ज्योतिर्लिंग भीमा शंकर की यात्रा प्रारम्भ में जितनी उत्सुकता भरी थी, समापन में उसका रोमांच नाम मात्र का भी नहीं था। बस! एक ही आनन्द था - एक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिए।
पुणे से कोई सवा सौ-एक सौ तीस किलामीटर की यह यात्रा हरी-भरी तो होती है किन्तु नयनाभिराम नहीं। हाँ, आप यदि सौन्दर्य-बोध के धनी हैं और सुन्दरता आपकी आँखों में बसी है तो आप निराश नहीं होंगे।
आधे रास्ते की सड़क अच्छी है और आधे रास्ते की ठीक-ठीक। अच्छीवाली सड़क पर यातायात की अधिकता के कारण और ठीक-ठीकवाली सड़क पर ‘ठीक-ठीकपन’ के कारण वाहन की गति अपने आप ही सीमित और नियन्त्रित रहती है। जाते समय हमने बस यात्रा की थी और लौटते में, अनियमित रूप से चलनेवाली प्रायवेट टैक्सी से। लेकिन आते-जाते यात्रा का समय बराबर ही रहा। ‘ठीक-ठीक’ सड़क ‘सिंगल लेन’ होने के कारण सामने से और पीछे से आ रहे वाहनों को रास्ता देने के कारण, चालक को वाहन की गति अनचाहे ही धीमी करनी पड़ती है।
वाहन आपको मन्दिर पहुँच मार्ग के लगभग प्रारम्भिक छोर पर पहुँचा देते हैं। मुश्किल से सौ-डेड़ सौ मीटर की दूरी पर, मन्दिर की सीढ़ियाँ शुरु हो जाती हैं। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी में है। सो जाते समय आपको सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं और आते समय चढ़नी पड़ती है। सीढ़ियों की संख्या 227 हैं। सीढ़ियाँ बहुत ही आरामदायक हैं - खूब चौड़ी और दो सीढ़ियों के बीच सामान्य से भी कम अन्तरवाली। फिर भी, लौटते समय, चढ़ते-चढ़ते हम पति-पत्नी की साँस फूल आई। उम्र और मोटापा ही कारण रहे। अन्यथा, अन्य लोग सहजता से चढ़ रहे थे। सीढियॉं आपको मन्दिर के पीछेवाले हिस्से में पहुँचाती हैं। अर्थात्, मन्दिर के प्रवेश द्वार के लिए आपको घूम कर जाना पडता है।
मन्दिर काफी पुराना है। खिन्नतावाली बात यही कि इसके बारे में और ज्योतिर्लिंग के बारे में न तो मन्दिर में कोई जानकारी प्रदर्शित है और न ही कोई बतानेवाला। न तो मन्दिर का प्रांगण भव्य और लम्बा-चौड़ा है न ही मन्दिर का मण्डप। सब कुछ मझौले आकार का।
शिवलिंग बहुत ही छोटे आकार और कम उँचाई का है। गर्भगृह में जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है। सनातनधर्मियों के तमाम तीर्थ स्थानों की तरह यहाँ भी शिव लिंग के चित्र लेना निषेधित है। गर्भगृह के बाहर, एक दर्पण लगाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि मण्डप में खड़े रहकर आप शिवलिंग के दर्शन कर सकें। यहाँ एक ही चित्र, दो स्थितियों में दे रहा हूँ जिससे यह बात अधिक स्पष्टता से समझी जा सकेगी।
रख-रखाव और साफ-सफाई ठीक-ठाक है। भीमा नदी इस मन्दिर के पास से ही निकली है। इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग को भीमा शंकर कहा गया।
किन्तु हमें यह देखकर निराशा हुई कि नदी के नाम पर एक बावड़ी जैसी आकृति बनी हुई है। अब तक हमने जितने शिव स्थान देखे, उनमें यह पहला ऐसा स्थान था जहाँ ‘बहती जल धारा’ नहीं थी।
पण्डित-पण्डों वाली परेशानी यहाँ बिलकुल ही नजर नहीं आई। सब कुछ आपकी इच्छा और श्रद्धानुसार। मन्दिर आने के लिए पहली सीढ़ी से लेकर अन्तिम सीढ़ी तक, पूरे रास्ते पूजन सामग्री और फूलों की तथा ‘लिम्बू-पाणी’ की दुकानें आपको निमन्त्रित करती चलती हैं। पीने का सामान्य पानी बिलकुल नहीं मिलता है। ‘लिम्बू-पाणी’ की प्रत्येक दुकान पर बोतलबन्द पानी बिक्री के लिए उपलब्ध है। अन्य तीर्थ क्षेत्रों की तरह प्याऊ की व्यवस्था बिलकुल ही नहीं है। लौटते में हमने एक होटल से पीने का पानी माँगा तो बेरुखी से मना कर दिया गया।
आहार और स्वल्पाहार की काम चलाऊ व्यवस्था यहाँ है। एक-दो मकानों पर रहने की व्यवस्था के सूचना फलक भी नजर आए। हमें ताज्जुब हुआ - भला यहाँ कौन ठहरता होगा!
बिना माँगी सलाह यह है कि यहाँ पहुँचने से पहले लौटने की चिन्ता और व्यवस्था कर लें। पुणे के शिवाजीनगर बस स्थानक से, प्रायः हर घण्टे में भीमाशंकर के लिए बस मिलती है। किन्तु लौटते समय अन्तिम बस (भीमा शंकर से) शाम 6 बजे है। शिवाजी नगर बस स्थानक के पास से ही प्रायवेट टैक्सियाँ भी मिलती हैं लेकिन उनकी नियमितता निश्चित नहीं है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौटते समय हमें ऐसी ही एक टैक्सी में आसानी से जगह मिल गई।
देव दर्शन की तृप्ति इस यात्रा की हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र उपलब्धि रही।
दर्पण के माध्यम से शिवलिंग के दर्शन करानेवाला एक ही चित्र दो स्थितियों में।
मन्दिर के पीछे वाले हिस्से में खड़ी, मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी।
फेस बुक पर श्री सुनील ताम्रकार, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDelete"एक ही आनन्द था - एक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिए।" चलिए! आपकी यात्रा संस्मरणों से मुझे भी दर्शन जैसे हो गए। इस यात्रा के दरमियां आप अजन्ता - एलोरा भी घूमे या नहीं?"
दर्शन हो गये, आनन्द का विषय है।
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