लोकतन्त्र के मदारी

चुनाव के दिनों में ‘असामान्य ही सामान्य’ हो जाता है शायद। कहने वाले और सुनने वाले, दोनों ही इसके शिकार हो जाते हैं। शाश्वत सत्य की तरह स्थापित और जग जाहिर बातें भी इस तरह कही जाती हैं मानो कोई अजूबा प्रस्तुत किया जा रहा हो।


शुरुआत आडवाणी ने की और ‘क्रिया की समान तथा विपरीत प्रतिक्रिया‘ वाले, न्यूटन के नियम को चरितार्थ करते हुए अनुगमन किया सोनिया गाँधी ने।

आडवाणी ने कहा कि मनमोहन सिंह अपनी अकल से कोई निर्णय नहीं लेते। वे दस जनपथ के कहे अनुसार ही काम करते हैं। जवाब में सोनिया गाँधी ने आडवाणी को आरएसएस का गुलाम कहा।

इन दोनों ने कौन सी नई और अनूठी बात कही? केन्द्र में सरकार ‘संप्रग’ की है जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है। सोनिया गाँधी, कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष तो हैं ही, वे ‘संप्रग’ की अध्यक्ष भी हैं। ऐसे में मनमोहन सिंह यदि सोनिया गाँधी की बात नहीं मानेंगे तो क्या मोहन भागवत की बात मानेंगे?

यही बात आडवाणी पर भी लागू होती है। हर कोई जानता है कि भाजपा की अपनी कोई औकात नहीं है। वह घोषित रूप से संघ का वह आनुषांगिक संगठन है जिसके माध्यम से संघ अपनी राजनीतिक इच्छाएँ पूरी कर रहा है। भाजपा में कोई भी तब तक ही प्रभावी हैसियत में रह सकता है जब तक कि संघ उसे टेड़ी नजरों से न देखे। भाजपा में सुखपूर्वक, निश्चिन्त राजनीतिक जीवन जीने के लिए संघ का अभय दान अनिवार्य और अपरिहार्य है। मुसलमानों को प्रभावित करने के लिए आडवाणी ने जिन्ना की मजार पर जाकर जिन्ना को ‘सेक्यूलर’ कहने पर जो प्रताड़ना और बहिष्कार झेली था वह सबने देखा है। भाजपा में तो मूत्र त्याग जैसी प्राकृतिक गतिविधियाँ सम्पन्न करने के लिए भी संघ की अनुमति आवश्यक होती है। ऐसे में यदि आडवाणी, संघ के गुलाम की तरह व्यवहार करें तो इसमें न तो किसी को अचरज होना चाहिए और न ही आपत्ति। वे संघ की गुलामी नहीं करेंगे तो क्या सोनिया गाँधी की गुलामी करेंगे?

मनमोहन सिंह और आडवाणी अपना-अपना काम न केवल पूरी निष्ठा से कर रहे हैं अपितु ऐसा करना दोनों की नियती भी है।

फिर भी, आडवाणी और सोनिया गाँधी इन बातों को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे सड़क किनारे मजमा लगाए कोई मदारी ‘चुर घुसडूँ’ कहते हुए, बन्द मुट्ठी पर जादू का डण्डा घुमाते हुए कबूतर निकाल रहा हो।

लोगों को भी मजा आ रहा है। वे तो तमाशबीन हैं। सो, उन्हें भी तमाशा ही चाहिए।

लोकतन्त्र का तमाशा जारी है।

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16 comments:

  1. भ्रष्टाचार और बँटवारे की नींव पर बनाया गया भारतीय लोकतंत्र वाकई में मदारी के खेल से भी बदतर हो चुका है। अब यह तालाब बहुत गंदा हो चुका है, इसे मिट्टी से भरकर नया तालाब स्थापित करना होगा।

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  2. सही बात है, अब लोकतंत्र सर्कस कहाँ रह गया है...छुटभयिए मदारियों का तमाशा भर हो गया है ये.

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  3. आप उलझे रहें. हमें तो अगली पोस्ट की chinta है.

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  4. कम से कम दोनों सच तो बोल रहे हैं।

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  5. "भाजपा में तो मूत्र त्याग जैसी प्राकृतिक गतिविधियाँ सम्पन्न करने के लिए भी संघ की अनुमति आवश्यक होती है"

    आपको कैसे मालूम?
    क्या आप किसी मूत्रालय में काम करते हैं?

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  6. बहुत सामयिक ,सहज़ व स्वाभाविक । बधाई , मेरे ब्लोग -the world of my thoughts( shyam smriti--) par swaagat hai.

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  7. लोकतन्त्र का तमाशा जारी है।

    ...to be continued ~~~ :) (and will last forever)

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  8. यह वाक युद्ध रोचक भले हो, पर बहुत काम का नहीं होता।
    असल में दुश्मनी में भी गुंजाइश बचनी चाहिये कि कभी दोस्त बनें तो शर्मिन्दा न हों।

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  9. अभी तक उलझे हुए हैं क्या? अगली पोस्ट कब आएगी

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  10. Sahi kaha aapne tamasha jari hai. Magar yahan 'Blogging' mein bhi 'benami' tamashe ka naya daur kaise jari ho gaya!

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  11. net par aap se milana nahi hao pa raha hai, aab to ghar hi aana padega

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  12. aise netaon ko vot kyon dete ho bhai...?????

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  13. अब जब जनता ने अपनी मुहर लगा दी तब किसने क्या आक्षेप लगाया, यह बात ही बेमानी हो गयी.

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  14. बहुत दिनों से आपका कोई लेख नहीं देखा, उम्मीद है कि आप जल्द ही कुछ लिखेंगे।

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  15. वैरागी जी, बहुत दिन हो गए आपका कोई नया लेख देखे हुए।

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  16. काफी समय से आपके ब्लॉग पर कोई हलचल नहीं हुई. शायद व्यस्त रहे हों. आशा करता हूँ कि सब कुछ ठीक-ठाक है,

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