मैं देश हूँ तुम्हारा

 

मुझे आश्चर्य है कि दादा का यह गीत उनके किसी (प्रकाशित) संग्रह में नहीं है। जैसा कि मेरे साथ होता आया है, सन्-सम्वत् तो मुझे याद नहीं किन्तु किसी जमाने में यह गीत, आकाशवाणी के इन्दौर केन्द्र से, सुबह के शुरुआती कार्यक्रमों में आए दिनों बजता रहता था। केन्द्र के, उस समय के संगीत निदेशक श्री भाईलाल बारोट ने इसे संगीतबद्ध किया था और प्रिय भाई प्रकाश पारनेरकर ने इसे स्वर दिया था। यह गीत अब भी कभी-कभार इन्दौर केन्द्र से प्रसारित हो जाता है।
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                        मैं देश हूँ तुम्हारा

                                                ये उम्र, ये जवानी, पाओगे कब दुबारा।
                                                मुझे प्यार से सँवारो, मैं देश हूँ तुम्हारा।

                                                किससे करूँ उम्मीदें, किससे करूँ मैं आशा।
                                                मुझको नहीं सुहाता, घर फूँक ये तमाशा।
                                                कुछ फूँकने की जिद है
                                                तो फूँक दो निराशा
                                                आए नहीं तबाही
                                                जाए न भाईचारा
                                                मुझे प्यार से....

                                                मेरे सिवा तुम्हारा, ईमान और क्या है?
                                                सौभाग्य और क्या है, सम्मान और क्या है?
                                                अपने ही दिल से पूछो
                                                भगवान और क्या है
                                                जब भी पुकारा मैंने
                                                केवल तुम्हें पुकारा
                                                मुझे प्यार से.....

                                                धरती नहीं हूँ केवल, आकाश भर नहीं हूँ।
                                                भूगोल या कि केवल, इतिहास भर नहीं हूँ।
                                                पूजा, नमाज या फिर
                                                अरदास भर नहीं हूँ
                                                मानो न मानो बेशक
                                                सर्वस्व हूँ तुम्हारा
                                                मुझे प्यार सो....
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बीबीसी: बगलगीर से बैरन


निर्भीक, स्वतन्त्र पत्रकारिता की बात जब भी होती है, बीबीसी का नाम जरूर लिया जाता है। बीबीसी, बिटेन की जनता द्वारा वित्तपोषित संस्थान् है। यह सरकार से नियन्त्रित नहीं होती। निस्सन्देह, सरकार की चिन्ता तो करती ही होगी लेकिन कहा जाता है कि जब भी ब्रिटेन  और सरकार में से किसी एक को चुनना होता है तो यह ब्रिटेन को चुनती है, सरकार को नहीं। शायद इसीलिए ब्रिटेन के लोग भी अपने इस संस्थान् पर नजर भी रखते हैं और इसकी चिन्ता भी करते हैं।

इन दिनों भारत में बीबीसी की धूम मची हुई है। इसी धूमधाम के बीच मुझे दो किस्से याद आ रहे हैं।

आपातकाल के दौर में इन्दिरा सरकार ने न केवल सूचना-संचार माध्यमों को जकड़ लिया था अपितु सेंसरशिप भी लगा दी थी। वही छपता था जो सरकार को सुहाता था। आकाशवाणी सरकारी भोंपू बन कर सर्वथा अविश्वसनीय बन कर रह गया था। अपने देश के समाचार जानने के लिए पूरा देश बीबीसी पर ही निर्भर हो गया था।

लेकिन अन्ततः इन्दिराजी को आपात काल हटाना पड़ा। 18 जनवरी को उन्होंने लोक सभा चुनावों की घोषणा की। गैर काँग्रेसी दलों ने अपने सारे मतभेद भुलाकर ‘जनता पार्टी’ बना ली। 16 से 20 मार्च 1977 के बीच मतदान हुआ। मतगणना 21 मार्च को हुई थी। इन्दिराजी रायबरेली से काँग्रेसी उम्मीदवार थीं। उनके सामने जनता पार्टी के ‘लोकबन्धु’ राज नारायण उम्मीदवार थे। वे मूलतः समाजवादी थे और 1971 के लोकसभा चुनावों में इन्दिराजी से, एक लाख से अधिक मतों से हार चुके थे।

मतगणना के नतीजे आकाशवाणी पर आ रहे थे। काँग्रेस के किले एक के बाद एक ढहते जा रहे थे। पूरा देश रायबरेली का चुनाव परिणाम जानने को उतावला बना हुआ था लेकिन आकाशवाणी पर रायबरेली, इन्दिरा गाँधी और राजनारायण के नाम भी सुनाई नहीं दे रहे थे। शाम घिर आई, शाम से रात हो गई और रात भी आधी से ज्यादा गुजर गई, तारीख बदल कर 22 मार्च हो गई। लेकिन रायबरेली के चुनाव परिणाम का कहीं अता-पता नहीं था। सारा देश जान रहा था कि आकाशवाणी की यह चुप्पी ही इन्दिराजी की हार की घोषणा है। लेकिन हर कोई अधिकृत घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा था। आकाशवाणी से निराश, उदासीन तमाम लोग बीबीसी पर कान लगाए बैठे थे।

ऐसे में, जबकि रायबरेली की मतगणना पूरी होने की कोई खबर ही नहीं थी, बीबीसी ने पत्रकारिता की मानो नई शैली ईजाद करते हुए, इन्दिराजी की हार की घोषणा कर दी। बीबीसी ने कहा था कि हालाँकि मतगणना अभी पूरी नहीं हुई है, किन्तु श्रीमती गाँधी और राजनारायण के बीच मतों का अन्तर इतना है कि गणना के लिए बचे हुए सारे के सारे वोट भी यदि श्रीमती गाँधी को मिल जाएँ तो भी वे श्री राजनारायण से बढ़त नहीं ले सकतीं। बीबीसी की इस घोषणा ने सरकारी हलकों में तूफान मचा दिया था। इसके बाद आकाशवाणी को घोषणा करनी पड़ी। श्री राजनारायण ने 55 हजार से अधिक मतों से इन्दिराजी को हरा दिया था। इन्दिराजी को उनकी हार की खबर उनके करीबी आर. के. धवन ने दी थी। उस समय वे रात का भोजन कर रही थीं। धवन की बात सुनकर इन्दिराजी का पहला वाक्य था - ‘अब मैं अपने परिवार को ज्यादा वक्त दे सकूँगी।’

आपातकाल के समूचे समय में बीबीसी वैसे ही लोगों के दिलो में बसी हुई थी। लेकिन इन्दिराजी की हार की घोषणा के इस अनूठे तरीके से उसने अरसे तक लोगों के दिलों पर कब्जा बनाए रखा। पत्रकारिता के हलकों में आज भी इस शैली का उदाहरण दिया जाता है।

दूसरा किस्सा भी कम रोचक नहीं है।

बीबीसी में एक उद्घोषक हुआ करते थे - रत्नाकर भारतीय। वे मूलतः नीमच (मध्य प्रदेश) के थे जो ब्रिटेन में जा बसे थे। उनकी हिन्दी बहुत ही सहज-सरल, आकर्षक और समाचार प्रस्तुत करने की शैली बहुत ही आकर्षक थी। वे समाचार इस तरह पढ़ते थे मानो आँखों देख हाल सुना रहे हों। लगता था, वे समाचार नहीं पढ़ रहे, बातें कर रहे हैं। सुनने वालों को लगता मानो वे उनमें से प्रत्यक से व्यक्तिगत रूप से, केवल उसी को समाचार सुना रहे हैं। उस दौर में रत्नाकर भारतीय और बीबीसी परस्पर पर्याय हो गए थे।

1977 के लोक सभा चुनावों के बाद (शायद ‘जनता पार्टी सरकार’ बनने से पहले) रत्नाकरजी भारत आए। दिल्ली में उनकी मुलाकातें, जनता पार्टी के तमाम नेताओं से हुईं। तमाम नेता रत्नाकरजी को हाथों-हाथ ले रहे थे। यदि बधाइयाँ, धन्यवाद, अभिनन्दन, साधुवाद, आभार, कृतज्ञता जैसे शब्द ‘भौतिक आकार’ ग्रहण कर लेते तो रत्नाकरजी के अनगिनत थैले, पहले तो कम पड़े और अन्ततः  फट जाते। 

दिल्ली में उनकी मुलाकात अटलजी से भी हुई। अटलजी ने बाहें पसार कर रत्नाकरजी को आलिंगन में जकड़ लिया और देर तक उनकी पीठ थपथपाते हुए बार-बार कहे जा रहे थे - जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था तब आप ही थे जो प्रकाश-किरण थामे हुए थे।

अपनी उस भारत यात्रा में रत्नाकरजी नीमच भी आए थे। तब उन्होंने नीमच में काँग्रेस विरोध में आयोजित एक आम सभा में भाषण भी दिया था। तब नीमच में ही नहीं, समूचे मालवा में यह धारणा पक्की बन गई थी कि रत्नाकरजी को राज्य सभा का सदस्य बनाकर, केन्द्रीय मन्त्री मण्डल में जगह देकर उनसे ‘ऋण-मुक्त’ हुआ जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुझे पक्का तो पता नहीं किन्तु शायद रत्नाकरजी की ब्रिटिश नागरिकता आड़े आ गई थी। और तब की ‘जनता पार्टी’ (और आज, उसके तमाम अंश, जिनमें भाजपा प्रमुख है) तब से लेकर अब तक रत्नाकरजी के कर्जदार बने हुए हैं।

लेकिन वो कहते हैं ना कि कोई भी वक्त ठहरता नहीं। वह वक्त भी नहीं ठहरना था। नहीं ही ठहरा। और, आपातकाल के अँधेरे में रोशनी की किरण घोषित की गई बीबीसी आज ‘बकवास भ्रष्ट कार्पाेरेशन’ घोषित कर दी गई है।

गोया, कल की बगलगीर आज बैरन बन गई है।

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‘उन्होंने’ मनवा दिया वेलेण्टाइन-डे

ईको कराने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा में, अस्पताल में बैठे हुए हम पति-पत्नी।


मुझे हिन्दू-विरोधी माननेवाले और इसी कारण, मेरी खिंचाई करने का, मुझ पर व्यंग्योक्तियाँ कसने का कोई मौका न छोड़नेवाले ‘वे’ अभी-अभी (याने, लगभग रात साढ़े आठ बजे) गए हैं। ‘वे’ मुझसे कभी खुश नहीं होते।

आते ही, अपने स्वभावानुसार शुरु हो गए -

‘कैसे मनााया आज वेलेण्टाइन-डे?’

“आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ये ‘डे-वे’ नहीं मनाता। मेरा भरोसा नहीं है इन ‘डे-वे’ में।”

‘तो फिर क्या किया आज दिन भर?’

“पत्नी की कुछ मेडिकल जाँचें करानी थीं। ‘ब्लड सेम्पल’ देने के लिए सुबह-सुबह ही लेबोरेटरी पहुँच गया था। टेक्नीशियन लगभग दस बजे आया।”

‘फिर?’

‘पत्नी डाइबिटिक है। भूखा रहने पर उसे परेशानी होने लगती है। ब्लड सेम्पल देने में बहुत देर हो गई थी। उसने सुबह से चाय भी नहीं पी थी। सो, उसे चाय-पोहा का नाश्ता कराने ले गया।?’

‘क्यों? बाजार का नाश्ता क्यों कराया? घर आकर नाश्ता नहीं कर सकते थे?’

‘मजबूरी थी। उसका ईसीजी भी कराना था।’

‘फिर?’

‘फिर क्या? ईसीजी के लिए लाइन लगी हुई थी। प्रतीक्षा करनी पड़ी। नम्बर आया तब तक साढ़े बारह बज गए।’

‘इसीजी करा कर तो घर आ गए होंगे?’

‘नहीं। नहीं आ सकता था।’

‘क्यों?’

‘क्योंकि सी टी स्केन और ईको भी कराना था?’

‘सी टी स्केन और ईको भी? इतनी सारी जाँचें एक साथ? क्यों?’

‘मजबूरी थी। डॉक्टर ने कहा था।’

‘क्या हो गया भाभीजी को?’

‘वह लम्बी कहानी है। फिर कभी, बाद में बताऊँगा।’

‘ठीक है। तो, सी टी स्केन और ईको हो गया?’

‘नहीं।’

‘क्यों?’

‘मेरा मतलब है, दोनों जाँचें नहीं हुई। केवल सी टी स्केन हो सका।’

‘क्यों? ईको क्यों नहीं हुआ?’

‘डॉक्टर ने शाम पाँच बजे का वक्त दिया।’

‘अच्छा। लेकिन सी टी स्केन तो हो गया?’

‘हाँ। सी टी स्केन हो तो गया लेकिन उसकी रिपोर्ट मिलने में दो घण्टे लग गए।’

‘दो घण्टे? इतना समय तो नहीं लगता रिर्पोटिंग में?’

‘हाँ। लगता तो नहीं लेकिन सी टी स्केन की प्लेटें यहाँ से, मेल पर अहमदाबादवाले डॉक्टर को भेजी जाती हैं। उनके सामने अपनी प्लेटों का नम्बर आने पर वो रिपोर्टिंग करते हैं और यहाँ भेजते हैं। उसके बाद रिपोर्ट का प्रिण्ट-आउट निकल पाता है। इसी में इतनी देर हो गई।’

‘फिर?’

‘इस सब में करीब ढाई बज गए। घर आए। भूख भी लग गई थी और थोड़ीऽसी थकान भी आ गई थी। भोजन किया और सो गया।’

‘फिर?’

‘करीब चार बजे उठा। हाथ-मुँह धोए। पत्नी ने चाय बनाई। यह सब करते-करते पौने पाँच बज गए। अस्पताल के लिए निकल गए। पत्नी को सब्जी लेनी थी। रास्ते में सब्जी ली।’

‘इस बार तो काम फटाफट हो गया होगा। ईको में तो वैसे भी कम्पेरेटिवली कम टाइम लगता है।’

‘नहीं। फटाफट नहीं हुआ। हमारा नम्बर चौथा था। हमारा नम्बर आते-आते साढ़े-छह, पौने सात बज गए।’

‘चलो! आखिरकार सारी जाँचें एक ही दिन में हो गईं। अच्छा हुआ। फिर?’

‘फिर क्या? पत्नी, आते ही सब्जी साफ करने लगी। मैंने धनिया साफ किया। साफ करके काटा। हाथ धोकर निकला ही था कि आप आ गए। बस।’

‘याने आज का पूरा दिन आपने भाभीजी की सेवा में समर्पित कर दिया?’

‘इसमें सेवा और समर्पण की कौन सी बात है। यह तो मेरा ही काम था। अरे! मेरी पत्नी की जाँचें मैं नहीं कराऊँगा तो और कौन कराएगा?’

‘अरे! याने कि आपने तो सच्ची में वेलेंटाइन-डे मना लिया!

‘मैंने वेंलेण्टाइन-डे मना लिया? कैसे?’

‘कैसे क्या? वेलेण्टाइन-डे पर और क्या करते हैं? यही तो करते हैं! प्रेम-प्रदर्शन! एक्सप्रेशन ऑफ लव एण्ड अफेशन टुवर्ड्स योर वेलेण्टाइन।’

‘लेकिन मैंने तो ऐसा कुछ भी नही किया। मेरी पत्नी की डॉक्टरी जाँचें करानी थीं। वही कराईं! इसमें वेलेण्टाइन-डे बीच में कहाँ से आ गया?’

‘अरे! आज का पूरा दिन आपने अपनी भाभीजी की चिन्ता करने में लगाया। उनकी सारी जाँचें कराईं। उनकी डाइबिटीज का ध्यान रखते हुए उन्हें भूखा नहीं रहने दिया। उन्हें नाश्ता कराया। और तो और, घर आने के बाद भी सब्जी-धनिया साफ करने में उनकी मदद की। यह उनके प्रति प्रेम प्रदर्शन ही तो है! आप भले कितना ही कहो कि आप ये डे-वे नहीं मनाते। लेकिन आज तो आपने सच्ची में वेलेण्टाइन-डे मना लिया।’

‘याने कि आप कह रहे हैं कि अपनी पत्नी की चिन्ता कर, उनकी जाँचें कराने में अपना पूरा दिन खपा कर, धनिया साफ कर के, काट कर मैंने उनके प्रति अपना प्रेम जताया है?’

‘हाँ। मैं यही तो कह रहा हूँ!’

‘याने कि आप कह रहे हैं कि वेलेण्टाइन-डे पर अपने प्रिय के प्रति प्रेम जताया जाता है?’

‘हाँ। सही तो!’

‘तो फिर आप, अपने प्रिय के प्रति प्रेम जताने का विरोध क्यों करते हैं? और सच बात तो यह है कि आप विरोध नहीं करते। केवल विरोध करने के लिए विरोध करने का पाखण्ड करते हैं। देखिए ना! मैं न तो ऐसे डे मनाता हूँ न ही आज मैंने वेलेण्टाइन-डे मनाया। लेकिन आपने जबरन मुझसे वेलेण्टाइन-डे मनवा दिया।’

‘......................’

“भई! आपने खुद ही साबित कर दिया है कि आप मूलतः प्रेमी व्यक्ति हैं। वेलेण्टाइन-डे को प्रेम जताने का दिन मानते हैं। खामखाँ क्यों प्रेम के विरोध में खुद को धोखा दे रहे हैं! मेरी मानें तो सीधे घर जाएँ। वेलेण्टाइन-डे बिलकुल न मनाएँ। प्रेम का कौन खास नहीं होता। हर दिन प्रेम का दिन होता है। जाते हुए, रास्ते में कहीं से गुलाब का एक फूल खरीद लीजिएगा। अपनी श्रीमतीजी को दीजिएगा। ‘आई लव यू’ बिलकुल मत कहिएगा। आपकी चुप्पी ही आपके प्रेम का इजहार करेगी। और यदि आपने सच में ऐसा कर लिया तो विश्वास कीजिएगा कि आप खुद को सम्हाल नहीं पाएँगे - हिचकियाँ ले-ले कर रोना शुरु कर देंगे और ये प्रेमाश्रु आपकी आत्मा की निर्मलता शतुगणा कर देंगे।”

‘वे’ कुछ नहीं बोले। चुपचाप उठे। उनकी कोरें भीग आई थीं। चुपचाप ही मुझे नमस्कार किया। और मुझसे नजरें चुराते हुए विदा हो गए।

‘वे’ चले गए हैं। अब मैं रो रहा हूँ। रोते-रोते ही यह पोस्ट लिख रहा हूँ - बड़ी मुश्किल से। लेकिन सच मानिए, रोते-रोते भी निहाल हो रहा हूँ।

प्रेम होता ही ऐसा है।
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जब



जब
शब्द खो दें अर्थ
वाक्य खो दें व्यंजना
अभिधा और लक्षणा
हो जाएँ निरर्थक।

व्यवस्था खो दे चरित्र
तब मेरे मित्र!

लोकतन्त्र हो जाता है लिप्सा की मण्डी
पदासीन लगने लगते हैं
पाखण्डी।

तब
आप और हम
हवा में करते रहते हैं
प्रहार।

किन्तु यह प्रहार 
करें किस पर?
क्या, चाहे जिस पर?
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(साप्ताहिक आउटलुक के 14 से 20 जनवरी 2003 के अंक में प्रकाशित)

व्यंग्यकार का काम


ईश्वर ने आपको सोचने, विचारने और समझने की शक्ति दी है। प्रभु ने आपको करुणा दी है, बुद्धि दी है और विवेक दिया है। इन सभी शक्तियों का उपयोग कब करते हैं, यह प्रश्न यदा-कदा आपके मन में भी उठता है। पता नहीं आप स्वयम् को क्या और कैसा उत्तर देते होंगे। इन शक्तियों का उपयोग, दुरुपयोग, सदुपयोग सर्वत्र होता है, किन्तु सबसे पहले इन उपयोंगों का उपयोग करता कौन है? आप किसी संकोच में मत पड़िये। उत्तर मैं ही दे देता हूँ। 

इन उपयोगोें का सबसे पहला प्रयोग करता है हमारा कोई न कोई व्यंग्यकार। व्यंग्यकारों में भी वह व्यंग्यकार जिसके हाथ में सरस्वती ने कलम दी हो। और, मैं बार-बार कहा करता हूँ कि भारत में करोड़ों देवी-देवता हैं पर उनमें मात्र एक देवी ऐसी है जो किसी को क्षमा नहीं करती। उस देवी का नाम है सरस्वती। 

सच मानिये, सरस्वती किसी को क्षमा नहीं करती। उसके दण्ड के प्रमाण मुझसे अधिक आपके आसपास घूमते-फिरते रहते, बोलते और तरह-तरह के व्यवहार करते शरीरधारी प्राणी जिन्हें आप ‘मनुष्य’ कहते हैं, वे हैं। आपकी सामान्य नजर से वे बच सकते हैं पर सरस्वती की दृष्टि से वे नहीं बच सकते। एक छोटा सा किन्तु शाश्वत उदाहरण स्वयम् आपके अपने शरीर पर उपस्थित है, उसे देखें। 

आपके शरीर पर निर्माता ने दो चीजें ऐसी दी हैं जिनका दुराग्रह, जिनका हठ, जिनकी जिद आप खुद कभी सहन नहीं करते। ज्यों ही वे जिद पर आते हैं, आप उन्हें ठीक कर देते हैं। वे दो चीजें हैं - आपके नाखून और आपके बाल। वे हमेशा बढ़ते रहने की जिद करते रहते हैं। ज्यों ही आपको लगता है कि ये अपनी जिद में अपनी हद से आगे बढ़ रहे हैं, आप खुद उन्हें काट देते हैं। उनकी, बढ़ने की प्रक्रिया को नहीं रोकते लेकिन उन्हें अपनी हद में रखते हैं। यह है आपकी सुप्त और गुप्त सरस्वती का सौन्दर्य-बोध जो आपके हाथ में धारदार शस्त्र थमा देता है। आपका सौन्दर्य-बोध आपको चौकन्ना और सतेज, सक्रिय रखता है। जो कट जाता है, वह छँट जाता है। 
हमारे सामाजिक जीवन में यही काट-छाँट करता है हमारा व्यंग्यकार। उसे समाज में रहनेवाली घटत और बढ़त, दोनों की जानकारी हो जाती है। बस, वह अपने एकान्त में अपनी करुणा, अपनी बुद्धि, अपने विवेक, अपने सोच, अपने विचार और अपनी समझ से यथासमय पूछताछ करता है और काट-छाँट में सक्रिय हो जाता है। तब वह उपदेशक नहीं अपितु एक सामाजिक शल्यक्रिया का नायक बन कर समाज को अपनी हद, अपनी सीमा और अपने दायित्व से अवगत रखता है।

अवांछित को वांछित बनाना उसका काम नहीं है किन्तु अवांछित को अपनी भाषा में यह समझा देना उसका काम जरूर है कि जिससे अवांछित यह समझ जाये कि कोई उसे देख रहा है। 

बस।

-बालकवि बैरागी
रक्षा बन्धन, 2014
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श्री भगवती प्रसाद गेहलोत (मन्दसौर, म. प्र.) के व्यंग्य संग्रह ‘राहत मिली रे भैया’ की भूमिका का अंश। 
दादा का पत्र भी श्री गेहलोत की फेस बुक वाल से साभार।
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6 वर्षों तक ‘पागल’ रहे ‘बालकवि’


1950 के दशक में, शिप्रा-तट (उज्जैन) पर लगे, कार्तिक पूर्णिमा मेले में आयोजित कवि सम्मेलन में जुटे ‘मालवी’ के हरावलों/अलम्बरदारों की छवियों वाला यह सचमुच में एक दुर्लभ स्मृति चित्र है। चित्र में - नीचे बैठे हुए बाँये श्री हजेलाजी तथा दाहिने दादा श्री बालकवि बैरागी। कुर्सियों पर बैठे - बाँये से सर्वश्री हरीश निगम, आनन्दरावजी दुबे, श्रीनिवासजी जोशी, गिरिवरसिंहजी भँवर और शिल्पकारजी। पीछे खड़े हुए - बाँये से - सर्वश्री वागीशचन्द्रजी पाण्डे, सुलतान मामा तथा बसन्तीलालजी बम। मालवी साहित्य को प्रतिष्ठित करनेवाले, पण्डित श्री श्रीनिवासजी जोशी की स्मृति में, वर्ष 1997 में स्थापित ‘श्रीनिवास जोशी स्मृति सम्मान’ की बारहवीं कड़ी के रूप में, शनिवार, 7 अप्रेल 2018 को, इन्दौर में आयोजित सम्मान समारोह के निमन्त्रण-पत्र पर छपा यह चित्र मुझे मेरे आत्मीय, इन्दौरवाले धमेन्द्र रावल ने उपलब्ध कराया है। 

10 फरवरी 2023 को दादा का 93वाँ जन्म दिन और 92वीं जन्म वर्ष-गाँठ है। लेकिन दादा के चाहनेवालों के, उन्हें आत्मीयता से याद करनेवालों के फोन मुझे सप्ताह पहले से ही आने शुरु हो गए। यह अलेख मैं 6 फरवरी की रात को लिख रहा हूँ। अब तक बाईस-तेईस जगहों से फोन आ चुके हैं। लोग अपने-अपनेे तरीकों से कार्यक्रम, गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। मुझसे जानकारियाँ, सूचनाएँ माँग रहे हैं। मैं यथाशक्ति, यथासामर्थ्य उपलब्ध कराने केे जतन कर रहा हूँ। ऐसा करते हुए हर बार रोना आ रहा है। 

दादा की पहली कविता, दादा के कहे अनुसार ही, उनकी नौ वर्ष की आयु में, 1940 में सामने आई थी। तब वे चौथी कक्षा में थे। अपने गाँव मनासा में, अपने विद्यालय की अन्तरकक्षा भाषण प्रतियोगिता में उन्होंने अपनी पहली कविता ‘सभी करो व्यायाम’ पढ़ी थी। सार्वजनिक मंच पर उनकी पहली प्रस्तुति 1945 में, रामपुरा में, इन्दौर राज्य प्रजा मण्डल के अधिवेशन में हुई थी। उस समय दादा की उम्र 14 वर्ष थी। मध्य प्रदेश के नीमच जिले का गाँव रामपुरा, दादा का जन्म स्थान (हम भाई-बहनों का ननिहाल) है। कई लोग ‘रामपुरा’ को ‘रामपुर’ समझते, लिखते हैं। वह वास्तव में ‘रामपुरा’ है। 

दादा का ‘बालकवि’ नामकरण 23 नवम्बर 1951 को, भारत के तत्कालीन गृह मन्त्री डॉक्टर कैलाशनाथजी काटजू ने, हमारे गृहनगर मनासा में, काँग्रेस की एक आम-सभा में किया था। दादा उस समय अपने जीवन के इक्कीसवें बरस में चल रहे थे। दादा का कवि व्यक्तित्व वस्तुतः इस नामकरण के बाद ही व्यापक रूप से सामने आया। 

दादा ने कब, कौन सी कविता लिखी, इसकी कोई जानकारी हम परिवारवालों को बिलकुल नहीं रही। निरक्षर माँ और साक्षर पिताजी के बाद दादा ही घर में सबसे बड़े थे। हम सब भाई-बहन नामसझ, निरक्षर। समूचा परिवार भीख पर आश्रित। तो, ‘कवि’ और ‘कविता’ जैसे शब्दों की सूझ-समझ से कोसों दूर, अनजान, हम परिजन उनके लिखे को महत्पवूर्ण मानें, सहेज लें, सम्हाल लें या ऐसा करने का सोचें भी - यह कल्पना भी हम सबके साथ हास्यास्पद ज्यादति ही होगी। 1947 में मेट्रिक पास कर लेने के बाद वे, मनासा में ही, तब के अग्रणी वकील जमनालालजी जैन के मुंशी बन गए थे। हमारे समाज में आज भी ‘कवि’ को ‘कमाऊ’ नहीं माना जाता। लिहाजा, ‘वकील का मुंशी’ हो जाने पर दादा हम सबके लिए ‘घर का कमाऊ आदमी’ ही बने रहे। उनके ‘कवि’ से तब हमारा कोई लेना-देना नहीं रहा।

लेकिन, दादा का लिखना तो जारी रहा ही होगा। किन्तु 1945 से 1951 के 6-7 बरसों की अवधि में लिखी दादा की कविताओं के बारे में हममें से किसी को, कोई जानकारी नहीं। दादा के मुँह से भी, उनके इस काल की किसी कविता की बात सुनने को कभी नहीं मिली। 

किन्तु इन 6 बरसों में लिखा दादा का एक छन्द मुझे अपने स्कूली दिनों में पढ़ने को मिला था। उसी से मालूम हुआ था कि दादा ‘पागल’ के नाम से लिखते थे। अपना यह नाम उन्होंने खुद ही तय किया था। दादा के मुँह से इसका जिक्र मैंने पहली बार अभी-अभी, नवम्बर-दिसम्बर 2022 में उनके एक रेडियो साक्षात्कार में सुना। आकाशवाणी इन्दौर की सुपरिचित उद्घोषिका सुश्री रविन्दर कौर द्वारा, जुलाई 2011 के बाद किसी समय लिया गया यह साक्षात्कार मेरे ब्लॉग पर, दिनांक 11 दिसम्बर 2022 को प्रकाशित हुआ है।

वैसे, हममें से किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया (न ही कभी ध्यान गया) कि अपने ‘पागल’ होने की जानकारी दादा ने पता नहीं कब से सार्वजनिक कर रखी थी। मनासा में, हमारे पैतृक मकान के अगले हिस्से में पहली मंजिल पर बनी छोटी सी कोठरी (जिसे हम सब ‘मेड़ी’ कहते थे) की, मुख्य रास्ते की ओर खुलनेवाली खिड़की के एक पल्ले पर उन्होंने, चाक से ‘पागल कुटीर’ लिख रखा था। यह मैंने भी देखा था। लेकिन तब इसका मतलब नहीं समझ पाया था। इस ‘मेड़ी’ और ‘पागल कुटीर’ का उल्लेख डॉ बंसीधर ने अपने आलेख में किया है। दादा से 5-6 बरस छोटे बंसीधरजी, मनासा के पास ग्राम भाटखेड़ी के मूल निवासी हैं। पढ़ाई के लिए भाटखेड़ी से मनासा आते-जाते, ‘मेड़ी’ की खिड़की के एक पल्ले पर लिखा ‘पागल कुटीर’ उन्हें नजर आता था। बंसीधरजी इन दिनों बड़ौदा में, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के श्री सयाजी प्रतिष्ठान के संयोजक (कोआर्डिनेटर)हैं। ‘पागल कुटीर’ के उल्लेखवाला उनका, ‘बालकवि बैरागी: शब्दों से परे हैं ये सम्बन्ध’ शीर्षक संस्मरण भी मेरे ब्लॉग पर, 11 जुलाई 2022 को प्रकाशित हुआ है।

तो, दादा के कवि-व्यक्तित्व के अपने शुरुआती दौर के कम से कम 6 बरस तक दादा ‘पागल’ ही बने रहे। यह बात और है कि उनके ‘पागल’ होने की बात, दादा के मृत्युपर्यन्त कभी नहीं सुनी - न खुद दादा से न ही उनके किसी संगी-साथी से। ‘बालकवि’ ने ‘पागल’ को लील लिया।

अब वह छन्द पढ़ लीजिए जिसका जिक्र मैंने इस लेख के शुरु में किया है। यह छन्द सम्भवतः किसी ‘समस्यापूर्ति’ के लिए लिखा गया था। आज की पीढ़ी को ‘समस्यापूर्ति’ का अर्थ शायद ही मालूम हो। हिन्दी साहित्य में ‘समस्यापूर्ति विधा’ की लम्बी परम्परा रही है। यह, कवि की प्रतिभा और कौशल जाँचने की एक ढंग माना जा सकती है। इसमें, कविता की कोई पंक्ति दे दी जाती है जिसे आधार/केन्द्र बनाकर कविता लिखने का चुनौतीभरा निमन्त्रण होता है। उर्दू अदब में ऐसे उपक्रम को शायद ‘तरही नशिस्त’ कहा जाता है। होती है। समस्यापूर्ति वाली ऐसी रचना में कवि प्रायः ही अपने नाम की ‘छाप’ लगाते हैं। मेरे अनुमान से, इस समस्यापूर्ति की आधार पंक्ति ‘पनिहारिन क्यूँ लौट गई?’ रही होगी। मेरे तईं इस छन्द का अनूठापन यह है कि दस-ग्यारह बरस की उम्र में मैंने यह पहली बार (और अब तक केवल एक ही बार) देखा/पढ़ा था। लेकिन यह मुझे तत्क्षण जो कण्ठस्थ हुआ तो अब तक कण्ठस्थ है। मैं चकित भी हूँ और अब तक उलझन में हूँ कि ऐसा क्यों, कैसे हुआ?

बहरहाल, आप छन्द पढ़िए -

पनघट को लेन चली पनिहा, अरु सम्मुख ही इक छींक भई।
चोली में जियरा काँपी गयो, यह कौन सी विपदा हाय दई?
सोचती-सोचती, काँपती-काँपती, पनघट पर जब आ ही गई।
गागर फाँदी के भीतर झाँक्यो तो, पल भर सोच में डूबी गई।
निर्जीव कबूतर पानी पे तैरत, बैठी कबूतरी चीख रही।
‘पागल’ की मति बोल उठी या, यूँ पनिहारिन लौट गई।

दादा की रचनाओं का जितना ज्ञान और जानकारी मुझे अब तक है, उसके अनुसार दादा की यह इकलौती रचना है जिसमें दादा के ’पागल’ होने की छाप लगी है।

दादा का ब्याह मई 1954 में हुआ - दादा के ‘बालकवि बनने के ढाई-तीन बरस बाद। लेकिन उनके ब्याह का पहला सूत्र, उनका ‘पागल’ होना ही था। यह अपने आप में एक मजेदार और रोचक कहानी है।

लेकिन, यह कहानी फिर सही।

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‘वामनपन’ के सम्मान की चिन्ता

पुराने कागज उलटते-पुलटते यह पत्र अचानक सामने आ गया। यह नितान्त निजी पत्र है। लेेकिन आज, लगभग साढ़े सोलह बरस बाद इसे पढ़ा तो लगा इसकी कुछ सार्वजनिकता भी है। इसीलिए इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ। किसी काम का न होकर भी शायद अच्छा लग जाए। यदि पढ रहे हैं तो कृपया याद रखिएगा कि सन् 2006 में (ऐसे मांगलिक प्रसंगों पर) उपहार/भेंट न लेने का निर्णय करना और दृढ़तापूर्वक उसका पालन कर लेना बहुत कठिन बात थी। रतलाम के अग्रणी चार्टर्ड अकाएण्टेण्ट श्री जे पी डफरिया से अनजान लोगों के लिए इतना ही कहना है कि ‘आन-बान-शान-स्वाभिमान और ज्ञान’ के मामलों में जेपी वो ‘खानदानी आदमी’ हैं जिनकी नजरों में आने के लिए लोग यथासम्भव उठापटक करते रहते हैं। ‘कल के वर-वधू चिरंजीवी प्रखर और चिरंजीवी रेनी आज एक बेटी और एक बेटे के माता-पिता हैं और हमें न्यौतनेवाले जेपी-पुष्पाजी दादा-दादी बन गए हैं। ‘जेपी’ से जुडा एक रोचक किस्‍सा यहॉं पढा जा सकता है।


14 जून 2006

माननीय जे पी, दी ग्रेट,

सविनय सप्रेम नमस्कार,

इस समय मेरे घर की दीवाल घड़ी में रात के ग्यारह बज कर पचीस मिनिट हो रहे हैं। चिरंजीव प्रखर के विवाह प्रसंग पर आयोजित समारोह से मैं अभी-अभी लौटा हूँ। ‘ऋतुवन’ से चला उस समय इन्दौर के कलाकार मित्र ‘चिट्ठी आई है’ गा रहे थे।

मैं घर जरूर आ गया हूँ लेकिन समारोह अभी तक मेरे साथ बना हुआ है। बिलकुल मेरी आत्मा में घुला हुआ।

मुझे याद नहीं आता कि एक-डेड़ दशक में मैं किसी विवाह समारोह में इतनी देर तक (लगभग डेड़ घण्टा) रुका रहा। अपनी इस शिरकत पर मैं स्वयम् चकित हूँ और खुद ही विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ।

ऐसे समारोह चूँकि मुझे आकर्षित नहीं करते इसीलिए बाँध कर भी नहीं रख पाते। ऐसे आयोजनों में पहुँचने से पहले ही भागने का जतन करने लगता हूँ। लेकिन आज मैं अपने आप को विस्मित नजरों से देख रहा हूँ। जाहिर है कि मेरे इस ‘नए मैं’ ने अब तक के मेरे ‘स्थापित मैं’ की स्थापित प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल आचरण किया है।

इस सबके पीछे और कोई नहीं, आप हैं। आयोजन सुन्दर तो था ही, नयनाभिराम, प्रभावी और भव्य भी था। लेकिन यह भव्यता आकर्षित कर रही थी, आतंकित नहीं। समूचे परिसर में चारों ओर सहजता और अनौपचारिकता जिस अपनेपन से पसरी हुई थी, यह उसी का प्रताप था कि मुझ जैसा अटपटा आदमी डेड़ घण्टे तक अपनी सम्पूर्ण उन्मुक्तता से न केवल वहाँ बना रहा अपितु आयोजन और व्यवस्थाओं में आत्मपरकता से शरीक होकर उनका आनन्द भी लूटता रहा। मेरी पत्नी के साथ जब मैं ऋतुवन के लिए घर से चला था तब नीरस और विकर्षित बैरागी था। लेकिन इस समय जबकि मैं ऋतुवन से लौटा ही हूँ, लबालब, सरस और आकृष्ट बैरागी हूँ।

मैं आसानी से न तो किसी से प्रभावित होता हूँ और न ही आसानी से किसी की प्रशंसा करता हूँ। यही मेरी पहचान भी है और शायद ‘निर्मिति दोष’ (मेन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट) भी। लेकिन मेरी इस कुटिलता पर आपकी सहजता और सादगी इस तरह हावी हो गई है कि मैं अपनी ही नजरों में अजनबी हो गया हूँ। 

इस सबके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से आपका अत्यधिक आभारी हूँ। सच बात है तो यह है कि धन्यवाद और आभार जैसे शब्द अत्यन्त अपर्याप्त और बौने अनुभव हो रहे हैं। मैं आपके सम्पर्क में हूँ, यह आश्वस्ति भाव ही मेरी अमूल्य सम्पदा बन गया है। आपके कारण इस समय मुझे अपने पर मान हो रहा है। आपने एक बैरागी को समृध्द, मालामाल कर लौटाया। ईश्वर आपको शतायु बनाए और आप सदैव सुखी, पूर्ण-स्वस्थ बने रहें तथा आपकी कीर्ति पताका की ऊँचाई और आकार सदैव वर्धित हो।

एक बात के लिए आपको विशेष धन्यवाद। आपने किसी भी प्रकार का कोई भी उपहार नहीं लिया। लोग देने को उतावले बैठे थे। कुछ भी न लेने का निर्णय लेना बहुत आसान होता है किन्तु उस पर बने रहना और उसे दृढ़तापूर्वक निभा लेना अत्यधिक दुरुह होता है। भाई लोग इस निर्णय से डिगाने में विकट परिश्रम और प्रतिभा खपा देते हैं। लेकिन आप और आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य इस निर्णय को निभाने में अद्भुत रूप से कामयाब हुआ। 

आप यदि भेंट, उपहार स्वीकार करते तो उनकी सूची बनती ही बनती। और तब, आप नहीं भी चाहते तो भी भेंट देनेवाले का मूल्यांकन अचानक और अनायास ही शुरु हो जाता। तब, केवल लिफाफे ही नहीं खुलते, पैमाने भी काम में आने लगते और भेंट देने वालों का वर्गीकरण हो जाता। भेंट न लेकर आपने ऐसे वर्गीकरण से सबको बचा लिया। आपके इस निर्णय ने ‘वामन’ और ‘विराट’ को एक ही धरातल पर समान आदर भाव से बनाए रखा। ‘विराट’ को ऐसी स्थिति से कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता लेकिन ‘वामन’ सदैव ही हीनता-बोध से ग्रस्त हो जाता है। आपके इस निर्णय से, आपके आँगन में ‘वामन’ के ‘वामनपन’ का सम्मान अक्षुण्ण बना रहा। यह बहुत बड़ी बात है और इसी के लिए मैं, मुझ जैसे तमाम ‘वामनों’ की ओर से आपको अतिरिक्त, विशेष धन्यवाद अर्पित करता हूँ। बड़ों के बड़ेपन का ध्यान तो सभी रखते हैं किन्तु छोटों के छोटेपन की चिन्ता शायद ही कोई करता हो। आपने यह चिन्ता की। यह आपका बड़ापन भी है और बड़प्पन भी। ईश्वर आपके ये दोनों गुण या प्रवृत्तियाँ न केवल बनाए रखे अपितु इनमें यथेष्ट वृध्दि भी करे।

आपके प्रेमादेश के अधीन, आपके आँगन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में मुझे अपार आत्मीय सुख और आनन्द मिला है। इतने विशाल आयोजन की भीषण व्यस्तताओं के बीच आपने मुझ अकिंचन को याद रखा भी और आग्रहपूर्वक याद किया भी, यह मुझ पर और मेरे समूचे परिवार पर आपकी बड़ी कृपा है। कृपया हम सबकी ओर से सादर कृतज्ञता स्वीकार करें और यही कृपा भाव बनाए रखने का उपकार करें।

चिरंजीवी प्रखर और सौ. रेनी को हम सबकी ओर से अकूत आशीष और मंगल कामनाएँ अर्पित कीजिएगा। ईश्वर इन बच्चों का वैवाहिक जीवन सुदीर्घ, समृध्द, स्वस्थ, सुखी, आनन्दमय और यशस्वी बनाए। ईश्वर की असीम अनुकम्पा इन बच्चों पर आजीवन बनी रहे और ये बच्चे दोनों कुल-पुरखों की आशाएँ-अपेक्षाएँ पूरी करने में समर्थ और सफल हों।

आपको और माननीया पुष्पाजी को बहुत-बहुत बधाइयाँ । आप लोग अपनी जिम्मेदारियों को प्रतिष्ठापूर्वक निभाने में सफल हो पा रहे हैं। ईश्वर की यही कृपा आप लोगों पर सदैव इसी प्रकार बनी रहे।

आज के आयोजन का, व्यंजनों का, आयोजन की व्यवस्थाओं का और इन सबसे पहले और इन सबसे ऊपर आपकी ऊष्मावान आत्मीयता का भरपूर आनन्द हम लोगों ने खूब-खूब उठाया है-दोनों हाथों से ऊलीच-ऊलीच कर। हम लोग तो ‘डफरिया रस’ से सराबोर हैं

मेरी धृष्टताओं को सदैव की तरह अनदेखी कर मुझे क्षमा कीजिएगा और मुझ पर कृपा बनाए रखिएगा ।

परिवार में सबको मेरी ओर से सादर यथायोग्य अभिवादन अर्पित कीजिएगा।

विनम्र,
विष्णु बैरागी

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‘काँग्रेसी कवि‘ और ‘काँग्रेस का कवि’ का फर्क

महाराष्ट्र के दलित साहित्यकारों, बुद्ध/बौद्ध दर्शन के अकादमिक अध्येताओं,  डॉ. भीमराव आम्बेडकर पर प्राधिकार की हैसियत प्राप्त व्यक्तित्वों में प्रोफेसर रतनलाल सोनग्रा एक जाना-माना नाम है। मई 2018 में, दादा श्री बालकवि बैरागी के निधनोपरान्त मुझे प्राप्त सन्देश उलटते-पुलटते मुझे सोनग्राजी का यह पत्र मिला। 

अपनी राजनीतिक और साहित्यिक निष्ठाओं के निर्वहन को लेकर दादा कहा करते थे - “मैं ‘काँग्रेसी कवि’ हूँ, ‘काँग्रेस का कवि’ नहीं।” सोनग्राजी के इस पत्र में उद्धृत दादा की कविता, दादा के इस वक्तव्य को सुस्पष्टता से व्याख्यायित करती है।

इसीलिए यह पत्र दे रहा हूँ।

बचपन में ‘चंदामामा’ मासिक पत्रिका पढ़ने का बहुत शौक था। उस समय ‘चंदामामा’ का इन्तजार करना किशोरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। हर पहली तारीख के बाद किताबों की दुकान पर जाकर हम ‘चंदामामा’ की पूछताछ करते थे। जब भी मासिक पत्रिका हमारे हाथ में आती उसका प्रारम्भ हमेशा एक चित्रमय कविता से होता था। मुझे याद है, आज से 65 साल पहले मैने पहली बार बालकवि बैरागी की कविता ‘चंदामामा’ में पढ़ी थी। एद्रोंक्लीज नाम के एक लड़के की कहानी उस कविता में कही थी जो जंगल में जाकर रहता है, और वहाँ एक शेर के पैर में चुभा काटा निकालता है। बड़ी सुन्दर कविता थी वो। आज भी उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं। तबसे बालकवि बैरागी मेरे जीवन में जुड़ गये थे।

कुछ साल बाद शिक्षा पूरी कर मैं अहमदनगर के पाथर्डी जिले में एक कॉलेज में लेक्चरार नियुक्त हुआ। तब मैंने एक पत्र लिखकर बालकविजी को हिन्दी विभाग के कार्यक्रम के लिए निमन्त्रित किया था। उनका पत्र आया कि कभी अहमदाबाद आयेंगे तब सूचित करेंगे। अहमदनगर को उन्होंने शायद अहमदाबाद समझ लिया था। मैंने पत्र लिखकर उन्हें महाराष्ट्र के अहमदनगर की बात स्पष्ट की। 

वे एक बार मुम्बई में कवि सम्मेलन में आमन्त्रित थे। उन्हे मिलने मैं बिड़ला मातोश्री सभागार गया। तब मैं भिवण्डी कॉलेज में प्रोफेसर था। बालकविजी ने मुझे और मेरी बिटियों को अपने रिश्तेदार के ‘मानस महल’ में निमन्त्रित किया। मुम्बई में उनका सौहार्दपूर्ण व्यवहार हमारे लिए बहुत ही अहोभावपूर्ण रहा।

यह 1975 के विधान सभा चुनावों की बात है।  काँग्रेस बुरी तरह हार चुकी थी। तब काँग्रेस की और से मुझे प्रचार में भेजा गया। मैने वहाँ बहुत सी जन-सभाएँ की जिनमें भाजपा के मुख्यमन्त्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा के गाँव जावद में भी सभा हुई। बालकविजी के मनासा गाँव में भी मैं गया। तब से मध्यप्रदेश से मेरे मधुर सम्बन्ध हो गए। 

1979 में बालकविजी को मैने अपने कॉलेज में हिन्दी दिवस पर आमन्त्रित किया। बालकवि जी मुम्बई के डॉ. आंबेडकर महाविद्यालय में कार्यक्रम करने आये थे। उन्होंने बड़ी ओजस्वितापूर्ण अपनी रचनाएँ सुनाई। उनकी आवाज सुनकर मुझे महाराष्ट्र के महान जनगायक अमर शेख की याद आ गई। बालकविजी की कविताएँ बहुत ही प्रभावशाली और क्रान्तिकारी थी।  

गाँधी जयन्‍ती पर लिखी अपनी कविता में वे कहते हैं -

बापू तेरे जनम दिवस पर,कवि का मन भर-भर आता।
इस बेला में तू होता तो, तड़प-तड़प कर मर जाता।। 

घाटे की दूकानें बापू, हमने बीसों खोलीं।
तेरे फूल-कफन तक हमने, लगा दिये हैं बोली।।
या तो नोचेंगे नेहरु को, या आराम करेंगे। 
दाँव लगा तो राजघाट तक को नीलाम करेंगे।।

तुझसे अब क्या छुपा है बापू, खुला पड़ा सब खाता। 
इस बेला में तू होता तो, तड़प-तड़प कर मर जाता।।

यह कविता आज तो बहुत अधिक सार्थक हो रही है।

बालकविजी राजनीति की उत्तम सूझबूझ रखते थे। सोनिया और राजीव गाँधी के विवाह पर जो टिप्पणियाँ हुईं उनके जवाब में बालकविजी ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया था - ‘बहू हमेशा, दूर की लायी जाती है।’ बालकविजी अपने विचारों से, लेखों से बहुत ही विचारोत्तेजक कार्य करते थे।

एक बार वे भारत सरकार की ओर से साम्यवादी गणराज्य जर्मनी में गये थे। वहाँ के जर्मन गणतन्त्र की खुशहाली पर एक पुस्तक लिखी जो उन्होंने अपने छोटे भाई को भेंट की थी। जिसका नाम था ‘बर्लिन से बब्बू को’। उन्होंने यह किताब बडे़ प्रेम से मुझे भी पढ़ने के लिए भेजी थी।

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प्रो. रतनलाल सोनग्रा, 201 साराह एनक्लेव, विमान नगर, पुणे - 411014, 
मोबाईल 98223 28822