आज ही, दोपहर लगभग बारह बजे, 'दशमलव' पर (मुझे क्षमा करें, मुझे पर्मालिंक देना
नहीं आता) ललित कुमारजी की इसी शीर्षकवाली पोस्ट पर की गई अपनी टिप्पणी के निर्वहन में यह पोस्ट लिख रहा हूँ। फिल्म बन्दिनी के, नारी मन की करुणा को व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदलनेवाले इस कालजयी गीत की शास्त्रीयता और अन्तःरचना पर ललित कुमारजी ने सब कुछ कह ही दिया है। यह संयोग ही है कि इस गीत के बारे में खुद सचिन दा’ के मुँह से सुनी वे कुछ बातें मेरी यादों की कोठरी में मिल गईं जो कहीं न कहीं इस गीत की रचना के मूल में हैं।
सचिन दा’ के दर्शन मैंने पचमढ़ी में किए थे। 10 अगस्त 2007 को मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित एस.डी.बर्मन : क्रिकेट और 'ड्रा' पोस्ट पर सारे ब्यौरे विस्तार से पढ़े जा सकते हैं।
सचिन दा’ ने शैलेन्द्रजी सहित अनेक फिल्मी गीतकारों के बारे में विस्तार से बातें की थीं।
शैलेन्द्रजी के बारे में बातें करते हुए वे बार-बार कठिनाई अनुभव करते नजर आ रहे थे। लग रहा था कि मुक्त कण्ठ से शैलेन्द्रजी की प्रशंसा करने के बाद भी उन्हें अपनी बात अपर्याप्त लग रही हो। मानो, शैलेन्द्रजी के साथ समुचित न्याय नहीं कर पाने से परेशान हों। वे ‘अभिभूत भाव’ से शैलेन्द्रजी के बारे में बता रहे थे।
शैलेन्द्रजी के बारे में कही गई उनकी कुछ बातें जो मुझे इस समय याद आ रही हैं उनमें शैलेन्द्रजी की रचनाओं की सहज और सादी शब्दावली, अपने साथ करनेवालों तथा अन्य गीतकारों के प्रति आदर भाव, उनके (शैलेन्द्रजी) आचरण में कलम के प्रति ईमानदारी और जिस बात के वे (सचिन दा’) सबसे ज्यादा कायल थे - लोक जीवन को उसकी सम्पूर्णता में आत्मसात कर उसे, अनुपम भाव प्रवणता से, उतनी ही सम्पूर्णता से अपने गीतों में प्रस्तुत कर देना।
सचिन दा’ के मुताबिक, लोक जीवन के बारे में बातें करना और सुनना शैलेन्द्रजी का प्रिय शगल था। ऐसे ही क्षणों में, बातें करते हुए सचिन दा’ ने बंगाल के गाँवों के बारे में शैलेन्द्रजी को बताया था। बंगाल के गाँवों में अधिकांश घरों के सामने छोटे-छोटे तालाब (पोखर) होते हैं जहाँ गृहिणियाँ सुबह-शाम अपने घरों के बर्तन धोते-माँजते, लोक गीत गुनगुनाती रहती हैं। गाँव का यही दृष्य वर्णन करते समय सचिन दा’ ने बताया था कि नई-नई ब्याही लड़कियाँ, बर्तन धोते-माँजते समय गीत गाते हुए, अपने पिता को सन्देश देती हैं - विवाह के बाद वाले पहले सावन में, रक्षा बन्धन के त्यौहार पर मुझे बुलवा लेना और लिवाने के लिए भैया को भेज देना।
शैलेन्द्रजी की बात करते हुए सचिन दा’ ने भावाकुल होकर बताया था कि यह वर्णन सुनकर शैलेन्द्रजी रोने लगे थे और कुछ देर बात, तनिक संयत होकर कहा था - ‘दादा! यह सिचुएशन मेरी हुई। आप किसी और को यह मत देना। इसे मैं ही लिखूँगा।’
कहने के बाद सचिन दा‘ थोड़ी देर रुके थे और गहरी साँस लेकर कुछ ऐसा कहा था - ‘उसके बरसों बाद बन्दिनी फ्लोर पर आई और शैलेन्द्र को गीत लिखने का जिम्मा मिला। जब उन्होंने यह गीत मेरे सामने रखा तो पढ़कर मुझे रोना आ गया। शैलेन्द्र ने ही याद दिलाया कि यह सिचुएशन मैंने ही उन्हें बताई थी।’ मुझे खूब अच्छी तरह याद है, सचिन दा‘ ने कहा था - ‘मेरा नरेशन सुनकर शैलेन्द्र को रोना आया था और शैलेन्द्र का लिरिक पढ़कर मुझे रोना आया था।’
उसके बाद, इस गीत को लेकर जो कुछ हुआ, वह सब तो ललित कुमारजी सन्दर्भ सहित पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं।
मेरे लिए तो कहने को कुछ बचा ही नहीं।
(चित्र में खडे हुए, बॉंये से - मैं और दादा। कुर्सियों पर बैठे हुए, बॉंये से - श्रीमती बर्मन, सचिन दा' और मेरी भाभीजी। फर्श पर बैठे हुए, बॉंये से - मेरा छोटा भतीजा गोर्की औरबडा भतीजा मुन्ना।)
मधुर ऐतिहासिक क्षणों की स्मृतियां.
ReplyDeleteस्मृतियों से गुजरना और स्मृतियों को सुनना, अद्भुत आनंद देता है.शब्दों ने अनुभूति को हम तक पहुंचाया और श्वेत-श्याम चित्र ने अनुभूतियों को सजीव कर दिया.
ReplyDeleteभावनाओ का ज्वार लाने वाली यादें..
ReplyDeletethanks for best memorable moment and unpredicable
ReplyDeletephotograph.
sorry predictable.
ReplyDeleteबहुत भावुकता पूर्ण पोस्ट है। यदि किसी व्यक्ति को भावुक क्षणों में रोना नहीं आता तो वह इंसान नहीं है। आप को सहज ही रोना आता भी है और
ReplyDeleteऔरों को भी रुला देते हैं।
टाइपिंग में कुछ त्रुटियाँ छूट गई हैं। आप एक बार अपने इस आलेख को दुबारा पढ़ेंगे तो ठीक हो लेंगी।
मुझसे अधिक भाग्यशाली और कौन होगा? मेरी पोस्ट परटिप्पणी करने से पहले दिनेशजी ने मुझे फोन करके मेरी चूक बताई। मैंने, इस पोस्ट में उल्लेखित अपनी पोस्ट की तारीख 10 अगस्त 1907 लिख दी थी जो वास्तव में 10 अगस्त 2007 थी।(ब्लॉग जगत में मेरी पैदाइश ही, मई 2007 में हुई है।)
ReplyDeleteमैंने इस पोस्ट में आवश्यक सुधार कर दिया है।
कोटिश: आभार दिनेशजी। इसी प्रकार मुझ पर नजर बनाए रखने का उपकार कीजिएगा।
विष्णु जी, आपके आलेख से कई भावपूर्ण व नई जानकारियाँ मिली। मेरे लेख में रह गई कमी को पूरा करने के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteइसे कहा जा सकता है, उच्च स्तरीय भावनात्मक साहित्यिक संवाद..
ReplyDeleteजब भी वह गीत सुनता था, सोचता था कि ऐसे मर्मस्पर्शी गीत कैसे बनते हैं, क्या सचमुच लोग इस दर्द से गुज़रे होंगे। उस गीत की परिस्थिति को भी देखना चाहता था। ज़िन्दगी के जंजालों की अपनी प्राथमिकतायें रहीं मगर पिछले महीने यात्राओं के दौरान केवल उस गीत के कारण थोड़ा-थोड़ा करके बन्दिनी देखी। थोड़ा बहुत तब समझा, जो कुछ छूट गया था आपकी इस पोस्ट से सुलझ गया। आभार! [आप हैं बड़े किस्मतवाले!]
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