वह रोहित की सगी माँ ही थी

शाम हुई नहीं थी। होने ही वाली। दिन भर का थका मैं, घर लौटा था। कपड़े बदल कर पाँव फैलाए ही थे कि दरवाजे पर रोहित प्रकट हुआ। बिना किसी भूमिका के, हाँफता-हाँफता बोला - ‘मेरी मम्मी की पालिसी चालू कर दो और वारिसों में मेरा नाम भी जोड़ दो।’ मुझे सम्पट नहीं पड़ी। समझ ही नहीं पाया कि वह चाहता क्या है। मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा। उत्तर में उसने प्रश्न किया - ‘आपने मेरी मम्मी का बीमा कर रखा है ना?’ मैंने कहा - ‘कर रखा है नहीं, कर रखा था।’ रोहित बोला -‘हाँ। वही तो!’ मैंने पूछा - ‘तो?’ तनिक झुंझला कर रोहित बोला -‘तो क्या? उसी की तो बात कर रहा हूँ! उसे ही चालू कर दो और वारिसों में मेरा नाम भी जोड़ दो।’

मैंने कहा - ‘बन्द पॉलिसी चालू करना मेरे हाथ में नहीं है। वैसे भी आज दफ्तर बन्द हो चुका है और पॉलिसी चालू करने के लिए तुम्हारी मम्मी का मेडिकल कराना पड़ेगा। बकाया सारी किश्तें जमा करानी पडेंगी। उसके बाद ही पॉलिसी चालू हो सकेगी। यह सब एक दिन में तो हो नहीं पाएगा। और हो भी गया तो अब यह कल ही होगा।‘ रोहित झुंझला गया। बोला - ‘मेडिकल तो उसका कई दिनों से हो रहा है और रही बकाया किश्तों की बात? सो बताओ, कितने रुपये जमा कराने पड़ेंगे? मैं अभी आपको दे देता हूँ। साथ लेकर आया हूँ।’

मैं चकरा गया। मैंने पूछा -‘मेडिकल रोज हो रहा है से क्या मतलब?’ रोहित का उत्तर था - ‘आपको पता नहीं? मम्मी को केंसर हो गया है। साल भर से जयपुर में इलाज चल रहा था। वहाँ डॉक्टरों ने जवाब दे दिया और कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता, घर ले जाओ। परसों ही हम सब जयपुर से लौटे हैं और मम्मी को जिला अस्पताल में भरती कर रखा है। वहाँ भी डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। घर ले जाने को कह दिया है। पापा और भैया मम्मी को घर ले जाने की तैयारी कर रहे हैं। मैं उन्हें बताए बिना आपके पास आया हूँ। आप फटाफट मम्मी की पॉलिसी चालू कर दो और वारिसों में मेरा नाम भी जोड़ दो। मम्मी मरने ही वाली है। आप देर मत करो।’

मनुष्य प्रकृति के अनुरूप जितने भी भाव और विचार हो सकते हैं, वे सब के सब अन्धड़ बन कर मेरे मन-मस्तिष्क में घुस बैठे। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि रोहित से कैसा व्यवहार करुँ? उसे प्रताड़ित करुँ? पुचकारुँ? सहानुभूति या दया भाव जताऊँ? उसका गला दबा कर उसकी हत्या कर दूँ? जूते मारता-मारता, मेरे घर से उसके घर तक ले जाऊँ और उसकी मरणासन्न माँ को सारी बात बताऊँ? अपना सर पीट लूँ? अपने बाल नोच लूँ? जोर-जोर से रोऊँ? याने कि एक बात मन में आकर मुझे सलाह दे, मैं किसी निष्कर्ष पर पहुँचूँ, उससे पहले ही दूसरी बात सामने आ खड़ी हो रही थी। मुझे सामने खड़े रोहित की नहीं, उसकी माँ की शकल नजर आ रही थी। उस माँ की शकल, जिसे मरता छोड़ कर रोहित दौड़ा-दौड़ा मेरे पास चला आया था-माँ के लिए जीवन माँगने नहीं, मर रही माँ को खनकदार रुपयों में बदलने में मेरी मदद माँगने के लिए।

शायद ईश्वर ही मेरी सहायता कर रहा था। मैंने अपने आप को, संयत स्वरों में कहते सुना - ‘रोहित! फौरन घर जा। तेरी माँ अन्तिम साँस ले, उससे पहले उससे दो बोल बोल ले, दो बोल सुन ले। उसकी आँखें तुझे तलाश रही होंगी। उसके प्राण तुझमें अटके होंगे। जा। सब काम छोड़ कर, उल्टे पाँवों अपनी माँ के पास जा।’

मेरी आशा और अपेक्षा के विपरीत रोहित मानो आपे से बाहर हो गया। चिल्लाते हुए, मुझे लगभग डाँटते हुए बोला - ‘मुझे मालूम है कि मेरी माँ मर रही है। मैं नहीं जाऊँगा तो भी वह बचेगी नहीं। आप मुझे उपदेश मत दो। मुझे मालूम है, मेरी मम्मी का, एक लाख का बीमा है। आप तो पॉलिसी फौरन चालू करो और वारिसों में मेरा नाम जोड़ो। कितने रुपये देने हैं और कहाँ दस्तखत करने हैं, यह बताओ।’

मैंने अपनी असमर्थता बताई तो इस बार रोहित हत्थे से उखड़ गया। अपनी पूरी शक्ति लगा कर बोला -‘दो साल की किश्तें भरी हैं। तीन साल से किश्तें नहीं भरी तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम मेरी माँ के एक लाख रुपये डकार जाओ। वह पैसा तो मेरा है। मैं लेकर रहूँगा। आप अपना काम करो। पॉलिसी चालू करो और वारिसों में मेरा नाम जोड़ो।’

यह सब मेरे लिए न केवल अप्रत्याशित था अपितु असहनीय भी था। मैं फूट पड़ा। अपने अब तक के जीवन में मैंने किसी को इतना प्रताड़ित नहीं किया, इतना भला-बुरा नहीं कहा, जितना उस शाम मैंने रोहित को किया/कहा।

रोहित को मुझसे ऐसे व्यवहार की अपेक्षा और अनुमान नहीं रहा होगा। वह घबरा गया और सचमुच में उल्टे पाँवों पीछे हटने लगा-मुझे कोसते हुए।

किन्तु मेरा दुर्भाग्य अभी शेष था। मुझे कोसने के साथ-साथ अब रोहित अपनी माँ को भी कोस रहा था। मालवा में विधवा स्त्री के लिए अपमानजनक सम्बोधन ‘राँड’ प्रयुक्त किया जाता है। अपनी माँ को कोसते-कोसते रोहित भूल गया कि उसके पिता जीवित है और उसकर माँ सुहागिन है। वह कह रहा था - ‘राँड से हजार बार कहा था कि किश्तें टेम पर भरती रह। पॉलिसी बन्द मत कर। राँड ने नहीं सुनी। वह तो मर गई और मरते-मरते एक लाख का सदमा और दे गई।’

रोहित चला गया। मुझे और अपनी माँ को कोसते हुए। मैं उसे अपनी मर रही माँ के लिए क्रन्दन करते, विलाप करते देखना चाह रहा था। चाह रहा था कि अपनी माँ की मृत्यु की कल्पना मात्र से वह मूर्छित हो जाए और उसे, उसके घर तक पहुँचाने का श्रम मुझे करना पड़े। किन्तु उसके चेहरे पर ऐसा कुछ भी नहीं था। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अपनी मरणासन्न माँ के प्रति कोई बेटा ऐसा भाव, ऐसा व्यवहार कर सकता है। उसके चेहरे और जबान पर अपनी माँ के लिए धिक्कार-भाव और श्राप थे।

अगले दिन, रोहित की माँ के अन्तिम संस्कार के दौरान मालूम हुआ कि रोहित जब मेरे घर आया था तब उसकी माँ मर चुकी थी। उसके पिता और बड़ा भाई, मृत देह को अस्पताल से घर ले जाने का उपक्रम कर रहे थे। उसी समय सबकी नजरें बचा कर रोहित मेरे घर आया था। पॉलिसी में, नामित व्यक्ति के स्थान पर उसके बड़े भाई का नाम था। अस्पताल से उसकी अकस्मात अनुपस्थिति को सबने ‘माँ की मृत्यु से आहत, व्याकुल-व्यथित पुत्र की अनुपस्थिति’ मान लिया था।

इस घटना को आठ वर्ष पूरे हो रहे हैं। रोहित अब भी यदा कदा मुझे मिल जाता है। हम दोनों में देखा-देखी से अधिक कुछ नहीं होता। बस! अन्तर इतना ही होता है कि उसकी नजरों में नफरत होती है और मेरी नजरों में भय और विस्मय।

आठ बरस बाद भी मुझे यह लिखने में अपना सम्पूर्ण आत्म बल जुटाना पड़ रहा है कि मरने वाली स्त्री सचमुच में रोहित की सगी माँ ही थी-उसे जन्म देने वाली।

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12 comments:

  1. बैरागी जी, यह जीवन का कठोर सत्य है। शायद पुत्र को माँ की तब तक ही जरूरत होती है जब तक वह पालक रहती है। लगता है मनुष्य मनुष्य ही नहीं रहा।

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  2. अब क्या कहूँ, सिर्फ इतना ही कि जीवन के इन्द्रधनुष का इक रंग ये भी है।

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  3. पैसा, जो खुद अकेले रहने को अभिशप्त तथा दूसरों को अकेला बनाने में माहिर ।

    >> इस घटना से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है भला? हाल ही में इंदौर में एक व्यक्ति ने अपने मां-बाप की हत्या इन्हीं पैसों के लिए कर दी थी.

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  4. अर्थ आधारित व्यवस्था में यही परंपरा है और जैसे-जैसे भौतिकवाद बढ़ेगा ऎसी घटनाएँ खुल कर सामने आएँगी । पैसा रिश्तों से बड़ा हो चुका है । अब रिश्तों की परिभाषा भी पैसा ही तय करने लगा है । कहते हैं - पैसा हो तो मुश्किल ,ना हो तो मुश्किल । मेरा बस चले तो मैं रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पैसे के चलन की व्यवस्था ही खत्म कर दूँ । खैर , वैसे इस वृतांत में एक सबक और भी छिपा है ,वो ये कि बीमा पॉलिसी चालू रखना सभी के हित में है ।

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  5. वो तो मर रही थी ना,इसलिये रोहित उसे छोड़ कर नोट मे बदलने की कोशिश कर रहा था।विष्णु भैया उन लोगो को क्या कहेंगे जो जीते जी सगे मां-बाप को छोड़ देते है। आश्रमो मे ऐसे बहुत से लोग मिल जायेंगे। आपने जो लिखा उसमे जरा भी खोट नही है,एक अच्छा इंसान अच्छा ही सोच सकता है।

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  6. ऐसा होता है। मेरे एक परिचित ने भी अपनी पत्नी का बीमा तब करवाना चाहा जब उन्हें यह पता चल गया कि पत्नी की दोनों किडनियां ख़राब हो चुकी हैं।

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  7. जीवन के कई सारे रंग दिखाता है आपका ब्लॉग ..... उर्जा और अपनेपन से भरा होता आपका पृष्ठ .... ऐसे अवसाद और कटुता भरे प्रसंगों से इस पृष्ठ के रंग मे भंग पड़ जाता है

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  8. aisi ghatnaayen yada kada padhne ko mil jati hain par kabhi unhen sach manne ko man nahin karta magar apki kalam se likhi hone ke karan padh kar bahut dukh hua ye smaj ko kya ho raha hai

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  9. पैसे की भूख इन्सान से जो न कराए......

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  10. गत दिनों मैं पिंडावल गया था तब परम श्रध्धेय मुनि श्री पुलित सागरजी को सुनने का मौका मिला था. उन्होने गणित का एक सादा सा प्रश्न पूछा था, परंतु शायद ही कोई गणितग्या इसे हल कर पाए और वह प्रश्न आपकी पोस्ट से संबंधित ही है :- . उन्होने पूछा था कि "एक मा चाहे कितनी भी ग़रीबी हौं अपने 4 बेटों का भरण-पोषण कर लेती है, परंतु वे 4 बेटें बड़े हो कर, चारों मिलकर भी एक मा का बौज क्यों नही उठा पाते है ? JOSHI H C ,RATLAM

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    1. Iska answer mere paas hai..iska answer mujhe zindgi ke tazarbo ne diya hai

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