अपने उत्सव मनाने के लिए हम सरकार पर निर्भर हो गए हैं? अब सरकार तय करेगी कि हम अपने उत्सव मनाएँ या नहीं? हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव किसी जिम्मेदारी हैं-हमारी या सरकार की? अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को बनाए रखने के लिए हम सरकार की कृपा के मुहताज हो गए हैं? गए तीन दिन से ये और ऐसे ही अन्य प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठ रहे हैं। इनमें से प्रत्येक का उत्तर मैं ‘नहीं’ में देना चाहता हूँ पर दे नहीं पा रहा हूँ।
बात शायद बहुत ही छोटी लगे किन्तु इसने मुझे असहज कर रखा है। रतलाम जिले में एक छोटा सा कस्बा है - ताल। यह आलोट तहसील का हिस्सा है। यहाँ रंग पंचमी समारोहपूर्वक मनाई जाती है। रंग पंचमी की पूर्व सन्ध्या पर मूर्ख सम्मेलन भी आयोजित किया जाता है। कोई पन्द्रह-सत्रह वर्षों से यह परम्परा चली आ रही है। लोग इसकी प्रतीक्षा भी करते हैं और उत्साहपूर्वक इसकी तैयारी भी। एक दिन के लिए यह कस्बा मानो अपने आप को भूल जाता है। ‘रंग पंचमीमय’ हो जाता है।
जिला प्रशासन प्रति वर्ष आलोट तहसील के लिए इस दिन का स्थानीय अवकाश घोषित करता आया है। इस बार ऐसा नहीं हुआ। स्थानीय अवकाश घोषित करना जिला प्रशासन (कलेक्टर) का अधिकार है किन्तु कलेक्टर को दो या तीन स्थानीय अवकाश का ही अधिकार रहता है। जिले की स्थानीय आवश्यकताओं और महत्वानुसार वह ये अवकाश घोषित करता है। इस बार यह स्थानीय अवकाश शायद किसी दूसरे त्यौहार के लिए प्रयुक्त कर लिया गया। ताल निवासियों को यह कबूल नहीं हो पा रहा है।
तीन दिन पहले अखबारों में ताल का समाचार छपा जिसमें स्थानीय अवकाश घोषित करने के लिए कलेक्टर से तो माँग की ही गई, चेतावनी देते हुए चिन्ता जताई गई कि स्थानीय अवकाश घोषित नहीं करने से वहाँ के लोग इस वर्ष, पूर्वानुसार रंग पंचमी नहीं मना पाएँगे। मेरे लिए तय कर पाना कठिन था कि इसे चेतावनी भरी चिन्ता मानूँ या चिन्ता जनित चेतावनी?
इस समाचार ने ही मुझे असहज कर रखा है। लोकोत्सवधर्मिता हमारा संस्कार है या राज्याश्रय?यह हमारी उत्सवप्रियता है या अवकाशप्रियता? क्या हम वे त्यौहार ही मनाते हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होता है? इसके समानान्तर यह सवाल भी उठता है कि जिन त्यौहारों के लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं, क्या वे सब त्यौहार हम सचमुच में मनाते हैं?ईद, क्रिसमस, गुड फ्रायडे, नानक जयन्ती आदि ऐसे त्यौहार हैं जिनके लिए सरकारी अवकाश घोषित होते हैं किन्तु अधिसंख्य लोग इन्हें नहीं मनाते। ये त्यौहार मनाना तो दूर की बात है, इन त्यौहारों से जुड़े अपने कितने मित्रों को हम बधाइयाँ देते हैं, अभिनन्दन करते हैं? इसके विपरीत, अभी-अभी आई संक्रान्ति पर सरकार ने छुट्टी घोषित नहीं की थी किन्तु स्कूल वीरान थे। मुझे कलेक्टोरेट में कुछ काम था। गया तो देखा कि अधिकांश कर्मचारी, कार्यालय के बाहर ही गिल्ली डण्डा खेल रहे हैं। जो स्थिति थी, उसे देखकर मेरी ही हिम्मत नहीं हुई कि अपने काम की बात करता। चुपचाप चला आया।
छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त हमारे लिए ‘अवकाश’ से अधिक कुछ नहीं रह गए हैं। इस दिन लगभग सारे के सारे आयोजन शासकीय स्तर पर ही होते हैं। अशासकीय स्तर पर आयोजित होनेवाले समारोह किसी भी शहर/कस्बे में या तो होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अंगुलियों के पोरों पर गिने जा सकने की संख्या में। दो अक्टूबर को कितने लोग गाँधी को याद करते हैं? गाँधी जयन्ती भी हमारे लिए ‘अवकाश’ से कम या ज्यादा और कुछ नहीं है।
हरतालिका तीज पर मध्य प्रदेश सरकार महिलाओं को विशेष अवकाश देती है। मेरी उत्तमार्द्ध जिस शासकीय स्कूल में अध्यापक है वहाँ कुल तीन अध्यापक हैं और तीनों ही महिलाएँ। स्थिति यह है कि महिलाओं को विशेष अवकाश तो दिया गया किन्तु विद्यालय का अवकाश नहीं था। सो, विद्यालय तो खुलना ही था। ऐसे में क्या किया जाए? तीनों महिलाओं ने एक दूसरे की चिन्ता की और तीनों ही विद्यालय आईं और अपना-अपना व्रत भी निभाया। यह विशेष अवकाश ऐसा नहीं था जिसके बदले में कोई दूसरा अवकाश मिल जाए।
ताल का समाचार पढ़ते-पढ़ते यही सब बातें मुझे याद आ रही थीं। केवल मालवा और मध्य प्रदेश ही नहीं, समूचा भारत उत्सवधर्मी और उत्सवप्रेमी समाज है। इसीलिए तो हमारे उत्सव, लोकोत्सव हैं! हम इन्हें सरकारी उत्सव बनाने पर तो आमादा नहीं हो गए? यदि रामनवमी पर सरकारी अवकाश नहीं हो तो हम अपने आराध्य का जन्मोत्सव मनाने के लिए एक आकस्मिक अवकाश (सी एल) की कीमत भी शायद ही चुकाएँ।
यदि स्थितियाँ सचमुच में ऐसी ही बन रही हैं तो हमें अपनी मानसिकता, अपनी वैचारिकता, अपने आचारण पर फौरन ही विहंगम दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। सांस्कृतिक परम्पराएँ और लोकोत्सव यदि राज्य की कृपा पर छोड़ दिए जाएँगे तो हम मनुष्य भी नहीं रह पाएँगे। फिर तो हम ‘प्राणवान यन्त्र’ बन कर रह जाएँगे।
मैं कुछ गलत सोच रहा हूँ?
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उत्सव प्रियता की हालत यह है कि पाँच दिन के कार्य सप्ताह में कभी कभी तो दो दिन भी काम होना कठिन हो जाता है।
ReplyDeleteाप बिलकुल सही सोच रहे हैं असल मे कोई तौहार मनाने के लिये छुट्टी की क्या आवश्यकता है वैसे भी छुट्टी ले कर मौज मस्ती ही की जाती है अब कोई भी तौहार हो केवल मनोरंजन मात्र के लिये ही रह गये हैं उनमे जो भावना है वो तो कब की मर चुकी है
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है धन्यवाद और शुभकामनायें
सही कहा आपने, हमारी संस्कृति में उत्सव का महत्त्व है - काम से छुट्टी का नहीं. वैसे भी कई बड़े उत्सवों के दिन छुट्टी होती है जबकि असल आयोजन देर रात में होता है और छुट्टी की ज़रुरत अगले दिन पड़ती है. फिर भी छुट्टी से सुविधा तो हो ही जाती है.
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