जैन साहब का पत्थर


जैन साहब जिस तटस्थ-भाव और अविचलित स्वर में बोल रहे थे, वह मुझे चकित ही कर रहा था। उनकी जगह मैं होता तो अपनी ‘वैसी’ सफलता पर पता नहीं क्या कर बैठता! पर जैन साहब अपनी व्यक्तिगत सफलता की सूचना सहज भाव से, संयत स्वरों में ऐसे दे रहे थे मानो किसी और के किए की जानकारी दे रहे हों।


जैन साहब याने श्रीयुत (प्रो) रतनलालजी जैन । प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त भले ही हो गए किन्तु उनकी कलम चलती रहती है। मालवा अंचल में, सम्पादक के नाम नियमित रूप से पत्र लिखनेवालों (और छपनेवालों) की सूची के पहले पाँच में से एक। रहते तो नीमच में हैं किन्तु छाए रहते हैं पूरे मालवा में। वे ही जैन साहब फोन पर बता रहे थे कि कैसे उन्होंने नितान्त व्यक्तिगत प्रयासों से दो फूहड़, भोंडे और अश्लील होर्डिंग हटवाने में सफलता पाई।


ये दोनों होर्डिंग कण्डोम के विज्ञापनों के थे और सार्वजनिक स्थानों पर प्रमुखता से ऐसे लगे हुए थे कि आते-जाते लोग न चाहें तो भी उन्हें देखें। एक होर्डिंग में स्त्री-पुरुष लगभग सम्भोगरत मुद्रा में ही दिखाई दे रहे थे और दूसरे में ‘सम्पूर्ण आनन्दपूर्वक, सुरक्षित सम्भोग’ का आमन्त्रण दिया जा रहा था। दोनों होर्डिंगो को हजारों ने देखा होगा, सैंकड़ों को बुरा लगा होगा, बीसियों ने खिन्नता जताई होगी किन्तु इन्हें हटवाने की कोशिश करने का अवकाश किसी के पास नहीं रहा होगा। सबके पास अपने-अपने काम और उनसे उपजी भरपूर व्यस्तता रही होगी।


किन्तु जैन साहब इन सबमें कहीं भी शरीक नहीं हो पाए। उनकी फितरत ही ऐसी है। सो, पहली बार नजर पड़ते ही उन्होंने ‘नईदुनिया’ को सम्पादक के नाम पत्र लिखा। यथेष्ठ समय तक प्रतीक्षा के बाद भी नहीं छपा तो फिर दूसरा पत्र पोस्ट किया। वह भी नहीं छपा। जैन साहब को आश्चर्य नहीं हुआ। वे भली प्रकार जानते हैं कि बाजार ने अच्छे-अच्छों को बदल दिया है। इसी के चलते, सामाजिक सरोकारों पर विज्ञापनों का लालच भारी पड़ गया हो तो ताज्जुब नहीं।


किन्तु जैन साहब चुप बैठनेवालों में से नहीं थे। सो चुप नहीं बैठे। उन्होंने जिला प्रशासन के उच्चाधिकारियों से सम्पर्क किया। उनसे होर्डिंग हटाने का आग्रह करने के बजाय कहा कि अधिकारीगण कम से कम एक बार अपने बच्चों के साथ जाकर दोनों होर्डिंग देखें अवश्य और फिर जैसा लगे, वैसा करें। जैसाकि होता है (और होना था), जैन साहब की बात पहली बार किसी को सुनाई नहीं दी। किन्तु जैन साब कब चुप बैठने वाले थे? सो, फिर बोले। इस बार एक अधिकारी ने यह आवाज सुनी। जैन साहब के आग्रह का ‘पेंच’ इस अधिकारी ने समझा और बच्चों के साथ नहीं, अकेले ही जाकर दोनों होर्डिंग देखे। इसका प्रभाव और परिणाम यह हुआ कि पहले तो उसने वहीं से फोन कर, दोनों होर्डिंग हटवाने के निर्देश दिए और अपने घर-दफ्तर बाद में लौटा। लौट कर उसने जैन साहब को धन्यवाद दिया और की गई कार्रवाई की जानकारी दी।


यही किस्सा जैन साहब मुझे फोन पर सुना रहे थे-सम्पूर्ण सहजता से, बिलकुल शान्त और संयत स्वरों में। मैं चकित था। इस जमाने में किसी अधिकारी से, व्यक्तिगत स्तर पर, बिना किसी धमकी और तोड़-फोड़ के ऐसा काम करवा लेना मुझे किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था। इसके समानान्तर, उस अधिकारी के प्रति प्रशंसा भाव भी उपज रहा था जिसने यह चमत्कारी काम चुपचाप कर दिया। मैंने जैन साहब से उस अधिकारी का नाम पूछा तो जैन साहब बोले -‘नहीं बताऊँगा। तेरा कोई भरोसा नहीं। तू उसका नाम छाप देगा और वह भला आदमी कण्डोम कम्पनियों की धन-क्षमता के कारण परेशान कर दिया जाएगा। पैसों से सरकारें खरीदनेवाली इन कम्पनियों के लिए एक अफसर का तबादला करवाना तो चुटकी बजाने से भी कम मेहनत का काम है।’ जैन साहब की बात मुझे फौरन ही समझ आ गई। मैं चुप हो गया।


इस बात को तीन दिन हो गए हैं। मैं चाह कर भी यह किस्सा नहीं भुला पा रहा हूँ। जैन साहब इस समय पचहत्तरवें साल में चल रहे हैं। उन्हें क्या पड़ी थी यह सब करने की? आराम से घर में बैठ कर भजन-पूजन करते रहते या पोते-पोतियों के साथ खेलते रहते! लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाते। ऐसे लोग अपने लिए पेरशानियाँ पैदा करते रहते हैं। यह अलग बात है कि ये परेशानियाँ उनकी अपनी नहीं, सारे जमाने की होती हैं। दुष्यन्त कुमार आज होते तो जैन साहब और जैन साहब जैसे लोग पाकर बच्चों की तरह खुश हो जाते। ऐसे ही लोगों के लिए तो उन्होंने लिखा होगा - एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।


जैन साहब ने तबीयत से पत्थर उछाला। नतीजा हमारे सामने है।

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5 comments:

  1. जैन साहब को में निजी रूप से जानती हू वास्तव में वो एक अनुकरणीय व्यक्ति है. उनको और आपको धन्यवाद्

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  2. जैन साहब और सरकारी अफसर को नमन!

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  3. और फिर जैसा लगे, वैसा करें।
    रतनलालजी जैन की यह बात सामने लाने का धन्यवाद. समझदार व्यक्ति के लिए यह "यथेच्छासी तथा कुरु" महत्वपूर्ण है. फिर भी कुछ लोग समझते हैं कि काम या तो धमका कर या रिश्वत देकर ही होते हैं.

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  4. vaaha... vaaha... lage rahoo.....

    jain sahah ko dekha kar mene bhi 'patthar' hatha me le liyen hai.....

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