 10 रूपये से ज़्यादा का रिवाज़ नहीं है. अगर कोई ज़्यादा देता है तो लौटा दिया जाता है.
ReplyDeleteयह तो बड़ी अच्छी बात बताई काजल जी आपने. काश हर समाज में यह हो पाता.
Deleteवैसे, आदमी का सर्वकालिक व्यवहार एक पैसा ही हो सकता है. न कम न ज्यादा.
जब ज़्यादा पैसे देने वाला सामर्थ्य के कारण या दिखावे के चलते दूसरों से अधिक देने का दम भरता है तो, कई अन्य को समाज में बेबात नीचा देखना पड़ता है इसलिए आवश्यक है कि इस प्रकार की प़वृत्तियों को बढ़ावा न मिले. रवि जी, बस एक शुरूआत की देरी भर है.
Deleteमुझे, सेंधवा (निमाड, मध्य प्रदेश) के अग्रवाल समाज के बारे में बताया गया है कि मेजबान यदि 'बेटे का बाप' है (याने, आपको यदि लडके के विवाह में आमन्त्रित किया गया है) तो कोई भेंट स्वीकार नहीं की जाएगी। केवल लडकी के विवाह में भेंट स्वीकार की जाती है वह भी अधिकतक एक सौ रुपये। जो भी कोई लिफाफा देता है, उसके सामने ही खोल कर देख लिया जाता है और रकम यदि एक सौ रुपयों से अधिक होती है तो, एक सौ रुपये रख कर बाकी रकम लौटा दी जाती है।
Delete'अग्रवाल समाज' में ऐसा होना अपने आप में उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है।
व्यवहार उतना ही करें जो निभा लें..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सीख की बात है। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर।
ReplyDeleteधन्य हैं आप जो उस समारोह मे पहुंचे, और क्या खूब क्स्मत अपनी जो यह सारी कथा पढ़ने को मिली, धन्यवाद!
ReplyDeleteअभी कल ही मैं ज्ञानजी की पोस्ट के बाद सोच रहा था, पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहा था, आज आपकी पोस्ट देखी तो बुद्धि के जाले कुछ कम हो गए।
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए हृदय से आभार...
एक बहुत अच्छी और सच्ची सीख मिली ..... दिल भी भर आया ऐसी सकारात्मक सोच पर ... सादर !
ReplyDeleteलिफाफे में कितना रखें, यह समस्या प्रायः परेशान कर देती है।
ReplyDeleteलड़कीवाला ‘विराट’ था, रत्नों की सिल्लियों का थोक व्यापारी और विदेशों में जिसकी दुकानें। ऐसा व्यक्ति दो रुपए हाथ पर रखे या लफाफे में तो महान कहलाएगा। छोटा या आम व्यक्ति यही करे तो अपनी थू थू करवाएगा।
हम तो उस दिन जेब में कितने पैसे हैं, मूड कैसा है के हिसाब से ही दे सकते हैं। हमें व्यवहार तो करना नहीं। न अपने विवाह में किसी से कुछ लिया ना बेटियों के में, न भविष्य में कुछ लेना है। न हम एक स्थान पर टिकते हैं। सबकुछ अटकलपच्चू तरीके से चलता रहा है और रहेगा।
घुघूती बासूती
''ऐसा व्यक्ति दो रुपए हाथ पर रखे या लफाफे में तो महान कहलाएगा। छोटा या आम व्यक्ति यही करे तो अपनी थू थू करवाएगा।''
Deleteइस मामले में मुझे बात वह नहीं लगी जैसा कि आपने सोचा/कहा। इस मामले में ''ऐसे व्यक्ति'' द्वारा दो रुपये देने के पीछे, समाज के कमजोर आदमी की, उसके द्वारा की गई चिन्ता लगती है मुझे। सामाजिक व्यवहार के क्षणों में श्रीसम्पन्न व्यक्ति, अपनी हैसियत के प्रदर्शन भाव के अधीन किसी 'गरीब के सम्मान' की चिन्ता नहीं करता। इस मामले में, यह चिन्ता की गई - ऐसा मेरा मत है।
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ReplyDelete.
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समय आ गया है कि अब यह दो-दस या सौ रूपये का 'व्यवहार' भी भूल हम अगली सीढ़ी चढ़ें... आप आयोजन में लिफाफा ले ही क्यों जाते हैं... मैं कभी नहीं ले जाता और न ही किसी से उम्मीद करता हूँ कि मेरे घर के आयोजन में वह लेकर आये...
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फेस बुक पर श्री अजित मोगरा, मुम्बई की टिप्पणी -
ReplyDeleteकन्या के पिता का व्यवहार सचमुच काबिले तारीफ था| अभी अभी मुंबई में एक शादी के बारे में बहुत चर्चा है। शादी में महिला संगीत में बीएमडब्ल्यू और ऑडी कार भेट स्वरुप दी गई। बहुत दुःख हुआ की आज कल लोग अपनी हैसियत दिखने के लिए क्या क्या नहीं करते..............
फेस बुक पर श्री रमेश चोपडा, बदनावर की टिप्पणी -
ReplyDeleteसचमुच आपने तो कठिन समस्या का हल कर दिया ....।
फेस बुक पर श्रीआलोक कृष्ण अग्रवाल, आगरा की टिप्पणी -
ReplyDeleteशादी में कितना दिया जाय, यह विचार अक्सर मध्यम वर्ग की चिन्ता ही नहीं बजट की भी परेशानी का विषय बन जाता है। यह एक ऐसी बीमारी हे जिसका हल हमारे समाज के बुध्दिजीवी वर्ग को व हर जागरूक, जिम्मेदार इंसान को निकालना ही होगा।
फेस बुक पर श्री अमित चौधरी, आलोट की टिप्पणी -
ReplyDeleteसीखने की बात है।
फेस बुक पर श्री मोहन वर्मा, देवास की टिप्पणी -
ReplyDeleteसरल सहज बात ..बहुत अच्छी लगी।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 06-12 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete....
सफ़ेद चादर ..... डर मत मन ... आज की नयी पुरानी हलचल में ....संगीता स्वरूप
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कोटिश: धन्यवाद और आभार। आपने मुझे सम्मानित भी किया और विस्तारित भी। कृतज्ञ हूँ और सदैव कृपाकांक्षी हूँ।
Deleteफेस बुक पर श्री उत्तम साहू, जॉंजगीर की टिप्पणी -
ReplyDeleteवाह। बहुत ही अच्छी सोच।
यही हाल अपना भी है ..एक तो बच्चों की परीक्षा के दिन और फिर एक के बाद एक शादी ..एक चक्कर लगाना ही पड़ता है और फिर लिफाफे की तो मत पूछो ...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट !
ReplyDeleteसादर
बहुत बढ़िया पोस्ट...
ReplyDeleteएकदम व्यवहारिक ...
आभार
अनु
हम लोगों की बहस का मुद्दा भी ये ही था ...जो की बिना किसी हल के हमें रोकना पड़ा क्यों कि बहस बढ़ने लगी थी ..
ReplyDeleteसार्थक और गंभीर मुद्दा व्यंग्य में भी :)))
ये निभाव तलवार की धार की तरह है..संभल कर निभाना होता है .
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री महेन्द्र श्रीवास्तव, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत अच्छी बात बताई।
फेस बुक पर श्री रवि कुमार शर्मा, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteव्यवहार एसा ही होना चाहिए। रुपये पैसो से तौला, वो क्या व्यवहार हुआ?
फेस बुक पर श्री सतीश कुमार मलिक, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteव्यवहार वही होना चाहिए जो सब निभा लें। आपका यह लेख पढकर अच्छा लगा।
फेस बुक पर श्री दिलीप जैन, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteदादा! गजब!
मुझे तो वो लोग अच्छे लगते है,जो कार्ड पर ही लिख देते है,कि आपका आशीर्वाद ही श्रेष्ठ उपहार है और लिफाफा लेते भी नही है । न लिफाफे देना न लिफाफे लेना । ऐसा सब करने लगे तो हम सुधर जाये ।
ReplyDeleteव्यवहार में की गई समझदारी मेहमानदारी में भी होना चाहिए। दिखावे पर खर्च हुई रकम किसी अन्य हतोत्साहित कर सकती है। आखिर एक का दिखावा दूसरे को दिखावे के लिए प्रोत्साहित ही करता है।
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