‘वामनपन’ के सम्मान की चिन्ता

पुराने कागज उलटते-पुलटते यह पत्र अचानक सामने आ गया। यह नितान्त निजी पत्र है। लेेकिन आज, लगभग साढ़े सोलह बरस बाद इसे पढ़ा तो लगा इसकी कुछ सार्वजनिकता भी है। इसीलिए इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ। किसी काम का न होकर भी शायद अच्छा लग जाए। यदि पढ रहे हैं तो कृपया याद रखिएगा कि सन् 2006 में (ऐसे मांगलिक प्रसंगों पर) उपहार/भेंट न लेने का निर्णय करना और दृढ़तापूर्वक उसका पालन कर लेना बहुत कठिन बात थी। रतलाम के अग्रणी चार्टर्ड अकाएण्टेण्ट श्री जे पी डफरिया से अनजान लोगों के लिए इतना ही कहना है कि ‘आन-बान-शान-स्वाभिमान और ज्ञान’ के मामलों में जेपी वो ‘खानदानी आदमी’ हैं जिनकी नजरों में आने के लिए लोग यथासम्भव उठापटक करते रहते हैं। ‘कल के वर-वधू चिरंजीवी प्रखर और चिरंजीवी रेनी आज एक बेटी और एक बेटे के माता-पिता हैं और हमें न्यौतनेवाले जेपी-पुष्पाजी दादा-दादी बन गए हैं। ‘जेपी’ से जुडा एक रोचक किस्‍सा यहॉं पढा जा सकता है।


14 जून 2006

माननीय जे पी, दी ग्रेट,

सविनय सप्रेम नमस्कार,

इस समय मेरे घर की दीवाल घड़ी में रात के ग्यारह बज कर पचीस मिनिट हो रहे हैं। चिरंजीव प्रखर के विवाह प्रसंग पर आयोजित समारोह से मैं अभी-अभी लौटा हूँ। ‘ऋतुवन’ से चला उस समय इन्दौर के कलाकार मित्र ‘चिट्ठी आई है’ गा रहे थे।

मैं घर जरूर आ गया हूँ लेकिन समारोह अभी तक मेरे साथ बना हुआ है। बिलकुल मेरी आत्मा में घुला हुआ।

मुझे याद नहीं आता कि एक-डेड़ दशक में मैं किसी विवाह समारोह में इतनी देर तक (लगभग डेड़ घण्टा) रुका रहा। अपनी इस शिरकत पर मैं स्वयम् चकित हूँ और खुद ही विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ।

ऐसे समारोह चूँकि मुझे आकर्षित नहीं करते इसीलिए बाँध कर भी नहीं रख पाते। ऐसे आयोजनों में पहुँचने से पहले ही भागने का जतन करने लगता हूँ। लेकिन आज मैं अपने आप को विस्मित नजरों से देख रहा हूँ। जाहिर है कि मेरे इस ‘नए मैं’ ने अब तक के मेरे ‘स्थापित मैं’ की स्थापित प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल आचरण किया है।

इस सबके पीछे और कोई नहीं, आप हैं। आयोजन सुन्दर तो था ही, नयनाभिराम, प्रभावी और भव्य भी था। लेकिन यह भव्यता आकर्षित कर रही थी, आतंकित नहीं। समूचे परिसर में चारों ओर सहजता और अनौपचारिकता जिस अपनेपन से पसरी हुई थी, यह उसी का प्रताप था कि मुझ जैसा अटपटा आदमी डेड़ घण्टे तक अपनी सम्पूर्ण उन्मुक्तता से न केवल वहाँ बना रहा अपितु आयोजन और व्यवस्थाओं में आत्मपरकता से शरीक होकर उनका आनन्द भी लूटता रहा। मेरी पत्नी के साथ जब मैं ऋतुवन के लिए घर से चला था तब नीरस और विकर्षित बैरागी था। लेकिन इस समय जबकि मैं ऋतुवन से लौटा ही हूँ, लबालब, सरस और आकृष्ट बैरागी हूँ।

मैं आसानी से न तो किसी से प्रभावित होता हूँ और न ही आसानी से किसी की प्रशंसा करता हूँ। यही मेरी पहचान भी है और शायद ‘निर्मिति दोष’ (मेन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट) भी। लेकिन मेरी इस कुटिलता पर आपकी सहजता और सादगी इस तरह हावी हो गई है कि मैं अपनी ही नजरों में अजनबी हो गया हूँ। 

इस सबके लिए मैं व्यक्तिगत रूप से आपका अत्यधिक आभारी हूँ। सच बात है तो यह है कि धन्यवाद और आभार जैसे शब्द अत्यन्त अपर्याप्त और बौने अनुभव हो रहे हैं। मैं आपके सम्पर्क में हूँ, यह आश्वस्ति भाव ही मेरी अमूल्य सम्पदा बन गया है। आपके कारण इस समय मुझे अपने पर मान हो रहा है। आपने एक बैरागी को समृध्द, मालामाल कर लौटाया। ईश्वर आपको शतायु बनाए और आप सदैव सुखी, पूर्ण-स्वस्थ बने रहें तथा आपकी कीर्ति पताका की ऊँचाई और आकार सदैव वर्धित हो।

एक बात के लिए आपको विशेष धन्यवाद। आपने किसी भी प्रकार का कोई भी उपहार नहीं लिया। लोग देने को उतावले बैठे थे। कुछ भी न लेने का निर्णय लेना बहुत आसान होता है किन्तु उस पर बने रहना और उसे दृढ़तापूर्वक निभा लेना अत्यधिक दुरुह होता है। भाई लोग इस निर्णय से डिगाने में विकट परिश्रम और प्रतिभा खपा देते हैं। लेकिन आप और आपके परिवार का प्रत्येक सदस्य इस निर्णय को निभाने में अद्भुत रूप से कामयाब हुआ। 

आप यदि भेंट, उपहार स्वीकार करते तो उनकी सूची बनती ही बनती। और तब, आप नहीं भी चाहते तो भी भेंट देनेवाले का मूल्यांकन अचानक और अनायास ही शुरु हो जाता। तब, केवल लिफाफे ही नहीं खुलते, पैमाने भी काम में आने लगते और भेंट देने वालों का वर्गीकरण हो जाता। भेंट न लेकर आपने ऐसे वर्गीकरण से सबको बचा लिया। आपके इस निर्णय ने ‘वामन’ और ‘विराट’ को एक ही धरातल पर समान आदर भाव से बनाए रखा। ‘विराट’ को ऐसी स्थिति से कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता लेकिन ‘वामन’ सदैव ही हीनता-बोध से ग्रस्त हो जाता है। आपके इस निर्णय से, आपके आँगन में ‘वामन’ के ‘वामनपन’ का सम्मान अक्षुण्ण बना रहा। यह बहुत बड़ी बात है और इसी के लिए मैं, मुझ जैसे तमाम ‘वामनों’ की ओर से आपको अतिरिक्त, विशेष धन्यवाद अर्पित करता हूँ। बड़ों के बड़ेपन का ध्यान तो सभी रखते हैं किन्तु छोटों के छोटेपन की चिन्ता शायद ही कोई करता हो। आपने यह चिन्ता की। यह आपका बड़ापन भी है और बड़प्पन भी। ईश्वर आपके ये दोनों गुण या प्रवृत्तियाँ न केवल बनाए रखे अपितु इनमें यथेष्ट वृध्दि भी करे।

आपके प्रेमादेश के अधीन, आपके आँगन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में मुझे अपार आत्मीय सुख और आनन्द मिला है। इतने विशाल आयोजन की भीषण व्यस्तताओं के बीच आपने मुझ अकिंचन को याद रखा भी और आग्रहपूर्वक याद किया भी, यह मुझ पर और मेरे समूचे परिवार पर आपकी बड़ी कृपा है। कृपया हम सबकी ओर से सादर कृतज्ञता स्वीकार करें और यही कृपा भाव बनाए रखने का उपकार करें।

चिरंजीवी प्रखर और सौ. रेनी को हम सबकी ओर से अकूत आशीष और मंगल कामनाएँ अर्पित कीजिएगा। ईश्वर इन बच्चों का वैवाहिक जीवन सुदीर्घ, समृध्द, स्वस्थ, सुखी, आनन्दमय और यशस्वी बनाए। ईश्वर की असीम अनुकम्पा इन बच्चों पर आजीवन बनी रहे और ये बच्चे दोनों कुल-पुरखों की आशाएँ-अपेक्षाएँ पूरी करने में समर्थ और सफल हों।

आपको और माननीया पुष्पाजी को बहुत-बहुत बधाइयाँ । आप लोग अपनी जिम्मेदारियों को प्रतिष्ठापूर्वक निभाने में सफल हो पा रहे हैं। ईश्वर की यही कृपा आप लोगों पर सदैव इसी प्रकार बनी रहे।

आज के आयोजन का, व्यंजनों का, आयोजन की व्यवस्थाओं का और इन सबसे पहले और इन सबसे ऊपर आपकी ऊष्मावान आत्मीयता का भरपूर आनन्द हम लोगों ने खूब-खूब उठाया है-दोनों हाथों से ऊलीच-ऊलीच कर। हम लोग तो ‘डफरिया रस’ से सराबोर हैं

मेरी धृष्टताओं को सदैव की तरह अनदेखी कर मुझे क्षमा कीजिएगा और मुझ पर कृपा बनाए रखिएगा ।

परिवार में सबको मेरी ओर से सादर यथायोग्य अभिवादन अर्पित कीजिएगा।

विनम्र,
विष्णु बैरागी

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