(यह पोस्ट मेरे बेटे वल्कल के एक कक्षापाठी मित्र ने लिखी है। बाबुल सुप्रियो इसका वास्तविक नाम नहीं है। यह देखकर कि बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत, 30 वर्षीय नौजवान को भी ऐसी बातों से पीड़ा होती है, उसके मन में क्षोभ उपजता है तो सच मानिए, मन को ठण्डक मिलती है और भारत के भविष्य के प्रति निश्चिन्तता उपजती है। बाबुल सुप्रियो इस समय कोरिया में है। यह पोस्ट उसने मुझे 27 जनवरी को भेजी थी। तब वह बेंगलुरु में ही था।)
बंगलुरू की सड़क किनारे आज मैंने एक होर्डिंग देखा जिसने मेरी कुछ यादें ताजा कर दीं। यादें, तब की जब भुट्टा, खीरा या ऐसा ही कुछ चना चबेना बटोर कर मनमानी से गप्प गोष्ठियों का मजा लिया जाता था ।
कुछ साल पहले मैंने परसाई का एक व्यंग्य पढ़ा था, जिसमें उन वानरों का उल्लेख था जो लंका युद्ध के दौरान मजे से समन्दर किनारे बैठे रहे । जब प्रभु (याने कि लंका विजय के बाद वाले राम) वापिस लौट रहे थे तो ये भी भीड़ में शामिल हो गए, और अपने हाथ पैर थोड़े खरोंच-खरूँच कर सेनानी होने का रोना रोने लगे (इच्छा थी की इसे स्वाँग कहूँ, लेकिन मेरे हिसाब से स्वाँग भरने में भी सृजनात्मक बुद्धि की जरुरत होती है) आज भी अपने यहाँ माँग मनवाने के लिए भाँति भाँति के रोने रोना ही सबसे कारगर तरीका है ।
एक बार सम्मान मिल गया तो ये दादाजी की तरह (या राशन वाली शक्कर की तरह) अपने मिलावटी किस्से सुनाने लगे । जैसे मैं कचोरी की क्वालिटी का अन्दाजा इस बात से लगाता हूँ कि इस सेठ की दुकान का कितना नाम है। शायद उसी तरह इन वानरों की नीतियों में (फैशन के दौर में गारण्टी की उम्मीद करने वाली) जनता को ज्यादा रस दीख पड़ा होगा, और अपना पाँच रुपये का नोट (कचोरी का नोट = वोट) उनको ही टिका दिया हो ।
शुरु में ये वानर, राम के रिप्रसेंटेटिव थे, बाद में ये जनता के रिप्रसेंटेटिव हुए। राम और जनता दोनों का मनमाना दूध निकाला गया। इसके बाद तो जो कुछ भी किस्सा पता है, उसमें अपना पचास पचपन साल का गौरवमय इतिहास सभी का रटा रटाया है।
यह रही लिंक
इति गणतन्त्र दिवस सिद्धम,
-बाबुल सुप्रियो
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अच्छा व्यंग्य है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा व्यंग है धन्यवाद्
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