रिंग टोन में गुम भगतसिंह

23 मार्च की शाम मुझे एक असहज अनुभव हुआ।

शहीद-ए-आजम भगतसिंह के बलिदान दिवस पर आयोजित एक छोटे से समारोह में शामिल होने का अवसर मिला। श्रोताओं की अधिकतम संख्या एक सौ रही होगी। इनमें भी बूढ़े अधिक थे। युवा कम। बूढ़े लोग खुद से तथा अपने अतीत से मोहग्रस्त और आत्म-मुग्ध थे तो युवा लगभग निस्पृह या कि तटस्थ मुख-मुद्रा में।

मैं पहुँचा तब तक कार्यक्रम प्रारम्भ हो चुका था। स्थानीय विधायकजी का उद्बोधन चल रहा था। वे पहली बार विधायक बने हैं किन्तु वे पहले से ही ‘वाक् पटु और व्याख्यान निष्णात’ हैं, यह पूरा कस्बा जानता है। अब तो वे विधायक हो गए हैं! सो, लोगों को लगता है कि अब तो उन्हें प्रत्येक विषय पर अधिकारपूर्वक बोलने की सुविधा भी प्राप्त हो गई है जबकि मैं इसे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की अपरिहार्य और कभी व्यक्त न की जा सकने वाली विवशता मानता हूँ। वे लाख कहें कि विषय से उनका कभी साबका नहीं पड़ा किन्तु लोग उन्हें जबरन ठेल ले जाते हैं और बेचारों को कुछ इस तरह बोलना पड़ता है जो उनके अज्ञान को भली प्रकार ढका रहने दे।

‘लेट कमर आल्वेज सफर्स’ वाली बात मुझ पर शब्दशः लागू हुई और मुझे सबसे पीछे वाली पंक्ति में जगह मिल पाई, वह भी एक कृपालु के सौजन्य से। लाउडस्पीकर की व्यवस्था नहीं थी। किन्तु चारों ओर ऊँची दीवारों वाली चैहद्दी के कारण उद्बोधन को सुनने मे कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए थी, फिर भी हो रही थी। क्यों हो रही थी? यह आगे स्पष्ट हो सकेगा।

हमारे विधायकजी ने भगतसिंह के असेम्बली में बम फेंकने के पराक्रम सहित कुछ कामों को भारतीयता की आधारभूत अवधारणाओं से जुड़ा और उसी से प्ररित प्रतिपादित किया। श्रोताओं ने इस पर तालियाँ बजाईं।

विधायकजी के बाद वे सज्जन बोले जिनके साथ मैं गया था और जिन्हें मैं मुख्य अतिथि मानने की भूल कर बैठा था। वे प्रखर समाजवादी हैं और उन्होंने गाँधी, भगतसिंह और लोहिया के बीच तादात्म्य स्थापित करने की सराहनीय कोशिश की तथा वर्तमान स्थितियों में इन तीनों की प्रासंगिकता तथा आवश्यकता जताई।

इस बीच, मंचासीन एक वयोवृध्द समाजसेवी ने भी सम्बोधित किया जो मुझे सुनाई नहीं पड़ा। हमारी महापौर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में भगतसिंह पर कुछ कहने के बजाय, ‘ऐसे महापुरुषों की जयन्तियाँ’ (आयोजन भगतसिंह की जयन्ती का नहीं, उनकी शहादत को याद करने का था) मनाए जाने पर जोर दिया। उनका भाषण तीसरी-चौथी कक्षा के स्कूली छात्र जैसा था।


मैंने प्रत्येक वक्ता को यथासम्भव सम्पूर्ण सतर्कता से सुनने का प्रयास किया किन्तु पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। कारण? वही, जो आजकल प्रत्येक अयोजन में सबसे बड़ा व्यवधान बन कर उभरता है - मोबाइल फोन। जब शहीद-ए-आजम के पराक्रम का बखान किया जा रहा था, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जा रही थी तब, प्रत्येक वक्ता के भाषण के दौरान किसी न किसी के मोबाइल की घण्टी बराबर बजती रही। घण्टी भी सामान्य घण्टी जैसी नहीं, अलग-अलग फूहड़ फिल्मी गानों वाली घण्टी। कभी ‘इश्क की गलियों में नो एण्ट्री’ वाली तो कभी, न समझ में आने वाले किसी अंग्रेजी गीत की धुन बजी।

लेकिन इससे अधिक क्षोभजनक और आश्चर्यजनक बात यह रही कि जब भी घण्टी बजी तब प्रत्येक बार मोबाइलधारी सज्जन ने न केवल सहजतापूर्व अपितु अधिकारपूर्वक, मुक्त कण्ठ, मुक्त स्वरों में सामने वाले से बात की। एक ने भी अपने आसपास बैठे लोंगों की न तो चिन्ता की और न ही उनकी नजरों में कोई खेद-भाव नजर आया। घण्टी बजी, उन्होंने मोबाइल जेब से निकाला, कुछ देर तक ‘कालिंग नम्बर’ देखा, सामनेवाले को पहचानलेने की खातरी होने के बाद बात की और उतनी ही सहजता से मोबाइल जेब में रख लिया। एक सज्जन कुछ आँकड़े बोल रहे थे। वास्तविकता क्या रही होगी यह तो वे दोनों बात करने वाले और ईश्वर ही जाने किन्तु मुझे लगा कि वे किसी खाईवाल को सट्टे के अंक लिखवा रहे थे। किन्तु केवल श्रोता ही क्यों? आयोजकों में से एक सज्जन खुद भी, चहलकदमी करते हुए, अत्यन्त सहजभाव से और पूरी तन्मयता से मोबाइल पर बात कर रहे थे।

भगतसिंह, उनकी शहादत और देश प्रेम की बात छोड़ भी दें तो भी सार्वजनिक शिष्टाचार निभाने की आवश्यकता किसी एक ने भी अनुभव नहीं की। अनुभव करते भी कैसे? इसके लिए जो ‘नागर संस्कार’ या कि ‘नागरिकता बोध’ चाहिए, उसका तो अर्थ भी किसी को मालूम नहीं होगा।

इन्हीं सारी बातों ने मुझे असहज किया। ऐसे क्षणों में मैं बहुत ही जल्दी आपे से बाहर हो जाता हूँ किन्तु उस समय मैं चुप ही रहा। कैसे और क्यों रह पाया? इस क्षण तक नहीं समझ पा रहा हूँ। शायद इसलिए कि आयोजक न केवल मेरे अग्रजवत थे अपितु वे सब मेरे प्रति अत्यधिक कृपाभाव और आत्मीयता रखते हैं, मेरी चिन्ता करते हैं और एक अभिनन्दन पत्र देने के उपक्रम में उन्होंने मुझे भी शरीक कर, मेरा मान बढ़ाया।


भगतसिंह, उनकी शहादत, देश प्रेम, देश के लिए मर मिटना जैसी बातें अब केवल कहने-सुनने तक ही रह गई हैं। हर कोई भगतसिंह की प्रश्ंासा कर रहा था, उनके होने पर खुद को गर्वित अनुभव कर रहा था और उनके जज्बे की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव कर रहा था किन्तु वक्ताओं और श्रोताओं में से एक भी ऐसा नहीं था जो भगतसिंह को अपने आचरण में उतारने को तैयार हो। हममें से प्रत्येक चाह रहा था कि उसका पड़ौसी भगतसिंह बन जाए। पड़ौसी का पड़ौसी भी यही चाह रहा था। हम सब अपने आसपास भगतसिंह की तलाश कर रहे थे किन्तु अपने अन्दर झाँकने को कोई भी तैयार नहीं था। झाँकते तो खुद से ही शर्मिन्दा होना पड़ता।

इस समय जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, 25 मार्च की सवेरे के पांच बजने वाले हैं। याने, आयोजन से लौटे मुझे कोई बयालीस घण्टे हो रहे हैं। इस समय मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा है कि भारत के स्वतन्त्र होने से पहले ही भगतसिंह ने फाँसी का फन्दा चूम लिया। अन्यथा, वे इस समारोह में (या ऐसे ही किसी समारोह में) होते और अपनी यह दुर्दशा देखते तो इस बार वे अवश्य ही ऐसा बम विस्फोट करते जिसमें सारे के सारे श्रोता/वक्ता घटनास्थल पर ही मारे जाते। उन्होंने तो अपनी मौत को भी देश के युवाओं को प्रेरित करने वाली घटना माना था। किन्तु उनकी मौत की तो बात छोड़िए, आज के युवाओं को तो भगतसिंह के नाम पर या तो मनोज कुमार याद आते हैं या सनी देओल या फिर ‘रंग दे बसन्ती’ का कोई अभिनेता।


ऐसे में भगतसिंह का नाम और उनके पराक्रम का बखान यदि, फिल्मों के फूहड़ गानों वाली रिंग टोनों के बीच गुम हो रहा हो तो आश्चर्य और दुख क्यों?

किन्तु मैं फिर भी असहज बना हुआ हूँ। अब तक भी।
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भारतीयता ही बचा सकती है मन्दी की मार से

(इस आलेख की प्रेरणा ज्ञानदत्तजी पाण्डेय की पोस्ट मन्दी से और बाद में उन्हीं के ब्लाग पर प्रकाशित श्री जी. विश्वनाथजी की जी विश्वनाथ: मंदी का मेरे व्यवसाय पर प्रभाव पोस्ट से मिली है। सो इसे, इन दोनों की ‘पुछल्ला पोस्ट’ मानी जाए तो मुझे न तो आपत्ति होगी न ही अचरज।)

मन्दी के दौर का शोर अब उतना नहीं सुनाई दे रहा जितना कुछ दिनों पहले तक सुनाई दे रहा था। शायद इसलिए कि या तो हम लोगों ने इसकी आदत डाल ली है या फिर इसे अपरिहार्य मान, इसे सर-माथे कबूल कर लिया है। मेरे कस्बे में इससे प्रभावित लोगों की संख्या अंगुलियों पर गिनी जाने वाली है। किन्तु मेरे परिचय क्षेत्र में यह संख्या तनिक अधिक बड़ी है। ऐसे लोगों में मेरे बेटे के मित्र ही हैं। मेरा बेटा एक विदेशी कम्पनी के हैदराबाद कार्यालय में पदस्थ है और उसके साथी भारत तथा दुनिया के अन्य देशों में कार्यरत हैं। इनमें से कुछ से मेरी ‘चेटिंग’ होती रहती है तथा अधिसंख्य के बारे मे इन्हीं से जानकारी मिलती रहती है।

कोई डेड़ महीना पहले तक सबके सब घबराए हुए थे। हर कोई आशंकित था कि अगले दिन उसकी नौकरी बचेगी भी या नहीं। मुझे आर्थिक क्षेत्र की गतिविधियों का विश्लेषण करना नहीं आता। किन्तु ‘जीवन बीमा व्यवसाय’ के कारण इन गतिविधियों के निष्कर्षों की जानकारियाँ प्रायः ही मिलती रहती हैं। गिनती की ये जानकारियाँ इतनी सटीक होती हैं कि इनके के दम पर मैं अपने ग्राहकों पर प्रभाव जमाने में सदैव ही सफल हुआ हूँ।

निष्कर्षों की इसी श्रृंखला में मुझे बताया गया (भरोसा दिलाया गया) कि जिस स्तर की नौकरियों में मेरा बेटा और उसके मित्र लगे हुए हैं उस स्तर की नौकरियों पर कोई असाधारण खतरा बिलकुल ही नहीं है। नौकरी किसी की नहीं जाएगी। हाँ, यह हो सकता है कि इन बच्चों के वेतन कम कर दिए जाएँ या फिर, इसी वेतन में इनके काम के घण्टों में वृध्दि कर दी जाए। कोई अपरिहार्य और असाधारण स्थिति में ही किसी की नौकरी खतरे में पड़ सकती है। मुझे कहा गया कि मैं अपने बेटे को और उसके मित्रों को अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कह दूँ कि उनमें से किसी की नौकरी नहीं जाएगी।

डरा हुआ तो मैं भी था। अभी भी हूँ ही। बेटे के बेरोजगार होने से नहीं अपितु, उसके बेरोजगार हो जाने से उसके मन में उपजने वाली निराशा/हताशा के भय से। फिर भी मैंने अपने स्वरों में अधिकाधिक आत्म विश्वास का (स्वीकार करता हूँ कि 'सम्पूर्ण आत्म विश्वास' का नहीं) पुट देते हुए बेटे को भरोसा दिलाया। उसे आगाह भी किया कि उसका वेतन कम हो सकता है। कहा कि अपने तमाम मित्रों तक मेरी यह बात पहुँचाए और चाहे तो मेरा नाम ले कर पहुँचाए। पता नहीं, मेरी बात पर मेरे बेटे को विश्वास हुआ या नहीं किन्तु जब मैंने उससे कहा ‘घबराना मत। यह एक ‘टेम्परेरी फेज’ है और हम सब तुम्हारे साथ हैं’ तो सुनकर उसकी आवाज मे जो बदलाव आया उससे लगा कि उसे मेरी पहली वाली बात पर भले ही भरोसा न हुआ हो किन्तु बाद वाली बात से अवश्य उसे राहत मिली है। बाद में उसके दो-तीन मित्रों ने भी मुझसे सम्‍पर्क किया और मेरी बातें सुनकर ‘थैंक्यू अंकल! आपकी बातों से कान्फिडेन्स बढ़ा’ जैसी बातें कहीं।

इसी मुद्दे पर सोचते-सोचते अचानक ही मेरा ध्यान एक आर्थिक विशेषज्ञ की उस टिप्पणी पर गया जिसमें कहा गया था कि भारतीयों की अल्प बचत की मानसिकता के कारण हमारी अर्थ व्यवस्था डूबने से बच गई। इस टिप्पणी का सन्देश था कि अल्प बचत की विभिन्न योजनाओं में मध्यमवर्गीय भारतीयों द्वारा जमा कराई गई रकम से सरकार को वह आर्थिक मजबूती मिली जिसके कारण वह नाम मात्र के दो आर्थिक पेकेज देकर ही मुक्त हो गई। यदि हमारे मध्यमवर्गीय भारतीय भी ‘खाओ, पीओ और खुश रहो’ वाली पाश्चात्य अवधारणा को अंगीकार कर लेते तो हमारी हालत तो अमरीका से भी गई गुजरी हो चुकी होती।
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के लाभों के नाम पर हमारे असंख्य युवकों को भरी-भरकम वेतन वाली नौकरियाँ मिली हैं। इन युवकों में ऐसे युवक बड़ी संख्या में हैं जो निम्न मध्यम वर्ग से आए हैं और जिन्होंने इतने भारी भरकम वेतन की कल्पना भी कभी नहीं की थी। दूर क्यों जाऊँ? मेरे बेटे के पहले वेतन की रकम, मेरी पत्नी के वर्तमान वेतन की रकम से अधिक थी जबकि मेरी पत्नी की नौकरी को इक्कीसवाँ वर्ष चल रहा है। ऐसे परिवरों के बच्चों ने यदि धरती छोड़ दी हो या कि ‘खाओ, पीओ और खुश रहो’ वाली अवधारणा को अपना लिया हो तो ताज्जुब नहीं।
अचानक धनवान बन रहे ऐसे युवकों की संख्या बढ़ ही रही है। वेतन के लिफाफे की मोटाई से इनके पालकों की आँखें फट रही हैं और बोलती बन्द हो रही है। ऐसे पालक अपने बच्चों को कोई ‘आर्थिक परामर्श’ देने का अधिकार और साहस, दोनों ही खो रहे हैं। सो, ऐसे युवकों के लिए ‘आर्थिक स्वतन्त्रता’ का अर्थ ‘आर्थिक स्वच्छन्दता’ होने लगा है। वे बचत बिलकुल ही नहीं कर रहे हैं और बिना बात के, अनावश्यक चीजें खरीद रहे हैं। मेरे एक मित्र के बेटे के पास लगभग 25 टी शर्ट ऐसे हैं जिनकी तह भी उसने, खरीदने के बाद से अब तक नहीं खोली है। मेरे मित्र, उसके पिता ने दारिद्र्य का चरम देखा है। वह गर्मियों की छुट्टियों में मजदूरी कर, अपने स्कूल की, साल भर की फीस जुटाता था फिर भी उसे ‘पूअर ब्वायज फण्ड’ से मदद लेनी पड़ती थी। नई किताबें तो वह कभी नहीं खरीद पाया था। ऐसे पिता के बेटे द्वारा की गई ऐसी खरीदी, इन युवकों का चारित्रिक प्रतिनिधित्व ही करती है।

सो, मुझे लगा कि मन्दी के इस दौर में हमारी पारम्परिक भारतीय (आप इसे मध्यवर्गीय मानसिकता की) दो अवधारणाएँ मुझे समस्या का ‘शर्तिया निदान’ लगीं। पहली है-नियमित और निरन्तर बचत करो। तथा दूसरी है - अपनी आवश्यकताएँ कम रखो।

पहली अवधारणा पर मुझे कुछ ऐसा सूझा - नियमित बचत भी ऐसी हो कि आप तत्काल उसका उपयोग कर सकें। अर्थ जगत की भाषा में जिसे ‘केश लिक्विडिटी’ कहते हैं, वही। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आजकल बच्चे नौकरी पर लगते ही उससे फौरन ही असन्तुष्ट हो जाते हैं और बेहतर नौकरी की तलाश में जुट जाते हैं। यह सहज मनोवृत्ति बन गई है। इस तलाश की जानकारी यदि वर्तमान नियोक्ता को हो जाए तो वह, कानूनी सुरक्षा अपनाते हुए फौरन ही नौकरी से निकाल देता है। यदि दुर्भाग्य से ऐसा हो गया तो आपकी केश लिक्विडिटी आपको आपका अवमूल्यन होने से बचाएगी। अपनी चाहत के वेतन और शर्तों वाली नई नौकरी पाने के लिए आप प्रतीक्षा कर सकते हैं। यदि केश लिक्विडिटी नहीं होगी तो आपको तत्काल ही नौकरी की आवश्यकता होने के कारण सम्भव है, आपको पहले वाले वेतन से कम वेतन वाली नौकरी स्वीकार करनी पड़े। यह स्थिति आपको सदैव ही कचोटती रहेगी और आपका आत्म विश्वास हिल जाएगा। किन्तु यदि आपके हाथ में लाख-दो लाख रुपये हैं तो आप दो-चार महीने रुक कर प्रतीक्षा कर सकते हैं। मन्दी के नाम पर भी यदि आपकी नौकरी जाती है तब भी यह केश लिक्विडिटी आपको सर्वाधिक सहायक होगी।
दूसरी अवधारणा आपको हर हाल में खुश बने रहने में सहायक होगी। अपनी आवश्यकताएँ कम रखने से आपको बचत करने में अपने आप ही सहायता मिलेगी। आप हर हाल में मस्त रहेंगे और जिन्दगी का आनन्द लेते रहेंगे। वर्ना भगवान न करे कि आज आप ए.सी. में हैं और कल कूलर को भी तरसें!
मैंने ये दोनों बातें मेरे बेटे को बताईं और समझाईं। मुझे यह अनुभव कर अच्छा लगा कि उसे दोनों ही बातें न केवल तत्काल ही समझ में आ गईं अपितु वह इन उसने भरोसा दिलाया कि वह इन दोनों पर अमल भी करेगा। मेरे पास कोई कारण नहीं है कि उसके भरोसा दिलाने पर भरोसा न करूँ।
मुझे लगता है कि अवधारणागत स्तर पर यदि हम भारतीय बने रहें तो कोई भी संकट हमें डिगा नहीं सकता। किन्तु यदि हम ‘देस’ में रहकर ‘परदेस’ के रंग-ढंग अपनाएँगे तो वर्णसंकर हो जाने के संकट झेलने और भुगतने को अभिशप्त होंगे ही।

मुझे यह ठीक वैसा ही लग रहा है कि हम अंग्रेजी वापरें, अंग्रेजीयत नहीं। वैश्वीकरण, उदारीकरण से मिले अवसरों के लाभ तो उठाएँ किन्तु भारतीय बन कर और भारतीय बने रहकर ही।
मुमकिन है, मेरी सोच आधी-अधूरी हो। फिर भी मैं, मन्दी के मारों को अपनी यह, बिना माँगी सलाह दे रहा हूँ।
मानें तो आपकी मर्जी। न मानें तो ‘व्हाट गोज आफ माई फादर’?
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आप तो लोगों की लुगाइयाँ बिकवाते हैं

यह कथा उसी लोकविश्वास को प्रगाढ़ करती है कि व्यक्ति सारी दुनिया की अनदेखी-अनसुनी कर सकता है किन्तु ‘अपने’ की एक बात उसके जीवन को और जीवन-दिशा को बदल देती है।


कथा के नायक का वास्तविक नाम न देना और सुविधा के लिए कोई नाम अवश्य देना मेरी विवशता है। इसी के चलते मानलें कि इस कथा के नायक मलयजी हैं। वे पुलिस में उप निरीक्षक (सब इन्सपेक्टर) थे और पदोन्नत होकर निरीक्षक के रूप् में काल कवलित हुए।

आयु में वे मुझसे कोई 12-15 वर्ष बड़े थे। उनसे परिचय भी पुराना था किन्तु सम्पर्कों में प्रगाढ़ता बीमा के कारण ही आई। नौकरी के दौरान उनका लक्ष ‘पैसा’ ही रहा। किन्तु सफलता भी उनके चरण-चुम्बन करती रही। मेरे सम्पर्क क्षेत्र में वे अब तक के इकलौते व्यक्ति हैं जो ‘प्रचण्ड रिश्वतखोर’ और ‘प्रचण्ड सफल’ एक साथ थे। मेरे लिए यह तय कर पाना अब तक दुरुह बना हुआ है कि उन्होंने रिश्वत अधिक ली अथवा सफलता अधिक अर्जित की? वे इस सीमा तक ‘रिश्वत आग्रही’ थे कि ‘तू तेरी लुगाई को बेच कर पैसे ला, इससे मुझे क्या?’ वाला वाक्य उनके मुँह से मैंने एकाधिक बार सुना था। ऐसा ‘रिश्वत आग्रही’ अपराधियों से भी इसी सीमा तक चिढ़ता था। उनका बस चलता तो वे दुनिया को ‘अपराधी विहीन’ कर देते। निश्चय ही उन पर कोई दैवी कृपा ही रही होगी कि वे सर्वथा विपरीत सत्यों को समानरूप से साधते रह पाते थे। मैंने उनसे उनकी इस सफलता का रहस्य जब-जब भी जानना चाहा, उन्होंने एक ही उत्तर दिया - ‘मैं दोनों कामों में पूरी ईमानदारी बरतता हूँ।’


उन्हें लेकर मैं सदैव सम्भ्रम में ही बना रहा। उनकी ‘रिश्वतखोर’ की छवि, मेरी सार्वजनिक छवि को नकारात्मक रूप से प्रभावित न कर दे, इस आशंका से मैं सदैव भयभीत बना रहा। सो उनसे तभी मिलता जब कोई मतलब होता। वे इस बात को खूब अच्छी तरह समझते थे और कहते थे -‘तू नहीं मिलना चाहे तो मत मिल। किन्तु मैं तुझसे मिलना चाहूं, तुझसे मिलने आऊँ, इस पर तो तेरा कोई बस नहीं है।’ सो, सम्पर्क की प्रगाढ़ता का समूचा यश उन्हीं के खाते में रहा।


वे तीन बेटियों के बाप थे। तीनों का विवाह कर चुके थे। प्रचण्ड रिश्वतखारी के कारण तीनों ही विवाह भरपूर ‘शान-बान’ से सम्पन्न हुए। घर में कहीं कोई कमी नहीं थी। पुत्र नहीं था किन्तु इस बात का मलाल उन्हें तनिक भी नहीं था। वे ‘शिव आराधक’ थे। कहते थे ‘भोले की इच्छा है कि मैं पुत्रविहीन रहूँ। दुखी होकर अपने आराध्य का अपमान कैसे कर सकता हूं?’


वार-त्यौहार पर तीनों बेटियों का आना-जाना बना रहता। कभी तीनों एक साथ आ जातीं तो कभी एक-एक कर। दामाद भी प्रायः ही सुसराल सुख भोगने आते। किन्तु बेटी-दामाद के आने का वास्तविक अर्थ हर बार उनके जाने के बाद ही मालूम हो पाता। विभिन्न दुकानदार आकर बताते कि इस बार बिटिया और कुँवर साहब इतनी-इतनी खरीदी कर गए हैं। यह खरीदी हर बार हजारों में ही होती। मलयजी भी हँसते-हँसते दुकानदारों का भुगतान करते। एक बार भी किसी भी बेटी-दामाद से खरीदी की पुष्टि कभी नहीं की।


स्थानान्तर उनकी नौकरी का अपरिहार्य हिस्सा था। सो, उनका स्थानान्तर हो गया। मेरे कस्बे से कोई 160 किलो मीटर दूर। जैसा कि ऐसे मामलों में होता है, शुरु-शुरु में फोन सम्पर्क अधिक (प्रायः नियमित) बना रहा। धीरे-धीरे कम होता चला गया जो ‘प्रासंगिक’ की सीमा तक सिमट गया। किन्तु उनकी श्रीमतीजी के फोन बराबर आते रहे। वे मुझे भला आदमी आदमी मानने का भ्रम पाल बैठी थीं।


उनके स्थानान्तर के कोई पौने दो वर्ष बाद की बात है यह। उनकी श्रीमतीजी का फोन आया। बिना किसी भूमिका के कहा - ‘भैया! फौरन चले आओ।’ वे अत्यधिक घबराई हुई थीं। मैंने पूछा - ‘सब ठीक-ठाक तो है? कोई गड़बड़ तो नहीं है?’ वे बोलीं -‘कुछ भी ठीक नहीं है। पूछताछ मत करो। फौरन चले आओ। रोटी वहाँ खाओ तो पानी यहाँ आकर पीना।’


घबराहट तो मुझे भी हो ही गई थी। किन्तु पूछताछ किए बिना जाना नहीं चाहता था। मालूम हुआ कि मलयजी ने दो दिनों से खुद को कमरे में बन्द कर रखा। रोटी-पानी बन्द रखी है। आवाज देने पर जवाब भी नहीं दे रहे। कमरे की खुली खिड़की से उन्हें देख पाना सम्भव हो रहा है। वे बिस्तर पर लेटे हुए हैं। कभी हिचकियाँ ले-ले कर तो कभी सिसकियाँ भर कर रोए जा रहे हैं। उन पर चैबीसों घण्टे नजर रखी जा रही है। तसल्लीबख्श बात यही थी कि वे आत्महत्या का प्रयास करते नजर नहीं आए। लेकिन ‘कब क्या कर बैठें?’ की आशंका तो बराबर बनी हुई है।

मैं सचमुच में भाग कर पहुँचा-अपने सारे काम छोड़कर। उनकी श्रीमतीजी ने मेरे नमस्कार करने पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया। बोलीं--‘दरवाजा खुलवाओ।’ मैंने अपना नाम बता कर आवाज लगाई। उन्होंने तत्काल ही दरवाजा खोल दिया और इससे पहले कि मैं कमरे में प्रवेश करता, वे मुझे बाँहों में भींचकर, दहाड़ें मार-कार कर रोने लगे। दरवाजे पर उनकी श्रीमतीजी सहित कुछ पुलिसकर्मी एकत्र हो गए थे। सबके सब मलयजी को इस दशा में देखे जा रहे थे-भौंचक और किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर।


इसी दशा में, कमरे की देहलीज पर ही कुछ मिनिट बीत गए। उनका रोना जब कम हुआ तो मैंने कहा -‘क्या हुआ?’मुझे आलिंगनबध्द दशा में ही वे कमरे में ले आए। फिर मुझे छोड़कर, सबकी ओर देखे बिना ही कमरे का दरवाजा किया। पहले खुद पलंग पर बैठे। फिर मुझे बैठने को कहा। उन्हें संयत होने में सचमुच में अपेक्षा से अधिक समय लगा। हम दोनों में बात शुरु हुई।

मालूम हुआ कि सबसे छोटी बेटी रचना दो दिन पहले ही लौटी है। दामाद सहित ही आई थी इस बार थी। तीनों बेटियों में वही सबसे अधिक प्रिय थी मलयजी को। वे उसे अपनी बेटी कम और मित्र अधिक मानते थे। घर की और मन की जो बात पत्नी से भी नहीं कह पाते थे, रचना से कह देते थे। अपनी उसी ‘प्रियतम’ बेटी का एक वाक्य मलयजी के ह़रदय को बेध गया। उन्होंने सहज ही कहा था कि वे पति-पत्नी बाजार से जो भी खरीदी करें तो करें, कोई बात नहीं। किन्तु जाने से पहले यदि बताते जाएँ कि उन्होंने बाजार मे कितनी उधारी की है तो अच्छा होगा। पिता की यह इच्छा रचना को अपनी हेठी लगी और उसने कुछ ऐसा कहा -‘तो पापा अब मुझे हिसाब देकर जाना पड़ेगा? आपको क्या फर्क पड़ता है अगर दुकानदार हजार-पाँच सौ की ठगी कर ले? आपको कौन सा अपनी गाँठ से पैसा देना पड़ रहा है? आप तो लोगों की लुगाइयाँ बिकवा कर पैसे लेते हो!’ यह कह कर रचना तो ‘यह जा, वह जा’ हो गई और थोड़ी ही देर बाद बेटी-दामाद अपने निर्धारित कार्यक्रमानुसार अपने घर लौट गए।

रचना के जाने के बाद से ही मलयजी ने खुद को कमरे में बन्द कर लिया। उन्होंने कहा कि सारी दुनिया उन्हें रिश्वतखोर, भ्रष्टाचारी और ‘लोगों की लुगाइयाँ बिकवानेवाला’ कहती है, उन्होंने किसी की परवाह नहीं की। किन्तु जिन बच्चों के लिए यह सब किया, वे ही बच्चे आज उनके मुँह पर ही यह सब कह गए और यह कहते हुए उन्हें पल भर भी विचार नहीं आया कि बाप पर क्या गुजरेगी। बच्चे जिस बाप की इज्जत न करें, उस बाप को तो डूब मरना चाहिए। किन्तु मलयजी का विवेक नष्ट नहीं हुआ था। वे आत्महत्या को ईश्वर के प्रति अपराध मानते रहे हैं। आत्महत्या के प्रत्येक प्रकरण में उन्होंने आत्महन्ता को ‘खुद तो हरामखोर मर गया और अपने घरवालों की जिन्दगी नरक बना गया’ जैसी बातें कर खूब कोसा है और जी भर कर गालियाँ दी हैं। रचना की बात उनसे अब भी सहन नहीं हो पा रही थी। वे ‘कुछ’ करना चाह रहे थे किन्तु कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। उन्होंने मुझसे कहा - ‘तू ही बता। मैं क्या करूँ कि इस जिल्लत से निजात मिल सके?’

मैं क्या कहता? मैं तो उनसे हर मामले में बहुत ही छोटा था। किन्तु उस क्षण वे मुझे ‘दुनिया का सबसे ज्यादा जरूरतमन्द व्यक्ति’ लगे। सो मैंने कहा कि मेरे पास एक उपाय है अवश्य किन्तु उस पर अमल कर पाना उनके लिए नितान्त असम्भव ही लग रहा है। मलयजी बोले -‘अभी तो तूने कुछ कहा नहीं है? मुझे तुझ पर पूरा विश्वास है। तू जो कहेगा, वही करुँगा। अपने ईष्ट भोल शंकर की साक्षी में तुझसे वादा करता हूँ। शर्त यही है कि मुझे इस जलालत से मुक्ति मिल जाए।’ मैंने कहा कि रिश्वतखोरी ही इस संकट के मूल में है, सो इस मूल को नष्ट करना ही एकमात्र उपाय नजर आता है जो उनकी नौकरी के चरित्र को देखते हुए नितान्त असम्भव है।


उन्होंने मुझसे दो बार और पूछा कि ऐसा करने से वास्तव में वे संकट मुक्त हो सकेंगे? मैंने कहा -‘मुझे तो पूरा विश्वास है।’ मलयजी ने कहा -‘तो तू भरोसा कर। शिव साक्षी में मैं इसी मिनिट से रिश्वतखोरी बन्द कर रहा हूँ।’ उनके स्वरों की दृढ़ता ने मेरे आत्मविश्वास को डिगा दिया। मुझे प्रसन्न होना चाहिए था किन्तु मुझे कँपकँपी हो आई। मैंने कहा- ‘तब आप नौकरी नहीं कर पाएँगे। इसलिए इसमें एक सुधार कर रहा हूँ कि आप अपनी ओर से रिश्वत माँगना बन्द कर दीजिएगा और यदि कोई स्वैच्छिक रूप से ‘शुकराना’ दे तो मना मत कीजिएगा।’ उन्होंने मेरे इस स्खलन को तत्काल ही भाँप लिया। बोले - ‘रिश्वत तो रिश्वत ही होती है। फिर भी तेरी सलाह व्यवहारहिक है। यही करूँगा। पक्का वादा। शिव साक्षी में वादा।’

यह सब होने के बाद, कोई तीसरे दिन उन्होंने अन्न-जल ग्रहण किया। रात को उन्होंने मेरी उपस्थिति में अपनी श्रीमतीजी को पूरी बात सुनाई और ‘सूखी तनख्वाह पर’ घर चलाने के लिए तैयार रहने की सूचना दे दी। अगली सवेरे मैं चला आया।

चला तो आया, किन्तु समूचा घटनाक्रम मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। पल-प्रति-पल मैं भयभीत बना रहात। पता नहीं मलयजी पर क्या बीत रही होगी? वे अपनी नौकरी कैसे कर रहे होंगे? अब मैंने अपनी ओर से सम्पर्क करना शुरु कर दिया था-नित्य प्रायः ही। उनके स्वरों में एक बार भी निराशा, दुर्बलता, उपालम्भ अनुभव नहीं हुआ। सब ठीक ही चल रहा था। अपराधियों को तो वे पहले भी नहीं बख्शते थे। अब भी नहीं बख्श रहे हैं। सो, नौकरी में सफलता का ग्राफ अपनी वृध्दि नियमित बनाए हुआ था। जो भी अन्तर पड़ रहा था, आमदनी पर पड़ रहा था। मलयजी में आए परिवर्तन की जानकारी कानोंकान होते उनके समूचे कार्यक्षेत्र में अनपेक्षित तेजी से फैली। अपराधी अधिक भयभीत हुए। दौरों पर आने वाले उच्चाधिकरियों ने भी उनसे ‘अर्थापेक्षाएँ’ मानो शून्यवत कर लीं। इन सारी बातों से मलयजी का आत्मबल और बढ़ा। घटना के कोई सात माह बाद एक दिन उन्होंने टेलीफोन पर कहा -‘तेरी एक बात टाल दी है। अब शुकराना लेने के लिए आत्मा गवाही नहीं देती। वह भी बन्द कर दिया है।’ उनके स्वरों में मानो चौड़े पाट में बह रही गंगा की शान्त-गम्भीर सरसराहट थी और मेरी आँखें गंगा हुई जा रही थीं। बता रहे थे कि शुरु-शुरु के तीन-चार महीने अवश्य अर्थाभाव अनुभव हुआ किन्तु उम्मीद से अधिक जल्दी ही जीवनक्रम सामान्य हो गया। अब वे गहरी नींद सोते हैं।

और रचना सहित तीनों बेटी-दामादों का व्यवहार? उन्होंने बताया कि सबके सब अब भी पूर्वानुसार ही आते-जाते हैं लेकिन घर से बाहर कोई नहीं जाता। रचना को जैसे ही मालूम हुआ कि उसकी बात ने पिता की जीवन दिशा और दशा बदल दी है तो अपराधबोध से ग्रस्‍त हो, उसने अपनी दोनों बड़ी बहनों और तीनों दामादों को ‘हिदायत’ देकर दुरुस्त कर दिया। बेटी-दामाद के जाने के बाद कोई दुकानदार अब घर नहीं आता।

घटना के कोई सवा वर्ष बाद, एक विवाह प्रसंग में,उनकी पदस्थापना वाले कस्बे में फिर जाना हुआ। अकेला नहीं था, चार-पाँच मित्र भी साथ थे। सो तय किया था कि विवाह समारोह से निपट कर लौटते समय उनसे मिलूँगा। किन्तु वे तो मुझसे पहले ही विवाह समारोह में उपस्थित थे। मुझे देखते ही मेरी ओर लपके। मुझे लगा कि वे मुझे बाँहों में भर लेंगे। किन्तु वे तो एकदम मेरे पैरों की ओर झुकते नजर आए। मैंने घबराकर, सकपकाकर उन्हें अपनी बाँहों में थामा। बडी ही कठिनाई से कह पाया - ‘यह क्या कर रहे है? मुझे पाप में क्यों डाल रहे हैं?’ मुझे लगा था कि वे रोना शुरु कर देंगे। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। मेरे हाथों में थमे अपने हाथों को छुड़ाकर, अपने दाहिने हाथ से मेरी पीठ को घेरे में लेकर, अपने साथ मुझे आगे ले चलते हुए लोगों से बोले -‘यही है वो आदमी जिसकी बात मैं आपसे करता रहता हूँ। इसने मुझे जिन्दगी दी भी और सुधारी भी।’ इसके बाद जो कुछ हुआ हुआ उसका वर्णन यहाँ अनावश्यक ही है। बस इतना ही कि मैं न भोजन कर पाया और न ही व्यंजनों का स्वाद ले पाया। उस समय जो अनुभूति हुई वह आज भी मेरी धरोहर बनी हुई है।


नौकरी में रहते हुए ही गम्भीर ह़रदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। अपनी सम्वेदनाएँ प्रकट करने मुझे जाना ही था। गया तब तक शोक निवारण तक की सारी उत्तरक्रियाएँ सम्पन्न हो चुकी थीं। सारे मेहमान लौट चुके थे। केवल रचना रुक गई थी। मैं लौटने लगा तो रचना मुझसे लिपट गई। बड़ी मुश्किल से उसने कहा - ‘पहली बार पापा को मैंने मार दिया था। तब मम्मी ने आपको खबर कर दी थी और आपने पापा को बचा लिया था। इस बार सब कुछ इतना एकाएक हुआ कि मम्मी को आपको बुलाने की याद आने का मौका भी नहीं मिला।

रोना तो मुझे भी आ ही रहा था। मलयजी की मृत्यु के कारण, रचना के लिपट कर रोने के कारण, रचना की कही बात के कारण। किन्तु उससे अधिक शायद इस बात के कारण कि मैंने मलयजी को शुकराना लेने की सलाह क्यों दी। वे तो मेरी सलाह के बाद पहले ही क्षण से रिश्वतखोरी को त्यागने को तत्पर थे। मेरे कारण ही वे कुछ और समय तक रिश्वतखोर बने रहने का वजन अपनी आत्मा पर झेलते रहे होंगे।

भला बताइए! ऐसी बातें याद करते समय, लिखते समय रोना क्यों नहीं आए?

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ये दादाजी चट्टे हैं

यह ‘चरित्र प्रमाण-पत्र’ मेरे लिए जारी किया जा रहा था। मेरे घर के ठीक बाहर ही। मुहल्ले के चार-पाँच बच्चे बातें कर रहे थे। उन्हीं में से एक कह रहा था - ‘ये दादाजी चट्टे हैं।’ मैं आगे वाले कमरे में बैठकर अपनी लिखा-पढ़ी कर रहा था। तभी बाहर से बच्चों के बीच से यह आवाज आई। मैं ने खिड़की का पर्दा, जरा सा सरका कर देखा। वे मेरे घर के बाहर, सड़क पर खड़े थे और सबका मुँह मेरे मकान की ओर था।

चट्टे याने चटोरे। एक बच्चा मुझे चटोरा घोषित कर रहा था और बाकी सब मानो मूक-सहमति दे रहे थे। मैं खिड़की से हट कर अपनी जगह बैठ कर काम करने लगा किन्तु कान बच्चों की बातों पर ही थे। उनके सम्वाद कुछ इस तरह थे -

‘तुझे कैसे मालूम?’

‘मुझे मालूम है। इन्हें आज जब मालूम पड़ा कि सन्तोष आण्टी ने कचौरियाँ बनाई हैं तो इन्होंने सन्तोष आण्टी से माँग कर कचौरियाँ खाईं।’

‘क्या बात करता है? दादाजी ने खुद माँगी?’

‘सच्ची। बड़ी-बड़ी विद्या की कसम। मैंने खुद देखा। मेरे सामने माँगी?’

‘शेम। शेम। मैं ऐसा कर लूँ तो मेरी मम्मी मेरी पिटाई उड़ा देती।’

‘और नहीं तो क्या? मेरी मम्मी तो कहती है कि कोई खाने को कहे तो पहली बार में तो उस चीज को दखना भी नहीं चाहिए। दूसरी बार कहे तो थोड़ी से लेनी चाहिए।’

‘हाँ। मेरी मम्मी भी यही कहती है।’

‘अच्छा बता! दादाजी ने कचौरियाँ माँगी कैसे?’

‘वो मेरी मम्मी और सन्तोष आण्टी गेट पर खड़ी-खड़ी बातें कर रही थीं। दादाजी ने अपने दरवाजे पर आए और सन्तोष आण्टी को आवाज लगा कर कचौरियाँ माँगी।’

‘एँ! आवाज लगा कर? जोर से आवाज लगा कर?’

‘येई तो! और आवाज भी इतनी जोर से लगाई कि सड़क पर खड़े सब लोगों ने सुनी।’

‘शेम! शेम! और सन्तोष आण्टी ने क्या कहा?’

‘कहा क्या? यही कि थोड़ी देर में भिजवाती हूँ।’

‘उन्हें (सन्तोष आण्टी को) बुरा नहीं लगा?’

‘येई तो कमाल है! बुरा लगना तो दूर उल्टे वो तो खूब खुश हो गई।’

‘हाँ, हाँ। कोई मेरी मम्मी से माँगता है तो वो भी खुश होती है कि देखो बड़े अकड़ते हैं लेकिन कितनी बेशर्मी से चीजें माँग लेते हैं।’

‘हाँ, मेरी मम्मी भी माँगने वाले के लिए ऐसा ही बोलती है।’

‘फिर सन्तोष आण्टी ने कचौरियाँ दी कि नहीं?’

‘अरे क्या बात करता है! सन्तोष आण्टी को भाग कर घर गईं। घर में जाकर फौरन बाहर आईं और अपने दरवाजे से ही जोर से आवाज लगा कर दादाजी को कहा कि अभी गरम-गरम उतरते ही भेजती हूँ।’

‘फिर! भेजीं?’

‘हाँ। मैंने देखा। सन्तोष आण्टी ने कटोरी में तीन कचौरियाँ भेजीं।’

‘फिर! दादाजी ने खाई कि नहीं? दादाजी क्या बोले?’

‘खाते कैसे नहीं? खाने के लिए ही तो मँगवाई थीं। वो कटोरी लेकर घर में चले गए। थोड़ी देर में मुँह पोंछते-पोंछते फिर दरवाजे पर आए और सन्तोष आण्टी को जोर से आवाज लगा कर कहा कि कचौरियाँ अच्छी बनाईं है।’

‘सन्तोष आण्टी ने कुछ कहा?’

‘हाँ यार! उन्होंने दादाजी को थैंक्यू कहा!’

क्या? सन्तोष आण्टी ने थैंक्यू कहा? थैंक्यू तो दादाजी को कहना चाहिए था!’

‘वोई तो! मुझे भी समझ में नहीं आया कि थैंक्यू सन्तोष आण्टी ने क्यों कहा? दादाजी ने क्यों नहीं कहा?’

‘शेम! शेम! याने दादाजी चट्टे ही नहीं, इन्हें मैनर्स भी नहीं आते।’

‘हाँ यार! और ये अपने को कितना टोकते रहते हैं?’

‘अब टोकने दो। अपन भी साफ-साफ कह देंगे कि आप चट्टे हो।’

और इस ‘सर्वानुमत निर्णय’ के साथ बच्चों की टोली आगे बढ़ गई।

बच्चों की बातें सुनकर मुझे बुरा तो बिलकुल ही नहीं लगा कि किन्तु यह अनुभव कर अटपटा अवश्य लगा कि हम बच्चों को शिष्ट बनाते-बनाते किस सीमा तक औपचारिक या कि असहज बना रहे हैं।

धुलेण्डी के दिन मुहल्ले के सब लोग एक दूसरे को रंग-गुलाल लगाने जाते हैं। इसी क्रम में सब लोग, मेरे सामने रह रहे माँगीलालजी कुमावत के घर गए। उनकी श्रीमतीजी (जिन्हें पूरा मुहल्ला ‘बाईजी’ कह कर सम्बोधित करता है) ने सबके लिए कचौरियाँ बनाई थीं और कोशिश की थी सबको गरम-गरम कचौरियाँ खाने को मिलें।

मुझसे मिलने के लिए कुछ कृपालु आ गए थे। उनसे होली-मिलन कर मैं बाईजी के यहाँ पहुँचता, उससे पहले ही मिलन-मण्डली वहाँ से आगे बढ़ गई। यह देख मैं घर में ही रुक गया।श्रीमतीजी वहाँ से लौटीं तो दो कचौरियाँ लेकर। एक मेरे लिए और एक हमारे छोटे बेटे तथागत के लिए। हम दोनों को घर में उलझा देखकर श्रीमतीजी ने बाईजी की पुत्र-वधु सन्तोष से हम दोनों के लिए एक-एक कचौरी माँग ली थी।

कचौरी वास्तव में बहुत ही खस्ता और स्वादिष्ट थी। उस पर ‘गरम-गरम’ ने स्वाद और आनन्द कई गुना बढ़ा दिया। मैंने श्रीमतीजी से प्रशंसा की तो वे बोलीं कि सन्तोष ने मेरे इस आनन्द का पूर्वानुमान लगा रखा है और वह प्रसन्नतापूर्व प्रतीक्षा कर रही है कि यदि मुझे कचौरी पसन्द आए तो तदनुसार उसे सूचित करूँ ताकि वह और कचौरियाँ पहुँचाए।

और मैंने, अपने घर के दरवाजे पर खड़े होकर, ज्योति से बतिया रही सन्तोष से, आवाज लगा कर कचौरियाँ माँग लीं। सन्तोष मानो इसी की प्रतीक्षा कर रही थी। वह भाग कर घर गई और मेरे लिए गरम-गरम कचौरियाँ भिजवा दीं।

यह सब कुछ न केवल सहजता से हुआ अपितु पूरी-पूरी आत्मीयता और अनौपचारिकता से भी हुआ।

लेकिन बच्चों के लिए इस सबका अर्थ कुछ और ही था। निश्चय ही वे हतप्रभ और दुखी हुए क्योंकि मैं उनके लिए मैनरलेस और चटोरा आदमी साबित हुआ।

अब मैं सहजता और आत्मीयता से उजागर अपने चटोरेपन पर गुमान करूँ या मेरे व्यवहार से बच्चों के मन में उपजी हताशा पर दुखी होऊँ?
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चन्दू भैया की गैस एजेन्सी पर

मैं जब चन्दू भैया के चेम्बर में पहुँचा तो समूचा दृश्य तनिक विचित्र और वातावारण असहज तथा भारी था। एक व्यक्ति अत्यन्त अशिष्ट मुद्रा में और उससे भी अधिक अहंकारी भाव-भंगिमा से खड़ा था-ऐसे, मानो चन्दू भैया के चेम्बर में आकर और चन्दू भैया को काम बता कर उसने न केवल चन्दू भैया पर अपितु उनके पुरखों पर भी उपकार किया हो। चन्दू भैया उसकी अपेक्षानुरूप उसे सहयोग करते नजर नहीं आ रहे थे सो वह अत्यधिक कुपित था। पूरे चेम्बर में, अपने चरम पर छाया हुआ अनुभव बिना किसी कोशिश के पहली ही साँस में अनुभव हो रहा था।

इससे पहले कि चन्दू भैया मेरी मनुहार करते, मैं नमस्कार कर उनके ठीक सामने बैठ गया। थोड़ी ही देर में सारी बात समझ में आ गई।

चन्दू भैया मेरे कस्बे में एक गैस एजेन्सी के संचालक हैं। एक तो वे पहले से ही ‘घनघोर सामाजिक प्राणी’ और उस पर गैस एजेन्सी के संचालक भी! सो, उनकी जान-पहचान की न तो सीमा का अनुमान किया जा सकता है और न ही है इसके प्रभाव क्षेत्र की व्यापकता का।जो व्यक्ति वहाँ ‘अशिष्टता और अभद्रता का मानवाकार’ बन कर खड़ा था, उसे एक गैस सिलेण्डर चाहिए था। उसके पास जो डायरी था वह उसके नाम की नहीं था और न ही उसने, उस डायरी पर गैस बुक करवा रखी थी। किन्तु उसे सिलेण्डर चाहिए था, तत्काल चाहिए था और वह भी अपनी चाय की होटल के लिए। मामला मुझे रोचक लगा और मैं अतिरिक्त उत्सुकता तथा सतर्कता से सब कुछ देखने लगा।

जैसा कि मैं अनुमान कर रहा था, चन्दू भैया ने असमर्थता जताई। शायद, मेरे पहुँचने से पहले भी वे मना कर चुके थे। चन्दू भैया का दूसरी बार मना करना उस व्यक्ति को असहनीय ही नहीं, अपनी हेठी भी लगा। उसने अशिष्टतापूर्ण आत्मविश्वास से कहा -‘निगोसकर साहब से बात कर लो।’ मुझे नहीं पता कि निगोसकर साहब कौन हैं। किन्तु यह अनुमान तो हो ही गया कि वे निश्चय ही ऐसे विभाग के ऐसे प्रभावशाली अधिकारी हैं जिनकी बात टालना गैस एजेन्सी के संचालक के लिए असम्भव नहीं तो कठिन तो होता ही होगा।

निगोसकरजी के नाम का असर फौरन ही हुआ है, यह मैंने देखा। चन्दू भैया ने फोन लगाया और बात शुरु की। सम्वादों से मालूम हुआ कि निगोसकरजी जिला खाद्य अधिकारी हैं। उन्होंने क्या कहा, यह तो पता नहीं हो पाया किन्तु चन्दू भैया ने वस्तुस्थिति तथा आए हुए व्यक्ति के अभद्र और अशिष्ट व्यवहार की जानकारी दी। जल्दी ही बात समाप्त हो गई। चन्दू भैया ने उस व्यक्ति को कहा कि वह पहले गैस कनेक्शन अपने नाम करा ले। फिर सिलेण्डर ले ले। उसने कहा -‘तो इसमें मुझे क्या करना है? नाम ट्रांसफर तो तुम ही करोगे। कर दो ट्रांसफर और दे दो टंकी।’ इस बार केवल चन्दू भैया न ही नहीं, चेम्बर मे बैठे हम सब लोगों ने उसकी ओर देखा। हम सबकी नजरों में लबालब भरी भत्र्सना उसने शायद तत्क्षण ही पढ़ ली। वह ‘आहत अहम्’ लिए (कुछ इस तरह व्यवहार करते हुए कि ‘तुमने ठीक नहीं किया। तुम्हें देख लूँगा।’) चला गया।

उसके जाने के बाद चन्दू भैया से विधिवत् नमस्कार हुआ। अचानक ही उन्होंने फिर निगोसकर साहब को फोन लगाया और पूरी बात बताते हुए सूचित किया कि उस व्यक्ति को बिना सिलेण्डर दिए लौटा दिया है। उस व्यक्ति की अशिष्टता, अभद्रता और भाषा का उन्होेंने विशेष रूप से, एकाधिक बार उल्लेख किया और अकस्मात ही ‘मैं क्या कहूँ, ये विष्णु भैया सामने बैठे हैं, इन्होंने सब कुछ देखा-सुना है। आप इन्हीं से पूछ लें।’ कहते हुए मुझे फोन थमा दिया। मैं इस स्थिति के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था और न ही निगेासकरजी को जानता था। लेकिन अब तो मुझे बात करनी ही थी। नमस्कार के बाद मैंने उनसे कहा कि जैसा व्यवहार उस व्यक्ति ने किया है वैसा व्यवहार तो खुद निगोसकरजी का दामाद भी (उन्हें परेशान करनेे की नीयत से भी) नहीं करता। मैंने उनसे एक निवेदन किया कि वे भविष्य में (न केवल किसी गैस एजेन्सी पर, अपितु कहीं भी) किसी भी व्यक्ति को सिफारिशी तौर पर भेजें तो उससे यह अवश्य कहें कि वह ऐसा कोई व्यवहार न करे जिससे उनकी (निगोसकरजी की) प्रतिष्ठा कलंकित, लज्जित हो।

निगोसकरजी ने न केवल मुझसे सहमति जताई अपितु पूरे घटनाक्रम के लिए खेद भी प्रकट किया। मुझे संकोच हो आया। वे मेरे प्रति तो कहीं भी जिम्मेदार नहीं थे! मुझे आश्चर्य हुआ कि एक ओर तो निगोसकरजी हैं जो एक अपरिचित से खेद प्रकट कर रहे हैं और एक वह व्यक्ति था जो निगोसकरजी का नाम लेकर अकड़ बताए जा रहा था।

मुझे लगा कि समूचा घटनाक्रम किसी ‘जीवन दर्शन’ का सन्देश दे रहा है। किसी से सिफारिश करवा कर हम ‘भुट्टे जैसे’ अकड़ जाते हैं। इसी अकड़ में यह भूल जाते हैं कि हम सिफारिश करने वाले की ‘धाक और रुतबा’ ही अपने साथ नहीं ले जा रहे हैं, उसकी प्रतिष्ठा और उसकी छवि भी साथ ले जा रहे हैं। याने, यदि हम ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ हैं तो इसके साथ ही साथ ‘जवाबदार’ भी हैं। सिफारिश से मिली सुविधा को हम अपना अधिकार मानने की मूर्खतापूर्ण गलती करते हैं। यह गलती ऐसी होती है जिसकी सजा हमें भले ही न मिले, हमारी सिफारिश करने वाले को अवश्य ही मिलती है।

अब यह तो नहीं बताऊँगा कि ऐसी भूल मैंने अब तक कितनी बार की है। किन्तु अचेतन में भी सचेत रहने का पूरा-पूरा यत्न करूँगा कि ऐसी गलती अब न हो। कभी नहीं हो।

और आप क्या करेंगे? यह तो आप ही तय कीजिएगा। हाँ, मेरी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना अवश्य कीजिएगा।
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पहला वास्तविक धार्मिक फतवा

(या तो मेरे सिस्टम में कोई गड़बड़ है या फिर मेरे नेट कनेक्शन में कि दो दिन से मैं चिट्ठे नहीं पढ़ पा रहा हूँ। कुछ चिट्ठे मैं ई-मेल से प्राप्त करता हूँ। किन्तु वे भी या तो खुल ही नहीं रहे हैं या फिर बहुत अधिक देर बाद, धीमे-धीमे। इसी कारण मुझे नहीं पता कि इन दो दिनों में चिट्ठों की नदियों में कितना पानी बह गया है। मैं खुद को पिछड़ा हुआ अनुभव कर रहा हूँ। इस क्षण मुझे यह भी भरोसा नहीं है कि मेरी यह पोस्‍‍ट प्रकाशित हो ही जाएगी।)

इसे ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ भी कहा जा सकता है या फिर ‘सुबह का भूला शाम को घर लौटा’ भी। वास्तविकता जो भी हो, इसका स्वागत किया ही जाना चाहिए। इस्लाम को ‘कट्टरता और धर्मान्धता’ का पर्याय बनाए जा रहे वर्तमान समय में यह पहला ‘वास्तविक धर्मिक फतवा’ है। इसे किसी कठमुल्ला-मौलवी ने नहीं, मुसलमानों के हितों की चिन्ता करते हुए उनकी बेहतरी की ईमानदार कोशिशें करने वाले ‘दारुल उलूम देवबन्द’ ने जारी किया है।

लोकसभा चुनावों के लिए जारी किए गए इस फतवे में निम्नांकित चार बातें उल्लेखनीय हैं -

(1) हर मुसलमान वोट अवश्य दे।

(2) फतवे में किसी दल विशेष, व्यक्ति विशेष, धर्म विशेष के लिए वोट देने का आग्रह नहीं किया गया है।

(3) ऐसे उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहा गया है जो देश और मुसलमसनों के हित में काम कर रहा हो। फिर भले ही वह किसी भी जाति-समाज का अथवा राजनीतिक दल का उम्मीदवार क्यों न हो।

(4) चूँकि भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अपनाई हुई है इसलिए भारत के नेताओं और राजनीतिक दलों पर इस्लाम के पैमाने लागू करना सही नहीं होगा।

इस फतवे में इस्लाम की चिन्ता नहीं की गई है बल्कि मुसलमानों की चिन्ता की गई है और ‘देश’ तथा ‘मुसलमानों’ में से ‘देश’ को पहले रखा गया है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘मुस्लिम पर्सनल ला’ और ‘शरीयत तथा हदीस’ की दुहाइयों को परे धकेल कर साफ-साफ कहा गया है कि लोकतन्त्र के पैमाने ही मुसलमानों पर लागू होंगे, इस्लामिक कानूनों के नहीं। यह फतवा एक ओर जहाँ मुसलमानों को अपने-अपने स्तर पर सोच विचार कर वोट देने की सलाह दे रहा है तो उससे भी पहले वोट जरूर देने की बात कह कर समय की जरूरतों से खुद को जोड़ भी रहा है।

सम्भवतः, वर्तमान काल खण्ड में यह पहला फतवा है जो मुसलमानों को वोट बैंक बनने से बचने की साफ-साफ सलाह दे रहा है। मुसलमान यदि अब तक वोट बैंक बने हुए हैं तो इसका कारण यही है वे ऐसा ही चाहते रहे हैं। क्षुद्र महत्वाकांक्षी और निहित स्वार्थी मुसलमान नेताओं ने भी मुसलमानो को इस स्थिति से मुक्ति दिलाने की कोशिश नहीं की। गिनती के मुसलमान नेताओं ने यदि की भी तो कठमुल्लओं की चीखों के शोर में वे सब के सब अनसुने और असफल कर दिए गए।

केवल देश के मुसलमानों को ही नहीं, देश के तमाम समझदार लोगों को भी इस फतवे का स्वागत करना चाहिए और ‘दारुल उलूम देवबन्द’ का अभिनन्दन करना चाहिए। भेड़ों की तरह, गहरे अँधेरे में हँकाले जा रहे मुसलमानों को नागरिक का दर्जा दिलाने और उनकी राहों को रोशन करने की दिशा में यह फतवा निस्सन्देह साहसी कदम है।

देश के छुटभैया मुल्लाओं-मौलवियों द्वारा, समय-समय पर दिए गए चटपटे फतवों को ‘बेस्ट सेलेबल आयटम’ की शकल में परोसने वाले मीडिया को अपने अब तक की तमाम कारगुजारियों का प्रायश्चित करने का सुन्दर अवसर इस फतवे ने दिया है। मुसलमानों को नागरिक बनाने, धर्म के नाम पर वोट न देकर अपनी मन-मर्जी से वोट देने की सलाह देने वाले इस प्रगतिशील फतवे को अपने-अपने समाचार बुलेटिनों में, अपने-अपने पन्नों में इसे पहला स्थान देना चाहिए और चैबीसों घण्टे इसे चलाते रहना चाहिए।

राजनीतिक दलों को यह फतवा निस्सन्देह नागवार लगेगा किन्तु यदि लोकतन्त्र और वोट बैंक में से किसी को चुनने का सवाल आए तो हमें केवल लोकतन्त्र को ही चुनना होगा।

अपनी दुकानदारियाँ छिन जाने के डर से दहशतजदा कठमुल्ला हल्ला मचाना शुरु करें, उससे पहले इस फतवे के सेहरों की सरगम पूरे देश में, पूरी ताकत से और पूरी आवाज से फैला दी जानी चाहिए।

यही आज की जरूरत है।
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‘मिट्टी’ की पुकार

कल का दिन कष्ट में ही बीता। शरीर की पोर-पोर में पीड़ा, आँखें मुँदी-मुँदी। खुलने को तैयार ही नहीं। चिकित्सक को दिखाया तो बोले-‘कुछ भी नहीं हुआ है।’ अर्थात् मैं ‘निरोग किन्तु अस्वस्थ’ था।

ऐसे में पूरा दिन बिस्तर में निकला-करवटें बदलते हुए। भारत-न्यू जीलैण्ड के बीच दूसरे एक दिवसीय क्रिकेट मैच का जीवन्त प्रसारण आ रहा था। किन्तु ‘इतने ओवरों के बाद इतने विकेट पर इतने रन’ से अधिक कुछ भी समझ नहीं पड़ता। सो वहाँ अधिक देर तक टिके रहना सम्भव नहीं था। समाचार चैनलों पर समाचार कम और जुगाली अधिक देखनी/सुननी पड़ती है। सो, रिमोट का उपयोग कल कुछ अधिक ही किया।

इस बीच एक समाचार ने ध्यानाकर्षित किया। अनगढ़ लिखावट वाले, झोंपड़ी के बाहर लटके, गत्ते वाले एक सूचना पत्र को प्रमुखता से बार-बार दिखया जा रहा था जिस पर ‘ताम्र पत्र बेचना है। मिलें’ लिखा हुआ था। ‘सहारा मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़’ पर इसे विशेष समाचार कथा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। समाचार छत्तीसगढ़ के कोरबा अंचल के किसी गाँव (जिसका नाम मुझे इस समय ‘करघोड़ा’ याद आ रहा है) की लोक कलाकार ‘मिट्टीबाई’ पर केन्द्रित था। समाचार प्रस्तोता कलाकार को ‘मिट्टीबाई’ कह रहा था और उनका सम्वाददाता ‘मीठी बाई’ बोल रहा था। मुझे ‘मिट्टीबाई’ अधिक अच्छा और (कलाकार के कला क्षेत्र से) अधिक जुड़ा लगा।

‘मिट्टीबाई’ की अवस्था लगभग 75-80 वर्ष लग रही थी। झुर्रियों ने चेहरे को जीवनानुभवों का कोलाज बना रखा था। वैसे भी, गरीबी और अभाव व्यक्ति के चेहरे पर पीड़ा और झुर्रियाँ बन कर ही तो व्यक्त होती हैं! वे छत्तीसगढ़ी में बोल रहीं थीं। ‘शब्दार्थ’ तो समझ नहीं आ रहे थे किन्तु कहानी पूरी-पूरी पहुँच रही थी।

घास-फूस और मिट्टी के मिश्रण से कलाकृतियाँ बनाने वाली इस ‘मिट्टीबाई’ को, इन्दिरा गाँधी के प्रधानमन्त्रित्व वाले कार्यकाल में ताम्र पत्र से सम्मानित किया गया था। इन्दिरा गाँधी के निधन को ही अब 25 वर्ष होने वाले हैं। तब ‘मिट्टीबाई’ का शरीर अधिक साथ दे रहा होगा और प्रशंसा ने उनके उत्साह, हौसले, आत्म-विश्वास में भरपूर वृध्दि की होगी। तब वे गर्वित और पुलकित भी हुई ही होंगी। किन्तु आज स्थिति ‘दयनीय’ और ‘शोचनीय’ है। दो वक्त की रोटी आज ‘मिट्टीबाई’ की सबसे बड़ी समस्या है। जीविकोपार्जन का कोई उपाय नहीं है। सबसे छोटी बेटी के साथ रह रही हैं। शासन से उन्हें 600 रुपयों की मासिक पेंशन मिलती अवश्य है किन्तु वह अनियमित है। चार-चार, छः-छः माह की पेंशन एक साथ मिलती है जबकि पेट तो प्रतिदिन दोनों समय रोटी माँगता है।

समाचार के अनुसार, सहायता पाने के लिए ‘मिट्टीबाई’ ने प्रत्येक दावाजा खटखटाया, प्रत्येक प्रयास किया किन्तु सहायता मिलना तो दूर रहा, आश्वासन भी नहीं मिले। ऐसे में ‘मिट्टीबाई’ करे तो क्या करे? गाँठ में पूँजी होती तो कोई कठिनाई ही नहीं होती। ‘घर’ (?) में कोई मूल्यवान सामान होता तो उसे ही बेच कर रोटी जुटा लेती। शासन प्रदत्त ताम्र पत्र ‘मिट्टीबाई’ को बार-बार नजर तो आया होगा किन्तु उसे अपनी कला का सम्मान मान कर उसे बेचने के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। ‘सम्मान बेच कर जीना भी कोई जीना होता है?’ वाला भाव भी मन में कम से कम एक बार तो आया ही होगा। अपने सम्मान का अर्थ समझने में ‘मिट्टीबाई’ की निरक्षरता ने कोई बाधा खड़ी नहीं की होगी। किन्तु यह भी जल्दी ही समझ आ गया होगा कि सम्मान से पेट नहीं भरता। शायद भूख से उपजी समझ अधिक प्रभावी होती है। ऐसे में ‘मिट्टीबाई’ ने अपने ‘सबसे बड़े सामान’ को बेचने का मर्मान्तक पीड़ादायी यह निर्णय लिया होगा और ‘ताम्र पत्र बेचना है। मिलें’ वाला ‘विज्ञापन’ घर के बाहर लटकाया होगा।

समाचार प्रस्तोता और चैनल का सम्वाददाता, अपने-अपने वक्तव्य में एक बात बार-बार कह रहे थे कि खुद ‘मिट्टीबाई’ ने और उनके आसपास के अनेक लोगों ने शासन से असंख्य बार निवेदन किया किन्तु कहीं, कोई सुनवाई नहीं हुई। ‘ताम्र पत्र दे कर भूल गई सरकार’ वाली बात को इतनी प्रमुखता से प्रस्तुत किया जा रहा था कि ‘मिट्टीबाई’ की भूख भी उसके नीचे दब कर कराहती अनुभव होने लगी। कुछ देर तक तो यह निर्धारण कठिन हो गया कि चिन्ता का विषय क्या है - ‘मिट्टीबाई’ का भूखों मरना या शासन का, ताम्र पत्र देकर भूल जाना? मुझे लगा, शासन का यह भूल जाना अधिक चिन्ता का विषय बनाया जा रहा था।

इस चिन्ता में मैं भी खुद को शरीक करता हूँ। ‘लोक कलाकार’ जीते जी हमारी मूल्यवान सम्पत्ति होते हैं जिनकी देख-भाल किसी भी ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की जिम्मेदारी होती है। किन्तु इसी के समानान्तर कुछ और बातें भी मेरे मन में उठती रहीं। ‘लोक कलाकार’ केवल शासन की ही जिम्मेदारी क्यों होने चाहिए? वे हम सबकी (‘लोक’ की) जिम्मेदारी क्यों नहीं होते? चलिए, माना कि हमें ‘कला’ की सूझ नहीं और ‘कलाकार’ के वैशिष्ट्य से हम परिचित नहीं। किन्तु हमारा पड़ौसी भूखों मर रहा है, यह जानकारी भी नहीं? कहा जाता है कि पड़ौसी सबसे पहला रिश्तेदार होता है। पड़ौसी की चिन्ता सबसे पहले करने के संस्कार हमें घुट्टी में दिए जाते हैं। वे संस्कार कहाँ चले गए? विश्व शान्ति के लिए किए जाने वाले यज्ञों में लाखों रुपयों का घी उँडेल देने वालों के कानों तक ‘मिट्टीबाई’ जैसों की आवाज क्यों नहीं पहुँचती? महीने-महीने भर तक लंगर और भण्डारे चलाने वालों के पास ‘मिट्टीबाई’ जैसों तक पहुँचने का समय और सूझ नहीं है। जिसे खाना हो, हमारे दरवाजे पर आए। पखवाडों/सप्ताहों के कथा-आयोजन कराने वालों को ‘मिट्टीबाई’ जैसों की कथाएँ कब ‘नारायण सेवा’ लगेगी? दारु, साड़ियाँ, बर्तन बाँट कर वोट बटोरने वालों के लिए ‘मिट्टीबाई’ जैसों का जीवन महत्वपूर्ण क्यों नहीं बनता? ‘हमारा हाथ, गरीब के साथ’ वालों को ‘मिट्टीबाई’ गरीब नहीं लगती? छत्तीसगढ़ में ‘हिन्दुओं की घर वापसी का ऐतिहासिक/यशस्वी अभियान’ चलाने वाले ‘हिन्दू वीर’ की नजरें ‘मिट्टीबाई’ जैसों पर क्यों नहीं पड़ती?

ऐसी अनेक बातें मुझे कल बड़ी देर तक कचोटती रहीं। अपने कलाकारों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों का बखान तो हम खूब करते हैं किन्तु उन्हें सुरक्षित और व्यविस्थित बनाए रखने में हमारा योगदान शून्य से अधिक कुछ भी तो नहीं होता! कलाकार हमारा किन्तु चिन्ता करे शासन! लोक कला हमारी किन्तु रक्षा करे सरकारी कारिन्दे! स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी हमारा किन्तु उसकी देख-भाल तहसीलदार के जिम्मे! हम क्या करेंगे? हम दुहाईयाँ देंगे, उनके बचाव की गुहार लगाएँगे, उनकी बदहाली के लिए जमाने को कोसेंगे, जमाने को ही जिम्मेदार बताएँगे।

हम यही करेंगे क्योंकि ‘फिक्र का जिक्र’ करने में हम विशेषज्ञ हैं।

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जन प्रतिनिधि: ‘तब’ के और ‘अब’ के (3)

दादा का ही एक और किस्सा इस समय याद आ रहा है।

मनासा से कंजार्ड़ा की दूरी कोई 14 मील है। वहाँ बिजली नहीं थी। 14 मील की बिजली लाइन खड़ी करना काफी खर्चीला काम था। कंजार्ड़ा के लोग भोपाल पहुँचे। दादा ने तलाश किया तो मालूम हुआ कि मुख्यमन्त्री श्यामा भैया तो दिल्ली हवाई यात्रा के लिए बंगले से निकल चुके हैं। कंजार्ड़ा से आए सब लोगों को लेकर दादा बैरागढ़ हवाई अड्डे पर पहुँचे। श्यामा भैया, ‘स्टेट प्लेन’ की सीढ़ियों तक पहुँच चुके थे। वहीं दादा ने कंजार्ड़ा के लोगों से श्यामा भैया की भेंट कराई। पूरी बात समझाई। ‘सिंचाई और ऊर्जा’ श्यामा भैया के प्रिय विषय थे। उन्होंने मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन को स्वीकृति दे दी। लेकिन मौखिक स्वीकृति से काम नहीं चलता। उन्होंने कागज माँगा। किसी के पास कागज नहीं था। दादा को अचानक ध्यान आया कि कंजार्ड़ा से आए एक सज्जन सिगरेट पीते हैं। उन्होंने उनसे सिगरेट का पेकेट माँगा। पेकेट के जिस कागज पर सिगरेटें बिछा कर रखी जाती हैं, वह कागज निकाल कर श्यामा भैया के सामने कर दिया। श्यामा भैया ने उसी पर स्वीकृति लिख कर हस्ताक्षर कर दिए। उस प्रकरण की मूल और पहली नोट शीट वही, सिगेरट का कागज बना। दादा के उसी कार्यकाल में मनासा-कंजार्ड़ा बिजली लाइन का सपना साकार भी हुआ।

सुरेश सेठ अब तक इन्दौर नगर निगम के ‘ऐतिहासिक महापौर’ बने हुए हैं। कुछ सरकारी अधिकारी और परिषद् के लोग उनकी योजानाओं में जब बार-बार बाधाएँ खड़ी करने लगे तो एक दिन वे कानून की किताब घर ले गए। उन्होंने पाया कि किताब की धारा 27/2 के माध्‍यम से वे अपनी सारी योजनाएँ क्रियान्वित कर सकते हैं। उन्होंने इस धारा का ऐसा प्रचुर उपयोग किया कि उन्हें ‘महापौर 27/2’ के नाम से पुकारा और पहचाना जाने लगा। इन्दौर के जिला न्यायालय के बाहर, महात्मा गाँधी मार्ग पर बने, वकीलों के चेम्बर, सुरेश भाई ने इसी धारा का उपयोग कर बनवाए जबकि सब लोग इस योजना का विरोध कर रहे थे। नगर निगम के लिए एक मँहगी कार भी उन्होंने इसी धारा का उपयोग कर खरीदी थी।

आज जब मैं किसी ‘निर्वाचित उत्तरदायी जनप्रतिनिधि’ को ज्ञापन हाथों में लिए देखता हूँ (वह भी किसी सरकारी अधिकारी के सामने?) तो मुझे न केवल अविश्वास होता है अपितु पहले तो लज्जा आती है और बाद में हताशा घेरने लगती है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि ‘एक व्यक्ति मात्र’ नहीं होता। वह विशाल नागर-समुदाय का प्राधिकृत प्रतिनिधि होता है जो अपने मतदाताओं की इच्छाओं को मुखरित कर उनका क्रियान्वयन कराता है। इसके लिए उसे कार, बंगले, चमचों-चम्पुओं की फौज, गिरोहबाजी की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए चाहिए नैतिक और आत्म बल, भरपूर आत्म विश्वास, अपने नागरिकों की इच्छाओं को अनुभव कर उन्हें साकार कराने की शुध्द और ईमानदार नीयत।

कोई सरकारी अधिकारी किसी भी जनप्रतिनिधि पर तब ही हावी हो पाता है जब उस जनप्रतिनिधि की नीयत में खोट हो, कुर्सी पर बने रहना और उस कुर्सी के लाभ, उस कुर्सी से उपजी सुविधाएँ उसके जीवन का लक्ष्य बन जाएँ।

लालची और भ्रष्ट जनप्रतिनिधि किसी भी तन्त्र के लिए सबसे कमजोर, सबसे आसान और सर्वाधिक सुविधाजनक मोहरा होता है। ऐसे जनप्रतिनिधि ही सरकारी अधिकारियों द्वारा उपेक्षित किए जाते हैं, हड़काए जाते हैं और इन्हीं कारणों से लोक उपहास के पात्र बनते हैं।

जो जन प्रतिनिधि पद त्याग का साहस नहीं कर पाते, वे कभी भी जन सम्मान अर्जित नहीं कर पाते.

पाता वही है जो कुछ खोने का साहस कर सके.
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जन प्रतिनिधि: ‘तब’ के और ‘अब’ के (2)

प्रकाशचन्द्रजी सेठी को मध्य प्रदेश के लोग न केवल ‘कुशल प्रशासक‘ अपितु ‘कठोर प्रशासक’ के रूप में आज भी याद करते हैं। उनके बताए किसी काम को मना करने से पहले अधिकारियों को पुनर्जन्म लेना पड़ता था। सेठीजी ने जिस काम की हाँ लोगों से कर दी, तय मान लिया जाता था कि वह काम हो गया।

‘लौह पुरुष’ पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्र के मन्त्रि मण्डल में एक मन्त्री हुआ करते थे - गुलाबचन्दजी तामोट। वे मूलतः समाजवादी थे। वे मतदाताओं/नागरिकों के सार्वजनिक सम्मान की सर्वाधिक चिन्ता करते थे। लोगों की अनुचित माँग का उपहास करने का साहस कोई अधिकारी, उनके सामने तो कभी नहीं कर सका। ‘खाँटी समाजवादी शब्दावली’ में तामोटजी किसी अधिकारी को जब ‘समझाते’ तो उस अधिकारी की इच्छा होती कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। जब कोई अधिकारी कानूनों की दुहाई देता तो वे कहते -‘कानून हमने ही बनाए हैं और लोगों का काम करने के लिए बनाए हैं।’

दादा का मन्त्रित्व मैंने बहुत ही समीप से देखा है। कानूनों और प्रक्रियाओं की जानकारी उन्हें, मन्त्री बनने के बाद ही हुई थी। उन दिनों अविभाजित मन्दसौर जिले के कलेक्टर मुदालियार साहब और लो.नि.वि. के कार्यपालन यन्त्री नवलचन्दजी जैन थे। पूरे मन्दसौर जिले में एक इंच सड़क भी डामर की नहीं थी। दादा के मन्त्री बनने के बाद जब ये दोनों अधिकारी दादा से मिलने मनासा पहुँचे तो दादा ने अपनी इच्छा कुछ इस तरह जताई थी - ‘मैं अपने जिले में डामर की सड़कें देखना चाहता हूँ। इसमें कोई कानून-कायदा आड़े नहीं आना चाहिए। सरकार से कुछ करवाना हो तो बता दीजिएगा। वह सब मैं करवा दूँगा।’ और, जिन सड़कों पर धूल ही धूल उड़ती थी वे सब, दादा के कार्यकाल में ही डामर की हो गईं। कोई फाइल कहीं नहीं रुकी।

ऐसी ही दो-एक घटनाएँ और, कल।

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बापू, बारास्ता विजय माल्या

बापू के निजी उपयोग की तीन दुर्लभ वस्तुएँ अन्ततः भारत आ रही हैं।

आज सवेरे कोई पौने 6 बजे यह समाचार बुद्धू बक्से पर देखा था। उसके बाद से दिन भर प्रतीक्षा करता रहा कि इस पर राजनीति होती है या नहीं। नहीं हुई। अच्छा तो लगा ही किन्तु आश्चर्य भी हुआ। बस, केन्द्रीय मन्त्री अम्बिका सोनी को यह कहते देखा/सुना कि इन वस्तुओं को भारत लाने के लिए भारत सरकार ने विजय माल्या को सहयोग किया है।

वैसे, ये तीनों वस्तुएँ भारत नहीं भी लाई जातीं तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, बापू की ऐसी वस्तुएँ तो दुनिया के सारे देशों में होनी चाहिए। बापू को केवल भारत तक सीमित रखे रहना हमारा मूर्खतापूर्ण दुराग्रह ही है। बापू तो एक ‘वैश्विक विचार’ है।

किन्तु हम ‘प्रतीकीकरण’ में भरोसा करने वाले समाज हैं। हम ‘होने‘ में नहीं, ‘दीखने‘ में भरोसा करते हैं। जीवित बापू की अपेक्षा मृत बापू हमें अधिक सुविधाजनक तथा अधिक लाभकारी होत हैं। जिस प्रकार हम ‘गीता की’ मानने की अपेक्षा ‘गीता को’ मान कर अहमन्य और आत्मसन्तुष्ट होते हैं उसी प्रकार ‘गाँधी की’ मानने की अपेक्षा ‘गाँधी को’ मानना हमें सारी दनिया के सामने धन्य मानने की गौरवानुभूति देता है।

यदि हम बापू की मानते तो प्रथमतः तो इन वस्तुओं के प्रति इतने आग्रही और सम्वेदी नहीं होते। किन्तु एक क्षण को मान लिया जाए कि ऐसे ‘वैश्विक विचार’ के मानवाकार को अपनी अगली पीढ़ियों को परिचित कराते रहने के लिए ये स्मृतियाँ इसी प्रकार सहेजी जानी चाहिएँ तो भी बापू की भावना की चिन्ता की जानी चाहिए थी।

बापू ने साध्य की शुध्दता का ही आग्रह नहीं किया। उन्होंने तो साधनों की शुध्दता का भी आग्रह किया। अशुध्द साधनोें से शुध्द साध्य की प्राप्ति के वे न केवल विरोधी थे अपितु विचार में भी इस बात के हामी नहीं थे। मुझे लग रहा है कि बापू के निजी उपयोगवाली इन स्मृति-वस्तुओं को भारत लाने के लिए अशुध्द साधन प्रयुक्त किया गया है।

विजय माल्या ख्यात उद्योगपति और व्यापारी हैं। बापू और बापू के विचारों के प्रति उनका आग्रह अथवा श्रध्दा का सार्वजनिक प्रकटीकरण आज तक हम लोगों ने नहीं देखा है। वे शराब के उत्पादक और व्यापारी हैं। मद्य निषेध बापू का प्रमुख विचार और आग्रह तथा सम्पूर्ण भारत में मद्य निषेध बापू का सपना था, यह हम सब जानते हैं। ऐसे में इस ‘शुद्ध साध्य’ के लिए विजय माल्या और चाहे जो हों, ‘शुद्ध साधन‘ तो बिलकुल ही नहीं है।

एक व्यापारी के प्रत्येक उपक्रम का अन्तिम साध्य केवल ‘लाभ’ होता है। भारत सरकार ने विजय माल्या का कितना और क्या सहयोग किया, यह तो अभी रहस्य बना हुआ है किन्तु साढ़े नौ करोड़ चुका कर विजय माल्या ने अरबों-खरबों का प्रचार तो हासिल कर ही लिया है। ‘लाभ लक्ष्यित’ एक व्यापारी को और चाहिए ही क्या?

विजय माल्या और किंगफिशर पर्याय हैं। किंगफिशर उनकी दारु का ब्राण्ड भी है और उनकी हवाई सेवा का भी। बुद्धू बक्से पर दारु के विज्ञापन वर्जित हैं। सो किंगफिशर नाम के सोड़े का विज्ञापन दिया जाता है। किन्तु छोटे पर्दे पर जैसे ही किंगफिशर नाम आता है सबको दारु की बोतल ही याद आती है।

तो क्या अब आने वाले दिनों में विजय माल्या उत्पादित दारु की बोतल के साथ बापू का, अर्द्ध निर्लिप्त नेत्रों और मोहक मुस्कान वाला चित्र देखने के लिए भी हमें तैयार हो जाना चाहिए?

विजय माल्या के माध्यम से बापू की स्मृति-वस्तुओं को भारत लाना त्रासदी है या विडम्बना?

या त्रासद विडम्बना?

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जन प्रतिनिधि ‘तब’ के और ‘अब’ के (1)

मैं अब तक विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि यह सब हुआ है।

कोई आठ दिन पहले हमारी महापौर, अपने समर्थक कुछ पार्षदों के साथ कलेक्टर से मिलीं। निगमायुक्त के विरुद्ध एक ज्ञापन दिया। निगमायुक्त से महापौर की पटरी नहीं बैठ रही है। इससे पहले चार निगमायुक्तों से भी उनकी पटरी नहीं बैठी थी।

ज्ञापन सम्भागायुक्त को सम्बोधित था जिसमें निगमायुक्त की शिकायत की गई थी कि वे (निगमायुक्त), जनहित से जुड़े, महापौर परिषद् के निर्णयों के क्रियान्वयन में बाधाएँ खड़ी कर रहे हैं। ज्ञापन में चेतावनी दी गई थी कि यदि तीन दिन में निगमायुक्त को ‘ठीक’ नहीं किया गया तो महापौर और महापौर परिषद् के सदस्य, ‘जन आन्दोलन’ शुरु कर देंगे। कलेक्टर के अनुरोध पर ‘तीन दिन’ को ‘पाँच दिन’ कर दिया गया। किन्तु सात दिनों के बाद भी कुछ नहीं हुआ और महापौर तथा उनके समर्थक पार्षदों ने भी कुछ नहीं किया। आठवें दिन, लोकसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार संहिता प्रभावी हो गई।

अब, हमारी महापौर और उनकी मण्डली को कम से कम, लोकसभा चुनावों के परिणामों की घोषणा हो जाने तक (अर्थात् 16 मई तक) तो निगमायुक्त को झेलना ही पड़ेगा।

महापौर और निगमायुक्त में से कौन सही है और कौन गलत, यह आकलन मेरे विचार का विषय नहीं है। मुझे तो इस स्थिति पर आश्चर्य हो रहा है कि ‘लोकतन्त्र’ कहाँ से कहाँ आ गया!

निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की विधि सम्मत, जनहितकारी इच्छाओं का क्रियान्वयन कराना जिन अधिकारियों का कानूनी उत्तरदायित्व है, उनके सामने निर्वाचित जनप्रतिनिधि इतने विवश, असहाय, बौने और दुर्बल हो गए कि उन्हें ज्ञापन देने पड़ रहे हैं? वह भी अधिकारियों को ही? वह भी तब, जबकि महापौर की पार्टी की ही सरकार प्रदेश में राज कर रही है? और इससे भी बड़ी बात यह कि इतनी गम्भीर सार्वजनिक उपेक्षा, अवमानना के बाद भी निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी कुर्सियों पर बने हुए हैं?

यह सब देख कर मुझे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से जुड़ी कुछ घटनाएँ अनायास ही याद हो आईं। तय कर पाना कठिन हो गया कि अतीत पर गर्व किया जाए या वर्तमान पर रोया जाए?

सबसे पहले याद आए-गो. ना. सिहं अर्थात् गोविन्द नारायण सिंह।

सम्भव है, गोविन्द नारायणसिंह का नाम आज की पीढ़ी के लिए अनजाना ही हो। वे मध्यप्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमन्त्री थे। यह अलग बात है कि यह करिश्मा करने के लिए उन्हें दलबदलू बनना पड़ा था। वे न केवल सफल और लोकप्रिय जननेता थे अपितु कुशल प्रशासक भी थे। उन्हें नियमों, विधिक प्रावधानों और प्रक्रियाओं की पूरी जानकारी थी। कामचोर अधिकारी उनका सामना करने से कतराते और घबराते थे। कहा जाता था कि वे जब वल्लभ भवन (मन्त्रालय) के गलियारों में चल रहे होते थे तो उनका सामना करने से बचने के लिए अधिकारी को जो दरवाजा नजर आता, उसी में घुस जाता था। फिर भले ही वह दरवाजा शौचालय का ही क्यों न हो!


अपने जन सम्पर्क भ्रमण में मिलने वाले सामूहिक आवेदनों पर वे खुल कर टिप्पणी करते थे। उनकी एक ‘नोट शीट’ मैंने देखी थी. जन सम्पर्क के दौरान एक गाँव के लोगों ने, वर्षा काल में अपने गाँव का सम्पर्क बनाए रखने के लिए नाले पर ‘रपटा’ (जिसे मालवा में ‘रपट’ कहा जाता है) बनवाने का अनुरोध किया था। विभागीय प्रक्रिया पूरी कर यह आवेदन जब मुख्यमन्त्रीजी की टेबल पर पहुँचा तो विभागीय सचिव की अन्तिम टिप्पणी में रपटा निर्माण को अव्यवहारिक घोषित करते हुए निरस्त करने की अनुशंसा की गई थी। गो. ना. सिंह ने उस टिप्पणी को सिरे ही निरस्त कर दिया और लिखा - ‘सेक्रेटरी साहब! आपकी ऐसी तैसी। रपटा तो बनेगा।’

और कहना न होगा कि रपटा बना।

ऐसी ही दो-एक घटनाएँ कल।

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पालिसी पर नामन (नामिनेशन) : अर्थ, आवश्यकता और महत्व

इस विषय पर चर्चा करने से पहले कुछ शब्दों के, देवनागरी में अंग्रेजी पर्याय जान लें -

नामन - नामिनेशन , नामित - नामिनी, नामांकित - नामिनेट

‘नामन’ (नामिनेशन) का अर्थ है - पालिसी की पूर्णावधि से पहले ही, पालिसीधारक की मृत्यु हो जाने की दशा में, मृत्यु दावे की रकम प्राप्त करने के लिए वैध विमुक्ति-पत्र (डिस्चार्ज फार्म) प्रस्तुत कर, मृत्यु दावे की रकम प्राप्त करने हेतु किसी व्यक्ति का ‘नामांकन’ कर उसे ‘नामित’ व्यक्ति के रूप में उल्लेखित करना।

स्पष्ट है कि ‘नामित’ का अर्थ ‘उत्तराधिकारी’ नहीं होता। -उत्तराधिकारी तो मृतक की सम्पत्तियों और उत्तरदायित्वों का स्वामी होता है जबकि ‘नामित’ इन दोनों बातों से बिलकुल ही सम्बन्धित नहीं होता।

इसे और अधिक स्पष्ट करें तो - ‘नामित’ व्यक्ति उत्तराधिकारी नहीं होता किन्तु उत्तराधिकारी ‘नामित’ व्यक्ति हो सकता है।

जीवन बीमा पालिसियों में उत्तराधिकारी का नहीं, केवल ‘नामन’ का प्रावधान है और प्रस्ताव पत्र प्राप्त करते समय एजेण्ट भी, प्रस्तावक से ‘नामित’ का ही नाम पूछता है। चूँकि अधिकांश मामलों में ‘नामित’ और ‘उत्तराधिकारी’ एक ही व्यक्ति होता है, सो लोक प्रचलन में (जीवन बीमा के सन्दर्भ में) ‘नामित’ को ही ‘उत्तराधिकारी’ भी मान लिया जाता है।

‘नामन’ की आवश्यकता - किसी पालिसीधारक की (पाॅलिसी की पूर्णावधि से पहले) मृत्यु हो जाने की दशा में, पालिसी पर किए जाने वाले दावे की रकम का भुगतान प्राप्त करने के लिए, ‘नामन’ की आवश्यकता होती है। इस हेतु ‘नामांकित’ व्यक्ति ‘नामित’ होता है।

पालिसी की पूर्णावधि से पहले पालिसीधारक की मृत्यु हो जाने की दशा में, दावा प्रस्तुत करना, दावे की रकम प्राप्त करने के लिए वैध विमुक्ति पत्र (डिस्चार्ज फार्म) प्रस्तुत कर, दावे की रकम प्राप्त करना, ‘नामित’ का अधिकार होता है।

‘नामित’ केवल रकम प्राप्त करने का अधिकारी होता है। वह दावे से मिली रकम का स्वामी नहीं होता।उसकी भूमिका ‘न्यासी’ की होती है। दावे की रकम प्राप्त कर, उस रकम को, रकम के ‘वास्तविक अधिकारी व्यक्ति/व्यक्तियों’ तक पहुँचाना, ‘नामित’ का उत्तरदायित्व होता है।

‘नामन’ न होने के नुकसान - जिस पालिसी में ‘नामन’ नहीं हो और ऐसी पालिसी के धारक की मृत्यु, पालिसी पूर्णावधि से पहले हो जाए तो उसका भुगतान तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि मृतक के उत्तराधिकारी का, विधिक निर्णय नहीं हो जाता। अर्थात् बिना ‘नामन’ वाली पालिसी के धारक की मृत्यु से उपजे दावे की रकम प्राप्त करने के लिए उत्तराधिकार-प्रमाण-पत्र (सक्सेशन सर्टिफिकेट) प्राप्त करना पड़ेगा।


इसलिए, बीमा पालिसी लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी पालिसी पर ‘नामन’ की सुनिश्चितता कर लेनी चाहिए।

कौन हो सकता है ‘नामित’ - ‘नामन’ पालिसीधारक का विधिक अधिकार है। वह जिसे चाहे, उसे अपना ‘नामित’(नामिनी) बना सकता है।


चूँकि यह ऐसा आर्थिक मामला है जो पालिसीधारक की असमय मृत्यु के बाद, उसके आश्रितों को जीवनाधार दे सकता है। इसलिए ‘नामन’ (नामिनेशन) में भावुकता की अपेक्षा वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर व्यवहारिकता बरतनी चाहिए।

इसलिए निम्नांकितों में से किसी एक को ही ‘नामित’ बनाया जाना अधिक सुरक्षित और सुविधाजनक होगा -


(1) विवाहित व्यक्ति अपने जीवन साथी को ही नामित बनाए। ‘जीवन साथी’ ही व्यक्ति का ‘प्राकृतिक और प्रथम विधिक उत्तराधिकारी’ भी होता है।

(2) अविवाहित व्यक्ति को अपनी माता को ‘नामित’ बनाना चाहिए क्योंकि ऐसे प्रकरणों में सामान्यतः माँ ही व्यक्ति की प्राकृतिक तथा प्रथम विधिक उत्तराधिकारी होती है।

(3) यदि प्रस्तावक अविवाहित है और उसकी माता का भी स्वर्गवास हो चुका है तो ऐसे प्रकरण में पिता को ‘नामित’ बनाना अधिक उचित होगा।

(4) यथा सम्भव, किसी अवयस्क को नामित बनाने से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए।किन्तु यदि किसी अवयस्क को नामित बनाया जा रहा है तो इस स्थिति में एक ‘नियुक्त व्यक्ति’ (अपाइण्टी) आवश्यक है। ऐसे ‘नियुक्त व्यक्ति’ (अपाइण्टी) के, सहमति सूचक हस्ताक्षर भी प्रस्ताव पत्र पर प्राप्त करना अनिवार्य होते हैं।

ऐसे प्रकरणों में ‘अवयस्क नामित’ और ‘नियुक्त व्यक्ति’ यदि पालिसीधारक के ही कोई रक्त सम्बन्धी हो तो अधिक अच्छा होगा।

नामन में परिवर्तन - जिस प्रकार नामन करना पालिसीधारक का अधिकार है उसी प्रकार नामन में परिवर्तन करना भी पालिसीधारक का अधिकार है।

निम्नांकित स्थितियों में नामन में परिवर्तन कराया जाना पालिसीधारक के हित में होगा -

(1) वर्तमान नामित की मृत्यु गई हो।

(2) अवयस्क बीमाधारक जैसे ही वयस्कता की आयु प्राप्त करता है तो उसे नामन का अधिकार स्वतः ही मिल जाता है। ऐसे प्रकरणों मे पालिसीधारक के वयस्क होते ही अविलम्ब नामन करा लेना चाहिए।
अवयस्कों के जीवनद पर जारी की गई पालिसियों में नामन अंकित ही नहीं किया जाता है। ऐसे प्रकरणों में, अवयस्क पालिसीधारक की मृत्यु यदि वयस्कता आयु प्राप्त करने से पहले हो जाती है तो प्रस्तावक ही स्वतः नामित होता है और उसे ही ऐसी पालिसी के दावे की रकम का भुगतान किया जाता है।

(3) यदि पालिसी को, किसी ऋण अथवा मूल्यवान प्रतिफल के लिए किसी व्यक्ति अथवा संस्था को समनुदेशित (असाइन)(‘असाइन’ को बोलचाल की भाषा में ‘गिरवी’ कहा जा सकता है) किया गया हो और ऐसे ऋण अथवा मूल्यवान प्रतिफल का चुकारा कर दिया गया हो, और जिसके पक्ष में पालिसी समनुदेशित की गई थी (या कि जिसके पास गिरवी रखी गई थी) वह ऐसे समनुदेशन को निरस्त करने के निर्देश बीमा कम्पनी को दे दे। तो ऐसे प्रकरण में, पालिसीधारक के पक्ष में पुनर्समनुदेशन होते ही, अविलम्ब ही, नामन करा लेना चाहिए।

इसे यूँ समझना अधिक सहज होगा। आपने बैंक से लोन लिया। बैंक ने, जमानत के रूप में आपकी पालिसी अपने (बैंक के) पक्ष में समनुदेशित (असाइन) करवा ली (अर्थात् आपकी पालिस पर बैंक के पक्ष में गिरवीनामा अंकित करा लिया)। कालान्तर में आपने लोन चुका दिया। बैंक ने इस आशय का पत्र बीमा कम्पनी को लिख कर कह दिया कि आपकी पालिसी आपके पक्ष में समनुदेशित (असाइन) कर दे (अर्थात् पालिसी का स्वामित्व आपके नाम कर दे)। ऐसे में पालिसी तो आपके नाम हो गई किन्तु उस पर नामन किसी का भी नहीं रहा है क्योंकि पालिसी समनुदेशित (असाइन) करते ही (अर्थात् गिरवी रखते ही) उस पर किया गया नामन स्वतः निरस्त हो जाता है।

ऐसे प्रकरणों में पालिसी पर एक बार फिर नामन करना होता है और यह काम अविलम्ब करा लिया जाना चाहिए।

नामन का स्वतः निरस्त अथवा निष्प्रभावी होना -


(1) जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, पालिसी का किसी के पक्ष में समनुदेशन होते ही, पालिसी पर किया गया नामन स्वतः ही, तत्काल प्रभाव से निरस्त अथवा निष्प्रभावी हो जाता है।

(2) पालिसी की पूर्णावधि के बाद, किन्तु पूर्णावधि दावे के भुगतान से पहले, यदि पालिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो भी नामन स्वतः निरस्त अथवा निष्प्रभावी हो जाता है।अर्थात्, पालिसीधारक के जीते जी, नामित व्यक्ति को पालिसी से मिलने वाली रकम प्राप्त करने का अधिकार नहीं होता।

चूँकि पालिसी की पूर्णावधि तक पालिसीधारक जीवित था, इसलिए पूर्णावधि दावे की रकम पालिसीधारक को ही भुगतान की जानी थी। किन्तु यह भुगतान पा्रप्त करने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। ऐसी दशा में नामित के अधिकार स्वतः ही समाप्त हो चुके थे। इसीलिए, पूर्णावधि दावे की रकम प्राप्त करने का अधिकार नामित को नहीं रहा। ऐसी स्थिति में यह पालिसी ‘बिना नामन वाली’ श्रेणी में आ जाएगी और इसका भुगतान, उस व्यक्ति को किया जाएगा जो उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्रस्तुत करेगा।

अर्थात्, नामित के अधिकार, पालिसी की पूर्णावधि दिनांक से पहले तक ही सीमित हैं।

एक विशेष स्थिति -संयोग से ऐसा हो जाए कि नामित की मृत्यु हो गई किन्तु नामन में परिवर्तन नहीं कराया गया और इसी बीच पालिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो इस स्थिति में भी यह पालिसी ‘बिना नामन वाली पालिसी’ मानी जाएगी और इसका भुगतान भी उसी व्यक्ति को किया जाएगा जो उत्तराधिकार प्रमाण पत्र प्रस्तुत करेगा।

यह उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण तथा आवश्यक है क्यों कि ऐसे प्रकरणों में कभी-कभी, मृत नामित के उत्तराधिकारी, अपने आप को इस पालिसी की रकम के दावेदार के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।

इसलिए, यदि आपकी पालिसी पर नामन अंकित नहीं हुआ है तो कृपया आपके शाखा कार्यालय से अथवा अपने एजेण्ट से सम्पर्क कर, इस काम को सर्वोच्च प्राथमिकता पर पूरा करें।

इस विवरण में मैंने एकाधिक बार ‘समनुदेशन’ (असाइन) शब्द प्रयुक्त किया है।

अगली बार इसी ‘समनुदेशन’ पर जानकारी प्रस्तुत होगी।

कृपया ध्यान दीजिएगा - ये जानकारियाँ मेरे श्रेष्ठ ज्ञान और जानकारियों पर आधारित हैं। इन्हें भारतीय जीवन बीमा निगम की अधिकृत जानकारियाँ बिलकुल न समझें।

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‘रोन्या’ और रोतल्या’: मैं

बार-बार, बात-बे-बात रोने वाले को मालवी में ‘रोन्या’ और ‘रोतल्या’ कहते हैं। चिट्ठा जगत के कृपालु मुझे ‘रोन्या’ या ‘रोतल्या’ कहें तो मुझे तनिक भी (निमिष मात्र को भी) बुरा नहीं लगेगा।

यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरी कुछ पोस्टों पर एकाधिक कृपालुओं ने, मेरे रोने को भी अपनी टिप्पणियों में स्थान दिया है। अधिकांश ने मेरी इस ‘कमजोरी’ पर चिन्ता जता कर मुझे इससे उबरने का ‘अपनत्वपूर्ण’ परामर्श दिया तो कुछ ने जिज्ञासा जताई - मैं बार-बार रोता क्यों हूँ?

सबसे पहले तो मेरी चिन्ता करने वालों के प्रति हार्दिक आभार और कृतज्ञता। सच कह रहा हूँ, यदि मित्रों ने मुझे नहीं सम्हाला होता तो मैं तो अब तक जीवित भी नहीं रह पाता। जब भी अवसर मिलता है, मैं कहता हूँ कि मैं तो उधार का जीवन जी रहा हूँ। जैसे मित्र मुझे मिले, ईश्वर सबको वैसे मित्र दे और मुझ जैसा मित्र किसी को न दे। मेरे मित्र ही मेरी अमूल्य परिसम्पत्तियाँ हैं और मैं सब मित्रों का अयाचित, अवांछित उत्तरदायित्व।

किन्तु ईश्वर की कृपा सचमुच में अकूत और चिरन्तन है। चिट्ठा जगत में आकर मेरी परिसम्पत्तियाँ तो सहस्रगुना हो गईं! जो मुझे जानते नहीं, जिन्होंने मुझे देखा नहीं, मुझसे कभी बात नहीं की ऐसे अनगिनत चिट्ठाकारों ने मानो मुझे अपने परिवार में सम्मिलित कर लिया। पल-प्रति-पत शुष्क होते जा रहे इस समय में कौन किसके रोने की चिन्ता करता है? किसी के आँसुओं की कौन परवाह करता है? कोई रो रहा है तो रोता रहे। प्रत्येक के पास अपनी-अपनी असमाप्त व्यस्तताएँ हैं।

किन्तु चिट्ठा जगत ने मुझे न केवल हौसला दिया, अपितु वह ऊष्मापूर्ण अपनत्व दिया जो व्यक्ति की जीवनी-शक्ति बढ़ाता है, व्यक्ति का एकान्त नष्ट करता है, उसे वह आश्वस्ति भाव और निश्चिन्तता देता है जिसके दम पर आदमी की हर परेशानी बहुत ही छोटी, बहुत ही हलकी और आसानी से झेली जा सकने वाली हो जाती है।

मैं बहुत जल्दी रुँआसा हो जाता हूँ। छोटी-छोटी (और अर्थहीन) बातें भी मुझे रुला देती हैं, यह सच है। ऐसा क्यों है-इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है। किन्तु अपनी इस दशा पर मुझे तनिक भी संकोच और लज्जा नहीं है। मैं एक सामान्य मनुष्य हूँ जिस पर सारे आवेग-सम्वेग अपना प्रभाव डालते हैं। मैं इनसे न तो बच पाता हूँ और न ही बचने का प्रयत्न करता हूँ। रुलाई और हँसी को मैं न तो रोक पाता हूँ और न ही इन्हें रोकने का कोई प्रयत्न ही करता हूँ।

‘रोना‘ मेरे तईं एक सहज प्राकृतिक क्रिया है जिसे मैं निर्बाध रूप से पूरी होने देने के पक्ष में हूँ। मेरा बचपन देहात में बीता जहाँ एक का दुख, सबका दुख होता है-आज भी। सो, जिस मिट्टी से मेरी मानसिकता गूँधी गई वह शायद ऐसी ही भावनाओं के पानी से तैयार हुई होगी। विवाह प्रसंगों में मैं वधु की विदाई के क्षणों में भाग आता हूँ। मेरी इस बात पर हर कोई अविश्वास ही करेगा किन्तु यह शब्दशः सच है कि मेरे ‘पाणिग्रहण संस्कार’ के बाद जब मेरी पत्नी की विदाई का क्षण आया तो मैं अपने मित्रों के साथ जनवासे चला आया। वहाँ रुक जाता तो लोग देखते कि नव विवाहित वर वधु, जोड़े से रो रहे हैं। मेरी इस बात की पुष्टि मेरी जीवन संगिनी से की जा सकती है। आज भी मुझसे ‘बेटी की विदाई’ न तो देखी जाती है और न ही झेली जाती है।

मैं ऐसा ही हूँ। अपने रोने को लेकर कोई हीन भाव मुझे नहीं सताता और न ही ‘लोग क्या कहेंगे’ वाला ‘लोक भय’ मुझ तक आ पाता है। हाँ, हँसी के मामले में तनिक सावधानी बरतने का यत्न अवश्य करता हूँ। मेरा हँसना किसी की अवमानना, उपहास का कारण न बने, इस चिन्ता के अधीन यथा सम्भव चैकन्ना रहने की कोशिश करता हूँ और अपवादों को छोड़ दूँ तो कहने की स्थिति में हूँ कि ऐसे प्रयत्नों में मेरी सफलता का प्रतिशत पर्याप्त आत्म सन्तोषदायक है।

किन्तु एक मामले में मैं अपवादस्वरूप ही सफल हो पाता हूँ। वह है - अपने आवेश पर नियन्त्रण कर पाना। यह मेरी इतनी बड़ी कमी है जिसके कारण मुझे अनगिनत बार, अच्छी-खासी हानि झेलनी पड़ी है। यह क्रम अब भी निरन्तर बना हुआ है। ऐसे प्रत्येक अवसर पर मेरा विवेक मुझे टोकता रहता है किन्तु बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है और मैं खदु ही अपना शत्रु साबित हो जाता।

किन्तु मेरे समस्त हितचिन्तक एक बात जानकर शायद प्रसन्न हों। यह रोना, मेरी दुर्बलता कभी नहीं बन पाया। अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कह पा रहा हूँ कि मेरे भावातिरेक का मनमाना उपयोग (इसे आप ‘दुरूपयोग’ भी कह सकते हैं) करने की सुविधा आज तक मैंने किसी को उपलब्ध नहीं कराई। सब निराश ही हुए।

सो, समूचा चिट्ठा जगत मुझ ‘रोन्या’ अथवा ‘रोतल्ये’ को जिस चिन्ता और अपनत्व से अब तक सहेजे हुए है, वह चिन्ता और अपनत्व बनाए रखिएगा। मेरे मित्र ही मेरी अमूल्य परिसम्पत्तियाँ और जीवनी शक्ति हैं।

और मैं? मैं तो ऐसा ही हूँ। ‘सुधरने’ की क्षीणतम सम्भावना (सम्भावना क्या, आशंका) भी नहीं है। आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे?

मुझे मेरी इस कमजोरी सहित अपनाए रखने का उपकार कीजिएगा।

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न तो उतना रोया, न वैसा रोया

बीमा व्यवसाय के दौरान मिला यह अनुभव मेरे लिए अब तक मर्मान्तक पीड़ादायक बना हुआ है। लगभग पन्द्रह वर्षों के बाद, इस क्षण तक भी मुझे लगता है कि निश्चय ही मैंने ईश्वर के प्रति कोई गम्भीर अपराध किया होगा जिसके दण्डस्वरूप मुझे ऐसे क्षणों का साक्षी बनना पड़ा। किन्तु जब इन क्षणों के ‘भोक्ता‘ का स्मरण होता है तो मेरी आत्मा काँप उठती है-ईश्वर उससे कितना खिन्न रहा होगा?

यह सम्भवतः 1993 की बात है। मेरी एजेन्सी का तीसरा वर्ष चल रहा था। बीमा व्यवसाय का मूल आधार होता है - सम्पर्क और अनुशंसा। जब भी किसी से बीमा मिलता है, उससे हम (एजेण्ट) लोग उसके किसी मित्र, परिचित का अता-पता लेते हैं और अनुरोध करते हैं कि वह अपने मित्र को, टेलीफोन कर हमारी सिफारिश कर दे और हमारी विश्वसनीयता की पुष्टि कर दे। बाकी काम हमारा।

ऐसे ही एक सिफारिशी फोन के ‘फालो-अप’ में मैं ‘उन’ सज्जन से मिला। सुविधा के लिए आगे मैं उन्हें 'रामजी' के काल्पनिक नाम से उल्लेखित करूँगा।

रामजी से यह मेरी पहली ही भेंट थी। न मैं उन्हें जानता था, न वे मुझे। सवेरे कोई सवा नौ-साढ़े नौ बजे मैं उनके निवास पर पहुँचा। मुख्य बाजार में गर्वोन्नत मस्तक खड़ा उनका तीन मंजिला मकान उनकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति का उद्घोष कर रहा था। बीच बाजार में उनकी, कपड़े की खूब बड़ी दुकान मैं देख ही चुका था। वैभव लक्ष्मी मानो अपने अनुचरों सहित वहाँ विराजित थीं। मैं खुश हुआ। बीमा मिलने की प्रचुर सम्भावनाएँ मुझे साफ-साफ नजर आ रही थीं।
रामजी नहा-धो कर, पूजा-पाठ कर उठे ही थे। भेंट पूर्व निर्धारित थी। वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद मैंने अपना परिचय दिया। अपना विजिटिंग कार्ड उन्हें थमाया और उनके व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा आर्थिक ब्यौरे प्राप्त करने में जुट गया। मुझे यह जानकर विस्मय हुआ कि उनके परिवार मे अब तक किसी को बीमा नहीं था। किन्तु बहुत ही जल्दी समझ में आ गया कि ऐसा क्यों था। उनकी सारी गणना ब्याज केन्द्रित और ब्याज आधारित थी जिसके सामने बीमे से मिलने वाली प्राप्तियाँ तो पानी भी नहीं भर पातीं! कुछ ही क्षणों में मुझे भान हो गया कि यहाँ से बीमा या तो नहीं मिलेगा और मेरे सौभाग्य से मिल गया तो उसके लिए मुझे असाधारण परिश्रम करना पड़ेगा और उससे भी अधिक असाधारण धैर्य धारण कर भरपूर प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।


बीमा को ब्याज के मुकाबिल बनाए रखने के लिए मैंने कहा - ‘आपको मुनाफा चाहिए तो बीमा में फूटी कौड़ी लगाना भी मूर्खता है। किन्तु यदि आपको सुरक्षा चाहिए तो फिर बीमे के अतिरिक्त और कहीं पैसा लगाना बुध्दिमानी नहीं है।’ रामजी ने जो हाव-भाव प्रकट किए उससे मुझे तत्क्षण ही लग गया कि इस वाक्य ने उन्हें तनिक उलझा दिया है। बोले - ‘मैं समझा नहीं। साफ-साफ समझाओ।’ मैंने कहा - ‘हम मुनाफा नहीं, सुरक्षा बेचते हैं।’


इसके बाद तो मुझे खुलकर खेलने के लिए बिना बाड़वाला लम्बा-चैड़ा मैदान मिल गया। लाभ के पाश में बँधा ‘चतुर-सुजान व्यापारी’ अचानक ही ‘असुरक्षा भाव से ग्रस्त’ हो गया। अब मैं बोल रहा था और रामजी सुन रहे थे। उनकी मुख मुद्रा से निर्विकार भाव तिरोहित हो चुका था और आत्मपरकता व्याप्त होने लगी थी। वे मेरी बातों पर सहमतिसूचक मुद्रा में अपना सर हिला रहे थे। यह देख-देख मेरे मन में फुलझड़ियाँ छूटने लगी।


तभी उनका इकलौता बेटा सीढ़ियाँ उतर कर कमरे में प्रकट हुआ। वह बी. काम. द्वितीय वर्ष का छात्र था। आयु के उन्नीसवें वर्ष में चल रहा था। पिता के पास बैठे अपरिचित का अभिवादन करना तो दूर रहा, उसने हम दोनों की ओर देखा भी नहीं। रामजी तनिक असहज हुए। उन्हें अच्छा नहीं लगा। बेटे के चेहरे पर पसरे उपेक्षा भाव को उन्होंने मानो पहली ही नजर में पढ़ लिया था। सो, उन्होंने यह भी नहीं कहा कि अतिथि को नमस्कार करो।


बेटा बिना बोले बाहर निकलने को ही था कि रामजी बोले - 'भैया, तू कल शाम को दुकान पर नहीं आया। नहीं आया तो कोई बात नहीं। खबर कर देता तो थोड़ी आसानी हो जाती। दोपहर में एक लड़के की छुट्टी कर दी थी, वह नहीं करता। शाम को दुकान पर थोड़ी परेशानी हो गई।' उनके स्वर में न तो आदेश भाव था न ही उपालम्भ। बेटे की असूचित अकस्‍मात अनुपस्थिति से उपजी अस्तव्यस्तता के कारण झेली परेशानी की सूचना थी - अत्यन्त दयनीय स्वरों में। मैं साफ-साफ समझ पा रहा था कि रामजी ने जो कहा सो कहा किन्तु जो नहीं कहा वह था - आगे से ऐसी परेशानी खड़ी न हो, इतनी मदद करना।


रामजी की बात सुनकर पुत्र ठिठका। गर्दन को रामजी की तरफ हलकी सी जुम्बिश देकर, चेतावनी भरे रूखे स्वरों में बोला - ‘टिड़, टिड़ मत करो। यह मकान मेरे नाम पर है। लात टिका कर निकाल दूँगा।’ यह कह कर वह बिना हम दोनों की ओर देखे, अपनी चेतावनी की प्रतिक्रया जानने का यत्न किए बिना, बेलौस चला गया।


वह तो चला गया किन्तु कमरे में जो कुछ छोड़ गया था, उसे झेल पाना हम दोनों के लिए समूची धरती का भार सर पर उठाने से भी अधिक कठिन था। रामजी सचमुच में जड़वत हो गए। उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वे निश्चल, निस्पन्द, मूर्तिवत हो गए थे। मानो लकवाग्रस्त हो गए हों।


और मैं? मुझे लग रहा था कि पूरी धरती लट्टू की तरह पूरी तेजी से घूम रही है और इसी तरह घूमती-घूमती रसातल में चली जाएगी-मुझे और रामजी को अपने साथ लपेट कर। मैं हम दोनों को तेज भँवर की लपेट में आए हुए, घूमते देख रहा था। हम दोनों बचाव की मुद्रा में अपने-अपने हाथ उठाए हैं किन्तु आवाज किसी के भी गले से नहीं निकल रही है। केवल धरती के घूमने की आवाज गूँज रही है।


नहीं पता कि हम दोनों कब अपने आप में लौटे। मुझे अब तक नहीं याद कि पहले मैं संयत हुआ या रामजी। लेकिन, रसातल की ओर घिसटते जाने से बच धरती पर आए तो पाया कि हम दोनों ही हिचकियाँ ले-लेकर रो रहे हैं-निःशब्द। एक दूसरे को ढाढस बँधाने का न तो साहस न ही भान। बस, रोए जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद रामजी के मुँह से निकला - ‘जिन्दगी बेकार हो गई।’ और इसके बाद उन्होंने जो रोना शुरु किया तो लगा कि उनके प्राण, उनकी छाती चीरकर बाहर निकल पड़ेंगे। वाल्मिकी के बाण से बिंधा क्रौंच पक्षी सम्भवतः कुछ इसी तरह छटपटाया, बिलखा होगा। वैसा ही क्रन्दन किया होगा जैसा रामजी कर रहे थे।


उनकी दशा देख मैं आहत था किन्तु जैसे-जैसे चेतना लौटने लगी तो भयभीत होने लगा। मुझे लगा - रामजी को ‘कुछ’ हो न जाए या फिर भावातिरेक में वे खुद ही ‘कुछ’ कर न लें। जैसे-तैसे खुद संयत हुआ और रामजी को अपनी बाँहों में लिया। वे फिर बिखर गए। मैंने सचमुच में ‘येन-केन-प्रकारेण’ रामजी को सम्हाला। उनके आँसू पोंछे। मेरा कुछ भी कहना व्यर्थ ही नहीं, मेरे लिए असम्भव ही था। केवल उनकी पीठ पर हाथ फेरता रहा। पता नहीं कितनी देर बाद उनका क्रन्दन हिचकियों से होता हुआ सुबकियों तक आया। ऐसी स्थिति का साबका मुझे मेरे अब तक के जीवन में पहली ही बार पड़ा था। सो, यह भी नहीं जानता था कि ऐसे समय में क्या कहना चाहिए, किस तरह ढाढस बँधाना चाहिए।


मानो, जेठ की चिलचिलाती दोपहर में, नंगे पाँवों, कच्छ का रन पार करके लौटे हों, कुछ ऐसी ही लस्त-पस्त स्थिति में उन्होंने अपने आप को सम्हालने का उपक्रम किया। मेरी ओर जिस दृष्टि से देखा उससे मुझे एक बार फिर रोना आ गया। मैं आँखें मूँद कर, कुर्सी की पीठ से टिक कर बैठ गया। तभी उनकी आवाज सुनाई दी। बोलने में मानो अपनी समूची शक्ति लगानी पड़ रही हो रामजी को। हाँफते, कराहते बोले - ‘इनकम टैक्स की प्लानिंग के लिए मकान इसके नाम कर रखा है। वकील साहब ने सलाह दी थी। लेकिन इसके कारण यह दिन देखना पड़ेगा यह तो सपने में भी नहीं सोचा था। मैं तो समझ रहा था कि मेरे घर में कोई कमी नहीं है। किन्तु आज मालूम पड़ा कि मेरे पास बस पैसा ही पैसा है, बाकी तो कुछ भी नहीं है। यह दिन दिखाने से तो अच्छा होता कि भगवान मुझे उठा ही लेता।’ मैं कुछ नहीं बोला। बोल पाना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं हो पा रहा था।


अब तक मैं अपने आप में आ चुका था। बुद्धि और विवेक जाग्रत हो मेरे कान उमेठने लगे थे। रामजी भी ‘खतरे से बाहर’ हो चुके थे। ‘मुझे अब यहाँ से निकल जाना चाहिए’ जैसी स्थिति आ गई थी। अचानक मुझे ध्यान आया-हम दोनों इतना रो लिए, रामजी ने इतना विलाप, इतना क्रन्दन किया किन्तु रामजी की पत्नी तक आवाज नहीं पहुँची! मैंने पूछा - ‘भाभीजी घर में नहीं हैं?’ रामजी ने कहा - 'है। तीसरी मंजिल पर।' कह कर उन्होंने कमरे के स्विच बोर्ड का एक बटन दबाया। घण्टी की धीमी आवाज सुनाई दी। कुछ ही क्षणों में रामजी की पत्नी सीढ़ियों उतरीं। मैंने नमस्कार किया। मेरे नमस्कार का जवाब देने के बजाय वे चकित हो हम दोंनों को देखने लगीं। रामजी ने मुझसे कहा -‘आप पधारो सा'ब। फिर कभी आना।’ उनकी पत्नी ने कुछ पूछना चाहा तो रामजी बोले -‘इन्हें जाने दो। फिर बात करेंगे।’


और मैं चला आया। उस दिन मैं भोजन नहीं कर पाया। घर से बाहर भी नहीं निकल पाया। मेरी पत्नी नौकरी पर गई हुई थीं। खुल कर रोने के लिए मुझे पूरा-पूरा एकान्त मिला। जितना उस दिन रोया, उतना न तो उससे पहले कभी और न ही अब तक कभी रोया। सीधा बिस्तर पकड़ लिया। दोपहर होते-होते बुखार आ गया। पता नहीं मैं सो रहा था या तन्द्रा में था किन्तु रामजी का चेहरा मेरी नजरों से नहीं हट रहा था। उनका बिलखना, उनका हाथ-पाँव पटकना मेरी आँखें नहीं झपकने दे रहे थे।


अगले दिन सामान्य हो पाया। जिन सज्जन ने सिफारिश कर मुझे रामजी के पास भेजा था वे फोन पर पूछ रहे थे -‘रामजी ने बीमा दिया या नहीं?’ मैंने कहा - ‘बाद में बुलाया है।’ यह ‘बाद’ आज तक नहीं आया। रामजी के पास जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। डरता रहा कि मुझे देखते ही वे कहीं आत्म ग्लानि में आकण्ठ डूब न जाएँ।


इस घटना के कोई सात माह बाद मेरे एक मित्र ने कहा -‘रामजी तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे। तुम्हें नमस्कार कहलवाया है।’ मैंने पूछा -‘तुम उनसे मिल कर आ रहे हो?’ मित्र बोला -‘हाँ। परसों मिला था। सूरत में।’ मैं चैंका। पूछा - ‘सूरत में?’ मित्र ने निस्पृह भाव से कहा -‘हाँ। सूरत में। पता नहीं क्या हुआ कि पाँच-छह महीने पहले रामजी अपना मकान और दुकान बेच कर सूरत चले गए। कह रहे थे कि यहाँ से उनका मन उचट गया है।’


मैंने खोद-खोद कर मित्र से रामजी के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि रामजी सूरत में बहुत ही सामान्य, छोटे से मकान में रह रहे हैं। दुकान भी नाम मात्र की कर रखी है, इतनी कि घर चल जाए। यहाँ से जो रकम लेकर गए थे, वह बैंक में एफडी कर दी है और उसके ब्याज की रकम निर्धन बच्चों की पढ़ाई के लिए दे देते हैं। इस सबमें उनकी पत्नी उनके साथ है।


‘और उनका बेटा? वह कैसा है?’ मैंने पूछा। मित्र तनिक अचरज से बोला -‘पता नहीं क्या हुआ! वह तो पूरा बदल गया है। कोशिश करता है कि रामजी को दुकान पर या तो बैठना ही नहीं पड़े या फिर कम से कम बैठना पड़े। यहाँ तो वह रामजी की परवाह ही नहीं करता था लेकिन वहाँ तो श्रवण कुमार बना हुआ है।’


मित्र की बात सुनकर मेरी आँखें बहने लगीं। मित्र घबरा गया। बोला -‘क्यों? क्या बात है? तुम क्यों रो रहे हो?’ मैंने कहा - ‘कुछ नहीं। सात महीने पहले मैं लुट गया था। आज मेरी लुटी रकम मुझे सूद समेत मिल गई सो रोना आ गया।’


मित्र मुझे लाल बुझक्कड़ की तरह देखने लगा। मैं उसे, इसी दशा में छोड़ घर लौट आया। घर आकर मैं फिर रोया।


लेकिन इस बार न तो उतना रोया और न ही वैसा रोया।

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