श्रेष्ठी समाज के प्रतिष्ठित सागर बाबू अपने कस्बे के अग्रणी व्यापारी हैं। व्यवहार के साफ और बात के धनी। उन्होंने दन्त कथाओं को भी परास्त कर रखा है। वह कथा आपने सुनी/पढ़ी ही होगी जिसमें एक साहूकार, एक व्यक्ति की मूँछ का बाल, राजी-राजी गिरवी रख लेता है। मूँछों के स्वामी की स्थापित प्रतिष्ठा के चलते ही यह सम्भव हो सका था। किन्तु सागर बाबू इस लोक कथा से कोसों आगे हैं। उनकी अनुपस्थिति में भी कोई उनका नाम लेकर कुछ कह दे तो उस पर सन्देह करने का साहस पूरे कस्बे में कोई नहीं कर पाता। लोक प्रतिष्ठा ने सारे प्रतिमान/कीर्तिमान सागर बाबू के पर्याय बने हुए हैं। इन्हीं सागर बाबू की भागीदारी में जीतू ने व्यापार किया था।
जीतू ने अपनी आयु के बीस वर्ष पूरे किए ही थे कि वज्राघात हो गया। उसके पिता का आकस्मिक देहावसान हो गया। घर में कुल तीन सदस्य - जवान विधवा माँ, कोई सवा साल बड़ा भाई और खुद जीतू। घर का कोई खानदानी पेशा नहीं। जीतू की यारी-दोस्ती श्रेष्ठी परिवारों के लड़कों से थी। यह शायद सोहबत का ही असर रहा कि व्यापार-व्यवहार की कुशलताएँ, ब्राह्मण कुल में जन्मे जीतू की सहचरियाँ बन गईं। जीतू के पिता और सागर बाबू घनिष्ठ मित्र थे। (वैसे भी उस छोटे से कस्बे में ऐसा कोई नहीं जो सागर बाबू का घनिष्ठ मित्र न हो।) सो, माँ और बड़े भाई से सलाह कर, स्वीकृती प्राप्त कर जीतू ने परिवार की जमा पूंजी समेट कर सागर बाबू की भागीदारी में व्यापार शुरु कर दिया। भागीदारी को लिखित रुप देने का विचार क्षणांश को भी, किसी के भी मन में नहीं आया। सागर बाबू के प्रति लोक आस्था के चलते इसकी आवश्यकता भी किसी ने अनुभव नहीं की। जीतू ने सागर बाबू में अपने पिता को देखा और कस्बे में जिसने भी सुना, खुश ही हुआ कि चलो, जीतू को कोई लाइन मिल गई।
जीतू का अनवरत-अथक परिश्रम, सागर बाबू का नाम, सितारों का साथ और ईश्वर की अनुकम्पा का सकल परिणाम यह हुआ कि आशा और अपेक्षा से बहुत ही कम समय में मुनाफे का आँकड़ा, सात अंकों की भारी-भरकम संख्या में बदल गया। जीतू को तो मानो पर ही लग गए। कल्पनातीत और अपेक्षातीत सफलता ने उसके आत्म विश्वास को सहसगुना कर दिया। वह दीन-दुनिया को भूल कर व्यापार में ही डूब गया।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था। कुछ समय बाद परिवार ने तय किया कि अब भागीदारी से मुक्त होकर खुद का व्यापार शुरु किया जाए। सो, जब सालाना हिसाब किताब हुआ तो जीतू ने अपनी इच्छा और परिवार का निर्णय बता कर सागर बाबू से अपने हिस्से की रकम माँगी।
यही वह क्षण था जिसमें वह अघटित घटित हो गया जिस पर बाकी दुनिया तो ठीक, खुद सागर बाबू भी शायद ही विश्वास कर पाते। सागर बाबू ने रुपये देने से दो टूक इंकार ही नहीं किया, जीतू के साथ किसी भी भागीदारी से ही इंकार भी कर दिया।
जीतू के पाँवों के नीचे की धरती सरक गई। उसने तो सागर बाबू में अपने पिता को ही देखा था! वह मानो मूक-बधिर हो गया। समूचा ब्रह्माण्ड उसे रसातल में जाता दिखाई दे रहा था। अपना वर्तमान ही नहीं, समूचा भविष्य चौपट नजर आ रहा था। वह क्या करे? किससे कहे और क्या कहे? भले ही पूरा कस्बा जानता हो कि जीतू ने सागर बाबू की भागीदारी में व्यापार किया है किन्तु यदि सागर बाबू इससे इंकार करें तो सब उनकी ही बात मानेंगे।
सागर बाबू के यहाँ से जीतू अपने घर कैसे लौटा, जीतू को आज तक पता नहीं। किस्सा सुनकर माँ और भाई को विश्वास ही नहीं हुआ कि सागर बाबू ऐसा कर सकते हैं। तीनों ही अवसाग्रस्त थे। एक दूसरे की शकल देखे जा रहे थे, बोल कोई नहीं रहा था। जीतू बताता है - ‘वे क्षण हमारे जीवन के सबसे भारी क्षण थे। पिता के अकस्मान निधन से उपजी अनिश्चितता इस बार उससे सौ गुना अधिक विकराल बन कर सामने खड़ी हो गई थी।’
ऐसे विकट समय में तीनों ने अपने ब्राह्मण संस्कारों का सहारा लिया और तय किया कि यह बात किसी से नहीं कहेंगे और किसी से कोई शिकायत भी नहीं करेंगे। लेकिन तय करना जितना आसान रहा, उस पर अमल करना उससे करोड़ों गुना अधिक दुरुह था। किन्तु अन्ततः परिवार ने खुद को इस सदमे से उबार ही लिया।
जीतू बताता है कि उसके परिवार की चुप्पी समूचे कस्बे में बोलने लगी और ऐसी बोलने लगी कि सागर बाबू का बाहर निकलना कुछ दिनों के लिए तो बन्द ही हो गया। उनके सामने तो कोई कुछ नहीं कहता था किन्तु पीठ पीछे कोई भी चुप नहीं रहता था। बात जब निकलती है तो दूर तलक जाती ही है। फिर, सागर बाबू तो दूर भी नहीं थे। कस्बे में ही तो थे! सो उन तक क्यों नहीं पहुँचती? लेकिन अपने जीवन के सम्भवतः इस एकमात्र आपवादिक स्खलन को स्वीकार कर पाने का साहस वे खो चुके थे। सो, यदि कभी किसी ने कुछ पूछा भी तो या तो चुप ही रहे या फिर ऐसा कुछ कहा जिसका कोई अर्थ नहीं होता।
जीतू और उसके परिवार ने भले ही सन्तोष कर लिया था किन्तु बात मन से निकल नहीं रही थी। सो, एक दिन जीतू अपनी जन्म कुण्डली लेकर अपने कस्बे से कोई पैंतीस किलोमीटर दूर, जिला मुख्यालय वाले कस्बे में जाकर अपने पिता के परम मित्र ज्ञान सिंहजी से मिला।
ज्ञान सिंहजी जन्मना क्षत्रिय हैं और क्षत्रिय गर्व से अभिभूत भी। किन्तु सादगी, विनम्रता, दृढ़ता के मानवाकार और विप्र आचरण के अनुपम उदाहरण। वे जिला शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं और ज्योतिष में यथेष्ठ हस्तक्षेप रखते हैं। जीतू का समूचा परिवार उन्हें अपने कुटुम्ब का वरिष्ठ और परम् हितैषी मानता है। वे भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं।
जीतू ने अपनी जन्म कुण्डली ज्ञान सिंहजी को दी, पूरा किस्सा सुनाया और आगत की आहट सुननी चाही। ज्ञान सिंहजी ने ध्यान से पत्रिका देखी, देर तक देखी और एक तरफ रख दी। जीतू की प्रश्नाकुल दृष्टि ज्ञान सिंहजी की आँखें में गड़ी हुई थी। अपनी रकम डूबने से अधिक वेदना उसे इस बात की थी कि सागर बाबू जैसा आदमी उसके साथ धोखा कैसे कर सकता है? ज्ञान सिंहजी ने भेदती नजरों से जीतू को देखा। अपनी आँखें बन्द कीं, मानो ध्यान में जा रहे हों। लम्बी साँस ली और अध्र्द निर्लिप्त नेत्र मुद्रा में रहते हुए उस दिन, उस समय उन्होंने जीतू से जो कुछ कहा, वह इस क्षण तक जीतू के जीवन की सर्वाधिक मूल्यवान जीवनी-शक्ति बना हुआ है।
जैसा कि मुझे जीतू ने बताया, ज्ञान सिंहजी ने कहा कि सागर बाबू ने तो कुछ भी गलत नहीं किया। उन्होंने तो वही किया जो उनकी प्रकृति था। यह तो जीतू की ही गलती रही जो उसने सागर बाबू को भला, ईमानदार, विश्वसनीय और पितृतुल्य माना। उन्होंने तो जीतू से नहीं कहा था कि वह यह सब माने? यह जीतू की अपनी प्रकृति रही कि उसने सागर बाबू को वैसा माना और तदनुसार ही उनके साथ व्यवहार किया। ज्ञान सिंहजी ने कहा - ‘लोग तुम्हारी अपेक्षा और धारणा के अनुरुप खुद को कभी नहीं बदलेंगे। तुम्हार नियन्त्रण केवल तुम तक ही सीमित है। यह तो तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम उन्हें भली प्रकार देखो और फिर उनके बारे में धारणा बना कर तदनुसार उनसे व्यवहार करो। जो भी करना है, तुम्हें ही करना है। सामने वाले को बदलने की तुम्हारी कोई भी कोशिश अन्ततः तुम्हारे लिए ही त्रासदायी होगी।’
जीतू ने कहा - ‘विष्णु भैया! वह दिन और आज का दिन। अब मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं होती। मेरे साथ यदि कुछ अवांछित होता है तो उसके लिए मैं खुद को ही जिम्मेदार मानता हूँ, किसी दूसरे को नहीं। अब जब भी कभी मैं किसी से धोखा खाता हूँ तो अपनी ही गलती मानता हूँ कि मैंने ही सामने वाले का आकलन करने में चूक की थी और उसी का दण्ड मुझे मिला।’
सागर बाबू बाबू आज भी अपने कस्बे में अपना काम कर रहे हैं। कहना न होगा कि इस अपवाद ने उनकी लोक आस्था को स्थायी रूप से खण्डित किया। ज्ञानसिंहजी इस समय 83 वर्ष की अवस्था में पूर्णतः स्वस्थ, सक्रिय हैं। अपना सारा काम खुद करते हैं। फिटनेस के मामले में वे अपनी उम्र के तमाम लोगों से मीलों आगे हैं। जीतू इस समय शारजाह में एक भारतीय अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी में वाइस प्रेसीडेण्ट के पद पर कार्यरत है। बड़ा भाई भारत सरकार के एक सर्वाधिक विश्वसनीय उपक्रम में, मुम्बई में पदस्थ उच्चाधिकारी है। दोनों के पास कोई कमी नहीं है। किन्तु माँ को अब भी चैन नहीं मिल पा रहा है। दोनों भाई चाहते हैं कि ‘माँ मेरे ही पास रहे।’ सो, माँ मुम्बई और शारजाह के बीच ‘शटल’ बनी हुई है।
इतना सब लिख देने के बाद भी इस आलेख का शीर्षक मेरे लिए प्रश्न ही बना हुआ है। यह किसकी कथा है? सागर बाबू की? जीतू की? या गीता का तत्व ज्ञान देने वाले ज्ञान सिंहजी की?
सदैव की तरह इस बार भी मैं आप पर ही निर्भर हूँ।
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सम्पर्क : ज्ञान सिंहजी - ०७४१२ २४१७२७
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यह तो बोध कथा बन गई है।
ReplyDeleteachhi lagi kahani.
ReplyDeleteये कहानी ज्ञानसिंह जी के श्रीमुख से निकले उन बहुमूल्य शब्दों की है जिनमें सामाजिक आचार-व्यवहार क सार छुपा है,लेकिन एक बात समझ से परे है कि हम सब को सशंकित निगाहों से देखेंगे ,तो लोगों का एक दूसरे से भरोसा उठ जाएगा । ऎसे में समाज का मूल आधार ही खंड-खंड हो जाएगा ।
ReplyDeleteमेरे विचार से यह मानव स्वभाव की कथा है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
प्रिय भाई !
ReplyDeleteमैं ऐसा अनुमान कर रहा हूँ की संभवतः यह घटना भाई श्री नितिन वैद्यजी के परिवार से संबंधित है.
श्रिनितिन वैद्य इंदौर पद-स्थापना के दौरान हमारे कांप्लेक्ष मे ही निवास करते थे और मृदु-मालवी भाषी (ओटलेवाले)होने
के कारण मन और विचारों से काफी नज़दीक रहे. (आज भी उनसे पारिवारिक संबंध हैं इस बात का फख्र महसूस करते
हैं. ) जब-जब भी बेटे को मिलने मुंबई जाना होता रहा , नितिन भाई के परिजनों की आत्मीयता हमे मलाड खीँच
ले जाती.दूरभाष पर भी सभी सदस्यों से सतत चर्चा होती रहती है .पर विश्वास करें विगत 9-10 वर्षों के निरंतर
संपर्क के दौरान एक भी अवसर पर किसी भी सदस्य ने इतने बड़े आघात का कोई जिकरा नहीं किया .इन्दौर निवास
के दौरान उनकी माताजी प्रातह्भ्रमन मे मेरी पत्नी के साथ रेसीडेंसी-गार्डन जाया करती थीं उन्होंने इतना भर इंगित
किया था कि वे अपने कस्बे मे किसी व्यक्ति के कपट /धोखे के शिकार हो चुकें हैं . आज आपकी पोस्ट से संपूर्ण
घटनाक्रम को विस्तार से जान पाया .ग़ज़ब की सहनशीलता , धैर्य और जीवटता है इनमें .यही कह सकता हूँ
संस्कारों की पूंजी से बढ़कर कुच्छ भी नहीं . उपरवाला आपके बॅंक खाते की पससबुक नहीं ,कर्मों का लेखा
जांचता है .
v
घुघूती जी से सहमत - ये तो मानव स्वभाव की कथा है।
ReplyDeleteबहुत बोध मिला इस पोस्ट से। पढ़ना सार्थक हो गया। बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteधोखा खाने के बाद ज्ञान से मिलने पर ही योग पूर्ण हुआ। दोनों कडि़यां जरूरी थी।
ReplyDeleteअंत भला तो सब भला।
A true happening,comes in everybody's life,but very fewer comes out of that.mostly try to revenge till end of life and becomes zero at the end,but how follow the lines given by gyaniji becomes Hero.
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