बस्तर से घिरे जीजाजी

जीजाजी ने मुझे जोर का धक्का दिया, बहुत धीरे से। प्रेमपूर्वक। आनन्ददायक। 

जीजाजी याने विनायकजी पोतनीस। सुभेदार परिवार के दामाद। हमारी नीलम ताई के जीवन संगी। कोई तीस-पैंतीस बरस से उनसे मिलना और बतियाना बना हुआ है। लेकिन वे ‘ऐसे’ भी हैं, यह कभी महसूस ही नहीं होने दिया। बहुत कम बोलते हैं और धीमी आवाज में। उन्हें सुनने के लिए अतिरिक्त चौकन्ना होना पड़ता है। 


यह बीस दिसम्बर की रात थी। सुभेदार परिवार का उपक्रम ‘आशर्वाद नर्सिंग होम’, अगली सुबह, 21 दिसम्बर 2018 को रतलाम के चिकित्सा व्यवसाय जगत में इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना जोड़ने जा रहा था। (इस पर मैं अलग से लिखूँगा।) इसी प्रसंग पर समूचा सुभेदार कुटुम्ब जुटा हुआ था। कार्यक्रम संचालन का सुख-सौभाग्य मुझे मिला था। इसी सिलसिले मैं वहाँ पहुँचा था। 

काम की बातें हो चुकी थीं। हम लोग बेबात बतिया रहे थे। जीजाजी चुपचाप उठे। अन्दर गए। एक छोटी सी पुस्तिका लिए लौटे। मैं बेध्यान हो, गप्पों में व्यस्त था। जीजाजी सीधे मेरे सामने आए और पुस्तिका मुझे थमाते हुए बोले - ‘इसे देखिएगा विष्णुजी! शायद आपको अच्छी लगे।’ मैंने देखा, कविता संकलन था। कवि का नाम था - विनायक पोतनीस। मेरे लिए यह उल्कापात से कम नहीं था। मैंने जड़ अवस्था में ही पन्ने पलटे। तीस पृष्ठों की, बहुरंगी मुखपृष्ठवाली  इस पुस्तिका में छब्बीस कविताएँ थीं। मैं अवाक् हो गया।

जीजाजी अच्छे-भले सिविल इंजीनीयर हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यान्त्रिकी (पी एच ई) विभाग की नौकरी में जिन्दगी खपा दी। बेदाग और निर्विवाद रहते हुए विभाग के सर्वोच्च पद, प्रमुख यन्त्री (इंजीनीयर-इन-चीफ) से सेवानिवृत्त हुए। जब भी मिले, प्रायः चुप ही मिले। लोग अपनी अफसरी के किस्से शेखियाँ बघार-बघार कर सुनाते हैं। लेकिन जीजाजी तो कभी खुद के बारे में भी बताते नहीं मिले! ऐसे ‘चुप्पा’ जीजाजी कवि भी हैं! मुझे अचानक ही निदा फाजली याद आ गए -

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।

मैंने तो जीजाजी को कई बार देखा लेकिन वे ‘ऐसे’ तो कभी नजर नहीं आए! मेरी नजर का ही दोष है यह। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। घरघराई आवाज में पूछा - ‘आप कविताएँ भी लिखते हैं?’ जवाब लगभग निस्पृह स्वरों में मिला - ‘हाँ। यह चौथी किताब है।’ मैं रोमांचित हो, असहज हो गया था। मुझे सम्पट नहीं बँध रही थी। थरथराते हाथों से मेंने किताब के पन्ने पलटे। दो-एक कविताएँ पढ़ीं। मुझे कविता की समझ नहीं है। लेकिन कविताएँ मुझे अच्छी लगीं। उनके सामने पढ़ी कविताओं पर दो-चार बातें कीं और लौट आया।

घर आकर कविताएँ पढ़ीं। कई बातें मन में आने लगीं।

जीजाजी ने छत्तीस बरस की नौकरी में दस बरस छत्तीसगढ़ में गुजारे। 1996 में सेवा निवृत्ति के बाद भी छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना रहा। अभी जीवन के बयासीवें बरस में चल रहे हैं। भोपाल में बस गए हैं। लेकिन बस्तर आज भी उनके मन में बसा हुआ, साथ बना हुआ है। अब भी ‘हाण्ट’ करता है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुझे दी पुस्तिका के शीर्षक में बस्तर प्रमुख है। यह पुस्तिका दो बरस पहले ही छपी है। सारी कविताएँ तो बस्तर पर नहीं हैं लेकिन बस्तर प्रमुखता लिए हुए है। 

मैं कहूँ, उससे बेहतर है कि दो-एक कविताएँ खुद ही कहें-





हरा सलाम

कोई चालीस साल गुजरे
बस्तर से मेरा तबादला हुए
मेरे रहगुजर थे वो
हरी आस्तीनें हिलाकर सलाम जताते
हरी छत्री धरे साल की
मधुमक्खी के छत्ते जैसे जंगल में बसे
जगरमुण्डा से देर रात में बेखौफ लौटता
बस्तर अभय वरदान था।
हरा सलाम अचानक लाल हो गया
सुरंगों, दुनालियों से निकले लाल फव्वारे
हरा केवल पेड़ पत्तों में बहता रहे
लाल केवल शरीर की शिराओं में
बाहर नहीं।
+ +

स्वप्नदेश

सारी सृष्टि नवजात बालक सी
निर्बोध, निर्विकार, उल्लासमय
युवा तितलियों का स्वानन्द विचरण
मन्द, मादक महुए का वातावरण
तब बस्तर स्वप्नदेश था।
+ +

जगरगुंडा में एक शाम

कंधे तक ऊँची घास के रास्ते
कटेकल्यान पठार से सीधे उतरे
एक शाम जगरगुंडा में
बितायी एक रात
अठपहरिया की थानागुड़ी में
बस गई यह रात मेरे अवचेतन में।
+ +

मरमेड (मत्स्यपरी)

सोचा भी नहीं कभी मरमेड दिखेगी
अचानक बिजली सी कौंध गई
मछलीनुमा नुकीले पाँव, हीरे टपकाते केश
सुनामी जैसी आयी और
बरबाद कर गई।

पुस्तिका मिले साठ घण्टे से अधिक हो गए हैं लेकिन कविताएँ मेरे साथ ही बनी हुई हैं। जब मेरी यह दशा है तो जीजाजी ने इन कविताओं को तो जीया है! खुद को व्यक्त करने तक जीजाजी की क्या दशा रही होगी? सम्भवतः इसीलिए ‘कवि’ आजीवन आकुल, व्याकुल, व्यग्र बना रहता है। उसकी यह दशा ही समय और समाज को संजीवनी दे पाती है।

इस कविता पुस्तक ने एक और जीजाजी से ही मुलाकात नहीं करवाई, यह भी बताया कि हमारी नीलम ताई का पूरा और वास्तविक नाम नीलप्रभा है और वे सुन्दर रेखांकन भी करती हैं। पुस्तिका के मुखपृष्ठ का रेखांकन उन्हीं का है।

शासक और रचनाकार में यही अन्तर है। दोनों अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं। लेकिन शासक की दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं होती जबकि रचनाकार की दुनिया में सदैव भरपूर स्पेस उपलब्ध रहती है। इतनी कि पूरा ब्रह्माण्ड समा जाए तो भी जगह बची रहती है। जीजाजी की दुनिया में भी भरपूर जगह है।

इस सम्भावना के साथ कि आपको कविताएँ अच्छी लगी हों और उनसे बात करना चाहें, उनका अता-पता, सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ -

श्री विनायक पोतनीस
ए-124, मानसरोवर कॉलोनी,
शाहपुरा,
भोपाल-462039
मोबाइल नम्बर - 94244 07829
ई-मेल:vinayakpotnis124@gmail.com 

बोहरा सा’ब नहीं मिलते तो.....

मैं सचमुच में बड़भागी हूँ जो मुझे बोहरा सा’ब मिल गए। वे
क्या मिले, मुझे जीवन-पाथेय मिल गया। वे नहीं मिलते तो पता नहीं कि मैं ‘हाथ का साफ’ रह पाता या नहीं। बोहरा सा’ब जैसे लोग आत्मा को निर्मल कर देते हैं। 

मैं 1991 में बीमा एजेण्ट बना। उन दिनों विपन्नता के चरम को जी रहा था। एक बार फिर भिक्षावृत्ति के कगार पर आ खड़ा हुआ था। मेरी जीवन संगिनी वीणाजी तो अवलम्ब थीं ही, सहायता करने को उतावले, उदार हृदय मित्र ही मुझे सम्हाल रहे थे मुझे। एजेण्ट बने तीन-चार बरस हो रहे थे। सरकते-सरकते गति पकड़ रहे धन्धे से आत्म विश्वास और हौसला बढ़ता जा रहा था। हम एजेण्ट लोग ग्राहकों से पुराने बीमों की किश्तों की रकम लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन पुराने बीमों की किश्तें जमा कराना ही आज भी ‘मुख्य ग्राहक सेवा’ बना हुआ है। इसी कारण, मेरी जेब में हजार-पाँच सौ रुपये बराबर बने रहने लगे थे। दो छोटे-छोटे बच्चों की जरूरतों की भीड़वाली गृहस्थी। जेब में नोट। लेकिन नोट अपने नहीं। परायी अमानत। खुद को संयत और बच्चों को समझदार बनाने का निरन्तर संघर्ष। जेब में पैसे हैं लेकिन बच्चों की इच्छाएँ पूरी न कर पाने से उपजती झुंझलाहट रुला-रुला देती। मन कमजोर हो, बहक जाने को उतावला होता था लेकिन शायद माँ-पिताजी और दादा के दिए संस्कार थाम लेते थे। कुछ ऐसी ही डूबती-उतराती मनोदशावाले दिनों मे बोहरा सा’ब मिले।

पूरा नाम सज्जाद हुसैन बोहरा। सहायक शाखा प्रबन्धक के पद पर जावरा से स्थानान्तरित हो गृह नगर रतलाम स्थानान्तरित हुए थे। हम एजेण्टों को नए बीमे लाने के लिए प्रेरित करना और हमारी मदद करना उनका काम था। इसलिए बोहरा सा’ब के पास रोज दो-चार बार जाना, बैठना होता ही था। इसी तरह मिलते-मिलाते मालूम ही नहीं हुआ कि कब उनसे मानसिक नैकट्य स्थापित हो गया। हम दोनों अपना काम निपटाते हुए बेकाम की बातें करने लगते। आज, बरसों बाद मालूम हो रहा है कि वे बेकाम की बातें कितने काम आ रही हैं!

इसी तरह बेकाम की बातें करते-करते बोहरा सा’ब ने न जाने कितनी किश्तों में ‘अच्छा बीमा एजेण्ट’ बनने के कुछ गुर दिए। एलआईसी के सारे अफसर हमें ‘सफल एजेण्ट’ बनाने में लगे रहते हैं। लेकिन ‘धर्मनिष्ठ’ बोहरा सा’ब हमें ‘अच्छा एजेण्ट’ देखना चाहते थे। उनका मानना रहा कि एजेण्ट कितना ही बड़ा और कितना ही कामयाब क्यों न हो, वह यदि ‘अच्छा एजेण्ट’ नहीं है तो उसकी कामयाबी और उसका बड़ा होना ‘नीरस, निरर्थक आँकड़ा’ से अधिक कुछ नहीं है। यदि आप ‘अच्छा मनुष्य’ नहीं हैं तो फिर आपकी कामयाबी और बड़ापन, आपकी अचकन में लगा वह कागजी फूल है जो आपको दर्शनीय तो जरूर बनाता है लेकिन उसमें खुशबू नहीं होती। इसलिए वह आपको सार्थकता प्रदान नहीं करता, आपको उपयोगी नहीं बना पाता।

बोहरा सा’ब से बरसों हुई बातों में, खण्ड-खण्ड रूप में मिले ये सूत्र पहली नजर में जरूर बीमा एजेण्ट के धन्धे से जुड़े लगते हैं लेकिन तनिक ध्यान से विचार करें तो वे समूचे जीवन को उदात्तता और प्रांजलता प्रदान करते हैं। अपने पेशे की नैतिकता (प्रोफेशनल ईथिक्स) का ईमानदारी से पालन करना ही इन सारे सूत्रों का आधार और केन्द्र रहा।

पहला सूत्र - ‘आप जिस भी आदमी/औरत का बीमा करें, उसके शारीरिक नाप (ऊँचाई, पेट, सीना/छाती) खुद लें। यदि महिला का बीमा कर रहे हैं तो या तो किसी अन्य महिला की मदद लें और अपने सामने यह प्रक्रिया पूरी करें।’

मेरी एजेंसी का यह अट्ठाईसवाँ बरस चल रहा है। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह काम करने में हमारे एजेण्ट मित्रों को पता नहीं क्यों शरम आती है। बोहरा सा’ब की इस सलाह पर मैंने यथासम्भव पूरा अमल किया। आज भी मेरी जेब में इंची टेप बना रहता है। नाप लेने के लिए मैं जब जेब से इंची टेप निकालता हूँ तो मौके पर मौजूद तमाम लोग ताज्जुब भी करते हैं और हँसते भी हैं। ऐसा करते समय मुझे हर बार (जी हाँ, हर बार) सुनना पड़ा - ‘पहलेवाले (एजेण्ट) ने तो ऐसा नहीं किया था।’ एक अुगल का इंची टेप हर बार मुझे सारे एजेण्टों से अलग बना देता है। ये नाप खुद लेने से ही हमें ग्राहक की शारीरिक दशा की वास्तविक जानकारी हो पाती है। 

दूसरा सूत्र - ‘बैरागीजी! आप बीमा करो तो यह याद रखते हुए करना कि आज बीमा किया और कल उसकी (ग्राहक की) मृत्यु हो जाए तो उसके नामित को दावे की रकम का भुगतान, पहली बार कागज पेश करने पर मिल जाए।’

यह बहुत ही बारीक और महत्वपूर्ण बात है। बीमा होने के तीन वर्ष की अवधि में बीमाधारक की मृत्यु होने की दशा में विस्तृत जाँच होती है। बीमा प्रस्ताव में ग्राहक के स्वास्थ्य-ब्यौरे (जिन्हें, बीमा शब्दावली में ‘मटेरियल फेक्ट’ कहा जाता है) विस्तार से पूछे जाते हैं। यह जगजाहिर तथ्य है बीमा फार्म ग्राहक नहीं भरता है। एजेण्ट ही भरता है। जाँच में ये ब्यौरे यदि झूठे पाए जाएँ तो बीमा कम्पनी मृत्यु दावे की रकम चुकाने से इंकार कर देती है। बोहरा सा’ब इस बात पर हर बार जोर दिया करते थे - ‘एक-एक कर, मटेरियल फेक्ट की पूरी जानकारी लो। कुछ भी गलत मत लिखो।’

तीसरा सूत्र - ‘किश्त की रकम के लिए ग्राहक जो नोट आपको दे, वे ही नोट केश काउण्टर पर जाने चाहिए।’

पहली नजर में यह यह बात हास्यास्पद होने की सीमा तक महत्वहीन लगती है। लेकिन ऐसा है नहीं। कोई नोट कटा-फटा, रंग में सना हुआ, नकली निकल आए तो बदलने के लिए आप ग्राहक से आत्मविश्वास और अधिकारपूर्वक कह सकेंगे। यदि आपने उसके दिए नोट किसी को छुट्टा देने के लिए या अपने काम के लिए बदल लिए तो फिर सारी जिम्मेदारी आपकी होगी और आपको ही आर्थिक भार उठाना होगा।

चौथा सूत्र - ‘ग्राहक ने आपको रकम दी। अगले दिन छुट्टी नहीं है और रकम आपने जमा नहीं कराई तो यकीन मानिए, या तो आपने बहुत बड़ी आफत मोल ले ली है या फिर आपकी नियत में खोट आ गया है। आप इस रकम का उपयोग अन्यत्र करने जा रहे हैं।’

एजेण्ट को रकम देते ही ग्राहक मान लेता है कि उसे बीमा सुरक्षा मिल गई है। यदि उसका बीमा प्रस्ताव अविलम्ब प्रस्तुत/स्वीकृत नहीं हुआ और आपके अभाग्य से कोई अनहोनी हो गई तो उस स्थिति की कल्पना खुद ही कर लीजिए। रकम तो कुछ हजार की होती है जबकि बीमा लाखों का होता है।

सूत्र तो मुझे और भी मिले लेकिन ये चार सूत्र मेरे बीमा व्यवसाय के मजबूत पाये साबित हुए। मैंने इन पर अमल करने की पूरी-पूरी कोशिश की। यह बड़ा कारण रहा कि मैं अपने ग्राहकों का, उनके परिजनों और परिचितों/मित्रों का विश्वास हासिल करने में कामयाब हो पाया। आज जब मैं जीवन के चौथे काल में चल रहा हूँ तो मुझे इस बात का परम आत्म सन्तोष है कि मुझ पर गलत बिक्री (मिस सेलिंग) का, अमानत में खयानत का एक भी छींटा नहीं पड़ा और मटेरियल फेक्ट में विसंगति के आधार पर एक भी मृत्यु दावा अस्वीकार नहीं हुआ। इन सूत्रों ने मुझे भरपूर सार्वजनिक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई।

ये सारी बातें अचानक ही याद नहीं आईं। मेरी आदत है कि जिस भी मुहल्ले में जाता हूँ तो उस मुहल्ले में रहनेवाले अपने अन्नदाताओं (ग्राहकों), परिचितों से मिलने की कोशिश भी करता हूँ। बोहरा सा’ब लक्कड़पीठा मे रहते हैं। बुधवार, 06 दिसम्बर को सुरन्द्र भाई सुरेका से मिलने गया तो बोहरा सा’ब से भी मिलने चला गया। मुझे देखकर वे चकित हुए भी हुए और बहुत खुश भी हुए। मुझे अकस्मात अपने सामने खड़ा देख वे ‘अरे!’ कहकर मानो हक्के-बक्के हो गए। आधा मिनिट तक बोल ही नहीं पाए। उम्र नब्बे बरस के आसपास हो आई है। तबीयत ठीक-ठीक ही है। घर से बाहर निकलना बन्द सा हो गया है। मैं बहुत ज्यादा देर तो उनके पास नहीं बैठा। लेकिन जितनी देर बैठा रहा, लगा किसी विशाल, घने नीम के नीचे बैठा हूँ जो मुझे ठण्डक भी दे रहा है और निरोग भी कर रहा है। 

वे बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहे थे कि मैं उनसे मिलने पहुँचा। मैं चलने लगा तो बोले - ‘अब तो लोगों ने मिलना-जुलना बन्द ही कर दिया है। आप आए तो जी खुश हो गया। आते रहो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि मैं तो खुद ही अपनी खुशी के लिए उनसे मिलने पहुँचा था। मेरी तो तीर्थ यात्रा हो गई। ईश्वर उन्हें स्वस्थ बनाए रखे। 

ऐसे बोहरा सा’ब सबको मिलें।
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कॅरिअर और परिवार के सन्तुलन का विकट संघर्ष

जीवन अपनी गति से चलता रहता है लेकिन कुछ क्षण ठहरे हुए रह जाते हैं। एक नवम्बर की उस शाम के कुछ मिनिट अब तक ठहरे हुए हैं। आध्या का कुम्हलाया चेहरा आँखों के सामने बना हुआ है और रुचि की भीगी आवाज सुनाई दे रही है। रुचि और अर्पित के बारे में मैं यहाँ लिख चुका हूँ।

वह, मेरे दाँतों के ईलाज का अन्तिम सोपान था। एक तो अपने मित्र के बेटा-बहू और दूसरा, चार महीनों के निरन्तर सम्पर्क में चार-चार, पाँच-पाँच घण्टों की बैठकें। इसके चलतेे मैं अर्पित और रुचि से ‘तू-तड़ाक’ से बातें करने लगा। दोनों की सस्ंकारशील शालीनता यह कि दोनों ने मेरे इस व्यवहार पर असहजता नहीं जताई। व्यक्ति और डॉक्टर के रूप में दोनों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। इतनी कम उम्र में दोनों ने डॉक्टरी पेशे में और मरीज के साथ व्यवहार में जो परिपक्वता हासिल कर ली है वह मेरे लिए ‘आश्वस्तिदायक, सुखद, सन्तोषदायक आश्चर्य’ ही है। ये बच्चे निश्चय ही डॉक्टरी के व्यवसाय को प्रतिष्ठा दिलाएँगे। मैं बहुत अधीर और अत्यधिक पूछताछ करनेवाला मरीज हूँ। लेकिन दोनों ने जिस धीरज और विनम्रता से मुझ जैसे अटपटे मरीज की चिकित्सा की उससे मुझे एकाधिक बार खुद पर ही झेंप आई। दोनों के हाथ इतने सध गए हैं कि आँखें बन्द कर, बातें करते हुए ईलाज करते लगते हैं। 

जब मेरा ईलाज शुरु हुआ था तो मित्रों-परिजनों ने बहुत चिन्ता की थी। ईलाज के दौरान एक-एक करके सबने मुझसे कम से कम एक बार तो पूछा ही पूछा - ‘दर्द कितना हुआ? बेहोश तो नहीं हुए? हर बार साथ में कोई न कोई था या नहीं? (चार महीनों के ईलाज के दौरान हर बार मैं अकेला ही गया था।) रात को सो पाए या नहीं? भोजन बराबर कर पा रहे हैं?’ मेरा जवाब हर बार सवाल पूछनेवाले को निराश करता था। मुझे एक पल भी दर्द नहीं हुआ। दर्द के मारे एक रात भी कष्ट से नहीं गुजरी। भोजन नियमित रूप से, सामान्य रूप से करता रहा। दाँतों का ईलाज कराने का मेरा कोई पूर्वानुभव नहीं रहा। इसलिए, लोगों के सवाल सुन-सुन कर अनुमान लगाया कि मरीज को बहुत तकलीफ होती होगी। बार-बार ऐसे सवाल सुन-सुन कर मुझे हर बार इस बात की तसल्ली हुई कि मैं अच्छे, विशेषज्ञता प्राप्त कुशल डॉक्टरों के हाथों में हूँ।

रुचि की बेटी आध्या अभी लगभग डेड़ बरस की है। माँ की सबसे बड़ी, सबसे पहली चिन्ता अपनी सन्तान और बच्चे की सबसे बड़ी, सबसे पहली जरूरत होती है माँ। इसीके चलते डॉक्टरी पर ममता प्रभावी हो जाती है और रुचि की दिनचर्या तनिक गड़बड़ा जाती है। मुझे यह बात दूसरी बैठक में अच्छी तरह समझ में आ गई थी। रुचि के साथ आध्या भी क्लिनिक पर आती है। इसलिए उससे भी मेरी देखा-देखी की पहचान हो गई। 

एक नवम्बर से पहलेवाली सारी बैठकों में आध्या मुझे हर बार तरोताजा, हँसती-खेलती, खिलखिलाती मिलती थी। लेकिन उस शाम वह सुस्त, चुपचाप, मुरझाई-कुम्हलाई हुई थी। मेरे मन में शंकाएँ-कुशंकाएँ उग आईं। रहा नहीं गया। पूछा बैठा - ‘आध्या सुस्त क्यों है? तबीयत तो ठीक है?’ रुचि ने जवाब दिया - ‘एकदम फर्स्ट क्लास है अंकल। तबीयत बढ़िया है।’ सुनकर तसल्ली तो हुई किन्तु आध्या का चेहरा, उसका गुमसुमपन रुचि की बात की पुष्टि नहीं कर रहा था। लेकिन रुचि की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। (वह तो खुद ही डॉक्टर है!) तनिक हिचकिचाते हुए मैंने पूछा - ‘सब कुछ फर्स्ट क्लास है और तबीयत भी ठीक है तो यह बीमार जैसी सुस्त क्यों है?’ रुचि ने जवाब तो दिया लेकिन मुझसे आँखें चुराते हुए - “वो क्या है अंकल, इसकी ‘स्लीप सायकिल’ बदलनी है। चाइल्ड स्पेशलिस्ट ने कहा है।” मैं चौंका। याने आध्या की दिनचर्या बदली जा रही है। ऐसे कामों को मैं प्रकृति के काम में अनुचित हस्तक्षेप मानता हूँ। फिर, बच्चों के मामले में तो मैं तनिक अधिक दुराग्रही हूँ। मेरा बस चले तो पाँच बरस की उम्र तक बच्चे के कान में ‘स्कूल’ शब्द पड़ने ही नहीं दूँ। ढाई बरस की उम्र होते-होते बच्चों को स्कूल भेजने को मैं बच्चों पर ‘क्रूर, अमानवीय अत्याचार’ मानता हूँ। यह बच्चों से उनका बचपन छीनने के सिवाय कुछ भी नहीं है। बच्चों को जब नींद आए तब उन्हें सोने दिया जाए। जब वे जागें तब उन्हें खेलने दिया जाए। मैं दो बच्चों का बाप हूँ। अपनी शिशु अवस्था में मेरे दोनों बच्चे दिन में सोते थे और रात में जागते थे। आधी रात के बाद तक (कभी-कभी भोर तक) उनके साथ जागना पड़ता था। उन्हें कन्धे पर लेकर, थपकते हुए कमरे में घूमना पड़ता था। इसका असर हम पति-पत्नी की, अगले दिन की दिनचर्या पर होता था। दिन में भरपूर काम रहता था। सोने की तनिक भी गुंजाइश नहीं। बिना कुछ सोचे मुझे बात समझ आ गई। आध्या भी दिन में सोती होगी और रात में जागती, खेलती होगी। डॉक्टर माँ-बाप थक कर चूर रहते होंगे। चाहकर भी उसे वक्त नहीं दे पाते होंगे। ऐसे में यही एक निदान हो सकता था। 

रुचि की आवाज में खनक नहीं थी। स्वर भी मद्धिम था। चार महीनों की बैठकों के दौरान आध्या के बहाने बच्चों के प्रति माँ-बाप के व्यवहार को लेकर मेरी मानसिकता से वह भली भाँति परिचित हो चुकी थी। उसे लगा होगा, मैं कोई खिन्नताभरी असहमत टिप्पणी करूँगा। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। 

यह केवल अर्पित-रुचि की बात नहीं थी। आज की पीढ़ी के, प्रत्येक व्यवसायी दम्पति (प्रोफेशनल कपल) की कष्टदायी हकीकत है। कॅरिअर तथा परिवार की चिन्ता और देखभाल में सफलत सन्तुलन करना ‘डूब कर आग का दरिया पार करना’ जैसा दुसाध्य है। फिर, यह सब वे बच्चों की बेहतरी के लिए ही तो कर रहे हैं!


यह चित्र रुचि की क्लिनिक में ही लिया हुआ है। मेरी इच्छा थी कि रुचि, डॉक्टर का एप्रेन पहन कर ही चित्र में रहे। लेकिन रुचि ने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया - ‘नहीं अंकल! आध्या को इनफेक्शन का खतरा मैं नहीं उठाऊँगी।’

ये सारी बातें, कुछ ऐसे युगलों के चित्र एक पल में मेरे मन में उभर आए। मैं कुछ नहीं बोला। बोलता कैसे? बोल ही नहीं पाया। मैं तो चुप हो ही गया था, रुचि भी चुपचाप अपना काम करती रही। काम खत्म करने के बाद बोली - ‘एक महीने बाद आपको फिर आना है अंकल। चेक-अप के लिए।’ उसकी आवाज अब तक सामान्य नहीं हो पाई थी।

मैं कल, चार दिसम्बर को अर्पित-रुचि के पास जा रहा हूँ।  अभी से असहज हो गया हूँ। आध्या मुझे कैसी मिलेगी? हँसती-खिलखिलाती, चहचहाती या सुस्त, मुरझाई-कुम्हलाई? उसकी दशा से ही मैं अर्पित और रुचि की दशा का अनुमान कर पाऊँगा।

ईश्वर अर्पित-रुचि को और तमाम अर्पितों-रुचियों को सदैव सुखी, समृद्ध रखे और यशस्वी बनाए। ये बच्चे ही हमारा कल हैं। ये सेहमतन्द रहें ताकि हमारा आनेवाला समूचा समय सेहतमन्द रहे। कॅरिअर और परिवार में समुचित सन्तुलन बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचना इनका विकट संघर्ष है। लेकिन इनकी उत्कट जिजीविषा इन्हें सफल बनाएगी ही। 

कल शुभेच्छा सहित जाऊँगा - आध्या चहकती मिले। आध्या तो मिले ही, उससे पहले रुचि मिले - चहकती हुई, निष्णात् चिकित्सक और श्रेष्ठ माँ: रुचि।
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