गए कुछ दिनों से माँ बहुत याद आ रही है।
किन्तु भला यह भी कोई बात हुई? याद तो उसकी याद आती है जिसे भुला दिया जाए! भला माता-पिता को भुलाया जा सकता है? फिर, माँ के तो हम ‘देहांश’ हैं! माँ का 'देहावसान' अवश्य होता है किन्तु माँ मरती कभी नहीं। वह तो रक्त बनकर हमारी धमनियों में दौड़ती रहती है। चौबीसोंचौबीसों घण्टे। तब भी, जब हम सो रहे होते हैं।
इस चार अप्रेल को पूरे चौबीस बरस हो जाएँगे माँ को मरे। किन्तु गए कुछ दिनों से माँ याद आ रही है। रह-रह कर। बार-बार।
गए कुछ दिनों से मेरे मोबाइल पर ‘शुभ-प्रभात एसएमएस’ (गुड मार्निंग एसएमएस) की मानो बाढ़ आई हुई है। थोड़ी सी बरसात में, गाँव-खेड़े के नाले में जिस तरह पूर आ जाता है, सुबह के दस बजते-बजते, लगभग वैसी ही दशा मेरे मोबाइल की ‘सन्देश पेटी’ की हो जाती है। यह ‘फेस बुक कृपा’ ही है कि भेजनेवालों में कुछ ही देखे-जाने-पहचाने होते हैं, अनदेखे और केवल नाम से पहचाने अधिक। यह भी प्रतिदिन ही होता है कि भेजनेवाले तो अलग-अलग होते हैं किन्तु ‘फारवर्ड कृपा’ के चलते, सन्देश एक ही होता है। स्थिति यह बनती है कि भेजनेवाले तो उन्नीस और सन्देश गिनती के सात।
ये ‘शुभ प्रभात एसएमएस’ ही मुझे माँ की याद दिला रहे हैं।
माँ की आवाज तो मीठी ही होती है। किन्तु मुझे कहने दीजिए कि मेरी माँ की आवाज कुछ अधिक और अतिरिक्त मीठी थी। कुछ ऐसी और इतनी मानो शहतूतों में रस समा नहीं रहा हो। टप-टप टपक रहा हो। निरन्तर। नहीं जानता कि अपने कण्ठ स्वर के इस ईश्वर प्रदत्त अतिरिक्त मिठास की जानकारी उसे थी या नहीं किन्तु जब-जब भी कोई गीत गाती, यह मिठास इस तरह घर-आँगन में बिखर जाती मानो कोई गुड़ की भेली द्रव में बदलकर बहने लगी हो। उसके पास लोक गीतों और भजनों का मानो चिरन्तन कोष था। मालवी लोक जीवन के प्रसंगों से जुड़े गीतों की भरमार थी उसके पास। ‘पारसियों’ (पहेलियों) और ‘गालियों’ में वह विशेषज्ञ थी। अपनी बेटी को ब्याह के बाद पहली बार मायके लिवाने आये अच्छे-अच्छे ‘चतुर-सुजान’ उसकी ‘पारसियों’ को ‘खोलने’ (सुलझाने) में असमर्थ-असफल रह कर, समधिनों के उपहास के स्थायी पात्र बने रहे। वह अपनी भजन-गीत-मण्डली की नेता भले ही नहीं थी किन्तु ‘अनिवार्य’ से कोसों आगे बढ़कर ‘अपरिहार्य’ सदस्य अवश्य थी। वह अपनी मण्डली की सबसे बड़ी शक्ति और ‘पारसियों’ के मामले में अचूक अस्त्र थी।
दिन भर में बीसियों बार मुझे ‘एदी’ (गन्दा/घिनौना), आलसी और निकम्मा कहनेवाली मेरी माँ की सुबह उन मालवी प्रभातियों से होती जिनके जरिए वह मुझे ‘कान्हा’, ‘विट्ठल’ जैसे सम्बोधनों से दुलराते हुए थपथपाती थी। रोज नई-नई प्रभातियाँ गाती किन्तु एक प्रभाती कभी नहीं चूकती -
जागो नी म्हारा परथी का पालनहार,
विठल वेगो जाग रे!
चूँ-चूँ करती चिड़ियाँ बोली, राँभी रामी गाय।
थारे कारण उबो रे कान्हा, ग्वालिड़ा को साथ।
विठल वेगो जाग रे!
निन्द्रा मग्न ‘बाल कृष्ण’ को सम्बोधित इस प्रभाती का अर्थ कुछ इस तरह से होगा - हे! पृथ्वी के पालनहार! उठिए। जागिए। चिड़ियाएँ चहचहा रही हैं, गायें रँभा रही हैं, ग्वाल-बाल आपकी प्रतीक्षा में खड़े हैं। हे! विट्ठल, जागिए।
एसएमएस पढ़ने में मुझे अत्यधिक असुविधा होती है और लिखने में तो मेरी नानी मरती है। कभी लिखना पड़ता है तो लिखने से पहले ही थकान आ जाती है। गए कुछ दिनों से मिल रहे ‘शुभ प्रभात एसएमएस’ से भी मुझे यही सब हो रहा है। जवाब मैंने एक का भी नहीं दिया है। दूँगा भी नहीं। किन्तु ये एसएमएस अनायास ही मुझे मेरी मीठी माँ से जोड़ रहे हैं। मैं इसी बात से खुश हूँ।
ये ‘तकनीकी प्रभातियाँ’ निस्सन्देह मुझे ‘कान्हा’ और ‘विट्ठल’ कह कर नहीं पुकार रहीं किन्तु इन सन्देशों में मैं अपनी माँ की सूरत देख रहा हूँ और ‘एसएमएस’ की सूचना देने वाली ‘टिन-टिन’ में उसके शहतूती स्वरों को सुनने की कोशिश कर रहा हूँ।
सही कहा आपने. माँ धमनियों में बसी होती है.
ReplyDelete...एसएमएस पढ़ने में मुझे अत्यधिक असुविधा होती है और लिखने में तो मेरी नानी मरती है। कभी लिखना पड़ता है तो लिखने से पहले ही थकान आ जाती है। ...
ReplyDeleteमैं इन कंपनियों का प्रतिनिधि नहीं हूं, मगर आप इनमें से कोई टच स्क्रीन फ़ोन खरीद लें तो आपकी समस्या का स्थाई समाधान हो जाएगा. और, शायद ये आपके बीमा व्यवसाय में काम भी आएं -
सैमसंग गैलेक्सी एस या नोट
नोकिया ल्यूमिया 710 या 800
हाँ, स्क्रीन साइज 3.5 इंच से अधिक हो यह ध्यान रहे. जितना बड़ा स्क्रीन उतना अच्छा, पर यह जेब में भी समाए ऐसा हो.
प्रात जगाये माँ की बोली..
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! मन प्रसन्न हुआ!
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