काम करने/निपटाने के लिए क्या (या, क्या-क्या) जरूरी होता है?
क्या फिजूल का, मूर्खतापूर्ण सवाल है? जैसे चाय बनाने के लिए दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती, शौक हो तो मसाला जरूरी होता है वैसे ही, कम से कम ये तीन बातें तो आवश्यक होंगी ही - काम, आवश्यक साधन/संसाधन और समुचित वातावरण।
बड़े बेटे वल्कल की, नौकरी की कठोरता और विवशताएँ अब हमें भली प्रकार समझ में आ गई हैं। सोचा, इस बार होली पर हम ही बेटे-बहू के पास चले जाएँ। माँ-बेटे में बात हुई तो बेटे ने कहा - ‘नहीं। हम ही आ रहे हैं। मुहल्ले और व्यवहार का मामला है। हम नहीं आएँगे तो सब लोग आपसे पूछताछ करेंगे। हमारा भी सबसे मिलना हो जाएगा।’ सुनकर अच्छा तो लगा किन्तु चिन्ता भी हुई - वह थक जाएगा। उसे अतिरिक्त व्यवस्था और भाग-दौड़ करनी पड़ेगी हमारे पास आने के लिए। किन्तु वह निर्णय ले चुका था।
बेटा-बहू आए। हमें अच्छा तो लगना ही था। किन्तु अच्छा लगने से पहले आश्चर्य हुआ। अनुमान था कि वह सात मार्च की रात को आएगा - दिन में नौकरी करके। लेकिन वह तो सात की सुबह, कोई सवा दस बजे ही आ गया! सोचा, छुट्टी लेकर आया होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। आते ही अपना लेप टॉप खोलकर शुरु हो गया। बोला कि वह छुट्टी लेकर नहीं, मुख्यालय छोड़ने की अनुमति लेकर आया है। यहीं हमारे साथ रहेगा और नौकरी भी करेगा।
घर पर रहकर किसी को नौकरी करते देखने का, इस प्रकार का मेरा यह पहला अनुभव था। अपने लेप टॉप पर वह ‘ऑन लाइन’ था। सन्देश आते ही उसे संकेत मिलता, वह व्यस्त हो जाता और काम निपटते ही हमसे बातें करने लगता। बीच-बीच में कभी अपनी मैनेजर से तो कभी अपने किसी सहयोगी से मोबाइल पर भी बात करता रहा। काम करना, हमसे बातें करना, भोजन-चाय-पानी करना, रात आठ बजे तक ऐसा ही चलता रहा।
अगले दिन धुलेण्डी थी। छुट्टी का दिन। सुबह ग्यारह बजते-बजते, हमारी कॉलोनी का, सामूहिक होली मिलन निपट गया और उसके कोई आधा घण्टे बाद ही हम घरवाले भी सब फुरसत में हो गए। मैं ‘पारिवारिक गप्प गोष्ठी’ के सुख का अनुमान कर ही रहा था कि यह क्या? वल्कल ने तो अपना लेपटॉप खोल लिया! हमने कहा - ‘आज तो छुट्टी है!’ उसने कहा कि हाँ छुट्टी तो है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? वह घर पर ही है और फुरसत में है। उसकी मैनेजर नई-नई है और मुमकिन है उसे (नई मैनेजर को) किसी सहायता की आवश्यकता पड़ जाए। सो, उसने सन्देश कर दिया कि यदि कम्पनी को उसकी (वल्कल की) आवश्यकता हो तो वह ऑन लाइन उपलब्ध है। हमारे सवालों के जवाब में वल्कल ने सहजता से बताया कि आज काम करने के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाएगा और न ही यह बात अलग से उल्लेखित की जाएगी। सब कुछ ‘आपसी समझ’ की बात है।
उस पूरे दिन भी वल्कल ऑन-लाइन ही रहा। दिन भर में उसे चार-पाँच सन्देश मिले जिन्हें उसने सहज भाव से निपटाया। उसका इस तरह काम करना हमारे लिए अजूबा तो था किन्तु हमारी गप्प गोष्ठी में रंचमात्र भी व्यवधान नहीं आया और न ही हमारी गप्प गोष्ठी उसके काम काज में कहीं बाधक बनी। सब कुछ, सामान्य दैनन्दिन व्यवहार की तरह चलता रहा। वल्कल ने बताया कि इस तरह काम करना, निजी कम्पनियों में आजकल चलन बनता जा रहा है। कर्मचारी दफ्तर में आए या पूर्व सूचना देकर/अनुमति लेकर घर रहे, कम्पनी को काम चाहिए।
अगले दिन बेटा-बहू लौट गए। जैसा कि मैंने कहा ही है, उनका आना हमें अतीव सुखकर लगा किन्तु वह मुझे नया अनुभव दे गया है। अपना काम करने के लिए वल्कल ने अपना लेप टॉप कभी गोद में रखा, कभी स्टूल पर, कभी बिस्तर पर तो कभी सोफे पर। उसे व्यवस्थित टेबल-कुर्सी की या आधुनिक फर्नीचरवाले ‘क्यूबिकल’ की या समुचित हवा-प्रकाश की व्यवस्था की आवश्यकता क्षण भर भी अनुभव नहीं हुई।
बड़े बेटे वल्कल की, नौकरी की कठोरता और विवशताएँ अब हमें भली प्रकार समझ में आ गई हैं। सोचा, इस बार होली पर हम ही बेटे-बहू के पास चले जाएँ। माँ-बेटे में बात हुई तो बेटे ने कहा - ‘नहीं। हम ही आ रहे हैं। मुहल्ले और व्यवहार का मामला है। हम नहीं आएँगे तो सब लोग आपसे पूछताछ करेंगे। हमारा भी सबसे मिलना हो जाएगा।’ सुनकर अच्छा तो लगा किन्तु चिन्ता भी हुई - वह थक जाएगा। उसे अतिरिक्त व्यवस्था और भाग-दौड़ करनी पड़ेगी हमारे पास आने के लिए। किन्तु वह निर्णय ले चुका था।
बेटा-बहू आए। हमें अच्छा तो लगना ही था। किन्तु अच्छा लगने से पहले आश्चर्य हुआ। अनुमान था कि वह सात मार्च की रात को आएगा - दिन में नौकरी करके। लेकिन वह तो सात की सुबह, कोई सवा दस बजे ही आ गया! सोचा, छुट्टी लेकर आया होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। आते ही अपना लेप टॉप खोलकर शुरु हो गया। बोला कि वह छुट्टी लेकर नहीं, मुख्यालय छोड़ने की अनुमति लेकर आया है। यहीं हमारे साथ रहेगा और नौकरी भी करेगा।
घर पर रहकर किसी को नौकरी करते देखने का, इस प्रकार का मेरा यह पहला अनुभव था। अपने लेप टॉप पर वह ‘ऑन लाइन’ था। सन्देश आते ही उसे संकेत मिलता, वह व्यस्त हो जाता और काम निपटते ही हमसे बातें करने लगता। बीच-बीच में कभी अपनी मैनेजर से तो कभी अपने किसी सहयोगी से मोबाइल पर भी बात करता रहा। काम करना, हमसे बातें करना, भोजन-चाय-पानी करना, रात आठ बजे तक ऐसा ही चलता रहा।
अगले दिन धुलेण्डी थी। छुट्टी का दिन। सुबह ग्यारह बजते-बजते, हमारी कॉलोनी का, सामूहिक होली मिलन निपट गया और उसके कोई आधा घण्टे बाद ही हम घरवाले भी सब फुरसत में हो गए। मैं ‘पारिवारिक गप्प गोष्ठी’ के सुख का अनुमान कर ही रहा था कि यह क्या? वल्कल ने तो अपना लेपटॉप खोल लिया! हमने कहा - ‘आज तो छुट्टी है!’ उसने कहा कि हाँ छुट्टी तो है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? वह घर पर ही है और फुरसत में है। उसकी मैनेजर नई-नई है और मुमकिन है उसे (नई मैनेजर को) किसी सहायता की आवश्यकता पड़ जाए। सो, उसने सन्देश कर दिया कि यदि कम्पनी को उसकी (वल्कल की) आवश्यकता हो तो वह ऑन लाइन उपलब्ध है। हमारे सवालों के जवाब में वल्कल ने सहजता से बताया कि आज काम करने के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाएगा और न ही यह बात अलग से उल्लेखित की जाएगी। सब कुछ ‘आपसी समझ’ की बात है।
उस पूरे दिन भी वल्कल ऑन-लाइन ही रहा। दिन भर में उसे चार-पाँच सन्देश मिले जिन्हें उसने सहज भाव से निपटाया। उसका इस तरह काम करना हमारे लिए अजूबा तो था किन्तु हमारी गप्प गोष्ठी में रंचमात्र भी व्यवधान नहीं आया और न ही हमारी गप्प गोष्ठी उसके काम काज में कहीं बाधक बनी। सब कुछ, सामान्य दैनन्दिन व्यवहार की तरह चलता रहा। वल्कल ने बताया कि इस तरह काम करना, निजी कम्पनियों में आजकल चलन बनता जा रहा है। कर्मचारी दफ्तर में आए या पूर्व सूचना देकर/अनुमति लेकर घर रहे, कम्पनी को काम चाहिए।
अगले दिन बेटा-बहू लौट गए। जैसा कि मैंने कहा ही है, उनका आना हमें अतीव सुखकर लगा किन्तु वह मुझे नया अनुभव दे गया है। अपना काम करने के लिए वल्कल ने अपना लेप टॉप कभी गोद में रखा, कभी स्टूल पर, कभी बिस्तर पर तो कभी सोफे पर। उसे व्यवस्थित टेबल-कुर्सी की या आधुनिक फर्नीचरवाले ‘क्यूबिकल’ की या समुचित हवा-प्रकाश की व्यवस्था की आवश्यकता क्षण भर भी अनुभव नहीं हुई।
दूसरी ओर हमारे सरकारी दफ्तर हैं। मुझे प्रति दिन, कम से कम दो-तीन सरकारी कार्यालयों में जाना होता है। मैं देखता हूँ कि लोग अपने कागज हाथों में लिए खड़े रहते हैं और दफ्तरों में सन्नाटा पसरा रहता है। बाबू लोग या तो चाय की गुमटी पर मिलते हैं या फिर अपना निजी/घरु काम निपटाने के लिए कहीं गए होते हैं। संयोग से यदि दफ्तर में मौजूद मिलते हैं तो काम टालने की मानसिकता से। सरकार ने कार्यालय खोल रखे हैं, कुर्सियाँ-टेबलें लगा रखी हैं, बिजली-पंखों-पानी की व्यवस्था कर रखी है किन्तु लोगों के काम नहीं होते। कागजों में कर्मचारियों की हाजरी लगी रहती है और कर्मचारी गैरहाजिर। दूसरी ओर, निजी कम्पनियाँ हैं कि अपने काम से काम रखती हुईं, अपनी पाई-पाई वसूल करती हैं।
मुझे ज्ञान प्राप्ति हुई। दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती (और चाय मसाला भी) हो तो इसका मतलब यह नहीं कि चाय मिल ही जाएगी। चाय बनाने की ललक पहली शर्त है। ललक हो तो आदमी सारे सरंजाम जुटा ले और ललक न हो सारे सरंजाम धरे के धरे रह जाते हैं।
मुझे ज्ञान प्राप्ति हुई। दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती (और चाय मसाला भी) हो तो इसका मतलब यह नहीं कि चाय मिल ही जाएगी। चाय बनाने की ललक पहली शर्त है। ललक हो तो आदमी सारे सरंजाम जुटा ले और ललक न हो सारे सरंजाम धरे के धरे रह जाते हैं।
निजी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों में चाय बनाने की ललक पैदा करने में सफल हो रही हैं और सरकारी दफ्तरों का सरंजाम विकर्षक बन कर, राष्ट्रीय समस्या में तब्दील है।
मोटिवेशन - पब्लिक सेक्टर बैंक में मेरी नौकरी के दिनों का बज़वर्ड था (प्रेरणा? अभिप्रेरण? गाजर?) अधिकारियों के लिये ड्यूटी ऑवर्स नहीं थे, वे 24 घंटे के कर्मचारी समझे जाते थे और कर्मचारियों के कुछ वर्ग समय पर अपनी सीटों पर नज़र आते थे, कुछ ठेके पर काम करते थे जिसे आज के फ्लेक्सिऑवर्स का समकक्ष माना जा सकता है, कुछ कर्मी विशेषकर महिलायें ये दोनों काम ही करते थे, मतलब बिज़नेस ऑवर्स में सीट पर भी होते थे और अपना काम भी यथासम्भव पूरा करते थे। कुछ कर्मचारी सीट से अनधिकारिक अनुपस्थिति की बात सुनते ही मरने-मारने को तैयार हो जाते थे। मेरे लम्बे कार्यकाल में ऐसे किसी कर्मचारी की कोई शिकायत किसी ग्राहक ने कभी नहीं की, अलबत्ता उनकी चाय का भुगतान अक्सर कुछ ग्राहक समूह करते पाये गये। मुझे अब तक की हर नौकरी में फ़्लेक्सिऑवर्स की सुविधा भी मिली है और काम घर ले जाने का अनुभव भी केनरा बैंक के ज़माने से ही है (तब तकनीक फ़र्क थी), इसलिये बन्धे हुए घंटे और बन्धा हुआ काम या ओवरटाइम की कोई कल्पना कभी मन में आयी ही नहीं मगर आपका बालसुलभ आश्चर्य अच्छा लगा। आपकी एक पुरानी पोस्ट पर की गयी यह टिप्पणी नये प्रकाश में पुनः पढी जा सकती है।
ReplyDeleteनये विधान की ओर बढ़ रही हैं नौकरियाँ, हम सरकारी होने के बाद भी २४ घंटे उपलब्ध बने रहते हैं।
ReplyDeleteस्फूर्तिदायक.
ReplyDeleteघर से काम करना ! खूब देखने को मिलता है .लेकिन घर,घर नहीं रहता- किसी समय निश्चिंत हो कर कहाँ बैठ पाते हैं वे लोग !
ReplyDeleteविष्णु जी, टिप्पणियाँ स्पैम में जा रही हैं, देख लीजिये।
ReplyDeleteसर धन्यवाद, आपके कारण कुछ और टिप्पणियां भी 'स्पैम' की चादर हटा कर ब्लॉग पटल पर आ गयी हैं. अपनी पैनी लेकिन कृपालु दृष्टी बनाये रखियेगा.
Deleteअच्छा लगा यह जान कर कि आपके पुत्र को भी ऐसी नौकरी मिली है जो उसे होली के समय आपके करीब बनाए रखी. IIT फिर अमरीका से एमएस किया मेरा भतीजा चेन्नई में अपने घर से ही काम करता है. दफ्तर जाने कि जरूरत ही नहीं पड़ती. माह में ४/६ बार दौरों में दूर दूर जाना भर पड़ता है. ऑनलाइन कोंफेरेंसिंग भी होती रहती है, वेबकेम के जरिये. काम ही कुछ वैसा है.
ReplyDeleteसरकार ने कार्यालय खोल रखे हैं, कुर्सियाँ-टेबलें लगा रखी हैं, बिजली-पंखों-पानी की व्यवस्था कर रखी है किन्तु लोगों के काम नहीं होते।
ReplyDeleteकभी सरकारी मुलाजिम था सो अनुभव है. वहाँ "पास द बॉल ऑन अदर्स कोर्ट" वाला मामला चलता है - यानी पूरा पक्का लालफीताशाही. काम न कर, काम का फिक्र कर और हर जगह काम का जिक्र कर यह फार्मूला भी वहाँ बहुत चलता है.
जी, बहुत अच्छा अनुभव, हम भी पिछले १३ वर्षों से इसी तरह लगे हुए हैं, २४ घंटे उपलब्ध । वल्कल के लिये शुभकामनाएँ, उनका भविष्य उज्जवल हो। हमारी बधाई ।
ReplyDeleteरस्तोगी जी बहुत बहुत धन्यववाद. हमारी और से भी शुभेच्छाएं स्वीकार करे.
DeleteSir,this is very common these days in pvt.sector.
ReplyDeleteBade package offer karnewale 'Nijikshetra' ko result chaahiye,bina kisi aadambar ke.Kahne ko vahaan 5 din ka saptah hai par kaam 24 x 7 aur 365 days chaahiye.
ReplyDeleteआदरणीय भाई साब, आप हमारे ऑफिस मे आकर देखिये,सब काम करते ही नज़र आएंगे,यह वह सरकारी ऑफिस नही है,जैसा अकोहम मे लिखा हे । Ravi Sharma
ReplyDeleteअंतर्राष्ट्रीय कंपनियों में इस तरह से काम करवाया जा भी सकता है। लेकिन, न्यूज़ चैनल का क्या... यहां तो ऑफिस आए बिना, फिल्ड में जाए बिना काम ही नहीं बनता है। वैसे घर में रहकर ही काम कर लेना महिलाओं खासकर जिनके बच्चे छोटे है उनके लिए बहुत कारगर तरीका है।
ReplyDeleteतुम ठीक कह रही हो दीप्ति। किन्तु प्रत्येक काम की अपनी प्रकृति होती है जिसे बदल पाना किसी के बस में नहीं होता।
Deleteयेई सुनने में जितना अच लगता है असल में वास्तविकता में उतना ही कठिन है, खास कर के महिलाओ के liye. घर से छोटे बचो के साथ कम करना और दूभर है. कुछ सोचने समझने का आप काम नहीं कर सकते, बच्चे अपने पे से ध्यान हटने कहा देते है, और फिर उन्हें भी लैपटॉप चाहिए अपनी हाथ सफाई के लिए :)
Delete