भाषा और अणु बम मुझे समान लगते हैं - चाहें तो शान्ति के लिए प्रयुक्त कर लें या ध्वंस के लिए। गोया, भाषा जैसी है, वैसी ही है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम उसे हँसिया बनाएँ या हल। गला काटें या पोषक अन्न उपजाएँ। इसके लिए शायद एक ही बात आवश्यक है - उसकी जानकारी। इसीलिए कहा जाता है कि हमारे कपड़े तब तक ही हमारा साथ देते हैं जब तक हम बोलते नहीं।
इस मायने में भाषा से खेलना याने शेर की सवारी करने के बराबर ही होता होगा। नियन्त्रण की क्षमता और कौशल न हुआ तो खुद शिकार हो जाना पड़ता है।
प्रख्यात व्यंग्यकार (स्वर्गीय) शरद जोशी ऐसे की कौशल और क्षमता के धनी थे। उनका यह रूप देखने का सुख-सौभाग्य मुझे एकाधिक बार देखने को मिला। यहाँ एक प्रसंग की चर्चा करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ।
यह 1975 या 1976 की पहली अप्रेल की शाम की बात है। अवसर था, उज्जैन में आयोजित ‘टेपा सम्मेलन।’ स्वर्गीय कन्हैयालालजी नन्दन प्रमुख पात्र थे। उनका अभिनन्दन पत्र पढ़ने का जिम्मा शरद भाई का था। संयोग ही रहा कि देवास से उज्जैन तक की यात्रा हम दोनों ने एक ही बस से की थी। (उन दिनों मैं, भोपाल से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ के प्रबन्ध विभाग में नौकरी कर रहा था।) उस बस यात्रा के दौरान शरद भाई ने, नन्दनजी के लिए लिखा अभिनन्दन-पत्र दो-तीन बार पढ़ कर मानो खुद को इतमीनान दिलाया था।
शरद भाई पुलकित और आह्लादित थे कि नन्दनजी का अभिनन्दन पत्र
उन्हें पढना है। दोनों ‘आत्मीय’ थे-एक के कहे बिना दूसरे का मन समझने वाले। शरद भाई ने ही बताया था कि इण्डियन एक्सप्रेस की साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादन के लिए वे मुम्बई गए तो उनके आवास की व्यवस्था, नन्दनजी ने पहले ही कर दी थी।
उन्हें पढना है। दोनों ‘आत्मीय’ थे-एक के कहे बिना दूसरे का मन समझने वाले। शरद भाई ने ही बताया था कि इण्डियन एक्सप्रेस की साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादन के लिए वे मुम्बई गए तो उनके आवास की व्यवस्था, नन्दनजी ने पहले ही कर दी थी।
शाम को टेपा सम्मेलन शुरु हुआ। परिसर का नाम मुझे इस समय याद नहीं आ रहा किन्तु श्रोताओं ने जगह छोटी साबित कर दी थी। डॉक्टर शिव शर्मा टेपा सम्मेलन के कर्ता-धर्ता थे। आज भी हैं। मालवी परम्परा और ‘टेपा शैली’ में मंचासीन विभूतियों का स्वागत किया। रंग-बिरंगे अंगरखे, विचित्र आकार-प्रकार की टोपियाँ और उतनी ही विचित्र सामग्री से बनी मालाएँ। समूचा वातावरण इन्द्रधनुषी और तालियों-किलकारियों-ठहाकों से ओतप्रोत।
एक के बाद एक विभूतियों का अभिनन्दन शुरु हुआ। और अन्ततः बारी आई नन्दनजी की। अपने लिखे अभिनन्दन-पत्र के पन्ने हाथ में लिए शरद भाई माइक पर आए। समूचा सभागार यह देखने-जानने को उतावला बना हुआ था कि देखें! शरद भाई दोस्ती और प्रसंग, दोनों का निभाव किस तरह करते हैं।
हाथों में थामे पन्नों को दो-एक बार ऊपर-नीचे करते हुए शरद भाई ने पूरे सभागार पर नजरें दौड़ाई। फिर पलट कर मंचासीन विभूतियों को देखा। उनकी नजरें, नन्दनजी पर कुछ क्षण टिकी रहीं। फिर माइक की ओर गर्दन घुमाई, गला खँखारा और बोलना शुरु किया।
अब मुझे सब कुछ शब्दशः तो याद नहीं किन्तु भूमिका बाँधने के बाद शरद भाई कुछ ऐसा बोले - ‘हमारे यहाँ कई तरह के नन्दन पाए जाते हैं। साहित्य में कन्हैयालाल नन्दन। लोक-जीवन में वैशाखी नन्दन। एक और किसम के नन्दन पाए जाते हैं जिसे च में बड़े ऊ की मात्रा, त में छोटी इ की मात्रा और य में आ की मात्रा लगाकर नन्दन कहा जाता है।’ कह कर शरद भाई साँस लेने को रुकते, उससे पहले ही समूचा सभागार तालियों और ठहाकों से गूँज उठा और देर तक गूँजता रहा।
नन्दनजी की दशा देखते ही बनती थी। वे अपना पेट दबा कर हँसे जा रहे थे। इसी दशा में उठे और शरद भाई को गले लगा लिया। देर तक दोनों इसी दशा में, लिपटे खड़े रहे और लोग तालियाँ बजाते रहे।
आयोजन तो उसके बाद भी बड़ी देर तक चला। किन्तु मेरा काम यहीं पूरा हुआ। बाद में, भोपाल में हुई मुलाकातों में शरद भाई ने बताया था कि प्रसंग टेपा सम्मेलन का हो, ‘नन्दन‘ मुख्य अतिथि हो और तीसरे ‘नन्दन’ का उल्लेख न हो तो ‘बात नहीं बनती।’ तो क्या किया जाय? इसके जवाब में उन्हें भाषा का सहारा मिला। उनका कौशल और भाषा की शक्ति ने ‘मौका भी है और दस्तूर भी’ मुहावरे को साकार कर दिया। सैंकड़ों स्त्री-पुरुषों के जमावड़े में उन्होंने गाली भी दी और क्षण भर को अशिष्टता नहीं बरती।
भाषा तो वही की वही थी। बस! उसे वापरनेवाले की सूझ-समझ, क्षमता और कौशल का ही चमत्कार था कि दोस्ती भी निभ गई और रस्म भी पूरी हो गई।
आज जब लोगों को घटिया शब्दावली और अशालीन भाषा प्रयुक्त करते देखता हूँ तो दुखी होते हुए, बरबस ही यह प्रसंग याद आ जाता है।
फेस बुक पर, श्री मोहन मंगलम, लखनऊ की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत अच्छे।
फेस बंक पर श्री सुनील ताम्रकार, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteकहाँ गए वे लोग .... उत्तम जानकारी युक्त आलेख ... बहुत भाया ...।
फेस बुक पर भ् अशोक मण्डलोई, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteइस लेख बिना किसी मात्रा के आपका अभिनन्दन।
हा हा टेपा सम्मेलन अभी भी कालिदास अकादमी में आयोजित किया जाता है। ऐसे किस्से दिल को गुदगुदा जाते हैं ।
ReplyDeleteविवेकजी, १९७६ में तो कालिदास अकादमी बना ही नहीं था,तब शायद टेपा सम्मेलन विक्रम कीर्ति मंदिर में होता होगा. कालिदास अकादमी का निर्माण १९८२ के आसपास हुआ है.
Deleteअद्भुत संस्मरण
ReplyDeleteआत्मीयता हो तो ऐसी!! ऊँचे माली, ऊँची गाली!!
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण! आभार।
ReplyDeleteजब कन्हैयालालजी नन्दन जी सारिका के संपादक थे तो किसी ने संपादक के नाम पत्र में उनके लिए तीसरी तरह के नंदन का संबोधन प्रयुक्त किया था जिसके जवाब में उन्होंने उस पत्रलेखक के लिए लिखा था कि वह व्यक्ति टायर है क्योंकि सबसे गई-बीती अगर कोई चीज़ है तो वह टायर है क्योंकि वह व्यक्ति, उनके अनुसार, कायर कहलाने का भी अधिकारी नहीं था. आज, भाषा में इस प्रकार का संयम और कौशल देखने को नहीं मिलता.
ReplyDeleteबेहतरीन संस्मरण। आनन्दित हुये बांचकर!
ReplyDeleteशरद जी ने वाकई टेपा सम्मेलन को सार्थक कर दिया । ये संस्मरण पढ़कर अभिभूत हो गया ।
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री रवि शर्मा की (एक और) टिप्पणी -
ReplyDeleteशरद जी की याद के लिए आभार।
हा हा हा..बेहतरीन संस्मरण।
ReplyDeleteफेस बुक पर, इस ब्लॉग पोस्ट की लिंक को साझा करते हुए श्री प्रशान्त सोहले, उज्जैन की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत मजेदार आलेख विष्णु जी। आपके आलेख के हैडिंग से तो में आश्चर्य चकित रह गया !!!!!!!!!
बढ़िया आलेख |
ReplyDeleteकहने का अपना अपना अन्दाज़, रोचक संस्मरण।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका संस्मरण
ReplyDeleteसादर
:):) शरद जोशी जी जैसे संवाद कहना सबके बस की बात नहीं ।
ReplyDeletebilkul sangrhneey sansmaran ....abhar sweekaren
ReplyDeleteहा हा हा हा। ऐसे ही थे दोनों दिग्गज। आज सारी रात शरद जी और न्न्दन जी के ही सपने आने वाले हैं। मैं भी तैयार हूं।
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