उठावने का निमन्त्रण


चीजें अचानक नहीं बदलतीं। धीरे-धीरे ही बदलती हैं। इतनी धीरे-धीरे कि उनके बदलने का आभास भी नहीं होता। यह धीमापन, बदलाव को स्वाभाविकता प्रदान करता लगता है। किन्तु वह परिवर्तन ही क्या जो अपने होने की प्रतीति न कराए! सो, यह प्रतीति होती तो है किन्तु अचानक ही। ऐसे ‘अचानक-क्षण’ में ही अनुभव होता है कि चीजें बदल गई हैं। यह ‘अचानक क्षण’ ही इस प्रतीति को आश्चर्य में बदल देता है। तब ही चीजों के बदलाव पर भी अचरज होता है।


देख रहा हूँ कि बोलचाल में आदरसूचक शब्दावली गुम होती जा रही है। गुम यदि नहीं भी हो रही है तो कम तो हो ही रही है। बहुत पुरानी बात नहीं है, आठ-दस बरस पहले तक ‘सुनिएगा’, ‘आइएगा’, ‘लीजिएगा’, ‘दीजिएगा’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त होते थे। अचानक ही मेरा ध्यान गया कि इनके स्थान पर ‘सुनना’, ‘लेना’, ‘आना’, ‘देना’ जैसे रूखे और अक्खड़ शब्दों ने ले लिया है। ये सब शब्द यूँ तो पहले से ही मौजूद थे किन्तु अन्तरंग और अनौपचारिक सम्वादों में ही जगह पाते थे। किन्तु अब तो इन्हीं का बोलबाला है-वहाँ भी, जहाँ इनका होना रुचिकर नहीं होता।


मेरी बीमा एजेन्सी को अभी-अभी उन्नीस वर्ष पूरे हुए हैं। मेरा धन्धा ही ऐसा है कि ग्राहक की तलाश में मुझे घर-घर जाना पड़ता है-कभी समय लेकर तो कभी समय लिए बिना। कोई एक दशक पहले तक ‘आइए बैरागीजी’ या फिर ‘आइए अंकल’ से अगवानी होती थी। गृह स्वामी के आने में देर होती तो बच्चे कहते - ‘आप बैठिए अंकल। पापा अभी आते हैं।’ अब बदलाव आ गया है। अब ‘आओ बैरागीजी’ या फिर ‘आओ अंकल’ और ‘अंकल आप बैठो। पापा अभी आते हैं।’ सुनने को मिलता है। सुनने में तनिक अटपटा लगता है किन्तु यह देख कर तसल्ली होती है कि आदरभाव में कहीं भी कमी नहीं-न मन में, न आँखों में।


अठारह जनवरी की शाम भोपाल पहुँचा था। भाई विजय वाते ने गाड़ी स्टेशन पर भिजवा दी थी। सीधा उनके दफ्तर पहुँचा था। घर लौटते हुए उन्हें रास्ते में, उद्घाटन के एक छोटे से आयोजन में शरीक होना था। हम दोनों आयोजन स्थल पर पहुँचे तो सन्नाटा था। समय पर जो पहुँच गए थे! वहाँ बैठ कर वक्त काटना भी सम्भव नहीं लग रहा था। विजय को हल्की सी भूख लग आई थी। सो, हमीदिया रोड़ स्थित मनहर डेयरी पहुँच गए। टेबल पर बैठने के कुछ ही पलों में वेटर आ गया। बोला - ‘बोलो साहब! क्या लाऊँ?’ मुझे हैरत हुई। एक तो भोपाल जैसा तहजीबदार शहर उस पर मनहर डेयरी जैसा प्रतिष्ठित संस्थान्! वेटर की भाषा मुझे हजम नहीं हुई। स्वल्पाहार करने के बाद निकलते समय मैंने मैनेजर को अपनी भावनाएँ जताईं। उसने माफी माँगी और बोला -‘आप अगली बार आओगे तो शिकायत का मौका नहीं पाओगे।’ मैनेजर ने मेरा भ्रम दूर कर दिया। वेटर पर आए गुस्से का स्थान हँसी ने ले लिया। ‘आओगे, पाओगे’ के लिए मैंने हँसते-हँसते, मैनेजर का शुक्रिया अदा किया।
भाषा का यह बदलाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से आया अनुभव हो रहा है। शोक सन्दर्भों में केवल सूचनाएँ देने का लोक प्रचलन है। जैसे कि फलाँ की माताजी का देहावसान हो गया है। अन्तिम यात्रा इतने बजे निकलेगी और दाह संस्कार फलाँ श्मशान में होगा। यही स्थिति उठावने (या कि तीसरे) की सूचना देने में भी होती है। लेकिन यहाँ भी बदलाव आ गया है। एक पखवाड़े पहले, फोन पर एक किशोर ने टेलीफोन किया -‘अंकल! आपके फ्रेण्ड वीरेन्द्रजी की सासूजी और मेरी दादीजी का उठावना कल सवेरे साढ़े दस बजे सूरज हॉल पर रखा है। आपको आना है। आईएगा जरूर। हम सब आपकी राह देखेंगे।’


इसी तरह, शोक पत्रिकाओं में मृत्यु की और उत्तर क्रियाओं की केवल सूचना देने की परम्परा रही है। जैसे ‘हमारी माताजी का स्वर्गवास फलाँ दिनांक को हो गया है जिनका उत्तरकार्य निम्नानुसार रखा गया है।’ इसके बाद विस्तृत कार्यक्रम दिया रहता है। बदलाव ने इसे भी प्रभावित किया है। गए दिनों मुझे दो शोक पत्रिकाएँ ऐसी मिलीं जिनमें ‘अवश्य पधारिएगा’ का आग्रह भी किया गया था।


ये शोक पत्रिकाएँ देख/पढ़कर किस्सा याद आ गया। किस्सा कितना सच है, नहीं जानता किन्तु एक बार कहीं पढ़ा भी है और दो-तीन बार, समझदारों के मुँह सुना भी है। किस्से के अनुसार महावीर और बुद्ध समकालीन थे। महावीर कनिष्ठ और बुद्ध वरिष्ठ थे। एक बार दोनों की भेंट हो गई। महावीर ने जिज्ञासा प्रकट की - ‘जन्म यदि उत्सव है तो मृत्यु क्या है?’ बुद्ध ने उत्तर दिया - ‘मृत्यु महोत्सव है।’ शोक सन्दर्भों में आ रहा यह बदलाव मृत्यु को शोक के बजाय महोत्सव का स्थान दिलाता अनुभव हुआ।


जानता हूँ कि मुझे अच्छा लगे या नहीं, बदलाव तो शाश्वत और अनवरत प्रक्रिया है। बदलाव का सुख लेने के लिए खुद को ही बदलना पड़ेगा। नहीं बदलूँगा तो मेरे सिवाय और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

उत्सव: सरकार के या हमारे?


अपने उत्सव मनाने के लिए हम सरकार पर निर्भर हो गए हैं? अब सरकार तय करेगी कि हम अपने उत्सव मनाएँ या नहीं? हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव किसी जिम्‍मेदारी हैं-हमारी या सरकार की? अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाए रखने के लिए हम सरकार की कृपा के मुहताज हो गए हैं? गए तीन दिन से ये और ऐसे ही अन्य प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहे हैं। इनमें से प्रत्येक का उत्तर मैं ‘नहीं’ में देना चाहता हूँ पर दे नहीं पा रहा हूँ।


बात शायद बहुत ही छोटी लगे किन्तु इसने मुझे असहज कर रखा है। रतलाम जिले में एक छोटा सा कस्बा है - ताल। यह आलोट तहसील का हिस्सा है। यहाँ रंग पंचमी समारोहपूर्वक मनाई जाती है। रंग पंचमी की पूर्व सन्ध्या पर मूर्ख सम्मेलन भी आयोजित किया जाता है। कोई पन्द्रह-सत्रह वर्षों से यह परम्परा चली आ रही है। लोग इसकी प्रतीक्षा भी करते हैं और उत्साहपूर्वक इसकी तैयारी भी। एक दिन के लिए यह कस्बा मानो अपने आप को भूल जाता है। ‘रंग पंचमीमय’ हो जाता है।


जिला प्रशासन प्रति वर्ष आलोट तहसील के लिए इस दिन का स्थानीय अवकाश घोषित करता आया है। इस बार ऐसा नहीं हुआ। स्थानीय अवकाश घोषित करना जिला प्रशासन (कलेक्टर) का अधिकार है किन्तु कलेक्टर को दो या तीन स्थानीय अवकाश का ही अधिकार रहता है। जिले की स्थानीय आवश्यकताओं और महत्वानुसार वह ये अवकाश घोषित करता है। इस बार यह स्थानीय अवकाश शायद किसी दूसरे त्यौहार के लिए प्रयुक्त कर लिया गया। ताल निवासियों को यह कबूल नहीं हो पा रहा है।


तीन दिन पहले अखबारों में ताल का समाचार छपा जिसमें स्थानीय अवकाश घोषित करने के लिए कलेक्टर से तो माँग की ही गई, चेतावनी देते हुए चिन्ता जताई गई कि स्थानीय अवकाश घोषित नहीं करने से वहाँ के लोग इस वर्ष, पूर्वानुसार रंग पंचमी नहीं मना पाएँगे। मेरे लिए तय कर पाना कठिन था कि इसे चेतावनी भरी चिन्ता मानूँ या चिन्ता जनित चेतावनी?


इस समाचार ने ही मुझे असहज कर रखा है। लोकोत्सवधर्मिता हमारा संस्कार है या राज्याश्रय?यह हमारी उत्सवप्रियता है या अवकाशप्रियता? क्या हम वे त्यौहार ही मनाते हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होता है? इसके समानान्तर यह सवाल भी उठता है कि जिन त्यौहारों के लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं, क्या वे सब त्यौहार हम सचमुच में मनाते हैं?ईद, क्रिसमस, गुड फ्रायडे, नानक जयन्ती आदि ऐसे त्यौहार हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं किन्तु अधिसंख्य लोग इन्हें नहीं मनाते। ये त्यौहार मनाना तो दूर की बात है, इन त्यौहारों से जुड़े अपने कितने मित्रों को हम बधाइयाँ देते हैं, अभिनन्दन करते हैं? इसके विपरीत, अभी-अभी आई संक्रान्ति पर सरकार ने छुट्टी घोषित नहीं की थी किन्तु स्कूल वीरान थे। मुझे कलेक्टोरेट में कुछ काम था। गया तो देखा कि अधिकांश कर्मचारी, कार्यालय के बाहर ही गिल्ली डण्डा खेल रहे हैं। जो स्थिति थी, उसे देखकर मेरी ही हिम्मत नहीं हुई कि अपने काम की बात करता। चुपचाप चला आया।


छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त हमारे लिए ‘अवकाश’ से अधिक कुछ नहीं रह गए हैं। इस दिन लगभग सारे के सारे आयोजन शासकीय स्तर पर ही होते हैं। अशासकीय स्तर पर आयोजित होनेवाले समारोह किसी भी शहर/कस्बे में या तो होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अंगुलियों के पोरों पर गिने जा सकने की संख्या में। दो अक्टूबर को कितने लोग गाँधी को याद करते हैं? गाँधी जयन्ती भी हमारे लिए ‘अवकाश’ से कम या ज्यादा और कुछ नहीं है।


हरतालिका तीज पर मध्य प्रदेश सरकार महिलाओं को विशेष अवकाश देती है। मेरी उत्तमार्द्ध जिस शासकीय स्कूल में अध्यापक है वहाँ कुल तीन अध्यापक हैं और तीनों ही महिलाएँ। स्थिति यह है कि महिलाओं को विशेष अवकाश तो दिया गया किन्तु विद्यालय का अवकाश नहीं था। सो, विद्यालय तो खुलना ही था। ऐसे में क्या किया जाए? तीनों महिलाओं ने एक दूसरे की चिन्ता की और तीनों ही विद्यालय आईं और अपना-अपना व्रत भी निभाया। यह विशेष अवकाश ऐसा नहीं था जिसके बदले में कोई दूसरा अवकाश मिल जाए।


ताल का समाचार पढ़ते-पढ़ते यही सब बातें मुझे याद आ रही थीं। केवल मालवा और मध्य प्रदेश ही नहीं, समूचा भारत उत्सवधर्मी और उत्सवप्रेमी समाज है। इसीलिए तो हमारे उत्सव, लोकोत्सव हैं! हम इन्हें सरकारी उत्सव बनाने पर तो आमादा नहीं हो गए? यदि रामनवमी पर सरकारी अवकाश नहीं हो तो हम अपने आराध्य का जन्मोत्सव मनाने के लिए एक आकस्मिक अवकाश (सी एल) की कीमत भी शायद ही चुकाएँ।


यदि स्थितियाँ सचमुच में ऐसी ही बन रही हैं तो हमें अपनी मानसिकता, अपनी वैचारिकता, अपने आचारण पर फौरन ही विहंगम दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव यदि राज्य की कृपा पर छोड़ दिए जाएँगे तो हम मनुष्य भी नहीं रह पाएँगे। फिर तो हम ‘प्राणवान यन्त्र’ बन कर रह जाएँगे।


मैं कुछ गलत सोच रहा हूँ?

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मेरी ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी

ईश्वर सब सुख एक साथ कभी नहीं देता। इसे चाहें तो ‘कोई न कोई कसर रख ही देता है’ कह दें या फिर यह कि वह किश्त-किश्त में सुख देता है। ऐसा ही इस बार मेरे साथ हुआ-तीन रात और लगभग सवा दो दिनों तक सुख सागर में गोते लगाने के बाद भी एक सुख की कसर रह गई।


बरसों बाद विजय और कल्पना भाभी के सान्निध्य में इस बार इतना समय रहने का मौका मिला। विजय और कल्पना भाभी याने श्री विजय वाते और अ। सौ. कल्पना वाते। जब-जब इनके साथ रात-दिन रहने का मौका मिला तब-तब हर बार ऐसी ही कसर रह गई।


कल्पना भाभी को मैं ‘सच्ची-सच्ची’ भाभी कह सकता हूँ। जब-जब भी वाते दम्पति की मेजबानी एक समय या थोड़ी ही देर के लिए मिलती है तब-तब ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ मुझे तब तक झूठा घोषित करती रहती हैं जब तक कि मैं उनसे सहमत न हो जाऊँ। अब तो मुझे असहमति के पहले ही क्षण से मुझे मालूम रहता है कि मुझे अन्ततः सहमत होने के लिए समर्पण करना ही पड़ेगा-यही मेरी नियति है, फिर भी मैं इससे बचने की यथसम्भव, यथाशक्ति कोशिश करता रहता हूँ क्योंकि तब मैं सच बोल रहा होता हूँ जिसे कि ‘सच्ची-सच्ची भाभी’ झूठ ही मानती हैं। मेरा सच उन्हें कभी सच नहीं लगा। सदैव झूठ ही लगा और ऐसी दशा में, जब हारकर, खुद के साथ होने वाली (जो कि वस्तुतः ‘सच्ची-सच्ची भाभी द्वारा की जाने वाली’ होती है) ज्यादती के लिए खुद को तैयार कर मैं उनसे सहमत हुआ, उन्होंने हर बार अपनी जीत से खुश होकर, तपाक् से पूछा - ‘पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’
यह सब होता रहा है (और मुझे आकण्ठ विश्वास है कि कल्पना भाभी कभी नहीं बदलेंगी इसलिए आगे भी ऐसा ही होता रहेगा) मेरे भोजन करने को लेकर।



भोपाल यात्रा में मैं जब-जब भी, समय-असमय विजय के यहाँ पहुँचा, तब-तब कल्पना भाभी ने हर बार पूछा -‘विष्णु भैया! खाना खाआगे ना?’ मैंने शायद ही कभी, पहली ही बार में हाँ भरी हो। मैं या तो भोजन करके पहुँचता या कहीं न कहीं मेरा भोजन करना तयशुदा रहता। सो मैं हर बार कहता - ‘नहीं भाभी! मैं खाना नहीं खाऊँगा।’ कल्पना भाभी इस जवाब के लिए तैयार तो रहतीं किन्तु सहमत एक बार भी नहीं रहीं। हर बार बोली - ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो, खाना खाओगे?’ मेरा इंकार और कल्पना भाभी का ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ का इसरार देर तक चलता। इस दौरान वे हाथ के काम निपटाती रहतीं लेकिन मुझे ‘टारगेट’ पर बनाए रखतीं। कभी अखबार पढ़ते हुए, कभी तैयार होते हुए विजय इस स्थिति में मेरी दशा के मजे लेता रहता और दो-एक शेर दाग देता। पति-पत्नी एक दूसरे को देख कर हँसते, मुझे अजीब सा लगता। कोई दस-बीस बार कल्पना भाभी ‘देखो! झूठ मत बोलो। सच्ची-सच्ची बोलो’ की चेतावनी देकर मुझे ‘झूठा’ साबित कर चुकी होतीं। मुझे अजीब लगता-मेरे मुँह पर ही मुझे झूठा कहा जा रहा है। बीच में विजय एक-दो बार हँसते-हँसते कहता-‘नतीजा तुम्हें पता है। फिर क्यों वर्जिश कर रहे हो और करा रहे हो?’ मुझे और अजीब लगता। जी करता, जूलीयस सीजर की तरह विजय से पूछूँ -‘विजय! तुम भी?’ किन्तु आज तक नहीं पूछ पाया। जानता हूँ, विजय को मेरे साथ नहीं, कल्पना भाभी के साथ रहना है।



सच पर मेरा अड़ा रहना एक बार भी सफल नहीं हो पाया। भरपूर जोर आजमाइश के बाद अन्ततः मैं कहता-‘हाँ। खाना खाऊँगा।’ कल्पना भाभी बस ताली नहीं बजाती, अपनी मनुहार का मनोनुकूल परिणाम मिलते ही खूब खुश होकर कहती-‘मैं तो शुरु से ही जानती थी कि झूठ बोल रहे हो। पहले ही सच बोलने में क्या जा रहा था?’ ऐसे प्रत्येक अवसर पर मैं रुँआसा होकर, असहाय, बेबस होकर चुपचाप सब कुछ देखने-सुनने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पाता। किन्तु कल्पना भाभी के चेहरे पर खुशी का बरगद उग आता। जानती तो वे भी रहती होंगी कि मैं झूठ नहीं बोल रहा किन्तु मैं उनके यहाँ से भोजन किए बगैर नहीं लौटूँ, यह उनकी अदम्य इच्छा रहती रही होगी जिसकी पूर्ति के लिए ही वे मुझे सहजता से असत्यवादी साबित और घोषित करती रहतीं, देर तक, लगातार, बार-बार।



किन्तु कल्पना भाभी ने इस बार एक बार भी मुझे झूठा साबित नहीं किया। मुझे अच्छा तो लग रहा था किन्तु समझ नहीं आ रहा था कि भाभी ऐसा क्यों कर रही हैं। दो समय का भोजन मैंने कर लिया और भाभी ने एक बार भी ‘सच्ची-सच्ची बोलो’ नहीं कहा! अचेतन में इच्छा होने लगी कल्पना भाभी एक बार तो मुझे झूठा साबित कर दे। उनका व्यवहार मुझे असहज लग भी रहा था और असहज कर भी रहा था। आशंका हुई - भाभी बीमार तो नहीं? लेकिन देख रहा था कि वे पूर्ण स्वस्थ और सामान्य, सहज बनी हुई हैं।



अठारह जनवरी की रात वहाँ पहुँचा था और इक्कीस की सवेरे उनसे बिदा ली। दिन में ‘लियाफी’ (भारतीय जीवन बीमा निगम के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन) के झोनल प्रतिनिधियों और भाजीबीनि के क्षेत्रीय प्रबन्धक की संयुक्त बैठक थी। वह निपटा कर शाम पाँच बजे, रतलाम के लिए रेल में बैठा तब भी कल्पना भाभी का यह बदला हुआ व्यवहार मन पर छाया हुआ था।



रेल चली और बैरागढ़ पहुँचती उससे पहले ही मेरी ट्यूब लाइट चमकी और अपनी कमअक्ली पर मैं खुद ही ठठा कर हँस पड़ा-इतने जोर से कि आसपास बैठे यात्री मेरी ओर देखने लगे। मैंने खुद से कहा -‘हे! मूर्ख श्रेष्ठ, तुम जब वहीं रुके हुए हो तो यह तो तय है कि तुम्हें भोजन वहीं करना है। ऐसे में पूछताछ की गुंजाइश ही कहाँ बनती? इसके उल्टे, कल्पना भाभी भोजन के लिए पूछती तो वह अटपटा ही नहीं, अशालीन भी होता। बच्चू! भोपाल यात्रा में जब भी कभी केवल मिलने जाओगे तो कल्पना भाभी को उनके उसी ‘सच्ची-सच्ची’ वाले मूलस्वरूप में पाओगे।’



अपने आप से हुए इस एकालाप के चलते, कब मेरी आँखें धुँधला गईं, मुझे पता ही नहीं चला। अपनी इस दशा पर, टेलीविजन पर सुना एक शेर अचानक ही याद आ गया - ‘जिन्हें हम कह नहीं सकते, जिन्हें तुम सुन नहीं सकते। वही कहने की बाते हैं, वही सुनने की बाते हैं।’ इस समय जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब ऐसी ही न कही जा सकनेवाली बातें मन पर छा गई हैं।



कल्पना भाभी के सामने शायद नहीं कह पाऊँ। यहीं लिख देता हूँ - ‘शुक्रिया मेरी सच्ची-सच्ची भाभी! खुद को आपसे झूठा साबित करवाने मैं जल्दी ही भोपाल आऊँगा।’


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अकेला करता धर्म

अकेला करता धर्म
कुछ बातें सुनने में तो तत्काल अच्छी लगती हैं किन्तु समझ में बाद में आती हैं। होना तो यह चाहिए कि दोनों ही स्थितियों में आनन्दानुभूति हो किन्तु आवश्यक नहीं कि ऐसा हो ही। कुछ ऐसा ही में गए कुछ दिनों से अनुभव कर रहा हूँ। जब भी यह बात मन में आती है, मन कसकने लगता है।


देख रहा हूँ कि ‘नमस्कार’ और ‘नमस्ते’ जैसे पारम्परिक और लोक स्वीकृत अभिवादन लुप्त होते जा रहे हैं। अब अभिवादन के स्थान पर लोगों की धार्मिक, पांथिक अथवा किसी सन्त/गुरु के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जताने वाली शब्दावली या शब्द-युग्म सुनने को मिलते हैं। सम्भव है कि गाँवों में अब भी सब कुछ वैसा का वैसा ही हो किन्तु कस्बों, नगरों में स्थिति तेजी से बदलती जा रही है।


जिस गाँव के मन्दिर की पूजा मेरे परिवार का जिम्मा रही है वह गाँव पीपलोन (जिसे बोलचाल में पीपण अथवा फीफण उच्चारा जाता है) बहुत ही छोटा है। आज का तो पता नहीं किन्तु मैंने जब मनासा छोड़ा तो वह मुश्किल से सौ-सवा सौ घरों की बस्ती हुआ करता था। मीणा पटेल और गायरी समाज का प्रभुत्व था उस गाँव में। कुछ घर माली समाज के थे। वहाँ का चौकीदार था मेहताब खाँ मेवाती। वह अकेला गैर हिन्दू परिवार था उस गाँव में। ‘राम! राम!’ या ‘जै रामजी की’ कह कर परस्पर अभिवादन किया जाता था। मेहताब भी यही कह कर अभिवादन करता था और हम लोग भी ‘राम-राम मेताब भई’ कह कर ही अभिवादन करते थे। एक बार मैंने सहज जिज्ञासावश पूछ लिया था -‘मेताब भई! तुम तो मुसलमान हो! फिर राम-राम क्यों कहते हो?’ जवाब में उसने चा चौंक कर, अपनी ठोड़ी खुजलाते हुए कहा था - ‘अरे! बब्बू माराज! तुमने याद दिलाया तो याद आया कि मैं मुसलमान हूँ।’ बात इससे आगे नहीं बढ़ी।


मनासा मेरा पैतृक गाँव है। हमारा मकान, गाँव के उत्तर में, सबसे अन्तिम से पहले वाले, धोबी मुहल्ले की पुरबिया गली में है। मोहल्ले में कुछ मुसलमान परिवार थे। आज भी होंगे। कुछ सब्जी बेचते थे तो कुछ ऊँटों पर जंगल से लाद कर लकड़ी लाकर बेचा करते थे। एक सब्जी विक्रेता मोहम्मद भाई हमारा किरायेदार था। ये सब लोग या तो पहनावे से (खास कर महिलाओं के पहनावे से) या फिर ईद-मुहर्रम जैसे त्यौहारों पर ही मुसलमान मालूम होते थे अन्यथा बोलचाल और रहन-सहन में इनमें भेद कर पाना कठिन होता था। मेरे अपंग पिताजी सवेरे-सवेरे, बाहर चबूतरे पर बैठ जाते थे। आने-जानेवाले स्त्री-पुरुष (जिनमें हिन्दू, मुसलमान सब हुआ करते थे) उनसे ‘जै रामजी की माराज’ या फिर ‘राम-राम माराज’ कह कर ही अभिवादन करते थे। मोहम्मद भाई भी इसी शब्दावली में अभिवादन करता था। पिताजी भी ‘राम-राम रे भई मम्मद’ कह कर ही उत्तर देते थे।


मनासा की सामाजिकता पर माहेश्वरी और जैन समाज (श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों) का प्रभाव-प्रभुत्व है। वस्तुतः मनासा तो बसाया ही माहेश्वरियों और मीणाओं ने। बाजार पर माहेश्वरियों के प्रभुत्व के चलते माहेश्वरियों को ‘साहजी’ कह कर सम्बोधित किया जाता रहा है। सो, आज के मनासा की व्युत्पत्ति ‘मीणा-साह’ से हुई है। मुस्लिम समाज के लोग भी वहाँ भरपूर हैं। नगर पालिका के दो-एक वार्डों में तो मुस्लिम मतदाताओं का ही बाहुल्य है। किन्तु वहाँ भी अभिवादन के नाम पर सब कुछ पारम्परिक ही बना हुआ था। सबको पता था कि कौन किस समाज से है। अपना समाज या पंथ बताने के लिए किसी को अलग से कुछ कहना नहीं पड़ता था।


किन्तु आज काफी कुछ बदल गया है। जैसा कि मैने शुरु में कहा, ‘नमस्ते’ या ‘नमस्कार’ अब लुप्त होता लग रहा है। अब लोग परस्पर अभिवादन नहीं करते। अभिवादन करने के नाम पर वे अपनी अलग पहचान बताते हैं। कोई ‘जय श्री कृष्ण’ कह कर तो कोई ‘राधे-राधे’ कह कर अपना सम्प्रदाय उजागर कर रहा है। कोई ‘जय जिनेन्द्र’ कह कर अपनी धार्मिक पहचान उजागर कर रहा है तो कोई इससे भी आगे बढ़कर ‘जय केसरियानाथ’ उच्चारकर ‘विशेष में विशेष’ बनता नजर आ रहा है। स्निग्ध और आत्मीयता भरे ‘जै रामजी की’ का स्थान भयभीत कर देने वाले स्वरों वाले ‘जय श्री राम’ ने ले लिया है। कोई ‘ओऽम्’ उच्चार कर अपने गुरु की पहचान बताता है तो कोई ‘हरि ओऽम्’ कह कर अपने गुरु की। ‘साँई राम’ या ‘जय साँई राम’ का घोष कर कोई अपने आस्था पुरुष के प्रति सम्मान जताता है तो कोई ‘साहेब बन्दगी’ कह कर। हर कोई अपनी-अपनी पहचान बताने की कोशिश में खुद को सबसे अलग कर रहा है। सुना और पढ़ा था कि अध्यात्म लोगों को जोड़ता है और धर्म लोगों को बाँटता है। जुमलेबाजी और वाणी विलास के लिहाज से यह वाक्य अच्छा लगा था। किन्तु उसे सच होते देखकर अच्छा नहीं लगता। ये सारे व्यवहार हिन्दू या सनातनी या गैर मुस्लिम, गैर ईसाई समुदाय की न केवल स्थायी पहचान बन गए हैं बल्कि अपने ऐसे व्यवहार पर प्रत्येक को गर्वानुभूति भी होती है। गोया, खुद को सबसे अलग कर हम खुश हुए जा रहे हैं और फूले नहीं समा रहे हैं।


क्या आपको नहीं लगता कि सुनी-पढ़ी हुई कुछ बातें वास्तविकता न बनें तो ज्यादा अच्छा लगता है?-----

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परसाई के वानर और स्वदेशी लँगोटधारी

(यह पोस्ट मेरे बेटे वल्कल के एक कक्षापाठी मित्र ने लिखी है। बाबुल सुप्रियो इसका वास्तविक नाम नहीं है। यह देखकर कि बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत, 30 वर्षीय नौजवान को भी ऐसी बातों से पीड़ा होती है, उसके मन में क्षोभ उपजता है तो सच मानिए, मन को ठण्डक मिलती है और भारत के भविष्य के प्रति निश्चिन्तता उपजती है। बाबुल सुप्रियो इस समय कोरिया में है। यह पोस्ट उसने मुझे 27 जनवरी को भेजी थी। तब वह बेंगलुरु में ही था।)


प्रणाम सज्जनों,


बंगलुरू की सड़क किनारे आज मैंने एक होर्डिंग देखा जिसने मेरी कुछ यादें ताजा कर दीं। यादें, तब की जब भुट्टा, खीरा या ऐसा ही कुछ चना चबेना बटोर कर मनमानी से गप्प गोष्ठियों का मजा लिया जाता था ।


कुछ साल पहले मैंने परसाई का एक व्यंग्य पढ़ा था, जिसमें उन वानरों का उल्लेख था जो लंका युद्ध के दौरान मजे से समन्दर किनारे बैठे रहे । जब प्रभु (याने कि लंका विजय के बाद वाले राम) वापिस लौट रहे थे तो ये भी भीड़ में शामिल हो गए, और अपने हाथ पैर थोड़े खरोंच-खरूँच कर सेनानी होने का रोना रोने लगे (इच्छा थी की इसे स्वाँग कहूँ, लेकिन मेरे हिसाब से स्वाँग भरने में भी सृजनात्मक बुद्धि की जरुरत होती है) आज भी अपने यहाँ माँग मनवाने के लिए भाँति भाँति के रोने रोना ही सबसे कारगर तरीका है ।


एक बार सम्मान मिल गया तो ये दादाजी की तरह (या राशन वाली शक्कर की तरह) अपने मिलावटी किस्से सुनाने लगे । जैसे मैं कचोरी की क्वालिटी का अन्दाजा इस बात से लगाता हूँ कि इस सेठ की दुकान का कितना नाम है। शायद उसी तरह इन वानरों की नीतियों में (फैशन के दौर में गारण्टी की उम्मीद करने वाली) जनता को ज्यादा रस दीख पड़ा होगा, और अपना पाँच रुपये का नोट (कचोरी का नोट = वोट) उनको ही टिका दिया हो ।


शुरु में ये वानर, राम के रिप्रसेंटेटिव थे, बाद में ये जनता के रिप्रसेंटेटिव हुए। राम और जनता दोनों का मनमाना दूध निकाला गया। इसके बाद तो जो कुछ भी किस्सा पता है, उसमें अपना पचास पचपन साल का गौरवमय इतिहास सभी का रटा रटाया है।


यह रही लिंक
http://www.montblanc.com/products/11867.php मॉडल बनाम गाँधी जी के उस इश्तेहार की जिसमें स्वदेशी लँगोट धारी कह रहा है - ‘‘जाओ जी जाऽऽऽऽओ! बस इतना सुन लो! ये जर्मन पेन खरीद लो, कुछ चूडियाँ पहन लो, और चाहो तो एक घाघरा सिलवा लो।’


इति गणतन्त्र दिवस सिद्धम,


-बाबुल सुप्रियो

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishun@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

छोटी-छोटी बातें

नहीं। वे तीनों परिहास नहीं कर रहे थे। उपहास तो बिलकुल ही नहीं कर रहे थे। मुझे आकण्ठ विश्वास और अनुभूति है कि वे तीनों मुझे भरपूर आदर और सम्मान देते हैं। हाँ, साप्ताहिक उपग्रह में मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में मेरे लिखे पर तनिक विस्मित होकर प्रसन्नतापूर्वक बात कर रहे थे। तीनों अर्थात् सर्वश्री डॉक्टर जयन्त सुभेदार, वरिष्ठ अभिभाषक मधुकान्त पुरोहित और डॉक्टर समीर व्यास।


अपनी और अपनी उत्तमार्द्ध की नियमित जाँच कराने के लिए जब डॉक्टर सुभेदार साहब के कक्ष में पहुँचा तो मधु भैया के कागज देखे जा रहे थे। मैं पंक्तिबद्ध हो गया। मेरा क्रम आने पर मैंने अपने कागजात दिखाए और डॉक्टर साहब से निर्देश लेने के बाद अपनी ओर से कुछ जानना चाहा तो मधु भैया तपाक् से बोले - ‘इनसे सम्हल कर बात करना। पता नहीं ये किस बात पर कब, क्या लिख दें!’ सुभेदार साहब ने हाँ में हाँ मिलाई और उतने ही तपाक् से बोले - ‘इन्हें तो लिखने के लिए कोई सब्जेक्ट चाहिए। आपकी-हमारी बातों में से अपना सब्जेक्ट निकाल लेंगे।’ डॉक्टर समीर निःशब्द मुक्त-मन हँस दिए। हँस तो तीनों ही रहे थे। मुझे कोई उत्तर सूझ नहीं पड़ा। उनकी हँसी में शरीक होने में ही मेरी भलाई थी। मैं शरीक हो लिया। मेरी उत्तमार्द्ध के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। ऐसे क्षणों में सबका साथ देना ही बुद्धिमत्ता होती है। सो, वे भी सस्मित हम चारों को देखने लगी।


ऐसा मेरे साथ पहली बार नहीं हुआ था। काफी पहले, वासु भाई (श्री वासुदेव गुरबानी) कम से कम दो बार कह चुके थे - ‘दादा! जिन छोटी-छोटी बातों की हम लोग अनदेखी कर देते हैं आप उन्हीं को अपनी कलम से बड़ी और महत्वपूर्ण बना देते हो।’ ऐसा ही कुछ, ‘विस्फोट’ वाले संजय तिवारी (नई दिल्ली) आठ-दस बार कह चुके हैं।


अपने लिखने पर जब-जब ऐसे जुमले सुने, तब-तब हर बार, अपनी धारणा पर विश्वास और गहरा ही हुआ। मेरा मानना रहा है कि हमारे जीवन में कोई भी बात छोटी नहीं होती। इसके विपरीत, छोटी-छोटी बातें प्रायः ही बड़े प्रभाव छोड़ जाती हैं। बच्चों की बातों की अनदेखी और उपेक्षा करना हमारा स्वभाव है। किन्तु बच्चों की बातें भी हमें सबक सिखा देती हैं। मेरा छोटा भतीजा गोर्की पाँच-सात साल का रहा होगा। दादा ने उसे कोई काम बताया। वह अनसुनी कर जाने लगा। दादा ने कहा - ‘गुण्डे! कहाँ चल दिया?’ तब तक गोर्की दौड़ लगा चुका था। लेकिन दादा की बात सुनकर वह पलटा और घर के बाहर, सड़क से ही चिल्लाया -‘मैं गुण्डा तो आप गुण्डे के बाप।’ और कह कर गोर्की यह जा, वह जा। दादा के पास मौजूद सब लोग ठठा कर हँस दिए। किन्तु दादा गम्भीर हो गए। उसके बाद उन्होंने अपने तो क्या, किसी और के बच्चे को भी ऐसे सम्बोधन से नहीं पुकारा। आप-हम अपने बच्चों को ‘बेवकूफ, गधा, पाजी’ जैसे ‘अलंकरण’ देते रहते हैं। इसका एक ही मतलब हुआ कि हम बवेकूफ, गधे, पाजी के भी बाप हैं। बात छोटी है किन्तु मर्म पर प्रभाव करती है।


मुझे लगता है कि हमारे संकटों में सर्वाधिक व्यवहृत संकट यही है - किसी बात को छोटी मान कर उसकी अनदेखी करना। एक बार की गई अनदेखी कालान्तर में हमारा स्वभाव बन जाती है और इसके परिणाम प्रायः ही कष्टदायक होते हैं।


अपने बड़े बेटे वल्कल को मैंने तब ही मोटर सायकिल सौंपी जब वह 18 वर्ष पूरे कर चुका था और लर्निंग लायसेन्स ले चुका था। मैं जानता था कि वह घर से बाहर, स्कूल के मित्रों के दुपहिया वाहन चलाता है। मैंने उसे ऐसा करने से हमेशा ही हतोत्साहित किया और कहता रहा कि वह अपराध कर रहा है। परिणाम यह हुआ कि वह यातायात नियमों और कानूनों के प्रति आज भी अतिरिक्त सतर्क है। इसके विपरीत, छोटे बेटे तथागत को सोलह वर्ष की अवस्था से पहले ही मोटरसायकिल चलाने को मिल गई। इस मामले में वह अपने बड़े भाई के मुकाबले अधिक असावधान और कम गम्भीर बना हुआ है।
यदि हम तनिक सावधानी से, तनिक ध्यानपूर्वक देखें तो हमें हमारे आस-पास ऐसे पचासों प्रकरण उपलब्ध हो जाएँगे जहाँ छोटी सी बात ने बाड़ा बिगाड़ दिया या फिर जिन्दगी सँवार दी। रत्नावली के एक उपालम्भ ने दुनिया को गोस्वामी तुलसीदास उपलब्ध करा दिया। मूक मादा क्रौंच के क्षणिक विलाप ने एक लुटेरे को वाल्मिकी बना दिया। वृद्ध, रोगी और मृत देह ने एक राजकुमार को गौतम बु़द्ध बना दिया। भार्या की बेवफाई ने राजा को सन्यासी भर्तहरी बना दिया। ये तो नाम मात्र के उल्लेख हैं।


वस्तुतः, पहली बार के स्खलन को जब हम छोटी बात या ‘ऐसा तो होता रहता है’ जैसे जुमले उच्चार कर छोड़ देते हैं तो नहीं जानते कि हम स्खलन को स्वीकार कर उसकी आवृत्ति को प्रोत्साहित कर रहे होते हैं। वह कहानी याद हो आती है जिसमें मृत्यु दण्ड पाने वाला अपराधी अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में में अपनी माँ के कान में कुछ कहने की अनुमति लेता है और कुछ कहने के स्थान पर अपनी माँ का कान काट लेता है। कहता है कि यदि पहली बार चोरी करने पर माँ ने टोका होता तो मृत्यु दण्ड की नौबत नहीं आती।


निष्कर्ष यह कि कोई भी बात छोटी नहीं होती। हर बात अपना व्यापक अर्थ रखती है और उससे भी अधिक व्यापक प्रभाव छोड़ती हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरा लिखा ‘बिना विचारे’ नहीं पढ़ा जाता और न ही यह टिप्पणी लिखने की स्थिति बनती।


यह छोटी बात नहीं है।

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जैन साहब का पत्थर


जैन साहब जिस तटस्थ-भाव और अविचलित स्वर में बोल रहे थे, वह मुझे चकित ही कर रहा था। उनकी जगह मैं होता तो अपनी ‘वैसी’ सफलता पर पता नहीं क्या कर बैठता! पर जैन साहब अपनी व्यक्तिगत सफलता की सूचना सहज भाव से, संयत स्वरों में ऐसे दे रहे थे मानो किसी और के किए की जानकारी दे रहे हों।


जैन साहब याने श्रीयुत (प्रो) रतनलालजी जैन । प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त भले ही हो गए किन्तु उनकी कलम चलती रहती है। मालवा अंचल में, सम्पादक के नाम नियमित रूप से पत्र लिखनेवालों (और छपनेवालों) की सूची के पहले पाँच में से एक। रहते तो नीमच में हैं किन्तु छाए रहते हैं पूरे मालवा में। वे ही जैन साहब फोन पर बता रहे थे कि कैसे उन्होंने नितान्त व्यक्तिगत प्रयासों से दो फूहड़, भोंडे और अश्लील होर्डिंग हटवाने में सफलता पाई।


ये दोनों होर्डिंग कण्डोम के विज्ञापनों के थे और सार्वजनिक स्थानों पर प्रमुखता से ऐसे लगे हुए थे कि आते-जाते लोग न चाहें तो भी उन्हें देखें। एक होर्डिंग में स्त्री-पुरुष लगभग सम्भोगरत मुद्रा में ही दिखाई दे रहे थे और दूसरे में ‘सम्पूर्ण आनन्दपूर्वक, सुरक्षित सम्भोग’ का आमन्त्रण दिया जा रहा था। दोनों होर्डिंगो को हजारों ने देखा होगा, सैंकड़ों को बुरा लगा होगा, बीसियों ने खिन्नता जताई होगी किन्तु इन्हें हटवाने की कोशिश करने का अवकाश किसी के पास नहीं रहा होगा। सबके पास अपने-अपने काम और उनसे उपजी भरपूर व्यस्तता रही होगी।


किन्तु जैन साहब इन सबमें कहीं भी शरीक नहीं हो पाए। उनकी फितरत ही ऐसी है। सो, पहली बार नजर पड़ते ही उन्होंने ‘नईदुनिया’ को सम्पादक के नाम पत्र लिखा। यथेष्ठ समय तक प्रतीक्षा के बाद भी नहीं छपा तो फिर दूसरा पत्र पोस्ट किया। वह भी नहीं छपा। जैन साहब को आश्चर्य नहीं हुआ। वे भली प्रकार जानते हैं कि बाजार ने अच्छे-अच्छों को बदल दिया है। इसी के चलते, सामाजिक सरोकारों पर विज्ञापनों का लालच भारी पड़ गया हो तो ताज्जुब नहीं।


किन्तु जैन साहब चुप बैठनेवालों में से नहीं थे। सो चुप नहीं बैठे। उन्होंने जिला प्रशासन के उच्चाधिकारियों से सम्पर्क किया। उनसे होर्डिंग हटाने का आग्रह करने के बजाय कहा कि अधिकारीगण कम से कम एक बार अपने बच्चों के साथ जाकर दोनों होर्डिंग देखें अवश्य और फिर जैसा लगे, वैसा करें। जैसाकि होता है (और होना था), जैन साहब की बात पहली बार किसी को सुनाई नहीं दी। किन्तु जैन साब कब चुप बैठने वाले थे? सो, फिर बोले। इस बार एक अधिकारी ने यह आवाज सुनी। जैन साहब के आग्रह का ‘पेंच’ इस अधिकारी ने समझा और बच्चों के साथ नहीं, अकेले ही जाकर दोनों होर्डिंग देखे। इसका प्रभाव और परिणाम यह हुआ कि पहले तो उसने वहीं से फोन कर, दोनों होर्डिंग हटवाने के निर्देश दिए और अपने घर-दफ्तर बाद में लौटा। लौट कर उसने जैन साहब को धन्यवाद दिया और की गई कार्रवाई की जानकारी दी।


यही किस्सा जैन साहब मुझे फोन पर सुना रहे थे-सम्पूर्ण सहजता से, बिलकुल शान्त और संयत स्वरों में। मैं चकित था। इस जमाने में किसी अधिकारी से, व्यक्तिगत स्तर पर, बिना किसी धमकी और तोड़-फोड़ के ऐसा काम करवा लेना मुझे किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था। इसके समानान्तर, उस अधिकारी के प्रति प्रशंसा भाव भी उपज रहा था जिसने यह चमत्कारी काम चुपचाप कर दिया। मैंने जैन साहब से उस अधिकारी का नाम पूछा तो जैन साहब बोले -‘नहीं बताऊँगा। तेरा कोई भरोसा नहीं। तू उसका नाम छाप देगा और वह भला आदमी कण्डोम कम्पनियों की धन-क्षमता के कारण परेशान कर दिया जाएगा। पैसों से सरकारें खरीदनेवाली इन कम्पनियों के लिए एक अफसर का तबादला करवाना तो चुटकी बजाने से भी कम मेहनत का काम है।’ जैन साहब की बात मुझे फौरन ही समझ आ गई। मैं चुप हो गया।


इस बात को तीन दिन हो गए हैं। मैं चाह कर भी यह किस्सा नहीं भुला पा रहा हूँ। जैन साहब इस समय पचहत्तरवें साल में चल रहे हैं। उन्हें क्या पड़ी थी यह सब करने की? आराम से घर में बैठ कर भजन-पूजन करते रहते या पोते-पोतियों के साथ खेलते रहते! लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाते। ऐसे लोग अपने लिए पेरशानियाँ पैदा करते रहते हैं। यह अलग बात है कि ये परेशानियाँ उनकी अपनी नहीं, सारे जमाने की होती हैं। दुष्यन्त कुमार आज होते तो जैन साहब और जैन साहब जैसे लोग पाकर बच्चों की तरह खुश हो जाते। ऐसे ही लोगों के लिए तो उन्होंने लिखा होगा - एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।


जैन साहब ने तबीयत से पत्थर उछाला। नतीजा हमारे सामने है।

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