ये दादाजी चट्टे हैं

यह ‘चरित्र प्रमाण-पत्र’ मेरे लिए जारी किया जा रहा था। मेरे घर के ठीक बाहर ही। मुहल्ले के चार-पाँच बच्चे बातें कर रहे थे। उन्हीं में से एक कह रहा था - ‘ये दादाजी चट्टे हैं।’ मैं आगे वाले कमरे में बैठकर अपनी लिखा-पढ़ी कर रहा था। तभी बाहर से बच्चों के बीच से यह आवाज आई। मैं ने खिड़की का पर्दा, जरा सा सरका कर देखा। वे मेरे घर के बाहर, सड़क पर खड़े थे और सबका मुँह मेरे मकान की ओर था।

चट्टे याने चटोरे। एक बच्चा मुझे चटोरा घोषित कर रहा था और बाकी सब मानो मूक-सहमति दे रहे थे। मैं खिड़की से हट कर अपनी जगह बैठ कर काम करने लगा किन्तु कान बच्चों की बातों पर ही थे। उनके सम्वाद कुछ इस तरह थे -

‘तुझे कैसे मालूम?’

‘मुझे मालूम है। इन्हें आज जब मालूम पड़ा कि सन्तोष आण्टी ने कचौरियाँ बनाई हैं तो इन्होंने सन्तोष आण्टी से माँग कर कचौरियाँ खाईं।’

‘क्या बात करता है? दादाजी ने खुद माँगी?’

‘सच्ची। बड़ी-बड़ी विद्या की कसम। मैंने खुद देखा। मेरे सामने माँगी?’

‘शेम। शेम। मैं ऐसा कर लूँ तो मेरी मम्मी मेरी पिटाई उड़ा देती।’

‘और नहीं तो क्या? मेरी मम्मी तो कहती है कि कोई खाने को कहे तो पहली बार में तो उस चीज को दखना भी नहीं चाहिए। दूसरी बार कहे तो थोड़ी से लेनी चाहिए।’

‘हाँ। मेरी मम्मी भी यही कहती है।’

‘अच्छा बता! दादाजी ने कचौरियाँ माँगी कैसे?’

‘वो मेरी मम्मी और सन्तोष आण्टी गेट पर खड़ी-खड़ी बातें कर रही थीं। दादाजी ने अपने दरवाजे पर आए और सन्तोष आण्टी को आवाज लगा कर कचौरियाँ माँगी।’

‘एँ! आवाज लगा कर? जोर से आवाज लगा कर?’

‘येई तो! और आवाज भी इतनी जोर से लगाई कि सड़क पर खड़े सब लोगों ने सुनी।’

‘शेम! शेम! और सन्तोष आण्टी ने क्या कहा?’

‘कहा क्या? यही कि थोड़ी देर में भिजवाती हूँ।’

‘उन्हें (सन्तोष आण्टी को) बुरा नहीं लगा?’

‘येई तो कमाल है! बुरा लगना तो दूर उल्टे वो तो खूब खुश हो गई।’

‘हाँ, हाँ। कोई मेरी मम्मी से माँगता है तो वो भी खुश होती है कि देखो बड़े अकड़ते हैं लेकिन कितनी बेशर्मी से चीजें माँग लेते हैं।’

‘हाँ, मेरी मम्मी भी माँगने वाले के लिए ऐसा ही बोलती है।’

‘फिर सन्तोष आण्टी ने कचौरियाँ दी कि नहीं?’

‘अरे क्या बात करता है! सन्तोष आण्टी को भाग कर घर गईं। घर में जाकर फौरन बाहर आईं और अपने दरवाजे से ही जोर से आवाज लगा कर दादाजी को कहा कि अभी गरम-गरम उतरते ही भेजती हूँ।’

‘फिर! भेजीं?’

‘हाँ। मैंने देखा। सन्तोष आण्टी ने कटोरी में तीन कचौरियाँ भेजीं।’

‘फिर! दादाजी ने खाई कि नहीं? दादाजी क्या बोले?’

‘खाते कैसे नहीं? खाने के लिए ही तो मँगवाई थीं। वो कटोरी लेकर घर में चले गए। थोड़ी देर में मुँह पोंछते-पोंछते फिर दरवाजे पर आए और सन्तोष आण्टी को जोर से आवाज लगा कर कहा कि कचौरियाँ अच्छी बनाईं है।’

‘सन्तोष आण्टी ने कुछ कहा?’

‘हाँ यार! उन्होंने दादाजी को थैंक्यू कहा!’

क्या? सन्तोष आण्टी ने थैंक्यू कहा? थैंक्यू तो दादाजी को कहना चाहिए था!’

‘वोई तो! मुझे भी समझ में नहीं आया कि थैंक्यू सन्तोष आण्टी ने क्यों कहा? दादाजी ने क्यों नहीं कहा?’

‘शेम! शेम! याने दादाजी चट्टे ही नहीं, इन्हें मैनर्स भी नहीं आते।’

‘हाँ यार! और ये अपने को कितना टोकते रहते हैं?’

‘अब टोकने दो। अपन भी साफ-साफ कह देंगे कि आप चट्टे हो।’

और इस ‘सर्वानुमत निर्णय’ के साथ बच्चों की टोली आगे बढ़ गई।

बच्चों की बातें सुनकर मुझे बुरा तो बिलकुल ही नहीं लगा कि किन्तु यह अनुभव कर अटपटा अवश्य लगा कि हम बच्चों को शिष्ट बनाते-बनाते किस सीमा तक औपचारिक या कि असहज बना रहे हैं।

धुलेण्डी के दिन मुहल्ले के सब लोग एक दूसरे को रंग-गुलाल लगाने जाते हैं। इसी क्रम में सब लोग, मेरे सामने रह रहे माँगीलालजी कुमावत के घर गए। उनकी श्रीमतीजी (जिन्हें पूरा मुहल्ला ‘बाईजी’ कह कर सम्बोधित करता है) ने सबके लिए कचौरियाँ बनाई थीं और कोशिश की थी सबको गरम-गरम कचौरियाँ खाने को मिलें।

मुझसे मिलने के लिए कुछ कृपालु आ गए थे। उनसे होली-मिलन कर मैं बाईजी के यहाँ पहुँचता, उससे पहले ही मिलन-मण्डली वहाँ से आगे बढ़ गई। यह देख मैं घर में ही रुक गया।श्रीमतीजी वहाँ से लौटीं तो दो कचौरियाँ लेकर। एक मेरे लिए और एक हमारे छोटे बेटे तथागत के लिए। हम दोनों को घर में उलझा देखकर श्रीमतीजी ने बाईजी की पुत्र-वधु सन्तोष से हम दोनों के लिए एक-एक कचौरी माँग ली थी।

कचौरी वास्तव में बहुत ही खस्ता और स्वादिष्ट थी। उस पर ‘गरम-गरम’ ने स्वाद और आनन्द कई गुना बढ़ा दिया। मैंने श्रीमतीजी से प्रशंसा की तो वे बोलीं कि सन्तोष ने मेरे इस आनन्द का पूर्वानुमान लगा रखा है और वह प्रसन्नतापूर्व प्रतीक्षा कर रही है कि यदि मुझे कचौरी पसन्द आए तो तदनुसार उसे सूचित करूँ ताकि वह और कचौरियाँ पहुँचाए।

और मैंने, अपने घर के दरवाजे पर खड़े होकर, ज्योति से बतिया रही सन्तोष से, आवाज लगा कर कचौरियाँ माँग लीं। सन्तोष मानो इसी की प्रतीक्षा कर रही थी। वह भाग कर घर गई और मेरे लिए गरम-गरम कचौरियाँ भिजवा दीं।

यह सब कुछ न केवल सहजता से हुआ अपितु पूरी-पूरी आत्मीयता और अनौपचारिकता से भी हुआ।

लेकिन बच्चों के लिए इस सबका अर्थ कुछ और ही था। निश्चय ही वे हतप्रभ और दुखी हुए क्योंकि मैं उनके लिए मैनरलेस और चटोरा आदमी साबित हुआ।

अब मैं सहजता और आत्मीयता से उजागर अपने चटोरेपन पर गुमान करूँ या मेरे व्यवहार से बच्चों के मन में उपजी हताशा पर दुखी होऊँ?
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12 comments:

  1. न तो आप को गुमान करने की आवश्यकता है और न ही बच्चों की हताशा पर दुखी होना चाहिए। बच्चे अपने स्थान पर सही हैं और आप अपने स्थान पर सही हैं। यह वैसा ही है जैसे दूसरी क्लास का कायदा और कॉलेज के सेकण्ड इयर का कायदा। वास्तव में बच्चे अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं। आज रंग पंचमी है आप आज या कल उन सब को होली के उपलक्ष्य में बुलाइए और अच्छे से उन की खातिर कीजिए। उन से बैठ कर बातें की कीजिए। अपने ब्लाग के बारे में भी बताइए। उन के कुछ चित्र अपने कैमरे से लीजिए और ब्लाग पर डालिए। और उन्हें ब्लाग पर उन के चित्र दिखाइए। फिर देखिए आप से कैसे उन की दोस्ती होती है और वे आप को क्या कहते हैं? कैसे वे शिष्टता के व्यवहार सीखते हैं?

    वैसे सत्य कथा अच्छी है, चटोरे दादा जी की।

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  2. वक्त बदल रहा है ,तो तौर -तरीके भी ...। आज भी भीतर से सब उतने ही सहज हैं बस औपचारिकता के पिंजरे में क़ैद होकर अपना नैसर्गिक स्वभाव भूल गये हैं । अब मन -मन भावे मूँड हिलावे का दौर है । लोग नाशते की प्लेट में रखी चीज़ खाने में संकोच करते हैं लेकिन लिफ़ाफ़ा उठाने या ब्रीफ़केस थामने में कोई गुरेज़ नहीं । ये बच्चे समय की धारा के साथ बहना सीख रहे हैं । आपके गुण सीख गये ,तो दुनिया में चल नहीं पाएँगे ।

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  3. बहुत ही मनोरंजक अनुभव रहा होगा. द्विवेदी जी बाल मर्म की अच्छी समझ रखते हैं. बिलकुल वाही कीजिये जो उन्होंने कहा. सब बच्चे आपके चम्मच बन जायेंगे. आभार.

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  4. काश,बच्चों के अभिवावक 'चट्टे दादाजी ' की यह पोस्ट पढ़ लेते !इन प्रेमी दादाजी की माँग पर कचौरियाँ खिलाने का सुख अभिवावक समझायेंगे या समय के साथ समझ में आ ही जाएगा ।
    इन बच्चों की तरह कभी मैंने भी कुछ मिलता-जुलता किया था। एक अग्रज खाने-पीने के रसिक थे ,उनका फोन आया । मैंने उन्हें फोन पर गा कर कहा,'बहारों बरफ़ी बरसाओ,मेरा लालची आया है ।'यह किस्सा बड़े प्यार से वे सुनाते ।
    माँ-बाप यदि प्रेम को प्रकोप मान बैठें , तब शायद दिक्कत हो ।

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  5. हमलोगों ने ही आज के बच्‍चों को इतना औपचारिक बना दिया है ... कि सामान्‍य और नैसर्गिक व्‍यवहार को वे सहन ही नहीं कर पाते ... उसमें उन्‍हें त्रुटियां दिखाई पडती है ... उनका व्‍यवहार भी अपनी जगह सही है ... क्‍योंकि उन्‍हें आज के जमाने में ये सब निभाना है... हां आपने अपने मन का बोझ यहां पर हल्‍का कर अच्‍छा किया ... बच्‍चे पोस्‍ट पढ लेते तो उनके मन का भ्रम भी दूर हो जाता ... आखिर वे आपके मुहल्‍ले के ही बच्‍चे हैं।

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  6. वाह, बच्चों की बातें पढ़कर मजा आ गया। बिल्कुल बालसुलभ तरीके से आपने बयां किया औऱ हमें ये भी पता चल गया कि आप खूब 'चट्टे' हैं..बहुत अच्छा लगा।

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  7. कोई बात नहीं जी, अभी बच्चे हैं वे इसलिए रिश्तों की आत्मीयता, अपनापन और रिश्तों में अधिकार की बातें वे अभी नहीं समझते।
    और सबसे बड़ी बात यह कि ये सभी बातें किसी के सिखाने से समझ में आती भी नहीं न, जब तक कि आपके खुद के ऐसे रिश्ते न डेवलप हो जाएं।

    बच्चा पार्टी की बातें मस्त रहीं, कम से कम यह देखिए कि वे अपने तई विश्लेषण तो कर रहे हैं।

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  8. करना क्या है? आप भी कचोरी खाओ, बच्चो को भी खिलाओ. थोडा- थोडा चटोरा बच्चो को भी बनाओ और बनवाओ.

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  9. मूह में पानी आ गया?

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  11. बहुत बढ़िया लगा संस्मरण . एक जनाब को हम लोग कचौड़ी के नाम से चिडाते है फिर उसका तमाशा फुल्कियो जैसा हो जाता है सारा चाट का ठेला सर पर ऊँचा लेता है फिर हम सभी मिलकर खूब एन्जॉय करते है ..टीप देते समय दर ये सता रहा है कि मेरा कमेंट्स कचौडी न पढ़ ले हा हा

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