फौलादी गाँधी के मोमी रक्षक

हम अपना यह भ्रम अविलम्ब दूर करलें कि ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के पूर्व कार्यकारी सम्पादक जोसफ लेलिवेल्ड की सद्यः प्रकाशित किताब ‘ग्रेट सोल: महात्मा गाँधी एण्ड हिज स्ट्रगल विद इण्डिया’ के कारण गाँधी एक बार फिर विवादास्पद और चर्चा में हैं। नहीं, ‘गाँधी’ न तो विवादास्पद हैं और न ही चर्चा में। किताब ही विवाद में है और चर्चा में भी। पूरे प्रकरण का लक्ष्य भी यही लगता है - किताब विवादास्पद और चर्चित हो।

इस किताब को प्रतिबन्धित करने का मूर्खतापूर्ण विचार भी अविलम्ब ही निरस्त कर दिया जाना चाहिए। महाराष्ट्र सरकार ने तो प्रतिबन्ध लगाने की मूर्खता कर भी दी है। यह मूर्खता भी फौरन ही वापस ले ली जानी चाहिए। जो लोग किताब को प्रतिबन्धित कर रहे हैं या प्रतिबन्धित करने की माँग या विचार कर रहे है, वे गाँधी और गाँधी के सम्मान की नहीं, अपने स्वार्थ की जुगत भिड़ा रहे हैं।


हम बड़े चतुर और स्वार्थी लोग हैं। इसीलिए, आत्म-बल, साहस और संकल्प के मामले में विपन्न भी। अपनी आत्म-विश्वासहीनता हम अपने महापुरुषों पर थोपते हैं। हम प्रतीकों के महिमामण्डन और उनके सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जाने में माहिर लोग हैं। इसीलिए अपने महापुरुषों का असम्मान हम खुद भले ही कर लेंगे किन्तु कोई दूसरा यह करे तो कभी सहन नहीं करेंगे।


गाँधी की सर्वकालिकता और चिरन्तन प्रांसगिकता ने उन्हें सबकी ‘विवश अनिवार्यता’ बना रखा है। उनकी भी, जिन्होंने गाँधी की हत्या की और उनकी भी, जो गाँधी और गाँधी की विरासत पर एकाधिकार बनाए रख कर, सत्ता पर अपना कब्जा कायम रखना चाहते हैं।


गाँधी न तो ‘परा मानव’ थे न ही ‘मानवेतर।’ देवता तो वे कभी थे ही नहीं। वे आप-हम जैसे एक ही सामान्य मनुष्य थे - तमाम कमियों और अच्छाइयों वाले सामान्य मनुष्य। लेकिन, कथनी और करनी में चरम एकरूपता उन्हें असाधारण बनाती है। इस दृष्टि से वे ‘असाधारण रूप से साधारण मनुष्य’ हुए। उन्होंने उपदेश नहीं दिए। जो उन्हें सच और जनानुकूल लगा, उस पर उन्होंने अमल किया। उन्होंने कभी भी अपनी बात को अन्तिम सच मानने का आग्रह नहीं किया। अपने अन्तर्विरोधी मन्तव्यों पर उन्होंने साफ-साफ कहा कि ऐसे मामलों में उनकी बादवाली बात को माना जाए। अपने किसी कृत्य पर जब उन्हें शर्मिन्दगी हुई तो उसे उन्होंने स्वीकार किया और असाधरणता यह बरती कि उसकी आवृत्ति नहीं होने दी। गाँधी की गलतियों की सर्वाधिक जानकारी हमें गाँधी से ही मिलती है जबकि हम अपनी गलतियाँ छुपाने में जी-जान लगा देते हैं। गाँधी की यह पारदर्शिता ही उन्हें सबसे अलग (‘इकलौता’ होने की सीमा तक अलग) बनाती है।


हम अपने आत्म-बल पर भले ही अविश्वास करें किन्तु अपने महापुरुषों के आत्म-बल पर सन्देह न करें। हम उन्हें ‘देवता’ नहीं बनाएँ, मनुष्य ही बने रहने दें और यदि उनमें कोई कमियाँ हैं तो उन्हें सहजता से स्वीकार करें। जो समाज अपने महापुरुषों के व्यक्तित्व विश्लेषण से आँखें चुराता है वह किसी और पर नहीं, अपने उन्हीं महापुरुषों पर अत्याचार और उनके प्रति अपराध करता है।


गाँधी के सम्मान के प्रति हमारी यह चिन्ता वस्तुतः हमारा श्रेष्ठ पाखण्ड है। हम ‘गाँधी को’ मानने के लिए मरने-मारने पर उतारू हैं किन्तु ‘गाँधी की’ सुनने के लिए हमें पल भर का अवकाश नहीं है। गाँधी की दुहाई देना हमारे लिए लाभ दायक है और गाँधी के रास्ते पर चलना घाटे का सौदा। गाँधी ने भीड़ में खड़े अन्तिम आदमी की चिन्ता में निजत्व का विसर्जन कर दिया और हम निजत्व के लिए उसी अन्तिम आदमी के प्राण लेने में भी संकोच नहीं करते।


गाँधी को अपने बचाव और सुरक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि है भी तो जोसफ लेलिवेल्ड जैसों से नहीं, गाँधी की दुहाई देनेवाले हम भारतीयों से है।


फौलादी गॉंधी के हम, अपनी ही ऑंच से पिघल जानेवाले मोमी रक्षक हैं।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अन्धत्व निवारण: उनका और अपना

आज एक समाचार ने ध्यानाकर्षित किया। सात से तेरह अप्रेल वाले सप्ताह में, मध्य प्रदेश सरकार, ‘अन्धत्व निवारण’ अभियान चलाएगी। इसके अन्तर्गत, स्कूली बच्चों का नेत्र परीक्षण कर (नेत्र रोगों से पीड़ित) बच्चों का ‘नेत्र स्वास्थ्य’ सुरक्षित करना सुनिश्चित करने की कोशिश की जाएगी।

समाचार पढ़ते-पढ़ते ही विचार आया कि ऐसा अभियान तो स्थानीय निकाय से लेकर केन्द्र सरकार तक चलाया जाना चाहिए और केवल एक सप्ताह के लिए नहीं अपितु इसे तो निरन्तर चलाया जाना चाहिए क्योंकि इन निकायों/सरकारों में बैठे राजनीतिक दल और इनके नेता भी इस सीमा तक अन्धत्व-प्रभावित हैं कि इनकी चिकित्सा अविलम्ब शुरु की जानी चाहिए।

ये सबके सब, अपनी गलतियों, मूर्खताओं और भ्रष्टाचार के अपने अनुचित आचरण और दुष्कर्मों के प्रति ‘धृतराष्ट्र मुद्रा’ बनाए हुए हैं। ये सबके सब ‘सापेक्षिक अन्धे’ हैं। इन्हें अपने विरोधियों का भ्रष्टाचार तो नजर आता है किन्तु अपने ‘करिश्मे’ नजर नहीं आते।

ये इतने ‘चतुर-नेत्र’ हैं कि इन्हें विरोधियों का भ्रष्टाचार फौरन ही (और कभी-कभी तो, होने से पहले ही) नजर आ जाता है और अपना भ्रष्टाचार, बार-बार दिखाने पर भी दिखाई नहीं देता। ‘अन्धत्व-निवारण’ से इनका मतलब ‘स्वयम् के भ्रष्टाचार के प्रति अन्धे बने हुए विरोधियों का अन्धत्व निवारण’ होता है, ‘अपने भ्रष्टाचार के प्रति बरते जा रहे अपने अन्धत्व का निवारण’ नहीं। ये सबके सब जानते हैं कि खुद का अन्धत्व दूर करना अधिक आसान और सामनेवाले का अन्धत्व दूर करना ‘असम्भवप्रायः’ होता है। किन्तु सम्भवतः दो कारणों से इन्हें यह कठिन काम करने में अधिक आनन्द आता है। पहला - दूसरे के उपचार में लापरवाही बरती जा सकती है, खुद के उपचार में नहीं। दूसरा - अपने से पहले सामनेवाले की रोजी-रोटी की चिन्ता करते हैं। यदि खुद का अन्धत्व मिटा लिया तो सामनेवाला बेरोजगार हो जाएगा।

हम भारतीय अपने से पहले सामनेवाले की चिन्ता करते हैं। उसकी सेवा करने में

कोई कसर नहीं छोड़ते। परोपकारी जो हैं! इसीलिए, यह जानते हुए भी कि खुद का अन्धत्व निवारण करना अधिक आवश्यक और अधिक आसान है, हम दूसरों के अन्धत्व निवारण को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगे।

अपना क्या है? अपना अन्धत्व तो जिस क्षण चाहेंगे, उसी क्षण दूर कर लेंगे। हमें अन्धत्व की और उसे दूर करने के उपायों की जानकारी भली प्रकार है।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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अब लज्जित नहीं लौटूँगा

यह तो मैं भली प्रकार जानता हूँ कि हम सब दोहरा जीवन जीते हैं - घर में कुछ और, बाहर कुछ और। किन्तु इसमें पूरब-पश्चिम का या कि एक सौ अस्सी अंश का अन्तर हो सकता है, इसी उलझन में डाल दिया मुझे उत्सवजी ने।

सत्तर पार कर रहे उत्सवजी बीते कुछ वर्षों से अस्वस्थ चल रहे हैं। अपने स्वास्थ्य के प्रति वे अत्यधिक चिन्तित और सतर्क रहते हैं। चिकित्सक के परामर्श को ईश्वर के आदेश की तरह मानते और पालते हैं। औषधि सेवन तथा आहर-दिनचर्या की उनकी समयबद्धता और नियमितता अविश्वसनीय होने की सीमा तक विस्मयजनक है। आहार-निषेधों के पालन में चरम-अनुशासित हैं। प्रातःकालीन चाय से लेकर शयनपूर्व त्रिफला सेवन तक, सब कुछ सुनिश्चित समय पर। तय करना कठिन कि वे घड़ी के अनुसार चल रहे हैं या घड़ी उनका अनुसरण कर रही है? उत्सवजी की दिनचर्या से आप अपनी बन्द घड़ी चालू करने के लिए समय मिला सकते हैं।

उत्सवजी की दिनचर्या की नियमितता और औषधि सेवन तथा आहार निषेधों के मामले में उनके दोनों बेटे-बहुएँ चौबीसों घण्टे ‘सावधान मुद्रा’ में कुछ इस तरह रहते हैं मानो वे उत्सवजी की दिनचर्या का अक्षरशः पालन कराने के लिए ही जी रहे हैं। उत्सवजी को बिना रसे की सब्जी नहीं चलती, प्रातःकालीन नाश्ते के उनके व्यंजन सुनिश्चित और सुनिर्धारित हैं। मीठा उनके आसपास दिखाई भी नहीं देना चाहिए और उनकी रोटी पर घी का छींटा भी नहीं पड़ना चाहिए। किसी से मेल-मिलाप, अपना व्यवहार निभाने के लिए बेटों-बहुओं को बाहर जाना हो तो उत्सवजी की दिनचर्या की और आहार व्यवस्थाएँ सुनिश्चित करना पहली और एकमात्र अनिवार्य शर्त होती है।

उत्सवजी से मिलने के लिए जब-जब भी जाता हूँ, तब-तब, हर बार स्वयम् पर लज्जित होकर ही लौटता हूँ। मैं बहुत ही आलसी, अनियमित और अनिश्चित आदमी हूँ। इतना कि साफ-सफाई से नमस्कार कर लूँ तो औघड़ का दर्जा प्राप्त कर लूँ। महीने में दो-तीन दिन (किन्तु लगातार दो-तीन दिन नहीं) तो बिना स्नान किए रह लेता हूँ। यदि किसी पूरे सप्ताह नियमित दिनचर्या निभा लूँ तो मेरी उत्त्मार्द्ध चिन्तित हो जाती हैं - कहीं अस्वस्थ तो नहीं? मेरा तो कुछ भी निश्चित नहीं। कोई नियमित दिनचर्या न निभाना ही मेरी दिनचर्या है। सो, मैं सदैव ही उत्सवजी के सामने निश्शब्द और नत-मस्तक रहता हूँ।

इन्हीं उत्सवजी ने मझे उलझन में डाल दिया। एक प्रसंग में उत्सवजी के साथ घर से बाहर, पूरे दो दिन रहा तो क्षण भर को भी नहीं लगा कि ये वही उत्सवजी हैं। जिस प्रसंग में हम लोग गए थे, वहाँ दैनन्दिन व्यवस्थाएँ तो सब थीं किन्तु सब अनिश्चित। जहाँ सौ-दो सौ लोगों का जमावड़ा हो वहाँ ऐसा होता ही है। न चाय का कोई समय और न ही नाश्ते का। भोजन भी घोषित समय से भरपूर विलम्ब से। मुझे लग रहा था कि इन दो दिनों में उत्सवजी कहीं अस्वस्थ न हो जाएँ। लेकिन उत्सवजी ने मुझे ‘अकारण भयभीत और निरा मूर्ख व्यक्ति’ प्रमाणित कर दिया। उत्सवजी ने एक क्षण भी अनुभव नहीं होने दिया कि वे अस्वस्थ है और किसी आहार निषेध के अधीन चल रहे हैं। इन दो दिनों में उत्सवजी ने वह सब किया जिसके लिए उनके घर में, उनके सामने बात करना भी अपराध माना जाता है। औषधि सेवन की समयबद्धता को तो उन्होंनें खूँटी पर टाँगा ही, दोनों दिन, निर्धारित व्यंजनों से अलग व्यंजनों का नाश्ता किया, कम से कम दो बार बिना रसे की सब्जियों के साथ पूड़ियाँ खाईं, दोनों दिनों के नाश्त में और चारों समय के भोजन में मुक्त भाव से मिष्ठान्न केवल सेवन ही नहीं किया, जो मिठाई अच्छी लगी, उसे दूसरी-तीसरी बार भी ली। मुझे लगा था कि यह अनियमितता वे मुझसे छिपा कर बरतेंगे। किन्तु नहीं, उन्होंने सहज भाव से सब कुछ मेरे सामने, मेरे साथ ही किया और मिष्ठान्न के लिए तो मेरी मनुहारें भी कीं। मैं हर बार, अविश्वास और विस्मित दृष्टि से उन्हें देखता रहा किन्तु उन्हें मेरी इस दृष्टि से क्षण भर को भी असुविधा नहीं हुई। इसके विपरीत, मैं दोनों ही दिन असहज बना रहा।

तीसरे दिन घर वापसी यात्रा के दौरान मैंने उत्सवजी से बात की तो उनके उत्तर ने मुझे जड़ों से हिला दिया। उत्सवजी का कहना था कि घर से बाहर, अपनी सुविधाओं को ताक पर रखकर मेजबान की व्यवस्थाओं में सहयोग करना हमारा दायित्व भी है और शिष्टाचार-सौजन्य की माँग भी। जहाँ तक घर की बात है तो वहाँ तो चरम अनुशासन अपनाया ही जाना चाहिए फिर भले ही घरवालों को असुविधा क्यों न हो। आखिर, वृद्ध और अस्वस्थ सदस्य की चिन्ता करना उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है और अस्वस्थ सदस्य का अधिकार। उत्सवजी ने सहजता से प्रति प्रश्न किया - ‘भला अपने ही घर में मैं समझौते क्यों करूँ? बीमार नहीं हो जाऊँगा?’ मैंने पूछा - ‘घरवालों की सुविधा को ध्यान में रखकर कभी-कभार समझौता करने में, अनियमितता बरतने में हर्ज ही क्या है?’ उत्सवजी ने उसी सहजता से तत्क्षण उत्त्र दिया - ‘घर तो घर है। बाहर का कोई आयोजन थोड़े ही है? और यदि घर में ही समझौते करने लगा तो घर और बाहर में फर्क ही क्या रह जाएगा?’ मैंने पूछा - ‘कभी घरवालों को हमारे सहयोग की आवश्यकता हो तो सहयोग नहीं करना चाहिए?’ उत्सवजी ने सपाट स्वरों में कहा - ‘मेरी चिन्ता करने, मेरी देख-भाल करने के सिवाय उनके पास और काम ही क्या है? और यदि है तो उनकी वे जानें।’

घर आकर, उत्सवजी की अनुपस्थिति में मैंने उनके बेटों-बहुओं से जानने की कोशिश की तो सब फीकी हँसी हँस कर मौन साध गए। हाँ, उनके कुछ अन्तरंग मित्रों ने बताया कि अपने शहर से बाहर ही क्यों, उत्सवजी तो अपने कस्बे में ही, घर से बाहर के आयोजनों में भी इसी प्रकार सारे निषेधों को ताक पर रखकर, सहज भाव से आहार अनियमितता बरतते हैं और अपनी अतृप्त अच्छाएँ पूरी करते हैं।

मुझे अभी भी इस सब पर विश्वास नहीं हो रहा है। घरवालों को ‘थोड़ा बहुत’ परेशान तो हम सब करते हैं किन्तु उनकी चिन्ता करते हुए अपनी सुविधाओं को त्यागने में भी देर नहीं करते। किन्तु उत्सवजी तो आठवाँ आश्चर्य बने हुए हैं। ये सारी बातें सोचते हुए मुझे उत्सवजी पर क्रोध आया। जी किया कि उनकी खबर ले लूँ। किन्तु अगले ही पल अपनी मूर्खता पर झेंप आ गई। भला मेरी क्या औकात कि मैं उत्सवजी को बदल सकूँ? सो, वह विचार छोड़ कर मन नही मन उत्सवजी को धन्यवाद दिया। अब जब भी उनसे मिल कर लौटूँगा तो मुझे स्वयम् पर लज्जा नहीं आएगी।

उत्सवजी! लज्जा भाव से मुझे मुक्त करने के लिए धन्यवाद।
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मुझसे बुरा न कोय

अच्छे लोगों को सुनना-पढ़ना सदैव ही लाभदायक होता है। ‘लाभ’ शब्द सामने आते ही कड़क नोटों की छवि आँखों के सामने आ जाती है और चाँदी के कलदार सिक्कों की खनक कानों में गूँजने लगती है। किन्तु यह लाभ वैसा नहीं होता। कुछ सन्दर्भों में, उसे कोसों पीछे छोड़ देता है। भ्रान्तियाँ नष्ट कर देता है, आत्मा का बोझ हटा देता है, आत्मा निर्मल कर देता है और इस सबसे उपजा सुख अवर्णनीय आनन्द देता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे सुगन्ध के किसी व्यापारी के पास बैठना - जब लौटते हैं तो अनेक खुशबुएँ हमारे साथ चली आती हैं। ऐसे ही एक ‘सत्संग’ से मैं अभी-अभी कुछ ऐसा मालामाल हुआ हूँ कि मन के जाले झड़ गए, धुन्ध छँट गई और आत्म ग्लानि में डुबो देनेवाला अपराध बोध दूर हो गया।


मैं इस बात को लेकर क्षुब्ध, व्यथित (और कुपित भी) रहता आया हूँ कि अपने-अपने क्षेत्र में स्थापित, मेरे आसपास के कुछ सम्माननीय, प्रणम्य और ख्यात लोग अपने निजी आचरण में घटिया और टुच्चे क्यों हैं? वे क्यों दूसरों को हेय, उपेक्षनीय मानते हैं? क्यों दूसरों की अवमानना करने के अवसर खोजते रहते हैं? क्यों दूसरो की खिल्ली उड़ाते रहते हैं? यह सब मुझे उनकी गरिमा और कद के प्रतिकूल, अशोभनीय लगता है। ऐसी बातें इन्हें शोभा नहीं देतीं। इन्हीं और ऐसी ही बातों को लेकर मैं मन ही मन कुढ़ता रहता आया हूँ। इन आदरणीयों के ऐसे अनपेक्षित आचरण से मुझे बराबर ऐसा लगता रहा है मानो मेरा कोई अपूरणीय नुकसान हो रहा है। मेरे मानस में स्थापित इन सबकी उज्ज्वल छवियाँ और प्रतिमाएँ भंग होती लगती हैं। होते-होते हो यह गया है कि इनकी सृजनशीलता, अच्छाइयाँ मानो लुप्त हो गईं और इनका अनपेक्षित आचरण ही मन पर पसरने लगा और ये मुझे ऐसे ही लगने लगे जैसे कि नहीं लगने चाहिए थे। गए कुछ समय से मेरी आकुलता मुझे विकल किए दे रही थी। मुझे क्या हो गया है? मैं अच्छा-अच्छा क्यों नहीं सोच पा रहा हूँ?


ऐसे में, फेसबुक पर प्रस्तुत एक आलेख पर, ‘जनसत्ता’ के सम्पादक श्री ओम थानवी की एक टिप्पणी ने मेरी सहायता की। मेरे जाले झाड़ दिए, मेरे मन का बोझ हटा दिया। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक श्री अफलातून के एक आलेख पर ओमजी की यह टिप्पणी इस प्रकार है - ‘......यह हमारे हिन्दी समुदाय की बेचारगी है कि राजनीति में तो हम महापुरुष ढूँढ और ओढ़ लेते हैं, लेकिन साहित्य और कला में किसी को विभूति मानने में कष्ट होता है। हिन्दी के महान साहित्यकार, महापुरुष ही नहीं, हिन्दी समाज के पितृपुरुष हैं। मगर ‘गोदान’, ‘शेखर एक जीवनी’ या ‘परती परिकथा’ का लेखक हमारे यहाँ कुछ भी हो सकता है, महापुरुष नहीं। उसे, उनसे चरित्र प्रमाण-पत्र लेना होगा जिनका अपना कोई ठिकाना नहीं है! यह सब हमारे यहीं है, बाहर इस तरह की गाँठें नहीं हैं। एजरा पाउण्ड नाजीवाद का समर्थक होकर भी महान कवि हो सकता है, जड़ विचारों के बावजूद नीत्शे भी। ज्यों जेने (Jean Jenet) हद दर्जे का चोर, लफंगा, घोषित रूप से ‘आदतन अपराधी’ था, लेकिन उसके साहित्य को देखते ज्याँ पॉल सार्त्र ने उन्हें सन्त की पदवी दी। जेने पर सार्त्र की किताब का नाम ही है -सन्त जेने। हमारे यहाँ तो यही खोजते रहेंगे कि प्रेमचन्द के खाते में इतना धन कहाँ से आया, अज्ञेय के किस काम या यात्रा के पीछे सी आई ए का हाथ था।......’ इस टिप्पणी ने मुझे मेरे रोग की जड़ थमा दी।


दोष तो मेरा ही है जो मैं अपने इन आदरणीयों की सृजनशीलता, इनके सारस्वत योगदान को परे सरकाकर इनकी कमियाँ देखने में व्यस्त हो गया। ओमजी की यह टिप्पणी पढ़ने के साथ ही साथ, ‘कथादेश’ में कुछ ही महीनों पहले छपा एक वाक्य भी याद आ गया - ‘हम अपने प्रिय लेखकों को पढ़ना शुरु करते हैं और जल्दी ही प्रूफ की अशुद्धियाँ देखने लगते हैं।’ याने, दोष ‘उनका’ नहीं, मेरा, मेरी नजर का ही है। अपनी विकलता का कारण मैं ही हूँ। अपने निजी आचरण में ‘वे’ कैसे भी हों, मुझे उनके ‘व्यक्तित्व’ की अनदेखी कर उनके ‘कृतित्व’ पर ही ध्यान देना चाहिए था। मैं व्यर्थ ही उन्हें दोष देता रहा। दोषी तो मैं ही हूँ। दोषी ही नहीं, मैं तो अपराधी भी हूँ - उनका भी और खुद का भी। दोष ही देखने हैं तो मुझे तो अपने ही दोष देखने चाहिए जहाँ सुधार की तत्काल आवश्यकता और भरपूर गुंजाइश है। मैं तो दोहरा अपराध करता रहा - ‘उनमें’ कमियाँ देखने का और ‘उनके’ प्रति मन में उपजते रहे आदर भाव की उपेक्षा करने का। किन्तु इसके ‘जुड़वाँ सहोदर’ की तरह इस विचार ने तनिक राहत दी कि यह सब अन्यथा सोचने के पीछे कोई दुराशयता नहीं रही। अब समझ पड़ रहा है कि मेरे इन आदरणीयों के अनपेक्षित आचरण से मैं दुखी केवल यह सोचकर था कि यदि इनमें यह दोष नहीं होता तो सोने पर सुहागा हो जाता। तब मेरे ये आदरणीय सम्पूर्ण निर्दोष, पूर्ण आदर्श होते, इनमें कहीं कोई कमी न हाती। ये अधिक स्वीकार्य, अधिक लोकप्रिय होते, अधिक सराहे जाते, अधिक प्रशंसा पाते और किसी को भी इनकी आलोचना करने का अवसर नहीं मिलता।


मैं यह सब लिख रहा हूँ 30 मार्च की सुबह चार बजे। सूरज की पहली किरण के फूटते ही मैं अपने जीवन के पैंसठवे वर्ष में प्रवेश कर जाऊँगा। इस क्षण मैं ईश्वर से याचना कर रहा हूँ - हे! प्रभु! मेरी दृष्टि निर्मल कीजिए ताकि मैं औरों के दोष नहीं देखूँ। देखूँ तो बस, अपने ही दोष देखूँ। वह विवेक और साहस भी दीजिए कि मैं अपने दोष दूर कर सकूँ।

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रामकिशन यादव! जरा सुनो भैया!!

प्रिय भाई रामकिशन यादव,

तुम्हारे लोक स्वीकृत नाम ‘बाबा रामदेव’ के गगन भेदी जयकारों से व्याप्त कोलाहल के कारण यदि तुम खुद ही अपना वास्तविक नाम भूल चुके हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यह स्वाभाविक है। ऐसा होता है। लेकिन आदमी जब वास्तविकता को विस्मृत कर दे तो उसका पराभव शुरु हो जाता है। मुझे यही डर लग रहा है और इसीलिए मैं तुम्हें वास्तविक नाम से और ‘तू-तड़ाक’ से सम्बोधित कर रहा हूँ ताकि तुम चौंको, असहज (और खिन्न, कुपित भी) होकर मेरी ओर देखो और मेरी बात सुनो।


तुम्हारे अतीत को खँगालना मेरा अभीष्ट कदापि नहीं। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते। इसीलिए अपने वर्तमान को बेहतर बनाने के प्रयास करते हुए बेहतरीन भविष्य की बुनावट की जुगत में भिड़ा रहता हूँ। मैं यह भी भली प्रकार जानता हूँ कि मेरा नियन्त्रण केवल प्रयत्नों तक और मुझ तक ही सीमित है। परिणामों पर मेरा कोई नियन्त्रण नहीं है और खूब जानता हूँ कि दुनिया तो दूर रही, मेरी उत्त्मार्द्ध पर भी मेरा नियन्त्रण नहीं है। यदि वह मेरी कोई बात मान लेती है तो यह उसके संस्कार और सौजन्य ही है। ऐसे में मैं यह भ्रम बिलकुल ही नहीं पाल रहा हूँ कि तुम मेरी बात सुनोगे ही और मेरे चाहे अनुसार काम भी करोगे ही, यद्यपि मैं चाहता ऐसा ही हूँ। सो, अपनी बात कह पाना मेरे नियन्त्रण में है और मैं वही कर रहा हूँ। आगे, ईश्वरेच्छा बलीयसि।


गाँधी और जे. पी. (लोकनायक बाबू जय प्रकाश नारायण) के बाद तुम पहले आदमी हो जिसके पीछे भारत के लोग आँख मूँदकर चलने को तैयार हैं। अपनी आदर्शभरी बातों से तुमने जन मानस में आशाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं का ज्वार पैदा कर दिया है। हर किसी को लगने लगा है कि देश की समस्त समस्याओं को नहीं तो कम से कम देश को खोखला कर रहे भ्रष्टाचार को तो तुम समाप्त कर ही दोगे। तुम कर भी सकते हो। किन्तु मैं हतप्रभ और निराश हो रहा हूँ यह देखकर कि जिस रास्ते पर तुम चल पड़े हो उसका अन्तिम मुकाम सुनिश्चित असफलता है।


यह सच है कि संसदीय लोकतन्त्र के चलते केवल राजनीति के औजार से ही सारे बदलाव लाए जा सकते हैं। किन्तु इसके लिए ‘राजनीतिक’ होना जरूरी है, ‘राजनीतिज्ञ’ होना नहीं। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि जब तक देश के तमाम लोग ‘राजनीतिक’ नहीं होंगे तब तक हमें हमारे संकटों से मुक्ति नहीं मिल सकती। किन्तु खेद है कि हमारे राजनीतिज्ञों के दुराचरण के चलते लोगों ने ‘राजनीति’ को ही दुराचारी मान लिया है और इसीलिए वे राजनीतिज्ञों को गालियाँ देने के साथ ही साथ को राजनीति को घिनौनी, हेय, और अस्पृश्य मान बैठे हैं। यह ठीक नहीं है।


इस देश में जन नेता तो कई हुए किन्तु लोक नेता दो ही हुए - पहले महात्मा गाँधी और दूसरे जे. पी.। दोनों ने वृत्तियों का विरोध किया था, व्यक्तियों का नहीं। ये दोनों ही ‘राजनीतिक’ थे, ‘राजनीतिज्ञ’ नहीं। गाँधी अंग्रेजों से नहीं, उनकी साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी मानसिकता से असहमत थे। इसीलिए असंख्य अंग्रेज भी ‘साम्राज्ञी’ के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी गाँधी के समर्थक थे। इसी सुस्पष्ट और व्यापक चिन्तन के कारण ही अंसख्य काँग्रेसियों ने जे. पी. की आवाज में आवाज मिलाई और जेलों में रहे।


लेकिन लग रहा है कि तुम जाने-अनजाने ‘राजनीतिज्ञ’ बन रहे हो। साफ-साफ समझ लो, ‘राजनीतिज्ञ’ बनोगे तो ‘राम किशन यादव’ बन जाओगे और ‘राजनीतिक’ बनोगे तो न केवल ‘बाबा रामदेव’ बने रहोगे अपितु देश के इतिहास पुरुष भी बन जाओगे।


जो समाज अपने संकटों के लिए भाग्य और भगवान की दुहाइयाँ देता हो, वहाँ क्रान्ति नहीं आ सकती। वहाँ तो केवल अवतारों की प्रतीक्षा होती है। मैं तुममें अवतार देख रहा हूँ। लेकिन या तो तुम्हारा धैर्य चुक गया है या 'राम किशन यादव' की बुद्धि ने 'बाबा रामदेव' के विवेक को ढँक दिया है या फिर तुम भी एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति की तरह पैसे और प्रसिद्धि को पचाने में विफल हो गए हो। तुम्हारे लिए भले ही यह हानिकारक हो या न हो, देश के लिए अत्यधिक हानिकारक है।


तुम पर सबकी नजरें गड़ी हुई हैं। और तो और, जो भाजपा आज तुम्हारे साथ खड़ी है, उसी के सांसद और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री, हरिद्वार स्थित परमार्थ निकेतन के मुख्य ट्रस्टी स्वामी चिन्मयानन्द तुम्हें ‘आय कर चोर’ घोषित कर चुके हैं। अखबारी खबरों को सच मानें तो उत्त्राखण्ड के (भाजपाई) मुख्यमन्त्री निश्शंक पोखरियाल तुमसे मिल कर, राजनीति से दूर रहने का ‘अनुरोध’ कर चुके हैं। वामपंथी सांसद वृन्दा करात तुम पर श्रमिकों का शोषण करने और तुम्हारे कारखानों में बननेवाली दवाइयों में हड्डियाँ मिलने का आरोप लगा चुकी है। काँग्रेस महासचिव दिग्विजयसिंह तो मानो तुम्हारे जन्मना शत्रु ही हो गए हैं। यह सब इसलिए है क्योंकि कहीं न कहीं तुम और तुम्हारा अभियान पटरी से उतर रहा है और तुम अपने कन्धे दूसरों के लिए उपलब्ध कराते नजर आ रहे हो।


याद रखो कि लोग बोलते भले ही न हों किन्तु वे सब जानते हैं। लोगों को याद है कि 2008 में तुमने खुद ही कहा था कि तुम्हारा (तकनीकी भाषा में ‘तुम्हारे ट्रस्ट का’) कारोबार जल्दी एक लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। लोगों की जबानें भले ही बन्द हैं किन्तु आँखों में सवाल है कि 2003 में, अपने सखा बालकृष्ण के साथ, कनखल में तीन कमरों में मरीजांे का उपचार करनेवाले बाबा रामदेव ने मात्र आठ वर्षों मे करोड़ों का साम्राज्य कैसे स्थापित कर लिया? लोगों की चुप्पी में यह सवाल भी गूँज रहा है कि अपने संस्थानों के प्रबन्धन के लिए तुम्हें यादव नामधारी अपने नाते-रिश्तेदारों, भाई-भतीजों पर ही विश्वास क्यों है? ये तो गिनती की कुछ ही बातें हैं। भाई लोग अपनीवाली पर आ गए तो तुम्हारी सात पीढ़ियों की जन्म कुण्डली जग जाहिर कर देंगे और तुम्हें राम किशन यादव बनाकर ही दम लेंगे।


तुम्हें दो सूचनाएँ दे रहा हूँ। पहली सूचना यह है कि इन्दौर, भापाल, ग्वालियर और जबलपुर से प्रकाशित हो रहे एक अखबार ने कल एक सवाल पूछा था - ‘क्या रामदेव काले धन के खिलाफ अपनी मुहिम मे कामयाब होंगे?’ मैं आशा कर रहा था कि इसके उत्त्र में कम से कम नब्बे प्रतिशत लोग ‘हाँ’ कहेंगे। किन्तु मुझे निराश होना पड़ा। केवल 56 प्रतिशत लोगों ने ‘हाँ’ कहा। दूसरी सूचना यह है कि मेरे अंचल में उत्त्म स्वामी नामके एक सन्त का आना-जाना बना रहता है। उनके अनुयायियों में दिन-प्रति-दिन वृद्धि हो रही है। कल वे मेरे कस्बे में थे। पत्रकारों ने उनसे तुम्हारे बारे में पूछा तो उत्त्म स्वामी ने कहा - ‘बाबा रामदेव पर राजनीति के भाव जाग गए हैं।’ तीन लाख से भी कम की आबादीवाले मेरे कस्बे में बैठे हुए जब तुम्हारे बारे में इतनी और ऐसी जानकारियाँ उपलब्ध हैं और ऐसे मन्तव्य सामने आ रहे हैं तो मुझे कष्ट हो रहा है। क्योंकि मैं चाहता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना भी कर रहा हूँ कि तुम और तुम्हारा अभियान सफल हो।


मेरी सुनिश्चित धारणा है कि मँहगे चुनाव ही भ्रष्टाचार की गंगोत्री हैं। चुनावों के वर्तमान स्वरूप में किसी भले, ईमानदार और गरीब आदमी का जीतना तो कोसों दूर की बात रही, उसका उम्मीदवार बनना भी सम्भव नहीं रह गया है। इसलिए तुम यदि सचमुच में भ्रष्टाचार पर प्रहार करना चाहते हो तो अपना पूरा ध्यान चुनाव सुधारों पर केन्द्रित करने पर विचार करो। मतपत्र और मतदान मशीन पर, उम्मीदवारों की सूची के अन्त में ‘इनमें से कोई नहीं’ वाला प्रावधान कराओ। आज अधिकांश लोग केवल इसलिए वोट नहीं देते क्योंकि उन्हें एक भी उम्मीदवार पसन्द नहीं। उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार यदि लोगों को मिलेगा तो न केवल लोग वोट देने आएँगे बल्कि लुच्चों, लफंगों, चोरों, उचक्कों, अपराधियों को उम्मीदवार बनाने से पार्टियाँ भी डरेंगी। यह प्रावधान कराओं कि यदि कोई निर्वाचित आदमी अपने पद से त्याग पत्र देता है तो या तो उसके बाद सर्वाधिक वोट हासिल करनेवाले को विजयी घोषित किया जाए या फिर उप चुनाव का खर्च, त्यागपत्र देनेवाले से या उसकी पार्टी से वसूला जाए। चुनाव आयोग ने बरसों से कई सुझाव सरकार को दे रखे हैं। सरकार से वे सुझाव मनवाने के लिए अपने चुम्बकीय व्यक्तित्‍व का उपयोग करो।



27 फरवरी की तुम्हारी रैली में उमड़े जन सैलाब को, मुम्बई महा नगर पालिका के पूर्व आयुक्त जी. के. खैरनार ने भी सम्बोधित किया था। उनकी बातों पर ध्यान दो। भ्रष्ट सरकार को उखाड़ फेंकना बहुत ही आसान है किन्तु वैसी ही भ्रष्ट सरकार फिर से न बने, यह सुनिश्चत व्यवस्था करना बहुत कठिन है। यह कठिन काम ही अपने जिम्मे लो।


हम सब पर कृपा करो और याद रखो कि लोग ‘बाबा रामदेव’ के आह्वान पर सड़कों पर उतर रहे हैं, 'राम किशन यादव' के आह्वान पर नहीं। राम किशन यादव की महत्वाकांक्षाओं को बाबा रामदेव के विवेक से नियन्त्रित करो। ईश्वर तुम्हें युग पुरुष बनने का अवसर दे रहा है। यदि तुम चूके तो दोष ईश्वर का नहीं होगा। यह तुम्हारा दोष होगा और हम सबका, इस देश का दुर्भाग्य होगा।



लगे हाथों यह भी जान लो कि मैं तुम्हारा प्रशिक्षित योग अध्यापक हूँ और तुम्हारे सिखाए योग की कुछ क्रियाओं से खुद हो स्वस्थ बनाए रखने का नियमित जतन करता हूँ।


थोड़े लिखे को बहुत मानना और मेरी बातों का बुरा जरूर मानना।


तुम्हारा,

विष्णु बैरागी
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