ऐसा होता तो होगा किन्तु यदि मैं अपने अनुभव के आधार पर बात करूँ तो कह सकता हूँ कि यह ‘अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग’ है। पूरे 36 वर्षों में पहली बार मुझे यह अनुभव हुआ है।
इन्दौर और उज्जैन के बीच में एक गाँव पड़ता है - साँवेर। इन्दौर से उज्जैन जाते हुए इन्दौर से 32 किला मीटर की दूरी पर। वहाँ से उज्जैन की दूरी 20 किला मीटर रह जाती है। इसी साँवेर में मेरी ससुराल है। 17 फरवरी 1976 को मेरा विवाह हुआ था। श्रीयुत गोवर्द्धनदासजी महन्त की बड़ी बेटी वीणा मेरी उत्तमार्द्ध बन कर महन्तजी के आँगन से बिदा हुई थी।
पूरे 36 बरस बाद, 17 फरवरी 2012 को एक बार फिर ‘महन्त परिवार’ की एक और बेटी उसी आँगन से बिदा हुई - अपनी ससुराल के लिए। यह बेटी थी, मेरे बड़े साले देवेन्द्र कुमार महन्त की इकलौती बेटी (याने मेरे ससुर श्री गोवर्द्धनदासजी महन्त की पौत्री) हम सबकी प्रिय, चि. नवनी। राजगढ़ (जिला धार, म. प्र.) निवासी श्री महेश बैरागी का इकलौता बेटा चि. आदित्य उसका जीवन साथी बना।
‘उस बिदा’ में और ‘इस बिदा’ मे दो अन्तर रहे। पहला अन्तर - ‘उस बिदा’ में मैं, बिदा करवाने का प्रमुख कारक था जबकि ‘इस बिदा’ में मैं बिदा करनेवाले कारकों में शामिल था।
दूसरा अन्तर - मुझसे ‘बेटी की बिदा’ नहीं देखी जाती। वह वेला मुझे अत्यधिक भावाकुल कर देती है और मुझे रोना आ जाता है। निस्सन्देह यह रोना निःशब्द होता है किन्तु हिचकियाँ मेरे रोने को उजागर कर देती हैं। इसलिए, 17 फरवरी 1976 को अपनी उत्तमार्द्ध को बिदा कराने के लिए मैं रुका नहीं। जनवासे चला आया था। लगा था कि बिदा होती दुल्हन के साथ मेरा रोना लज्जा की बात होगी। कहीं ऐसा न हो कि लोग, पिता के घर सें बिदा हो रही, मेरी नवोढ़ा ब्याहता का रोना अनदेखा कर, आँखें फाड़-फाड़ कर मुझे न देखने लगें - यह विचार मन में आया था। यह भी विचार मन में आया था कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे रोता देखकर मेरी उत्तमार्द्ध मेरे बारे में पहली ही राय ‘कमजोर आदमी’ या ‘औरत जैसा आदमी’ की न बना ले।
एक और अन्तर गिना जा सकता है। मेरा पाणिग्रहण संस्कार, महन्तजी के निज-निवास परिसर में हुआ था जबकि नवनी का पाणिग्रहण संस्कार एक मांगलिक भवन परिसर में हुआ। किन्तु इसे मैं गौण मानता हूँ क्योंकि ‘मकान’ भले ही दूसरा हो किन्तु ‘आँगन’ तो वही था - महन्त परिवार का।
हाँ, एक (चौथा) अन्तर और रहा जो दूसरे अन्तर में ही समाहित है। ‘उस बिदा’ में तो मैं दुल्हन को छोड़ आया था किन्तु ‘इस बिदा’ में मैं मौजूद रहा और हिचकियाँ ले-लेकर, धार-धार रोते हुए प्रिय चि. नवनी को बिदा किया।
मुमकिन है, ऐसे ‘अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग’ से औरों का भी सामना हुआ हो। किन्तु मेरे साथ तो ऐसा पहली बार हुआ। वह भी पूरे 36 बरसों में पहली बार।
(चित्र में बाँये से - मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी, आदित्य, नवनी और मैं।)
स्वाभाविक है बेटी की बिदाई करने पर न छाते हुए ही आँसूनिकल ही आते है,बहुत बढ़िया,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति,.....
ReplyDeleteMY NEW POST...आज के नेता...
Bhaijee! 36 varsho me 'Naaree-Shakti'ko achchhe se pahchan gaye honge aap.Naaree ko Mahilaa isiliye kaha gaya hai kyonki vah 'Mahee'(prathvi) ko 'Hilaane' ki 'saamarthya' rakhati hai.
ReplyDelete३६ वर्षों में दो स्थानों के बीच संबंध कितने और गहरा गये..
ReplyDeleteलोग यह मानने में शायद शर्मायें, पर किसी भी शादी में विदाई के दृष्य की कारुणिकता ऐसी होती है कि आंसू आ जायें।
ReplyDeleteभले ही वह खुद (लड़के) का विवाह क्यों न हो!
:) विदाई के समय दूल्हे को सुबकता देखना तो वाकई घरातियों-बरातियों और अन्यों के रोचक किस्सों का रॉ मैटीरियल बनेगा। चित्र अच्छा है। आप लोगों को देखकर मन प्रसन्न हुआ।
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