संजय ने खिल्ली उड़ाई तो एक साथ कई बातें याद आ गईं।
कुछ दिनों पहले, मनासा में हम तीन सहपाठी मिले थे। अपने-अपने बच्चों के काम-काज की बात चली तो दोनों दुःखी मिले। दोनों के बेटे घर-खर्च इतनी कमाई तो कर लेते हैं किन्तु ‘काम-धाम’ कुछ नहीं करते। बात अजीब थी। खुल कर बोले कि दोनों जमीनों की दलाली करते हैं। दिन भर कुछ नहीं करते। इधर-उधर फोन करते रहते हैं। कोई नियमित और अनुशासित दिनचर्या नहीं। महीने-बीस दिन में कोई सौदा हो जाता है और एक झटके में महीने भर का खर्च निकल आता है। मैंने कहा - ‘तो तुम दोनों को तो खुश होना चाहिए। वे (दोनों बेटे) अपनी जिम्मेदारी तो निभा रहे हैं।’ एक ने मुझे कुछ इस तरह टोका - ‘तू तो ऐसी बात मत कर। जमीनों की दलाली कोई धन्धा नहीं होता। यह तो लालच है जो मेरे बेटे को लालची और निकम्मा बना रहा है। इससे पैसे तो मिल रहे हैं किन्तु जिन्दगी नहीं बन रही। इससे बड़ी बात कि वह बदतमीज भी होता जा रहा है। वह न तो परिश्रम कर रहा है और न ही पुरुषार्थ।’
संजय ने भी कहा तो यही सब था किन्तु अन्तर यही था कि मेरा सहपाठी अपने बेटे की मानसिकता से चिन्तित था जबकि संजय जमीन दलालों की खिल्ली उड़ा रहा था।
संजय को किसी के लिए किराए के मकान की तलाश थी। उसी से मालूम हुआ कि मेरे कस्बे में भी यह काम दलाल करने लगे हैं। मैं समझ रहा था कि केवल महानगरों में ही यह प्रथा चल रही है। मैंने संजय से पूछा - ‘अपने यहाँ भी इसके दलाल हैं क्या?’ उसने चौंकाया - ‘हैं क्या से आपका क्या मतलब? हैं और ढेर सारे हैं। एक की तलाश करेंगे तो दस मिल जाएँगे।’ मैंने पूछा - ‘यह इतना आसान काम है?’ संजय मेरे ‘बुद्धूपन’ पर खिलखिलाया। बोला - ‘आप समझ रहे होंगे कि बीमा एजेण्ट की तरह ही प्रॉपर्टी ब्रोकर बनने के लिए भी लायसेन्स लेना पड़ता होगा। ऐसा नहीं है। जिसे कोई काम नहीं मिलता वह प्रापर्टी ब्रोकर बन जाता है। करना क्या है? बढ़िया विजिटिंग कार्ड छपा लो, सफेद, कलफदार कुर्ता-पायजामा पहन लो और खुशबूदार पान चबा लो। बन गए प्रापर्टी ब्रोकर। न तो कोई क्वालिफिकेशन चाहिए न ही केपिटल लगानी है। कोई कानूनी जिम्मेदारी तो है ही नहीं।’ मैंने कहा - ‘याने नेताओं जैसा धन्धा?’ संजय ने कहा - ‘उससे भी अच्छा। नेता को तो फिर भी लोगों के पास जाना पड़ता है। भाइयों-बहनों करना पड़ता है। यहाँ तो वह भी नहीं। लोग खुद चल कर आपके पास आएँगे और आपकी खुशामद करेंगे।’
मुझे याद आया, अपना लेपटॉप ठीक कराने मैं भाई मनीष भटनागर की दुकान पर गया था तो दो-एक ग्राहक बैठे थे और वे (मनीष भाई) अकेले ही काम कर रहे थे। मैंने कहा - ‘कोई सहायक क्यों नहीं रख लेते?’ मनीष भाई का बताया किस्सा यह था कि कर्मचारी समय पर नहीं आते। पूछताछ करो तो कहते हैं - ‘आप कितनी तनख्वाह दोगे? जितनी माँगूँगा उससे हजार-पाँच सौ ज्यादा दे दोगे। यहाँ तो मैं प्लॉट का एक सौदा करता हूँ और पचीस-पचास हजार कमा लेता हूँ।’ मनीष भाई को कष्ट कर्मचारियों की अनियमितता और ऐसे उत्तर का नहीं, कष्ट इस बात का था कि नौजवानों का कामकाजी तकनीकी ज्ञान व्यर्थ जा रहा है और मेहनत की आदत छूटती जा रही है।
मुझे बरबस ही यह भी याद आने लगा कि मेरे कई अभिकर्ता मित्र भी इसी काम में लगे हुए हैं और शाखा कार्यालय में बैठकर बीमे की बातें कम और प्लॉटो के सौदों की और जमीनों के भाव की बातें ज्यादा करते हैं।
मुझे यह भी याद आया कि दलाल तो मैं भी हूँ किन्तु मुझे नियमित और निरन्तर काम करते रहना पड़ता है। मेरी कम्पनी मुझे एक सुनिश्चित लक्ष्य देती है जिसे हासिल करना मेरी बाध्यता होती है। मैं अपनी मर्जी से भले ही एक दिन, दो दिन या लगातार पाँच-सात दिन काम न करूँ किन्तु निर्धारित लक्ष्य तो हासिल करना ही है। फिर, मेरा काम ऐसा भी नहीं है कि एक बार सौदा हो जाने के बाद सामनेवाले से अन्तिम बार नमस्कार कर लूँ। इसके उलटे, जिस क्षण बीमा बिकता है, उसी क्षण से सामनेवाले से मेरा रिश्ता शुरु होता है जो तब तक चलता है जब तक कि पॉलिसी पूरी न हो जाए। मैं ऐसा दलाल हूँ जिसे न केवल चौबीसों घण्टे सक्रिय रहना पड़ता है अपितु मुझे तो ग्राहकों के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं जबकि प्रापर्टी ब्राकरों के पास तो लोग चलकर जाते हैं। काम तो हम दोनों ही दलाली का करते हैं किन्तु दोनों के काम का चरित्र सर्वथा भिन्न। पूरब-पश्चिम जैसा। मेरा काम निरन्तर दौड़-भाग माँगता है जबकि प्रापर्टी ब्रोकर एक झटके में महीने भर का काम कर लेता है।
क्या जमीनों की दलाली का काम वास्तव में आदमी को अकर्मण्य और लालची बनाता है?
यह कार्य सरल नहीं है, इसमें बहुत मेहनत पड़ती है। बंगलोर में बहुत फल फूल रहा है यह व्यवसाय। एक अच्छी सेवा है जिसका लाभ खरीदने वाले और बेचने वाले, दोनों को होता है।
ReplyDeleteउन लोगों को फलते फूलते देख शायद हमें ईर्षा होती है.
ReplyDeleteAap ashcharya karenge par jaise kaha jata hai ki Ujjain main jahan khade ho jao wahan kam se kam 1 Mandir milega,
ReplyDeleteus se badkar, Ratlam Bharat ka 1 matra shahar hai jiske liye kaha jata hai:
Jahan khade ho jao KAI dalal milenge..... aur yeh sach hai
कर्म और अकर्मण्य, लालच की अपनी-अपनी व्याख्या है. एक मजदूर या रिक्शा वाला अधिक कर्मण्य है या कोई कलमघिस्सू.
ReplyDeleteई'मेल से प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्रजी करमरकर की टिप्पणी -
ReplyDeleteरतलाम में, हर दस आदमियों में से एक आदमी जमीनों का दलाल है। कोई अंषकालिक, कोई पूर्णकालिक, कोई शौक के लिए, कोई मौज के लिए, कोई घूमने के लिए, कोई मॉं-बाप को समझाने के लिए। इन दलालों की शब्दाली कुछ ऐसी होती है - 'मरे का माल', 'आग लग गई क्या', 'सई-खई', 'अमाउण्ट ढुस' आदि-आदि।
दिल्ली में रहते हुए इन "दलालों" से काफ़ी साबका पड़ा था। भारत में इस प्रकार के अकर्मण्य/अनुत्पादक व्यवसाइयों को मिली खुली छूट काफ़ी विचलित करती थी। मगर जिस देश में ग़ैरकानूनी होते हुए भी वैश्यावृत्ति जैसे व्यवसाय तक अधिकांश नगरों में चलते हों, वहाँ सम्पत्ति की दलाली की कौन कहे। इन दलालों के पिताओं के विचार जानकर दिल को थोडी ठंडक पहुँची। काश वे लोग कुछ ठोस कर पाते।
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