भारतीय नारी की शोभा...........में गई


ये जो इस फोटू में पीछे खड़ा है, वो धर्मेन्द्र है। धर्मेन्द्र रावल। मेरे संघर्ष के दिनों का साथी। फोटू में बाँयी ओर, सलवार-सूट में मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी और दाहिनी ओर, साड़ी पहने सुमित्रा भाभी बैठी हैं। सुमित्रा भाभी याने धर्मेन्द्र की पत्नी। और बीच में जो बैठी हैं वो हैं ‘बई’। ‘बई’ याने धर्मेन्द्र की माँ और सुमित्रा भाभी की सासूजी। उम्र है 85 बरस और नाम है पार्वती। ‘बई’ और सुमित्रा भाभी, सास-बहू हैं जरूर लेकिन इकतालीस बरस से अधिक से साथ-साथ रह रही हैं तो ‘सखी-सहेली’ हो गई हैं। जब, जिसे मौका मिलता है, ठिठोली कर लेती हैं। ‘बई’ के सामने जब हम लोग होते हैं तो ‘बई’ हम सब को धर्मेन्द्र और सुमित्रा ही समझती, मानती और वैसा ही व्यवहार करती हैं। लाड़-प्यार करना हो, डाँटना-असीसना हो, ‘बई’ के लिए हम सबके सब धर्मेन्द्र-सुमित्रा हैं। इसलिए धर्मेन्द्र की ‘बई’ हम सबकी ‘बई’ है। 

‘बई’, इन्दौर के पास के गाँव गौतमपुरा की, मालवी गृहस्थन हैं। कोई पचास बरसों से अधिक से समय से जरूर इन्दौर में हैं और खड़ी बोली (याने, आपकी-हमारी हिन्दी) में बात कर लेती हैं लेकिन खड़ी बोली में सहज नहीं रह पातीं। बहुत हुआ तो दस-बीस शब्दों के बाद खड़ी बोली पता नहीं कहाँ चली जाती है और ‘बई’ के मुँह से रसभरी मालवी बरसने लगती है। मालवी के मामले में बई अपने आप में एक खजाना है। लोक जीवन के, जनम-मरण-परण से लेकर तमाम प्रसंगों के लोक गीतों ने मानो बई के ‘हिवड़े’ (हृदय) को अपना बसेरा बना रखा है। पोता समन्वय, बहू आभा के साथ और पोती तनु, पति हर्ष के साथ बेंगलुरु में नौकरी पर है। सब नियमित रूप से इन्दौर आते रहते हैं। जब भी आते हैं, ‘बई’ को घेर कर बैठ जाते हैं और ‘बई’ से मालवी में इस तरह बातें करते हैं मानो मालवी के भूले-बिसरे पाठ याद कर रहे हों। 

गए कुछ महीनों से ‘बई’ बीमार चल रही है। कभी-कभार अस्पताल में भी भर्ती कराना पड़ जाता है। कुछ दिन अस्पताल में। फिर घर। यह आना-जाना अब परेशान नहीं करता। बीच में ‘बई’ तनिक अधिक परेशान हो गई थी। कुछ इस तरह कि उनकी दुनिया बिस्तर पर ही सिमट आई थी। यह दीपावली से पहले की बात है। उस दौरान ‘बई’ को टी-शर्ट और पायजामा पहनाना पड़ा। बई ने पहन तो लिए लेकिन उन सारे दिनों में ‘बई’ मानो एक अतिरिक्त बीमारी से ग्रस्त हो गई हों। उन सारे दिनों ‘बई’ को लगता रहा कि वे भले ही अपने कमरे में बन्द हैं लेकिन फिर भी सारी दुनिया उन्हें इन कपड़ों में देख-देख कर हँस रही है। टी-शर्ट और पायजामा मानो कपड़े न होकर, मूल बीमारी से अधिक त्रासदायी एक और बीमारी हों। उनकी दशा ‘स्वस्थ तन, बीमार मन’ जैसी रही। उस दौरान वीणाजी और मैं इन्दौर गए। निकले तो हम कहीं और के लिए थे लेकिन सोचा कि धर्मेन्द्र का घर भी इसी इलाके में है, ‘बई’ से मिल लिया जाए। वीणाजी हिचकीं। वे सलवार-सूट में थीं। इन कपड़ों में भला ‘बई’ के सामने कैसे जाएँ? उन्होंने साफ मना कर दिया - ‘मैं तो बई के सामने इन कपड़ों में नहीं जाऊँ।’ मैंने जोर दिया। कहा कि संयोग से इस इलाके में हैं। इतनी दूर, अलग से आना मुश्किल होगा। अपने बुजुर्गों से मिलना तो अपने लिए ‘तीरथ करने’ की तरह है। ‘बई’ को जो कहना होगा, कह देंगी। अपन तो अपने मन की तसल्ली के लिए चल रहे हैं। वीणाजी को बात तो जँची लेकिन हिम्मत ने साथ छोड़ दिया। बड़े ही कच्चे मन से चलीं। हमने जोड़े से ‘बई ’को प्रणाम किया। ‘बई’ ने, असीसते हुए, भेदती नजर से वीणाजी को देखा आशीर्वचन समाप्त कर मानो ‘फोल्डिंग लप्पड़’ मारा - ‘यो कई? अबे लाड़्याँ सास के सामे सलवार-सूट में आवा लागी?’ (यह क्या? बहुएँ अब सलवार-सूट पहन कर सास के सामने आने लगीं?) पहले से पस्त-हिम्मत वीणाजी मानो निष्प्राण हो गईं। नजरें तो पहले से ही नीची थीं। अब बोलती भी बन्द हो गई। लेकिन मन के कोने-कचारे से हिम्मत बटोर कर, हँसते हुए बोली - ‘कई कराँ बई! जब सासजी टी सरट पेन ले तो लाड़्याँ ने भी सलवार-सूट पेननो पड़े।’ (क्या करें बई? जब सासूजी टी-शर्ट पहन लें तो बहुओं को भी सलवार-सूट पहनना पड़ता है।) वीणाजी ने तो सहज भाव से (केवल कहने के लिए) कहा था लेकिन ‘बई’ मानो झपाक से बुझ गईं। उनके, गोरे-चिट्टे, गोल-मटोल चेहरे पर विवशता, पीड़ा, करुणा छा गई। बड़ी ही मुश्किल से बोली - ‘कई कराँ बई! बीमारी जो नी करावे कम हे।’ (क्या करें! बीमारी जो न कराए, कम है।) सास-बहू का सम्वाद तो पूरा हुआ लेकिन कमरे का माहौल सामान्य होने में थोड़ा वक्त लगा।

दीपावली के बाद ‘बई’ जैसे ही बेहतर हुईं, सबसे पहला फैसला सुनाया - ‘मूँ यो सरट ने पाजामो नी पेरूँगा। मने साड़ी पेराओ।’ (मैं यह शर्ट और पायजामा नहीं पहनूँगी। मुझे साड़ी पहनाओ।) सुमित्रा भाभी जोर से हँस दीं। ‘सखी’ से ठिठोली की - ‘इत्ती भी कई जलदी हे? इन कपड़ाँ माँ भी आप घणा रुपारा लागी रिया हो।’ (इतनी भी क्या जल्दी है। इन कपड़ों में भी आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।) एक सखी ने दूसरी सखी की शरारत पहचानी। जवाब आया - ‘तम भी सुमितरा! तमने तो रोर करवा को मोको मिलनो चइये! रोर बाद में करजो दरी! पेलाँ मने साड़ी पेनावो।’ (तुम भी सुमित्रा! तुम्हें तो ठिठोली करने का मौका मिलना चाहिए। ठिठोली बाद में करना। पहले मुझे साड़ी पहनाओ।) 

गए अठवाड़े हम दोनों फिर इन्दौर में थे। ‘बई’ से मिलना ही था। बीस दिसम्बर की दोपहर ‘बई’ के पास पहुँचे। वे बिस्तर पर जरूर थीं लेकिन लेटी हुई नहीं, बैठी हुई। देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे बीमार हैं। एकदम ताजादम। आवाज की खनक अपने मुकाम पर लौट आई थी। वीणाजी इस बार भी सलवार-सूट में थीं। हम दोनों ने जोड़े से पाँव छुए। दिपदिपाते चेहरे, जग-मगाती आँखों और टपकती शहतूतों जैसी वाणी से ‘बई’ ने असीसा। पाँव छूकर खड़े होते-होते वीणाजी ने चुहल की - ‘यो कई बई! मूँ तो वसी की वसी सलवार-सूट में अई। पण आपने पईजामो ने सरट उतारी द्यो?’ (बई! यह क्या? मैं तो उसी तरह सलवार-सूट में आई लेकिन आपने तो पायजामा और शर्ट उतार दिया?) ‘सास’ को मानो ‘बहू’ के इस ‘वार’ का पूरा-पूरा अनुमान था। गौतमपुरा की पटेलन की तरह तनकर, दर्पभरी वाणी में तपाक से बोलीं - ‘तम भलेऽई कई भी को ने कई भी पेरो। पण भारतीय नारी की सोभा तो साड़ी में ईऽज हे।’ (तुम भले ही कुछ भी कहो और कुछ भी पहनो। लेकिन भारतीय नारी की शोभा तो साड़ी में ही है।) कह कर ‘बई’ ने तनी हुई गर्दन हम चारों के चेहरों पर घुमाई। पूरा कमरा मानो अनूठे उजास से भर गया हो। हम चारों के साथ खुद ‘बई’ भी अपनी ही बात पर सन्तोषभरी हँसी, हँसी।

अचानक ही सुमित्रा भाभी ने मानो छुपा दाँव चला। दबी-दबी मुस्कान से, चुहल करती हुई बोलीं - ‘या बात तो आपने सई की बई के भारतीय नारी की सोभा साड़ी में हे। पण अपनी मुन्नी जीजी भी अब सलवार-सूट पेनवा लाग्या। वाँ भारतीय नारी की सोभा काँ गई?’ (यह बात तो बई! आपने सही कही कि भारतीय नारी की शोभा साड़ी में है। लेकिन अब तो अपनी मुन्नी जीजी भी सलवार-सूट पहनने लगी हैं। वहाँ भारतीय नारी की शोभा कहाँ गई?) (‘मुन्नी जीजी, याने ‘बई’ की बेटी याने कि धर्मेन्द्र की बहन और सुमित्रा भाभी की ननद। रतलाम में रहती हैं और पोतों के साथ खेल रही हैं।) मैं सहम गया। बेटी किसी भी माँ की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक होती है! मैंने देखा, धर्मेन्द्र भी असहज था। लेकिन हमारी ‘बई’ तो आखिर ‘बई’ थी। ठठाकर बोली - ‘हाँ। म्हारे मालम हे। इनी वास्ते केई री हूँ। अबे भारतीय नारी की सोभा छूला में गी।’ (हाँ। मुझे मालूम है। इसीलिए कह रही हूँ। अब भारतीय नारी की शोभा चूल्हे (भाड़) में गई) ‘बई’ का यह कहना था कि मानो कमरे में बम फूट गया हो। हम पाँचों के पाँचों जोर-जोर से हँस रहे थे। इस तरह हँसते हुए ‘बई‘ अब रंच मात्र भी बीमार नजर नहीं आ रही थीं।

ऐसी हैं हमारी ‘बई’, जो इस फोटू में बीच में बैठी नजर आ रही हैं।
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.......और मैंने असल से पहले नकल कर ली

सोमवार, ग्यारह दिसम्बर की सुबह। थक कर चूर था। एक दिन पहले, दस दिसम्बर को छोटे बेटे तथागत का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ था। कुछ रस्में बाकी थीं। घर में उन्हीं की तैयारी चल रही थीं। थक कर बैठने की छूट नहीं थी। मुझ जैसे आलसी आदमी को सामान्य से तनिक भी अधिक कामकाज झुंझलाहट और चिढ़ से भर देता है। मैं इसी दशा और मनोदशा में था। तभी फोन घनघनाया। चिढ़ और झुंझलाहट और बढ़ गई। बेमन से फोन उठाया। उधर
से भाई अनिल ठाकुर बोल रहे थे। वे रतलाम से हैं और इन दिनों पुणे में हैं। वे क्षुब्ध और आवेशित थे। उन्होंने जो खबर दी उससे मेरी थकान, झुंझलाहट, चिढ़, सब की सब हवा हो गई। मैं ताजादम हो, हँसने लगा। मेरी इस प्रतिक्रिया ने अनिल भाई को चिढ़ा दिया। बोले - ‘मेरी इस बात पर आपको गुस्सा आना चाहिए था। नाराज होना चाहिए था। लेकिन आप हैं कि हँस रहे हैं! यह क्या बात हुई?’ मैंने कहा - ‘क्यों न हँसू भला? आपको नहीं पता, आपने इस जर्रे को हीरे में तब्दील हो जाने की खबर दी है।’ फिर मैंने उन्हें कवि रहीम का यह दोहा सुनाया -

रहीमन यों सुख होत है, बढ़त देख निज गोत।
ज्यों बढ़री अँखियन लखिन, अँखियन को सुख होत।।’

मेरा जवाब सुन अनिल भाई अपना गुस्सा, अपना क्षोभ भूल गए। बोले - ‘पहले तो इस दोहे का अर्थ बताइए और फिर बताइए कि मेरी बात का इस दोहे से क्या लेना-देना?’ मैंने जवाब दिया - ‘आपकी बात सुन कर मुझे ठीक वैसा ही सुख हुआ जैसे किसी की बड़ी आँखें (मृग-लोचन) देख कर बड़ी आँखों वाले को और अपनी गोत्र वृध्दि होने पर किसी को होता है। यही इस दोहे का अर्थ भी है। आज आपने मेरी गोत्र वृद्धि की ही खुश खबर दी है।’

वस्तुतः हुआ यह कि अनिल भाई ने, पुणे के हिन्दी दैनिक ‘आज का आनन्द’ के, रविवार दस दिसम्बर के अंक में, अखबार के मालिक और सम्पादक श्री श्याम ग्यानीरामजी अग्रवाल का ‘जिंदगी में न्याय ही दुनिया का संवर जाना है/मौत तो इंसान के सपनों का बिखर जाना है/जिन्दा रहना है तो मरने का सलीका सीखो/वरना मरने को तो हर आदमी को मर ही जाना है’ शीर्षक आलेख पढ़ा तो उन्हें (अनिल भाई को) लगा कि यह लेख वे पहले भी कहीं पढ़ चुके हैं। उन्होंने खूब सोचा। उन्हें अचानक ही, सात दिसम्बर को प्रकाशित मेरी इस ब्लॉग पोस्ट का ध्यान आया जो सात दिसम्बर को ही भोपाल से प्रकाशित हो रहे दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में भी छपी थी। उन्होंने अपना वाट्स एप टटोला और अपने अनुमान को सही पाया। उन्होंने श्यामजी के लेख की स्केन प्रति मुझे भेजी। पढ़ने में मुझे तनिक असुविधा तो हुई लेकिन जैसे-तैसे पढ़ने पर लगा कि अनिल भाई सच ही कह रहे हैं।

‘आज का आनन्द’ पुणे का अग्रणी हिन्दी अखबार है। छियालीस बरसों से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। आठ कॉलम आकार में सोलह पृष्ठों का अखबार है। सारे के सारे सोलह पृष्ठ रंगीन। मोहक साज-सज्जा और आकर्षक ले-आउट। श्यामजी का स्तम्भ सम्भवतः प्रतिदिन छपता है।


यह है वह लेख जिससे अनिल भाई क्षुब्ध हुए

एक ही विचार/भाव भूमि पर एकाधिक रचनाएँ, लेख मिलना बहुत ही स्वाभाविक है। लेकिन शब्द चयन, वाक्य विन्यास, घटनाओं/सन्दर्भों का ब्यौरा शब्दशः समान हो और घटनाक्रम भी जस का तस हो, ऐसा तो कभी होता ही नहीं। लेकिन श्यामजी के लेख में ऐसा ही हुआ। उनका लेख पढ़कर मुझे लगा कि  मैंने श्यामजी के लिखने के तीन दिन पहले ही उनकी नकल कर ली है। मुझे अतीव प्रसन्नता हुई - ‘चलो! मैं भी ठीक वैसा ही सोचता हूँ जैसा कि छियालीस बरसों से छप रहे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय दैनिक अखबार का प्रधान सम्पादक सोचता है।’ और यह भी कि यह जर्रा (याने कि मैं) खुद के हीरा होने का आत्म-मुग्धता भरा मुगालता तो पाल ही सकता है।

मैंने मन ही मन, श्यामजी को धन्यवाद दिया। उन्होंने मेरी बात को न केवल रेखांकित किया बल्कि उस पर अपना ठप्पा लगाकर ‘गुणवत्ता प्रमाणीकरण’ (क्वालिटी सर्टिफिकेशन) भी कर दिया। उसे विस्तारित किया, यह मेरे लिए अतिरिक्त उत्साहजनक कारक है। उम्मीद है, वे मुझ पर इसी तरह नजर बनाए रखेंगे और इसी तरह मेरा उत्साह बढ़ाते रहेंगे।

मेरी बातें सुनकर (अब) अनिल भाई भी ठठा कर हँसे। बोले - ‘आप बार-बार खुद के आशावादी और सकारात्मक होने का जो दावा करते हैं, वह आज समझ में आया। मैं बेकार ही दुःखी हुआ। अब मैं भी इसका मजा लूँगा। चलिए! लगे हाथों तथागत की शादी की और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर लेने की बधाइयाँ कबूल कीजिए।’

हमारी बात यहीं ठहर गई और मैं अपनी थकान, झुंझलाहट, चिढ़ भूल कर, पूरी तरह ताजादम हो, शादी के बाकी काम निपटाने में लग गया। (इसके लिए अतिरिक्त धन्यवाद श्यामजी!)
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प्रकाशन से पहले ही आ गई टिप्पणी

जब मैं यह सब लिख रहा था तो मेरा बड़ा बेटा वल्कल मेरे
पास ही बैठा हुआ, शादी के बाकी काम निपटाने में लगा हुआ था। सारी बात जानकर उसने टिप्पणी की - ‘पापा! यह सब जानकर आप खुश हुए। यह मुझे अच्छा लगा। ऐसे ही बने रहिएगा। साहित्यिक हलकों के कई लोग ब्लॉग दुनिया से जुड़े नहीं हैं। ऐसे अनेक लोग डिजिटल माध्यमों से भी जुड़े नहीं हैं। इतना पुराना अखबार जब अपने ढंग से ब्लॉग पर प्रकट विचारों को विस्तारित, प्रतिध्वनित करता है तो न केवल ब्लॉगर का हौसला बढ़ाता है अपितु ब्लॉग के विस्तारण में भी अपना योगदान देता है।’
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देखें! कौन अधिक क्रूर! अधिक निर्मम!

पुंजालाल और लोकेश समझ नहीं पा रहे हैं कि उन्हें किस अपराध का दण्ड मिला। दोनों सगे भाई हैं। पुंजालाल बड़ा और लोकेश छोटा। बड़ा इक्कीस बरस का और छोटा  बीस बरस का। रतलाम से पचास किलो मीटर दूर, तहसील मुख्यालय बाजना के गाँव सालरडोजा के निवासी हैं। सन् 2007 में बीमारी में पिता चल बसा। 2010 में, मजदूरी करते हुए, एक निर्माणाधीन मकान की दीवार गिरने से माँ दब मरी। तब पुंजालाल चौदह बरस का और लोकेश तेरह बरस का था। स्कूल के उद्घाटन के लिए, 2010 में मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चौहान बाजना पहुँचे। गाँव वालों ने दोनों आदिवासी किशोरों की दशा उनके सामने रखी। द्रवित होकर उदार हृदय मुख्यमन्त्री ने घोषणा की कि दोनों भाइयों की पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाएगी और दोनों को पाँच-पाँच हजार रुपये प्रति वर्ष दिए जाएँगे। खूब तालियाँ बजीं। सचित्र समाचार छपे। 

पुंजालाल और लोकेश बहुत खुश हुए। उन्हें लगा, उनके दुःखों का अन्त हो गया है। नई जिन्दगी के रास्ते खुल गए हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि जब वे ऐसा सोच रहे थे तो दुर्देव हँस रहा था। सात बरस हो गए। अब तक कुछ नहीं मिला। पटवारी का कहना है कि उसने तो हाथों-हाथ प्रकरण तहसीलदार को पेश कर दिया था। उसके बाद क्या हुआ, उसे नहीं पता। उसे तो क्या, किसी को कुछ नहीं पता। बात कलेक्टर तक पहुँची तो जवाब मिला - हर बरस नहीं दे सकते। एक बार दे सकते हैं। अधिकतम दस हजार रुपये। दे देंगे। लेकिन वो भी नहीं मिले। 

दोनों भाई पढ़ना चाहते थे। मुख्यमन्त्री की घोषणा ने उनकी चाहत को पंख लगा दिए थे। लेकिन भरोसे में मारे गए। औंधे मुँह जमीन पर आ गिरे। किसी को काई फर्क नहीं पड़ना था। नहीं पड़ा। आदिवासी का मामला है। ऐसा तो होता ही रहता है। न तो पहली बार हुआ न ही आखिरी बार हुआ है। मुख्यमन्त्री की घोषणा के बाद 2014 के विधान सभा चुनाव हो गए। अब 2019 के चुनाव सामने हैं। वे भी हो ही जाएँगे और यदि सब कुछ सामान्य रहा तो शिवराजसिंह एक बार फिर मुख्य मन्त्री बन जाएँगे। लेकिन पुंजालाल और लोकेश तब तक नई घोषणाओं के अम्बार में दब चुके होंगे।

लोकेश पढ़ाई जारी नहीं रख सका। पुंजालाल ने हिम्मत नहीं हारी। कभी मजदूरी की, कभी वेटर का काम किया। बी. ए. कर लिया। अब पी.एस.सी की तैयारी कर रहा है। अब उसे समझ (याने की ‘अकल’) आ गई है। जो भी करना है, उसे ही करना है। सालरडोजा और बाजना में भाजपाई भी हैं और काँग्रेसी भी। सब उसके नाम पर राजनीति करते हैं। मदद कोई नहीं करता। उसकी मदद कर देंगे तो मुद्दा खतम हो जाएगा। वोट नहीं मिलेगा। उसे मदद नहीं मिलेगी तो वोट की रोटी सिकती रहेगी। अफसरशाही/नौकरशाही को तो कभी सोचना ही नहीं था। जब खुद मुख्यमन्त्री को और उनकी पार्टी के लोगों को चिन्ता नहीं तो इन्हें क्या पड़ी है? अनगिनत पुंजालाल और लोकेश मरें या जीएँ, इनके ठेंगे से।

राजनेताओं और अफसरों/नौकरों में कौन सी प्रतियोगिता चल रही है? एक-दूसरे को खुद से अधिक निर्मम, अधिक क्रूर, अधिक गैर जिम्मेदार साबित करने की? एक-दूसरे का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने की? एक-दूसरे की फजीहत करने की? या फिर यह कि देखें! कौन लोगों को अधिक बेहतर ढंग से ठग सकता है?

प्रधानमन्त्री मोदी ने ‘उज्ज्वला योजना’ शुरु की थी। करोड़ों रुपये इसके प्रचार के लिए खर्च किए गए। इसे मोदी सरकार की युगान्तरकारी, क्रान्तिकारी योजना साबित करनेवाले, पूरे-पूरे पृष्ठों के विज्ञापन अभी भी अखबारों में नजर आते हैं। कहा जाता है कि करोड़ों देहाती गृहिणियों को गीली लकड़ियों के धुँए से मुक्ति दिलाई गई। योजना को इस तरह पेश किया गया मानो देहाती गृहिणियों को सब कुछ मुफ्त में दे दिया गया। लेकिन हकीकत कुछ और ही किस्सा बयान कर रही है। मेरे कस्बे के गैस विक्रेता बता रहे हैं कि उज्ज्वला योजना के सिलेण्डरों की बुकिंग में चालीस प्रशित की कमी आ गई है। सरकार के और गैस विक्रेताओं के कारिन्दे गाँव-गाँव जाकर समझा रहे हैं लेकिन बुकिंग नहीं बढ़ रही। लोग कहते हैं कि एक सिलेण्डर की कीमत आठ सौ रुपये एकमुश्त उनके पास नहीं है। उन्हें सबसीडी की रकम भी नहीं मिल रही। सारी की सारी रकम, गैस कनेक्शन के डिपाजिट की रकम के रुप में काटी जा रही है। याने कि गैस कनेक्शन मुफ्त नहीं है। एक दिक्कत और। गैस एजेन्सियाँ गाँवों में सिलेण्डर नहीं पहुँचातीं। एजेन्सियों के गोदामों से सिलेण्डर उठाने पड़ते हैं। इसमें वक्त भी लगता है और खर्च भी आता है। लिहाजा, एक बार सिलेण्डर लेने के बाद लोग पलट कर नहीं देख रहे। गीली लकड़ियों के धुँए से आँखें मसलते हुए चूल्हा फूँकना उन्हें अधिक अनुकूल लग रहा है। उपलब्धियों के विज्ञापन छप रहे हैं, गीली लकड़ियों का उपयोग बढ़ रहा है, गैस सिलेण्डरों की बुकिंग कम होती जा रही है। ‘उज्ज्वला’ दम तोड़ कर ‘तिमिरा’ बनती जा रही है। लेकिन  न सत्ता को परवाह है न प्रतिपक्ष को और न ही अफसरशाही/नौकरशाही को। कभी किसी मालवी कवि ने कहा था - ‘चलवा दो यो को ढर्रो। खाता रो घूस, पीता रो ठर्रो।’

मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चौहान की भावान्तर योजना इन दिनों खूब चर्चा में है। मुख्यमन्त्री को आकण्ठ विश्वास है कि इस योजना को पूरा देश अपनाएगा। लेकिन जमीनी वास्तविकता मुख्यमन्त्री के विश्वास पर विश्वास नहीं करने दे रही। घोषणा होते ही इसका सीधा अर्थ लगाया गया था - किसान को मिले मूल्य और न्यूनतम मूल्य के अन्तर की रकम किसान को दे दी जाएगी। लेकिन ‘जन्नत की हकीकत’ कुछ और ही निकली। योजना के विस्तृत ब्यौरे सामने आए तो ‘मॉडल मूल्य’ अचानक ही बीच में पैदा हो गया और किसान माथे आ गए। हालत यह हो गई कि जिनके लिए योजना बनी, वे ही फायदा लेने से बिचकने लगे। जिन किसानों ने ‘भागते भूत की लंगोटी भली’ की तर्ज पर योजना कबूल की तो उन्हें समय पर पैसा नहीं मिला। और जब मिला तो गेहूँ का तो मिल गया लेकिन एक महीना बीतने के बाद भी उड़द का नहीं मिला। मण्डी प्रशासन कह रहा कि वह तो देने को उतवाला बैठा है लेकिन किसानों के खातों की जानकारी नहीं मिल रही। देनेवाला उतावला, लेनेवाला उससे ज्यादा उतावला लेकिन भावान्तर है कि टस से मस होने को तैयार नहीं। यहाँ भी न नेता को फर्क पड़ रहा है न अफसरों/नौकरों को। जिसे फर्क पड़ रहा है, उसे पड़ता रहे। कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा तो सनातन से चला आ रहा है। प्रलय तक चलता रहेगा।

लगता है, लोकतन्त्र के दो खम्भों (विधायिका और कर्यपालिका) ने अपनी-अपनी स्वतन्त्र, सार्वभौम दुनिया बना ली है। दोनों में जनविरोधी दुरभिसन्धी हो गई है - ‘तू मुझे जिन्दा रख, मैं तुझे जिन्दा रखूँ।’ दोनों ही अपने समर्थकों के कन्धों पर चढ़कर कुर्सियों पर काबिज हैं और विरोधियों से मिल कर राज कर रहे हैं।

रही बात जनता की तो उसकी क्या परवाह करनी! वह तो है ही इसी काबिल! और हो भी क्यों नहीं? जो लोग बेरोेजगारी, भ्रष्टाचार, रोटी-कपड़ा-मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, विषमता, अन्याय, शोषण जैसे आधारभूत मुद्दों के मुकाबले धर्म, जाति, मन्दिर-मस्जिद, लव जिहाद, तीन तलाक, लव जिहाद जैसी बातों को प्राथमिकता देते हों, इनके लिए मरने-मारने पर उतारू हों, वे इसी दशा के, इसी व्यवहार के काबिल हैं। 

अपना यह वर्तमान हम ही बुन रहे हैं। लेकिन भूल रहे हैं कि यही हमारे बच्चों के भविष्य की नींव भी बन रहा है।
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल), 07 दिसम्बर 2017