‘अगली बार’ की प्रतीक्षा, हर बार

ये हैं हमारे डॉक्टर संघई साहब (डॉक्टर विजय कुमारजी संघई) और उनकी उत्तमार्द्ध, हमारी मीरा भाभी। मेरी पीढ़ी के बादवालों को तो पता ही नहीं होगा कि डॉक्टर साहब मूलतः मनासा के निवासी नहीं है। नागपुर के पास अंजनगाँव के मूल निवासी थे। मेरे गाँव मनासा (जिला नीमच) के सरकारी अस्पताल में सहायक सर्जन बन कर आए थे। उस जमाने में, जब इनके हस्ताक्षरों से मनासा के सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह सरकारी खजाने से निकल पाती थी।

नौकरी करते-करते वे कब मनासा के हो गए, न तो उन्हें पता लगा और न ही मनासा के लोगों को। अचानक ही उनका तबादला हुआ तो उन्हें और पूरे मनासा को याद आया - ‘अरे! ये तो सरकारी नौकरी में हैं।’
 
मनासा में मानो भूचाल आ गया था। डॉक्टर साहब भोपाल गए - पता नहीं, तबादला रुकवाने या त्याग-पत्र देने। किन्तु लौट कर मनासा पहुँचते, उससे पहले ही मनासा के लोग उनका भविष्य तय कर चुके थे। खाली पड़ा, जगदीश टॉकीज लोगों ने उनके लिए किराये पर ले लिया था। डॉक्टर साहब मनासा बस स्टैण्ड पर उतरे तो लोगों ने जगदीश टॉकीज की चाबी थमा दी - ‘लीजिए! अपना अस्पताल शुरु कीजिए।’ डॉक्टर साहब ने भी लोगों का कहा मान लिया, चुपचाप। और कुछ ही दिनों बाद वहाँ ‘मंगला क्लीनिक्स एण्ड नर्सिंग होम’ शुरु हो गया।
 
अस्पताल शुरु हुआ और जैसे, होली की माँदल की मादक थाप, धीरे-धीरे पूरे वातावरण को अपनी गिरफ्त में ले लेती है, सबको बेसुध कर देती है, कुछ इसी तरह डॉक्टर साहब का यह अस्पताल पूरे मनासा और आसपास के गाँवों की आदत बन गया।
 
आज संघई परिवार और मनासा ‘यौगिक’ बने हुए हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि कभी कोई अचानक ही डॉक्टर साहब से पूछे -‘डॉक्टर साहब! आप कहाँ के हो?’ तो डॉक्टर साहब कहें - ‘एक मिनिट रुक। सोच कर बताता हूँ।’ डॉक्टर साहब की दोनों बेटियों और तीनों बेटों ने मनासा में ही आँखें खोलीं। आज डॉक्टर साहब और मीरा भाभी अपनी तीसरी पीढ़ी का सुख भोग रहे हैं। बड़ा बेटा मनोज, ‘छोटे डॉक्टर साहब’ बन कर विरासत को बेहतरी देने की जिम्मेदारी निभा रहा है। ‘मंगला क्लनिक्स एण्ड नर्सिंग होम’ खुलने के बाद मनासा में और भी निजी अस्पताल खुले तो हैं किन्तु अधिसंख्य परिवारों का  ‘खानदानी डॉक्टर’ का जिम्मा संघई साहब ही निभा रहे हैं। स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि फोन की घण्टी बजती है, डॉक्टर साहब ‘हेलो’ कहते हैं। उधर से आवाज आती है - ‘डॉक्टर साहब! मैं रामनारायण बोल रहा हूँ। सात दिन पहले आपने बई (माँ) को देखा था। सुबह तक तो ठीक थी लेकिन दोपहर से फिर से खाँसी का दौरा पड़ गया है। क्या करूँ?’ डॉक्टर साहब पूछते हैं - ‘कौन रामनारायण? विश्वनाथजी का बेटा?’ उधर से जवाब आता है - ‘हाँ डॉक्टर साहब। वो ही।’ और डॉक्टर साहब फोन पर ही दवा बता देते हैं। 
 
ऐसा पाँच-सात बार हुआ कि संघई साहब मनासा से बाहर थे और मेरी माँ बीमार हो गई। दूसरे डॉक्टर से ईलाज करवाया किन्तु तबीयत ठीक नहीं हुई। हम जब भी गोलियाँ/दवाइयाँ देते, वह मना करती - ‘मुझे मत दो ये गोलियाँ। मेरा ईलाज तो संघई साहब ही करेंगे।’ और होता भी ऐसा ही। संघई साहब आते। मेरी माँ को देखते। दूसरे डॉक्टर की दी हुई गोलियों/दवाइयों को देखते और कहते - ‘ठीक तो है!  और कौन सी दवा दूँ? यही ईलाज चलेगा आपका।’ और हर बार हम सब ने देखा कि दूसरे डॉक्टर की जो गोलियाँ माँ पर असर नहीं कर रही थीं, संघई साहब के देखने के बाद वे ही गोलियाँ असरकारक हो जातीं। ऐसी दशा केवल मेरी माँ की नहीं थी। गोया, संघई साहब डॉक्टर न रह कर खुद औषधि बन गए - समूचे अंचल के।

 
लेकिन मुझे डॉक्टर साहब के बारे में नहीं, मीरा भाभी के बारे में लिखना है।

 
मेरे परिवार के सन्दर्भ में कहूँ तो मेरी माँ और भाभी के बाद मीरा भाभी ही हमारे घर की सबसे बड़ी महिला सदस्य बनी रहीं। मैंने मनासा छोड़ दिया। मनासा आना-जाना दिन-ब-दिन कम होता गया। लेकिन संघई साहब और मीरा भाभी से मिलना हर बार अनिवार्यता होता है। हर बार बाकी सारी बातें तो बदल जाती हैं किन्तु एक बात बिलकुल नहीं बदलती - मीरा भाभी की ‘मीरा सुपर चाय।’

 
किस्सा कुछ इस तरह ‘अथ’ से ‘इति’ तक पहुँचता है -

 
मैं अस्पताल पहुँचता हूँ। डॉक्टर साहब और मीरा भाभी के चरण स्पर्श करता हूँ। दोनों खुश होते हैं। मुझे आशीर्वाद देते हैं। डॉक्टर साहब प्रायः ही व्यस्त रहते हैं। सो, मैं मीरा भाभी के पास ही बैठ जाता हूँ। कुशल-मंगल जानने के बाद सम्वाद शुरु होता है -

‘विष्णु! चाय तो पीएगा ना?’

‘हाँ भाभी! पीयूँगा तो सही। लेकिन बिना शकर की।’

‘बिना शकर की? क्यों? शुगर हो गई क्या?’

‘नहीं भाभी! शुगर नहीं है।’

‘तो फिर बिना शकर के क्यों?’

‘वो क्या है भाभी कि वजन बहुत बढ़ गया है और चलना-फिरना होता नहीं। इसलिए शकर बन्द कर दी। शकर से वजन बढ़ता है। डॉक्टर साहब ही तो कहते हैं!’

‘हाँ। वो तो है। सही बात है। अच्छा किया जो शकर छोड़ दी। कब से छोड़ी?’

‘बहुत दिन हो गए भाभी।’

‘बिलकुल नहीं लेता?’

‘नहीं भाभी। कभी-कभी लेनी पड़ जाती है। बीमे का मेरा काम ही ऐसा है। जहाँ जाओ, चाय आगे मिलती है। लोग मुझसे पूछे बिना बना लेते हैं तो शकरवाली चाय पीनी पड़ जाती है। वरना मैं फीकी चाय ही पीता हूँ।’

सम्वाद के दौरान ही मीरा भाभी का, चाय बनाने का उपक्रम चालू रहता है। गैस जलाई। दूध-पानी रखा। कुनकुना हुआ नहीं कि इलायची-मसाला डाला। चाय उबलने को होती है। मीरा भाभी चाय-पत्ती डालती हैं। एक-दो उबाल आए नहीं कि भाभी पूछती हैं -

‘शकर बिलकुल ही नहीं लेता कि कम शकर लेता है?’

‘नहीं भाभी। बिलकुल ही नहीं।’

‘नाम को भी नहीं?’

‘नहीं भाभी। नाम को भी नहीं। बिलकुल फीकी।’

‘बात तो अच्छी है लेकिन फीकी चाय कैसे पीता होगा तू? कैसी लगती होगी?’

‘आराम से पी लेता हूँ भाभी। अच्छी लगती है। आदत हो गई है।’

‘वे तो ठीक है। लेकिन बिना शकर की चाय, चाय नहीं होती।’

तब तक चाय अच्छी-भली उबल चुकी होती है। इतनी कि बस छानना ही बाकी रह जाता है। इस बीच मीरा भाभी, रसोई के प्लेटफार्म पर कप-प्लेट जमा चुकी होती हैं। अब कुछ भी काम बाकी नहीं है। बस! चाय छाननी बाकी है। तभी मीरा भाभी सुर बदलती हैं -

‘तेने कहा कि कभी-कभी शकरवाली चाय पीनी पड़ जाती है?’

‘हाँ भाभी।’

‘तो फिर ऐसा करना कि अगली बार फीकी पी लेना। आज शकरवाली पी ले।’

और मैं कुछ कहूँ उससे पहले मीरा भाभी, बिजली को मात देती हुई ‘एक..दो..तीन..चार..पाँच....’ गिनती हुई, ‘मुक्त-मन, मुक्त-हस्त’ से, औढरदानी बन, उबलती चाय में शकर डाल देती हैं और जब तसल्ली हो जाती है कि हाँ, अब शकर घुल भी गई और उबल भी गई - तो तसल्ली से, ‘सेठाणी के ठसके और माँ की फिकर से’ चाय छान कर कप थमाती हुई कहती हैं - ‘बात तो तेरी बिलकुल ठीक है विष्णु! लेकिन बिना शकर की चाय, चाय नहीं होती। शकर में चाय कम से कम इतनी तो होनी ही चाहिए कि पीते-पीते होठ चिपक जाएँ। चाय तो ऐसी ही होती है। नहीं तो चाय, चाय नहीं होती।’

मैं कुछ नहीं बोलता हूँ। हँसते-हँसते कप थाम लेता हूँ। मुझे पहले ही क्षण से पता रहता है कि ऐसा ही होगा - वे हर बार कहती हैं ‘अगली बार फीकी पी लेना’ लेकिन यह ‘अगली बार’ एक बार भी नहीं आता। हर बार ‘अगली बार’ बना रहता है - बिलकुल, गाँव की, परचून की दुकान पर, गत्ते पर चिपकाए कागज पर लिखी इबारत ‘आज नगद-कल उधार’ की तरह, जहाँ उधार मिलनेवाला कल कभी नहीं आता।

मुझे चाय पीता देख मीरा भाभी पूछती हैं - ‘ज्यादा मीठी तो नहीं हुई?’

मैं जवाब देता हूँ - ‘‘नहीं भाभी! बिलकुल भी नहीं। बस! पहले जैसी ही मीठी है - ‘मीरा सुपर चाय’ का स्टैण्डर्ड बराबर बना हुआ है।’’ वे खुश हो जाती हैं। मानो, मुझसे यही सुनने के लिए सारा खट-करम किया हो। मैं सहास्य पूछता हूँ - ‘भाभी! आप कभी फीकी चाय पीलाएँगी भी?’ वे मुझसे अधिक सहास्य उत्तर देती हैं - ‘‘कभी की तभी देखी जाएगी। आज तो तू ‘मीरा सुपर चाय’ पी ले।’’

मुझे उनका कहा मानना ही है। चुपचाप मान लेता हूँ। ‘मीरा सुपर चाय’ पीने लगता हूँ।

6 comments:

  1. डॉ साहब और मीरा भाभी से परिचय करवाने का धन्यवाद .

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  2. अक्सर ऐसा ही होता है, खैर यह तो अपनों का प्यार है।

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  3. कुछ और भी है यहां शक्‍कर से अधिक मीठा.

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  4. स्नेहिल व्यवहार से अधिक क्या चाहिये जीवन को।

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  5. मीरा भाभी का प्रेम देखकर लगता है वो बिना शक्कर की चाय बनाएगी तो भी मीठी लगेगी । एक बार साग्रह उनसे फीकी चाय बनवाना और पीना,मीठी ही लगेगी ।

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