अपने चार दिवसीय पुणे प्रवास में जिस बात ने मुझे सर्वाधिक आकृष्ट और प्रभावित (और खुद पर लज्जित भी) किया, वह थी - लोगों का, नागरिक-बोध से ओतप्रोत सार्वजनिक आचरण।
इन चार दिनों में मैंने पुणे से बाहर, ‘अष्ठ विनायक’ के कारण आठ स्थानों की, और भीमाशंकर ज्योर्तिलिंग के कारण एक स्थान की, कुल मिलाकर लगभग आठ सौ किलोमीटर की यात्रा की। गन्तव्य स्थानों के अतिरिक्त रास्ते में कुछ स्थानों पर रुका। आहार-अल्पाहार किया। लोगों से बातें की। लेकिन सब कुछ मुझे चकित भी करता रहा और प्रभावित भी। ऐसे प्रत्येक क्षण और अवसर पर मुझे मेरे अंचल का सार्वजनिक व्यवहार याद आता रहा और मैं स्वीकार करता हूँ कि हर बार मैं अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा हुआ। चूँकि मेरी नजर ‘खोजी’ नहीं है और न ही सामाजिक व्यवहार का विश्लेषण करने की सूझ मुझे है, इसलिए मैं बिलकुल ही नहीं जान सका कि किन्हीं दो समाजों में ऐसा, सचमुच में जमीन-आसमान का, अन्तर क्यों और कैसे हो सकता है?
साफ-सफाई के मामले ने मुझे ठेठ अन्दर तक प्रभावित किया। यहाँ दिए दो चित्रों में से एक चित्र शिवाजी नगर एसटी बस स्थानक (राज्य परिवहन बस स्टैण्ड) का तथा दूसरा, गन्ने के रस की एक दुकान का है। इन दोनों ही स्थानों की सफाई देखते ही बनती है। ये दोनों ही जगहें ऐसी हैं जहाँ लोग उन्मुक्त आचरण करते हैं और कचरा फैलने की स्थितियाँ आसानी से बनती हैं। किन्तु आश्चर्य कि एक भी स्थिति का दुरुपयोग नहीं होता। गन्ने के रसवाली दुकान में गन्ना पेराई के कारण कचरा फैलने की स्थितियाँ सहज भाव से बनी रहती हैं किन्तु दुकानदार बड़ी ही सहजता से, आदत की तरह, कचरे को व्यवस्थित रख रहा था। मालवा में गन्ना रस निकालने की ऐसी मशीनें सामान्यतः लोहे की होती हैं किन्तु वहाँ अधिकांश मशीनें स्टेनलेस स्टील की नजर आईं। सफाई की तथा सफाई की मनःस्थित की शुरुआत शायद इसी तरह से होती होगी।
गन्ने के रस की दुकान का भीतरी दृष्य। यह चित्र दोपहर 12 बजे का है।
शिवाजी नगर एसटी बस स्थानक पर मुझे कोई पौन घण्टा प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस बीच लोग बराबर आते-जाते रहे और अधिकांश का मुँह चलता ही रहा। लेकिन किसी ने भी, पेकिंग की प्लास्टिक थैली फर्श पर नहीं डाली। मैंने ध्यान से देखा, ऐसे प्रत्येक मामले में आदमी उठ कर कूड़ादान तक गया और प्लास्टिक थैली उसमें डाल कर अपनी जगह लौट आया। इस पौन घण्टे में वहाँ कोई सफाई कर्मचारी नहीं आया लेकिन फर्श ऐसा साफ-सुथरा बना रहा कि बैठ कर पूजा-पाठ कर लिया जाए।
शिवाजी नगर एसटी बस स्थानक का चित्र। फर्श की दशा दर्शनीय है।
देव-दर्शन के निमित्त मैं जिन-जिन गाँवों/कस्बों में गया, सब जगह यही स्थिति मिली मुझे और ताज्जुब यह कि इसके लिए कोई भी अतिरिक्त सावधानी बरतता नजर नहीं आया। सब कुछ सहज, स्वाभाविक।
एक और अजूबा मेरे लिए यह रहा कि, कुल मिला कर लगभग तीस घण्टों और आठ सौ किलोमीटर की इन यात्राओं में मुझे कहीं भी लोग लड़ते-झगड़ते, बहस करते नहीं मिले। क्या कोई संयोग इतनी लम्बी अवधि, सुबह आठ बजे से लेकर रात नौ बजे तक और इतनी दूरी तक और इतने सारे स्थानों पर लगातार हो सकता है? मैं जानने को उत्सुक हूँ कि इतने व्यापक स्तर पर, ऐसा कैसे हो सकता है?
किन्तु कुछ बातों ने मुझे निराश भी किया। शिवाजी नगर बस स्टैण्ड पर चौकशी (पूछताछ/इन्क्वायरी) पर बैठे स्त्री/पुरुषों ने अत्यधिक निराश किया। वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं मिले। उनका व्यवहार ऐसा था मानों वे कोई सजा भुगत रहे हैं जिसका गुस्सा ने पूछताछ करनेवालों पर उतार रहे हैं। इसके विपरीत, सारे चालकों-परिचालकों का व्यवहार अत्यधिक मीठा और सहायतापूर्ण मिला। उन्हें जैसे ही मेरी भाषा-कठिनाई की जानकारी हुई, प्रत्येक ने अतिरिक्त रूप से ध्यान देकर और चिन्ता कर मेरी सहायता की।
सार्वजनिक शौचालयों की साफ-सफाई के मामले में मेरी उत्तमार्द्ध ने लगभग प्रत्येक स्थान पर असन्तोष जताया। उल्लेखनीय बात यह कि ऐसे प्रत्येक स्थान पुरुष सुविधाघर निःशुल्क थे और महिला सुविधाघरों पर कम से कम दो-दो रुपयों का शुल्क था किन्तु, जैसा कि मेरी उत्तमार्द्ध ने हर बार बताया, महिला सुविधाघर अत्यधिक अव्यवस्थित और गन्दे मिले। क्या यह भी कोई संयोग है?
किन्तु नागरिकता बोध को लेकर वहाँ का सार्वजनिक आचरण निस्सन्देह अनुकरणीय है। पूरा देश वैसा हो न हो, काश! मेरा अंचल ऐसा हो जाए।
निश्चय ही नागरिक नगर की शोभा बढ़ाते हैं।
ReplyDeleteएक निपट देहात मेन कुछ महीने रहने का अवसर मिला था| अनुभव बिलकुल आप जैसा ही था| एक भी झगड़ा नहीं, बस मे चढ़ने उतरने के लिए कोई धक्का-मुक्की नहीं| घर, सड़क, ढाबा सब स्वच्छता की प्रतिमूर्ति| लेकिन जिस बात ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह थी जनजागृति| किसान-मजदूर सरकारी कार्यक्रमों व नीतियों से अवगत थे, 84 वर्षीय किसान मकानमालिक के घर मे सैकड़ों पुस्तकों से भरा निजी पुस्तकालय था और हर पुस्तक मराठी में थी, कुछ संस्कृत में परंतु एक भी अंगरेज़ी किताब नहीं|
ReplyDeleteआश्चर्य नहीं कि मैं आज भी अपने को अक्सर उस गांव के बस अड्डे पर बैठा पाता हूँ
ReplyDeleteहर प्रदेश , देश, क्षेत्र ,जाति, समुदाय , वर्ग, की विशेषता होती है उन्हीं में से पुणे या महाराष्ट्र की खासियत है .ऐसा नहीं की अन्य जगहों में ऐसी बात नहीं यह एक महज संजोग है
ReplyDeleteआपकी पुणे यात्रा का वर्णन पढ़ना सुखद अनुभव रहा, मुझे एक ड्राइवर की याद आ गई मुझे एलोरा से पुणे तक पहुँचना था ट्रेन पकड़नी थी, ड्राइवर ने आश्वासन दिया कि वो कोशिश करेगा और 1 मिनट से मैं स्टेशन पर पहुँच गया, शायद वही ड्राइवर और कंडक्टर अब भी उस रूट पर हों और वे आपको भी मिल गए हों
ReplyDeletehttp://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_8.html
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteयदि आप जिम्मेदार नागरिक की तरह व्यवहार करेंगे तो लोग आपको मूर्ख समझेंगे। मैं अपनी ही दो-एक कोशिशें बताता हूँ।
मैं अपना स्कूटर हमेशा ही 'जापानी शैली' में,(बाहर निकलनेवाले रास्ते की दिशा में उसका मुँह रखकर) पार्क करता रहा हूँ। माणक चौक स्कूल में जब तक रहा, तब सबसे ऐसा ही कराता रहा। किन्तु मेरी सेवा निवृत्ति के बाद, मेरे वहॉं से निकलते ही, सब कुछ पहले जैसा हो गया है।
जहॉं मैं निवास करता हूँ, उस राजीव नगर कॉलोनी में लोग 'गाया माता' के नाम पर सडक पर रोटियॉं फेंकते हैं। मेरे निरन्तर अनुरोधों के बाद कुछ लोगों ने तो ऐसा करना बन्द कर दिया किन्तु अधिकाश लोग मुझ मूर्ख मानकर अभी भी सडक पर रोटियॉं फेंक रहे हैं।
हम सुधरेंगे तो सही किन्तु देर से।
शौचालय भी अच्छे मिल जाते,तो माथे पर टीका कैसे लगता ? लेकिन एक दिन ऐसा भी आएगा,जब आपको शौचालय भी साफ मिलेंगे । अगली बार कब जा रहे हो ?
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