कुछ तो रखा है नाम में


टेलीफोन बन्द करते ही साहिल के ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरफ ध्यान गया। लगा, या तो मैंने गलत सुन लिया है या साहिल ने ही गलत कह दिया है।
साहिल गाजियाबाद से बोल रहा था। एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता है। अभी-अभी, 26 जून को एक बिटिया का पिता बना है। पूछने पर बताया - ‘अयरा नाम रखा है।’ ‘अयरा’ का अर्थ पूछने पर बोला - ‘विदेशी भाषा का शब्द है। अर्थ है - ‘आदरणीय।’ पिता बने अभी दो महीने नहीं हुए किन्तु साहिल ने अयरा के भविष्य के बारे में सोचना शुरु कर दिया। उसकी उच्च शिक्षा के लिए बीमा योजनाओं की जानकारी चाह रहा था। मैंने साहिल के ब्यौरे लिखे और कहा कि वांछित बीमा योजनाओं के ब्यौर मैं उसे अगले दिन भेज दूँगा। उसका पूरा नाम-पता पूछा तो बताया - साहिल कुक्कड़। मैंने पता लिख कर फोन बन्द कर दिया और जैसा कि शुरु में ही कहा, फोन बन्द करते ही उसके ‘कुलनाम’ ‘कुक्कड़’ की तरफ ध्यान गया। अब तक मैंने ‘कक्कड़’ सुना/पढ़ा था। ‘कुक्कड़’ पहली बार सुनने को मिला। कहीं कुछ गलत न कर बैठूँ, यह सोच कर फौरन ही साहिल का नम्बर फिर से लगाया। पूछा - ‘तुम्हारा सरनेम ‘कुक्कड़’ है या ‘कक्कड़?’ साहिल जोर से हँसा और बोला - ‘अंकल, मेरा सरनेम ‘कुक्कड़’ ही है।’ मैंने ‘कक्कड़’ का हवाला दिया तो उसने मेरा ज्ञान-वर्द्धन किया।

साहिल के कहे अनुसार पंजाबी समुदाय के जितने भी लोग ‘कक्कड़’ लिखते हैं, वे सब ‘कुक्कड़’ ही हैं। पंजाबी भाषा में ‘कुक्कड़’ का मतलब ‘मुर्गा’ होता है। सो, साहिल के अनुसार, ‘जगहँसाई’ (एम्बरेसमेण्ट) से बचने के लिए लोगों ने ‘कुक्कड़’ से पीछा छुड़ा कर ‘कक्कड़’ का दामन थाम लिया। मैंने पूछा - ‘तुम्हें जगहँसाई’ की चिन्ता नहीं हुई?’ ‘बिन्दास भाव’ से चहकते हुए साहिल ने कहा - ‘जो जगहँसाई की परवाह में दुबला होता रहता है, ‘जग’ (दुनिया) उसे जीने नहीं देता। और जो ‘जग’ की परवाह नहीं करता, -‘जग’ उसकी परवाह में दुबला होता रहता है।’ बात को आगे बढ़ाते हुए साहिल बोला - ‘अंकल! कोई कितना ही, कुछ भी कर ले, हकीकत तो सब जानते हैं। फिर यह सब उठापटक क्यों और किसके लिए? इसलिए मैं तो कुक्कड़ ही हूँ।’

बात आई-गई हो जानी चाहिए थी। किन्तु नहीं हुई। मुझे कुछ ऐसे ही नाम याद आने लगे जो लोगों को छेड़खानी करने के लिए उकसाते थे।

1975-76 में मैं, भोपाल में, अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ में काम करता था। पत्रकारों में एक था मजहर उल्ला खान। खेल गतिविधियाँ उसीके जिम्मे थी। एक ‘लाइनो-ऑपरेटर’ से उसकी तनातनी बनी रहती थी। इस ‘लाइनो-ऑपरेटर’ की ड्यूटी में जब भी कोई समाचार मजहर उल्ला खान के नाम सहित जाता तो वह ‘लाइनो-ऑपरेटर’, ‘मजहर उल्ला खान’ को जान बूझ कर ‘जहर उल्ला खान’ कर दिया करता था। प्रूफ रीडरों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। किन्तु इसके बाद भी, महीने में एक-दो बार ‘मजहर उल्ला’ के स्थान पर ‘जहर उल्ला’ छप ही जाया करता था। हमारे सम्पादक नटेश राजन जब-जब भी यह चूक देखते तब हर बार खुल कर हँसते और मजहर से कहते - ‘मियाँ, उससे दोस्ती कर लो वर्ना वो तुम्हें ताजिन्दगी ‘जहर’ बनाए रखेगा।’ मजहर जिन्दादिल नौजवान था। अपनी इस दुर्गत के मजे लेता था। कहता - ‘सर! फिकर वो करे। वो महादेव तो है नहीं कि नीलकण्ठ बन जाए। मैं जिस दिन सचमुच में जहर बनने पर उतर आया तो ‘बीबी का प्यारा’ यह बन्दा, ‘खुदा का प्यारा’ हो जाएगा।’

नाम के साथ हुई छेड़खानी से उकता कर हमारे एक सीनीयर ने अपना कुलनाम ही बदल लिया था। यह सन् 1967 की बात है। मैं रामपुरा (जिला नीमच, म. प्र.) में, बी. ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था। महाविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में ‘डबकरा’ कुलनाम वाले हमारे एक सीनीयर ने अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी ठोक दी। उसकी उम्मीदवारी से हम सब चौंके थे। वह चुनाव मैदान का खिलाड़ी कभी नहीं रहा। पता नहीं क्यों चुनाव मैदान में उतर आया था! आश्चर्य की बात यह थी कि वह पूरी गम्भीरता से चुनाव लड़ भी रहा था। तब ‘प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली’ लागू थी - महाविद्यालय के प्रत्येक छात्र को मतदान करना था।

रामपुरा बहुत छोटा कस्बा है। आबादी इतनी कम कि कस्बे के सारे लोग एक दूसरे को भली प्रकार जानते थे। ऐसे में चुनाव प्रचार का कोई अर्थ नहीं था। किन्तु जगदीश ने पूरे कस्बे की तमाम गलियों की दीवारों पर लिखवा दिया - ‘अध्यक्ष पद के लिए डबकरा को वोट दीजिए।’ चूँकि वह शुरु से ही गम्भीर उम्मीदवार नहीं था सो हर कोई उसके मजे लेने लगा था। उसके प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार ने पूरे कस्बे को मजा दिला दिया। उसने पूरे कस्बे में ‘डबकरा’ में से ‘ड’ को मिटवा दिया। अब पूरे कस्बे में, गली-गली में लिखा हुआ था - ‘अध्यक्ष पद के लिए बकरा को वोट दीजिए।’ पूरे कस्बे में हालत यह हो गई कि आगे-आगे डबकरा और पीछे-पीछे ‘बकरा-बकरा’ कहते हुए बच्चों का झुण्ड।

चुनाव परिणाम तो सबको पता ही था। किन्तु उसके ठीक बाद डबकरा ने अपना कुलनाम बदलकर ‘गुप्ता’ कर लिया। लेकिन अतीत पीछा नहीं छोड़ता। वह अपना परिचय ‘गुप्ता’ कह कर देता तो सामनेवाला चेहरे पर गम्भीरता और मासूमियत ओढ़कर दुष्टतापूर्वक पूछता -‘वही गुप्ता ना जो पहले बकरा था?’

मेरे कुलनाम के साथ भी भाई लोगों ने खूब छेड़छाड़ की और मेरे खूब मजे लिए। ‘बैरागी’ को कभी ‘बैरा’ (जी हाँ, ‘होटल बैरा’) तो कभी ‘बैर’ कर दिया जाता था। कभी-कभी ‘रागी’ कहा जाता किन्तु ‘रागी’ में भाई लोगों को मजा नहीं आता। उल्टे लगता, मेरी इज्जत बढ़ा दी। सो, मुझे ‘बैरा’ और ‘बैर’ ही बनाया जाता रहा। कभी-कभी ‘बेरा’ बना दिया जाता जो मालवी बोली में ‘बहरा’ का अपभ्रंश होता। शुरु-शुरु तो मैं भी चिढ़ता रहा किन्तु चण्डीगढ़ से आए, राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केवल कुमार वर्मा ने जो ‘गुरु ज्ञान’ दिया उससे भाई लोग परास्त हो गए। भाई लोग मुझे जिस भी नाम से पुकारते, वर्माजी के निर्देशानुसार मैं तत्काल ऐसे जवाब देता जैसे सामनेवाले ने मेरा सही नाम ही पुकारा है। वर्माजी के कारण मेरे मजे लेने का, मेरे मित्रों का मजा नष्ट हो गया।

ये तो वे प्रकरण हैं जिनमें लोगों ने नाम के साथ छेड़खानी की। किन्तु क्या कोई कुलनाम ऐसा भी हो सकता है जिसके साथ छेड़खानी करने की न तो आवश्यकता हो और न ही कोई गुंजाइश और फिर भी आप मजे ले सकें? ऐसे एक नाम से मेरा वास्ता पड़ा है।

यह 1987 की बात है। मैं सम्भागीय उद्योग संघ का सचिव था। सरकारी दफ्तरों में जाना और अधिकारियों से मिलना मेरी जिम्मेदारियों में शरीक था। कुछ उद्योगों के कारण रतलाम को पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में काफी संघर्ष करना पड़ रहा था। तब यहाँ, म. प्र. प्रदूषण निवारण मण्डल ने अपना एक कार्यालय खोल कर एक सहायक वैज्ञानिक की पदस्थापना की थी। पहली बार उनका नाम सुनकर हर किसी को लगता था कि उसने सुनने में कोई गलती कर ली है। सो, खातरी करने के लिए दूसरी बार पूछता था। तब समझ पड़ती थी कि पहली बार सही ही सुना था। इन सज्जन का कुलनाम था - गधेवाड़ीकर। नाम सुनकर हम सब पहले तो चौंकते और बाद में मुस्कुराते और गधेवाड़ीकर के पीठ फेरते ही पेट पकड़ कर हँसते।

उन दिनों सम्‍भवत: राकेश बंसल रतलाम के कलेक्टर हुआ करते थे। कलेक्टोरेट में आयोजित बैठक में गधेवाड़ीकर पहली बार पहुँचे तो बंसल साहब ने परिचय जानना चाहा। सहायक वैज्ञानिक महोदय ने खुल कर, गर्वपूर्वक कहा - ‘सर! मैं गधेवाड़ीकर हूँ। यहाँ पोल्यूशन कण्ट्रोल बोर्ड के सब-ऑफिस में असिस्टण्ट साइंटिस्ट हूँ।’ कुलनाम सुनकर बंसल साहब के पेट में मरोड़ उठने लगे। आई ए एस के वजन से हँसी को दबाने की कोशिश तो की किन्तु कामयाब नहीं हुए। कलेक्टरी एक ओर धरी रह गई और जो हँसी चली तो बंसल साहब की आँखों और नाक से पानी बहने लगा। बमुश्किल हँसी को थोड़ी देर के लिए काबू किया और कहा - ‘यार! यह भी कोई नाम है? वाकई में गधेवाड़ीकर ही नाम है?’ और इससे पहले कि गधेवाड़ीकर कोई जवाब दे, बंसल साहब की हँसी फिर से, पूरे जोर से छूट गई। उस दिन वह बैठक नहीं हो पाई सो तो ठीक किन्तु उसके बाद जब-जब भी बैठक में गधेवाड़ीकर मौजूद होता, बंसल साहब अनजान बन कर - ‘अरे! मिस्टर पोल्यूशन कण्ट्रोलवाले! वो, क्या नाम तुम्हारा.....’ कहकर मानो नाम याद कर रहे हों, इस तरह मुख-मुद्रा बनाकर गधेवाड़ीकर की ओर देखने लगते। गधेवाड़ीकर फौरन ही, तन कर कहता - ‘गधेवाड़ीकर, सर।’ सुनकर बंसल साहब जोर से हँसते और देर तक हँसते रहते। बाद-बाद में यह होने लगा कि यदि गधेवाड़ीकर बैठक में नहीं होता तो बंसल साहब कहते - ‘अरे! आज कैसे हँसेंगे भाई? देखो! देखो!! आते ही होंगे। कुछ देर राह देख लेते हैं।’ लब्बोलुआब यह कि जब तक गधेवाड़ीकर रतलाम में पदस्थ रहा, बंसल साहब का झुनझुना बना रहा।

मुझे लगता है, हममें से प्रत्येक के आसपास ऐसे दस-बीस किस्से तो होंगे ही। इन किस्सों को संग्रहीत करना कैसा रहेगा? और संग्रहीत कर लिया तो संग्रह का का नाम क्या रखा जाएगा?

सोचिएगा। आखिर नाम में कुछ तो रखा है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

आयतन ही नहीं, अपना घनत्व भी बढ़ाया भारतीय जीवन बीमा निगम ने

भारत सरकार के कुबेर, भारतीय जीवन बीमा निगम ने, जीवन बीमा कारोबार में एक बार फिर न केवल अपना पहला स्थान पूर्ववत बनाए रखा है अपितु इसने जीवन बीमा का कारोबार कर रही निजी क्षेत्र की तमाम बीमा कम्पनियों को धक्का देकर बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा कर 73.02 प्रतिशत कर ली है जो गत वर्ष 70.52 प्रतिशत थी। प्रथम प्रीमीयम आय के सन्दर्भ में यह हिस्सेदारी 64.86 प्रतिशत कर ली जो गए वर्ष 60.79 प्रतिशत थी।

पॉलिसियाँ बेचने के मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम ने गत वर्ष के मुकाबले 8.21 प्रतिशत की शानदार वृध्दि करते हुए कुल 3.88 करोड़ पॉलिसियाँ बेच कर अपनी सकल ग्राहक संख्या 28 करोड़ से अधिक कर ली जो दुनिया के (तीन देशों को छोड़कर) किसी भी देश की जनसंख्या से अधिक है।

भारतीय जीवन बीमा निगम ने कामकाज के प्रत्येक पक्ष में अपनी कीर्ति पताका की ऊँचाई में बढ़ोतरी ही की है। वर्ष 2008-09 में ‘निगम’ की सकल प्रीमीयम आय 1,57,186 रुपये थी जो वर्ष 2009-10 मे बढ़कर 1,85,985 रुपये हो गई। अर्थात् ‘निगम’ ने सकल प्रीमीयम आय में 49.15 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की। प्रथम प्रीमीयम आय में भी निगम ने 33.87 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए 70,891 करोड़ रुपये संग्रह किए जो गत वर्ष 52,964 करोड़ रुपये थी।

किसी भी बीमा कम्पनी की विश्वसनीयता का पैमाना उसका भुगतान प्रदर्शन होता है। इस मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम ने न केवल निजी क्षेत्र की तमाम बीमा कम्पनियों को चारों कोने चित्त कर दिया बल्कि खुद से ही प्रतियोगिता कर अपना पिछला रेकार्ड तोड़ दिया। वर्ष 2009-10 में ‘निगम’ ने, मृतक बीमाधारकों के परिजनों द्वारा प्रस्तुत कुल 6,64,619 मृत्यु दावों पर 7033.68 करोड़ रुपयों का भुगतान किया। वर्ष के दौरान प्राप्त सकल मृत्यु दावों के और निपटाए गए मृत्यु दावों के अन्तिम आँकड़े यद्यपि अभी आने बाकी हैं किन्तु विश्वास किया जा रहा है कि अपनी कीर्तिमानी परम्परा को बनाए रखते हुए ‘निगम’ ने 99 प्रतिशत से अधिक मृत्यु दावों का निपटान किया है। यहाँ यह उल्लेख समीचीन होगा कि लम्बित दावों में ऐसे दावे भी शामिल हैं जो मार्च 2010 के अन्तिम दिनों में प्रस्तुत किए गए हैं और जिन्हें निपटाने के लिए ‘निगम’ को न्यूनतम अनिवार्य समयावधि भी प्राप्त नहीं हुई होगी।

इसी क्रम में ‘निगम’ ने 2,05,17,870 पूर्णावधि दावों (अर्थात् पॉलिसी अवधि पूरी होने पर भुगतान की जानेवाली रकम) तथा प्रत्याशित दावों (अर्थात् विभिन्न मनी बेक तथ अन्य पॉलिसियों की अवधि के दौरान निर्धारित समय पर भुगतान की जानेवाली रकम) पर अपने पॉलिसीधारकों को 46921.22 करोड़ रुपयों का भुगतान किया।

बीमा करोबार करते हुए भारतीय जीवन बीमा निगम को अतिशेष (सरप्लस) के रूप में 23478 करोड़ रुपये प्राप्त हुए जिसकी 5 प्रतिशत रकम, 1029 करोड़ रुपये, लाभांश (डिविडेण्ट) के रूप में ‘निगम’ ने भारत सरकार को सौंप दी । भारत सरकार को दी गई डिविडेण्ट की यह रकम, गत वर्ष की रकम के मुकाबले 18.32 प्रतिशत अधिक है। अतिशेष (सरप्लस) की शेष रकम 22,449 करोड़ रुपये, ‘निगम’ के पॉलिसीधारकों को बोनस के रूपमें अर्पित कर दिए गए हैं।

वर्ष 2009-10 के वित्तीय परिणामों के अनुसार, भारत सरकार के इस कुबेर की सकल परिसम्पत्तियाँ, गत वर्ष के मुकाबले 31.88 प्रतिशत बढ़कर 11,52,057 करोड़ रुपये हो गई है।

किन्तु इससे भी अच्छी खबर अभी बाकी है। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों ने ‘अहर्निशं सेवामहे’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए, चालू वित्त वर्ष 2010-11 की पहली तिमाही (अप्रेल'10 से जून'10) में 18740 करोड़ रुपये प्रथम प्रीमीयम आय अर्जित कर दिखाई है। यह रकम, गत वर्ष की इसी तिमाही के मुकाबले 107.57 प्रतिशत अधिक तो है ही, पूरे देश में कार्यरत, तमाम बीमा कम्पनियों की प्रथम प्रीमीयम आय का 73.43 प्रतिशत है। अर्थात् देश के महानगरों से लेकर गाँव-खेड़ों की गलियों-पगडण्डियों में सक्रिय, भारत सरकार के इस कुबेर के कर्मठ एजेण्टों ने अपनी शानदार संस्था के कीर्तिमान को अक्षुण्ण बनाए रखने की पीठिका अभी से ही रच दी है।

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मोबाइल का कृपा-प्रसाद

जस्सु भाई ने टोका तो ‘मोबाइल कृपा’ का एक नया आयाम उद्घाटित हुआ। उन्होंने उलाहने के लहजे में कहा - ‘लगता है, अब हमारे यहाँ से आपको बीमे की या तो जरूरत नहीं रह गई है या फिर उम्मीद नहीं रह गई है।’ मैं चकरा गया। जस्सु भाई का मन्तव्य समझ नहीं पाया। मेरी आँखें पढ़ कर बोले -‘आपके पत्र तो बराबर आ जाते हैं किन्तु दो-तीन बरसों से आपने फोन करना बन्द कर दिया है।’ बात फौरन मेरे भेजे में आ गई।

भरे-पूरे संयुक्त परिवार के मुखिया हैं जस्सु भाई। वे, उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएँ, दो पोते और एक पोती। कुल नौ सदस्यों का परिवार। ऐसे परिवार इन दिनों देखने में नहीं आते। अनूठे बन गए हैं। मनुष्य वही तलाशता है जो उसके पास नहीं होता। परिवार के नाम पर हम मियाँ-बीबी ही रह गए हैं गए कुछ बरसों से। सो, ऐसे अनूठे, संयुक्त परिवार मुझे अतिरिक्त रूप से आकर्षित करते हैं, ललचाते हैं और कभी-कभार ईर्ष्‍यालु भी बना देते हैं। मेरे सम्पर्क-क्षेत्र के ऐसे संयुक्त परिवारों में जाने के लिए मैं बहाने भी तलाश नहीं करता। जब जी चाहा, बिना पूर्व सूचना दिए ऐसे परिवारों चला जाता हूँ। धमा-चौकड़ी मचाते बच्चे और उन्हें डाँटते-हड़काते बड़े-बूढ़े मेरे खालीपन को दूर कर देते हैं। मेरी थकान दूर हो जाती है। ताजादम कर देते हैं मुझे ऐसे दृश्य। इन्हीं कारणों से जस्सु भाई के यहाँ अकारण ही गाहे-ब-गाहे जाता रहता हूँ।

एक कारण और है जस्सु भाई के यहाँ जाते रहने का। उनके दोनों बेटे, अपने पूरे परिवार सहित मेरे पॉलिसीधारक याने मेरे ‘अन्नदाता’ हैं। मैं अपने ‘अन्नदाताओं’ और उनके परिजनों के जन्म दिनांक और विवाह वर्ष गाँठ पर अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र तो भेजता ही हूँ, उस दिन टेलीफोन पर भी बधाई देने का जतन करता हूँ। जस्सु भाई इसी की शिकायत कर रहे थे।

मैंने कहा - ‘नहीं जस्सु भाई! मैं तो सबके जन्म दिन और शादी की सालगिरह पर बराबर फोन कर रहा हूँ। विश्वास न हो तो अपने दोनों बेटे-बहुओं से पूछ लीजिए।’ जस्सु भाई को सचमुच में विश्वास नहीं हुआ। अपनी बात को गिरता देख असहज हो गए। बोले -‘कहाँ करते हैं? आपके फोन तो आते ही नहीं!’

पूरी बात अब साफ-साफ समझ में आई। मैंने कहा - ‘जस्सु भाई! पहले पूरे घर में एक ही फोन था। लेण्ड लाइनवाला। तब मैं जब भी फोन करता तो आप ही उठाते थे। पहले आपसे बात होती थी और फिर मेरे कहने पर आप सम्बन्धित सदस्य को बुलाते थे ताकि मैं उसे बधाई दे सकूँ। लेकिन अब तो आपके बेटों-बहुओं के पास ही नहीं, दोनों पोतों के पास भी मोबाइल आ गए हैं। अब तो सीधे उन्हीं से बात हो जाती है।’

जस्सु भाई की असहजता तनिक घनी हो गई। शायद इस कारण कि यह ‘छोटी सी बात’ उन्हें क्यों नहीं सूझ पड़ी। तनिक पीड़ा से बोले - ‘अरे! हाँ। यह बात तो मुझे कभी सूझी ही नहीं। अब समझ में आया कि मेरे फोन की घण्टी पहले जैसी क्यों बार-बार नहीं बजती।’ फिर कुछ इस तरह बोले, मानो एक-एक बात या तो याद कर रहे हों या बात खुद-ब-खुद याद आ रही हो - ‘तभी मैं कहूँ कि समधीजी के फोन भी क्यों नहीं आते? अब तो वो भी सीधे अपने बेटी-जमाई से बात कर लेते होंगे। अब यह भी समझ में आ रहा है कि फोन की घण्टी तभी क्यों बजती है जब सामनेवाले को मुझीसे बात करनी होती है। इसीलिए अब घर के किसी मेम्बर के लिए कोई फोन नहीं आता।’

जिन स्वरों में जस्सु भाई ने यह सब कहा, सुन कर लगा, मानो वे बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भरे-पूरे घर में एकाएक, एकदम अकेले हो गए हैं। ऐसे घने बीहड़ जंगल में खड़े हो गए जहाँ कोई पगडण्डी भी नजर नहीं आती। मानो, यहाँ से वे कहीं जा नहीं सकते और न ही कोई और उन तक पहुँच सकता। खुद का जा पाना या किसी और का आ पाना तो दूर रहा, शायद उनकी पुकार भी किसी को सुनाई न दे। मानो, शेष जीवन के लिए एकान्त भोगने को अभिशप्त हो गए हों - उनके बेटे-बहुएँ, पोते-पोती सब उन्हें इस निर्जन में अकेला छोड़ कर चले गए।

वे सहज नहीं हो पा रहे थे। वे खुद भी ऐसी कोशिश नहीं कर पा रहे थे। इस उखड़ी मुद्रा और मनःस्थिति ने मानो उनकी वाणी छीन ली हो। बड़ी कठिनाई से उनकी घरघराती आवाज आई - ‘यह तो गजब हो गया बैरागीजी! हम पूरे नौ जने इस घर में हैं लेकिन इस मोबाइल ने तो हम सबको अकेला कर दिया! इसे बनानेवाले ने तो सोचा होगा कि उसने लोगों को जोड़ने वाली मशीन बनाई है। लेकिन यह तो एकदम उल्टा हो गया! सब एक साथ होते हुए भी अलग-अलग हो गए! है कि नहीं?’

उनकी दशा और बातों ने मुझे अवाक् कर दिया। मेरी साँसें घुटने लगीं। लगा, यहीं प्राणान्त हो जाएगा। जस्सु भाई मेरी ओर ऐसे देख रहे थे मानो अचानक मालूम पड़ी इस विपदा से उन्हें छुटकारा मैं ही दिला सकता हूँ। दिला सकता हूँ नहीं, छुटकारा दिलाना ही है। यदि मैं ऐसा किए बिना चला गया तो मानो जस्सु भाई के प्राण पखेरु उड़ जाएँगे, कुछ इसी तरह से जस्सु भाई मुझे देखे जा रहे थे। छाती में उठते गुबार को रोक पाना मेरे लिए असम्भव होता जा रहा था। जस्सु भाई की जड़वत् दशा मुझे परेशान, हलकान किए जा रही थी। यदि मैंने बिलख-बिलख कर रोना शुरु नहीं किया तो मेरी छाती फट जाएगी।

जस्सु भाई को मानो मुझ पर दया आ गई। मेरी दशा देखकर, निःश्वास छोड़ते हुए बोले - ‘अच्छा बैरागीजी! आते रहना और फोन करते रहना भैया।’

मैं वहाँ से चला तो जरूर किन्तु पाँव नहीं उठ रहे थे। लग रहा था, सारी दुनिया का बोझ किसी ने मेरी पीठ पर लाद दिया हो। मैंने अपनी पीठ पर हाथ फेरा। कुछ भी नहीं था। फिर यह वजन कैसा?

नहीं। यह वजन नहीं था। ये तो जस्सु भाई थे मेरी पीठ पर - अपने आशंकित एकान्त के साथ।
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बात बोलती है, असर होता है


यह उन्नीस अगस्त की रात है। पौने ग्यारह बज रहे हैं जब मैंने यह पोस्ट लिखनी शुरु की है। सर्वथा अनपेक्षित और उससे भी अधिक आकस्मिकता से मिली सफलता से उपजी प्रसन्नता मुझसे समेटे नहीं बन रही। बात ही ऐसी है। मन को आह्लाद से लबाबल कर देनेवाली और आत्मा को उजास से भर देनेवाली।

पन्द्रह अगस्तवाली मेरी पोस्ट कॉमन वेल्थ की प्रेरणा, ‘साप्ताहिक उपग्रह’ (रतलाम) के पन्द्रह अगस्तवाले अंक में, मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपी थी। ‘उपग्रह’ का वह अंक मैंने सत्रह अगस्त को उन एजेण्ट बन्धु को पढ़वाया जो ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल बनवा कर अपना घरेलू फर्नीचर बनवाने में मेरी मदद चाह रहे थे।

उन्होंने पूरा आलेख पढ़ा और सकपका कर आसपास देखा। एजेण्टों के कक्ष में हम कोई सात-आठ एजेण्ट बैठे थे। उन्हें तसल्ली हुई यह देखकर कि हम दोनों की ओर देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी। बोले-‘बाहर चलिए।’ हम दोनों बाहर आए और पॉवर हाउस मार्ग पर, एलआईसी के हमारे शाखा कार्यालय के सामने, सड़कपार, चाय के ठेले के पास लगी बेंच पर बैठे गए। यहाँ हम दो ही थे। तीसरा था ठेलेवाला जो चाय बनाने में मगन था। वे बोले - ‘तेरह अगस्त को तो मैंने आपसे बात की थी और पन्द्रह को आपने वह सब छाप दिया?’ परिहास करते हुए मैंने कहा - ‘कहाँ ‘सब’ छाप दिया? आपका नाम तो रह ही गया।’ वे तनिक खिसिया कर बोले - ‘आपके साथ यही बात अच्छी है। आप यदि इज्जत बढ़ाते नहीं तो कम भी नहीं करते। लेकिन बताइए, यह किस्सा मुझे क्यों पढ़वाया?’ मैंने कहा-‘उस दिन तो आप नाराज होकर चले गए थे। आज अपने मन पर हाथ रख कर तनिक तटस्थ भाव से बताइए, पढ़कर कैसा लगा?’ जवाब आया-‘अच्छा तो नहीं ही लगा किन्तु गुस्सा बिलकुल नहीं आया। सच बात तो यह है कि तेरह की शाम को, आपके पास से लौटने के बाद से ही बराबर लगने लगा था कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ।’ मुझे तसल्ली तो हुई ही, हिम्मत भी बढ़ी। पूछा-‘तो मैं समझूँ कि अब आपने मुझ माफ कर दिया और अब आप मुझसे नाराज नहीं हैं?’ निष्प्राण हँसी हँसते हुए वे उदासीन स्वरों में बोले-‘क्या तो माफी और क्या नाराजी? आपने तो अपनी आदत के मुताबिक ही व्यवहार किया। तेरह अगस्त को पहले तो मुझे सचमुच में गुस्सा आ गया था किन्तु जैसा मैंने कहा, बाद में अपनी गलती का अहसास होने लगा था। किन्तु आज तो आपका यह लेख पढ़कर बेचैनी होने लगी है।’ बुझे-बुझे और तनिक घबराए मन से मैंने कहा-‘मैं आपका अपराधी हो गया हूँ। माफी माँगता हूँ। मुझे माफ कर दीजिए।’ वे असहज हो गए। बोले-‘अरे! कैसी बातें कर रहे हैं? आपकी बातें मुझे भले ही अच्छी नहीं लगी हों किन्तु इतना भरोसा तो मुझे है कि आपने मेरा बुरा नहीं चाहा। जो भी कहा, मेरा भला चाह कर ही कहा।’ कुछ क्षणों के लिए हम दोनों के बीच मौन पसर गया। लम्बी साँस लेकर बोले-‘चलता हूँ। अब आज कुछ भी काम नहीं कर पाऊँगा।’ और वे चले गए। न तो नमस्कार किया और न ही एक बार भी पलट कर देखा।

आज (उन्नीस अगस्त को) जब वे आए तो बदले-बदले तो लग रहे थे किन्तु उनकी शकल देख कर बदलाव की दिशा और स्वरूप समझ पाना सम्भव नहीं हुआ। लपक कर मेरी ओर आए। ऐसे, मानो पचीसों ग्राहकों और बीसियों एजेण्टों के होने का रंचमात्र भी अहसास न हो। कुछ इस तरह से मिले मानो बियाबान में मिल रहे हों। बिना किसी भूमिका के बोले-‘मैं केवल आपसे मिलने के लिए और यह कहने के लिए आया हूँ कि ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल लगा कर घर का फर्नीचर बनाने का विचार मैंने छोड़ दिया है। और, ऑफिस फर्नीचर तो मुझे चाहिए ही नहीं! सो, अब मैं फर्नीचर ऋण ही नहीं ले रहा हूँ।’ कहते हुए उनका गला भर्रा गया किन्तु उनकी आवाज में विक्टोरीयायुगीन चाँदी के ‘कलदार सिक्के’ की खनक थी।

मैं हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था कि क्या कहूँ। पता नहीं कैसे मुँह से निकला-‘आपकी निष्कलुष आत्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। ईश्वर आप पर आजीवन ऐसा ही कृपालु बना रहे।’ मैंने सुना, मेरी आवाज भी रुँधी हुई थी।


हम दोनों कुछ क्षण यूँही खड़े रहे, बिना बोले, एक दूसरे के आर-पार देखते हुए, अपने आसपास से बेखबर। चुप्पी उन्होंने ही तोड़ी। सस्मित बोले-‘आपको क्या हो गया? आपकी सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम हो गई? आपका उपदेशक कहाँ चला गया?’ मुझसे कोई उत्तर नहीं बन पड़ा। इस बार तनिक अधिक जोर से हँसते हुए बोले-‘चलिए! चाय पिलाइए।’

हम दोनों एक बार फिर उसी ठेलेवाली बेंच पर बैठे। आज भी हम दो ही थे और ठेलेवाला उसी तरह चाय बनाने में मगन था। थोड़ी देर में ठेलेवाला ने हम दोनों को ‘डिस्पोजेबल’ के नाम पर ‘नान डिस्पोजेबल’ कप थमा दिए। पहली सिप लेकर उन्होंने बात शुरु की-‘एक काम बताऊँ? बुरा तो नहीं मानेंगे?’ मुझसे अभी भी नहीं बोला जा रहा था। उन्होंने अपनी बात बढ़ाई-‘ऐसे ही बने रहिएगा और यही सब करते रहिएगा। लोग आप पर हँसे तो भी, आपको नुकसान उठाना पड़े और बुरा बनना पड़े तो भी। होता यह है कि जब कोई टोकता ही नहीं तो आदमी अपनी हर बात को, अपने हर फैसले को सही मानने लगता है। कोई टोका-टाकी करेगा तो ही तो वह अपनी बात पर फिर सोचेगा, विचार करेगा! अपना फैसला बदला तो मैंने ही किन्तु इसके पीछे आप हैं। आपकी बात मुझे ‘लग’ गई। परसों, मैंने अपने बेचैन होने की बात कही थी। वह बेचैनी तभी खत्म हुई जब मैंने परसों शाम को, यह ऋण न लेने का फैसला किया। फैसला लेते ही मुझे लगा मानो मैं गौ हत्या के अपराध से बच गया हूँ। मैं कल भी आपके पास आ सकता था किन्तु नहीं आया। कल दिन भर और रात में नींद आने तक अपने फैसले को तौलता रहा। डरता रहा कि कहीं अपना फैसला बदल न दूँ। किन्तु एक मिनिट के लिए भी मन नहीं डिगा। सो, आज आया और आपको अपना फैसला सुनाया।

'मैं जानता हूँ कि एक मेरे भ्रष्टाचार न करने के फैसले से देश में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि भ्रष्टाचार की कोई क्लास या केटेगरी नहीं होती। वह केवल भ्रष्टाचार होता है, मैं करूँ या कोई और करे। मुझे बुरा तो लगा था किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि यदि दूसरों का भ्रष्टाचार अनुचित है तो मेरा भ्रष्टाचार भी अनुचित है। मैं कोई साधु-सन्त नहीं हूँ। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ। कल के लिए मैं कोई वादा नहीं करता किन्तु कोशिश करुँगा कि अपनी ओर से भ्रष्टाचार नहीं करूँ और यदि करना पड़ा तो फिर पक्का मानिए कि उसी मिनिट से, भ्रष्टाचार का रोना-गाना तो बन्द कर ही दूँगा।’

यह सब कहते-कहते वे अपनी चाय खत्म कर चुके थे जबकि मैं जड़वत्, चाय का कप थामे, उन्हें देख-सुन रहा था। मेरी दशा देख वे एक बार फिर हँसे। मेरा कन्धा थपथपाते हुए खड़े हुए। ठेलेवाले से कहा-‘चाय के पैसे इनसे लेना।’

और वे चले गए। किन्तु मैं उन्हें जाते हुए देर तक और दूर तक नहीं देख पाया। वे बमुश्किल बीस-पचीस कदम ही चले होंगे कि उनकी आकृति धुँधला गई। आँखों के रास्ते चले नमक ने मेरी चाय खारी कर दी थी।

वे चले गए हैं। बेंच पर मैं अकेला बैठा हूँ। मैं कुछ भी साफ नहीं देख पा रहा हूँ। सब कुछ धुँधलाया हुआ है-एकदम ‘आउट ऑफ फोकस।’

मेरे आँसू थम नहीं रहे हैं। मुझे क्यों लग रहा है कि मैंने चार धाम तीर्थ यात्रा कर ली है?
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मैं : नासमझ, नादान और पिछड़ा


यह शायद नौंवी या दसवीं बार हुआ जब मैं ‘नासमझ, नादान और पिछड़ा हुआ’ एजेण्ट घोषित किया गया। यह भी नौंवी या दसवीं बार हुआ कि अपनी इस नासमझी, नादानी और पिछड़ेपन पर आत्म सन्तोष हुआ। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मुझे इस तरह प्रमाण-पत्र दिए जाने पर मुझे न तो गुस्सा आया और न ही हीनता-बोध हुआ।

उन्नीस वर्ष और सात महीने उम्र है मेरी बीमा एजेन्सी की। लगभग चौदह सौ पॉलिसियों और लगभग साढ़े नौ सौ ‘अन्नदाताओं’ की परिसम्पत्तियों का स्वामी हूँ मैं। इस अवधि में मेरे खाते में नौ या दस मृत्यु दावे ही लिखे गए हैं। मुझसे बड़े, बेहतर और समझदार बीमा एजेण्ट और बीमा अधिकारियों के मुताबिक यह आँकड़ा ‘बहुत-बहुत कम’ से भी बहुत कम है। इतना कम जिस पर एजेण्ट गर्व कर सके। किन्तु मुझे इसमें गर्व करने जैसी कोई बात नजर नहीं आती। बीमा करने से पहले एजेण्ट यदि सारी बातें खुद जान ले, वास्तविकता से आश्वस्त हो जाए और बीमा प्रस्ताव में सब कुछ सच-सच लिख दे, कोई तथ्यात्मक सूचना छिपाए नहीं, तो उसे कभी भी असुविधाजनक स्थिति का सामना नहीं करना पड़े। यही सब तो मैंने भी किया! कोई अनूठा काम नहीं किया। यह तो मेरी न्यूनतम जिम्मेदारी थी। अपनी जिम्मेदारी निभाने में भला गर्व करने की बात कहाँ से आती है? बहुत हुआ तो आदमी आत्म सन्तोष कर सकता है।

अन्य क्षेत्रों/अंचलों की जानकारी तो मुझे नहीं किन्तु मालवा अंचल में चलन है कि मृत्यु दावे की रकम का चेक समारोहपूर्वक दिया जाता है। एजेण्ट और/अथवा एल आई सी यह समारोह आयोजित नहीं करते। सम्बन्धित एजेण्ट और एल आई सी के लोग मृतक के बारहवें/तेरहवें पर पूरी की जानेवाली ‘पगड़ी’ की रस्म के दौरान पहुँच कर, मृतक के परिवार को दावा राशि का चेक सौंपते हैं। इससे शोकग्रस्‍त परिवार के, जाति-पंचायत तथा नाते-रिश्तेदारों के उपस्थित जन समूह के कुछ लोगों के बीमे मिलते ही मिलते हैं। इसके पीछे के कारण आसानी से समझे जा सकते हैं।

किन्तु मुझे यह आज नहीं रुचा। मेरी एजेन्सी में जितने भी मृत्यु दावों का भुगतान हुआ, उनके चेक मैंने अकले ही, शोकग्रस्त परिवार में जाकर, चुपचाप परिजनों को सौंपे। शोक के प्रसंग और वातावरण को व्यवसाय में भुनाना मुझे अब तक गले नहीं उतरा है। एक बीमा एजेण्ट के रूप में मैंने खुद को अपने ‘अन्नादाताओं’ के परिवार का सदस्य ही माना। लिहाजा, अपने परिजनों के वाजिब हक का नगदीकरण कैसे किया जा सकता है? यह तो परायों के साथ भी उचित नहीं!

बीमे का अर्थ ही है - अनुबन्धित वचनबद्धता का निष्ठापूर्वक, समयबद्ध पालन। ऐसा कर हम (बीमा एजेण्ट और बीमा कम्पनी) किसी पर अहसान नहीं करते। अपना कर्तव्यनिर्वहन हमने नम्रतापूर्वक करना चाहिए, गर्वपूर्वक नहीं - यही तो सिखाया है हमें हमारे पुरखों ने! सो, मृत्यु दावे की रकम का चेक मैं चुपचाप ही सौंपता हूँ - कुछ इस तरह कि शोकग्रस्त परिवार और मेरे सिवाय किसी और को मालूम न हो।
वैसे भी, काम करने का आनन्द भी तो तब ही आता है जब उसकी चर्चा कोई और करे! अपने किए की चर्चा करने को, वह भी समारोहपूर्वक करने को ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना’ ही कहा गया है हमारे यहाँ तो। मैं आत्म-प्रशंसा से बचने की कोशिश करता हूँ और मेरी इस कोशिश को मेरे साथी एजेण्ट और बीमा अधिकारी मेरी नासमझी, नादानी और पिछड़ापन मानते/कहते हैं।
मैं चुपचाप सुन लेता हूँ। प्रतिवाद, प्रतिकार नहीं करता।

मैं अपने ईश्वर, अपनी आत्मा के प्रति जवाबदेह हूँ। इन्हीं से मुझे डरना चाहिए। नहीं, डरना नहीं चाहिए, इन्हीं की साक्षी में अपना काम करना चाहिए। इन दोनों से भय कैसा? ये ही तो मेरे परम् मित्र हैं।

मैं अपने इन्हीं परम् मित्रों से शक्ति, आत्म-बल पाता हूँ। ये दोनों ही मुझे कहते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ, ठीक कर रहा हूँ।

मुझे अपनी नासमझी, नादानी और पिछड़ेपन से कोई शिकायत नहीं। मैं ऐसा ही बना रहना चाहूँगा और इसीके लिए कोशिशें करता रहूँगा।

मैं नासमझ, नादान और पिछड़ा हुआ ही भला। मुझे नहीं बनना समझदार, दुनियादार और अगड़ा।

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पायल को बेड़ी बनानेवाले


ताऊजी की बात सुनकर मुझे हँसी आ गई और साथ ही याद आ गए रमाकान्तजी। बात बाद में। पहले रमाकान्तजी के बारे में।

मेरे कस्बे से चौंतीस किलो मीटर दूर स्थित जावरा में रहते हैं रमाकान्तजी। एक शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य हैं। विक्रम विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में एम. एससी. परीक्षा स्वर्ण पदक सहित पास की। कर्मकाण्डी ब्राह्मण अवश्य हैं किन्तु कर्मकाण्ड को वास्तविकताओं और व्यावहारिकताओ की कसौटी पर कसते हैं। वे कर्मकाण्ड को जितनी ‘पारम्परिक आवश्यकता’ मानते हैं उतनी ही आवश्यक इस परम्परा को व्यक्तिशः निभाना भी मानते हैं। याने, जो भी कर्मकाण्ड करना है, खुद को ही करना है। खुद के लिए किसी और से कर्मकाण्ड करवाना न तो उचित और न ही फलदायी मानते हैं। साफ-साफ कहते हैं - ‘आपके नाम पर मैं भोजन कर लूँ तो पेट तो मेरा ही भरेगा। आपका नहीं। इसी प्रकार यदि अपने लिए या अपने किसी कष्ट निवारण के लिए कोई मन्त्र जाप करना है तो खुद को ही करना पड़ेगा। तभी उसका लाभ मिलेगा। जावरा में बैठकर उज्जैन में बैठे किसी पण्डित से जाप करवाने से आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा। वह लाभ तो जाप करनेवाले पण्डित को ही मिलेगा।’ रमाकन्तजी यह सब उन लोगों से कहते हैं जो अपने लिए विभिन्न मन्त्रों के जाप के लिए रमाकान्तजी से आग्रह करते हैं। वस्तुतः कुण्डली ज्योतिष में रमाकान्तजी का यथेष्ठ हस्तक्षेप भी है। सो, कुण्डली अध्ययनोपरान्त जब वे किसी अनिष्टकारक योग की सूचना देते हैं तो लोग उसके निवारण का उपाय भी पूछते हैं और तब ही वे सारी बातें सामने आती हैं जो मैंने ऊपर लिखी हैं।

ताऊजी की यह बात भी ऐसी ही थी - भूख किसी और को लगी थी और भोजन किसी और को कराने की।

ताऊजी के छोटे भाई की बेटी सरला का विवाह अभी-अभी, इसी सात जुलाई को सम्पन्न हुआ है। मायका महू में है। बारात इगतपुरी से आई थी। बारात आठ जुलाई को रवाना हुई। धवला नौ की सुबह अपनी ससुराल पहुँची। आज के जमाने से सब कुछ पहले से ही तय कर लिया जाता है। सो, हनीमनू के लिए नव दम्पति का, 14 जुलाई का रेल-आरक्षण पहले से ही करवाया हुआ था। नव दम्पति की यात्रा की तैयारियों के बीच ही एक परम्परा सवाल बन कर खडी़ हो गई - ‘पग-फेरा हुए बिना सरला कैसे जा सकती है?’ ‘पग-फेरा’ याने, विवहोपरान्त लड़की का पहली बार मायके जाना। देहातों में तो यह बहुत ही सामान्य बात है किन्तु सम्पन्न शहरी समाज ने इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर, तामझामवाली परम्परा में बदल दिया है। देहातों में लड़की का पग-फेरा किसी पर आर्थिक भार नहीं होता। किन्तु शहरी समाज ने ‘पग-फेरा’ से अधिक आवश्यक इसके तामझाम को बना दिया। यह तामझाम अच्छा-भला खर्चीला हो गया है। हममें से प्रत्येक, अपनी हैसियत को बढ़-चढ़कर ही जताता है। सो, आर्थिक सन्दर्भों में यह परम्परा भी ‘नाक से भारी नथ’ बन गई है। सो, सरला का पग फेरा केवल एक रस्म मात्र नहीं थी, दोनों परिवारों की हैसियत जताने का जरिया और अवसर भी थी। किन्तु, नौ को पहली बार ससुराल पहुँची धवला, पग-फेरा के लिए महू जाए तो कब जाए और यदि जाए तो चौदह की शाम तक वापस इगतपुरी पहुँचे तो कैसे पहुँचे? सो, नव दम्पति का हनीमून-प्रस्थान संकट में पड़ गया।

ऐसे में, जैसा कि होता आया है, परम्परा निभाने की खानापूर्ति करने की सम्भावना पर विचार किया। अगले ही पल समस्या का निदान मिल भी गया। धवला की बुआ भी इगतपुरी में ही रहती है। तय किया गया कि चौदह जुलाई की सुबह सरला, बुआ के घर चली जाएगी जहाँ से शाम को ‘कुँवर साहब’ उसे लिवा लाएँगे। इस तरह ‘पग-फेरा’ भी हो जाएगा और नव दम्पति का हनीमून प्रस्थान भी समय पर हो जाएगा।

सरला के ससुरालवालों ने सारी बात सरला के माता-पिता को बताई, समझाई। ‘समझाई’ इसलिए कि ‘पग-फेरा’ भले ही इगतपुरी में हो ही रहा हो किन्तु तामझाम तो पूरा करना ही पड़ेगा। ‘समझाइश’ न केवल, परम्परा की खानापूर्ति हेतु सहमति देने की थी बल्कि इसी तामझाम की भी थी। हम कितने भी प्रगतिशील क्यों न हों, लड़कीवाले आखिरकार लड़कीवाले ही होते हैं। मजबूरी में दी गई सहमति को समझदारी की शकल में परोसनी पड़ती है। सो, सरला के माता-पिता ने यही समझदारी दिखाई और कोर बैंकिंग की सुविधा के चलते, पग-फेरा के तामझाम की कीमत हाथों हाथ ही, बुआ के खाते में जमा करा दी।

सब कुछ ठीक समय पर, ‘ढंग-ढांग’ से निपट गया। सरला का पग-फेरा हो गया। वह हनीमून-प्रवास से ससुराल के लौट आईं है। सब खुश हैं - यहाँ ताऊजी, महू में सरला के माता-पिता और ससुराल में सब के सब।

किन्तु मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। रमाकान्तजी की बातें याद कर शुरु-शुरु मे आई हँसी दूर जा चुकी है। जो पग-फेरा दोनों परिवारों के लिए एक आह्लाददायक वास्तविकता होना चाहिए था, वह नीरस खानापूर्ति में बदल कर रह गया। माँ-बाप ने पग-फेरा का मूल्य चुकाया किन्तु बेटी तो माँ-बाप के आँगन में लौटी नहीं ? ब्याही बेटी को पहली बार ससुराल से लौटी देखने की जो खुशी माँ-बाप को मिलनी चाहिए थी वह तो मिली ही नहीं! ‘पग-फेरा’ कोई संस्कार नहीं है। सरला का पग-फेरा यदि हनीमनू के बाद हो जाता तो कौन सा अनिष्ट, क्या अशुभ हो जाता?

परम्पराएँ हमने ही बनाई हैं और हमारी प्रसन्नता के लिए ही बनाई हैं। किन्तु सब कुछ उल्टा हो रहा है। जिन परम्पराएँ को हमारी संस्कृति की पायल बन कर हमारे जीवन के आँगन में में ‘रुन-झुन’ करनी चाहिए, उन परम्पराओं को हम प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक रुढ़ि की बेड़ियों में बदल रहे हैं - बिना सोचे समझे।

गलत तो नहीं कह रहा?
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आवश्यकता और जुगत


मेरे कस्बे के एक भक्त मण्डल ने दीर्घावधि के लिए रामचरित मानस पाठ शुरु किया था किन्तु पहले ही दिन व्यवधान आ गया। भक्त मण्डल ने लाउडस्पीकर लगा कर, चारों दिशाओं में भोंगे तान दिए थे। मानस-पाठ करनेवाले तो हॉल में बैठे थे। उन्हें केवल अपनी ही आवाज सुनाई दे रही थी। सो, मान कर चल रहे थे कि बाहरवालों को भी उतनी ही आवाज आ रही होगी। वास्तविकता इसके ठीक उलट थी। लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर चल रहा था। सो, भोंगों से आ रही आवाज तेजाब की तरह कानों को जला रही थी। किसी ‘अधर्मी’ से यह सहन नहीं हुआ। उसने पुलिस में शिकायत कर दी। यह ‘अधर्मी’ अवश्य की ‘छोटी-मोटी पहुँचवाला’ रहा होगा। सो, पुलिस तत्काल ही मौके पर पहुँची और लाउडस्पीकर तथा भोंगे समेट कर ले आई। मालूम हुआ कि भोंगे लगाने की अनुमति भी नहीं ली गई थी।

जैसा कि होना था, इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया हुई। भक्त मण्डल ने पुलिस की इस ‘हरकत’ को ‘धर्म पर प्रहार’ निरुपित किया, कहा कि पुलिस के इस दुष्कृत्य से धार्मिक भावनाएँ आहत हुई हैं। कहा कि, लाउडस्पीकर के अभाव में रामचरित मानस पाठ करना असम्भव हो गया है। ऐसे मामलों में जैसी चेतावनियाँ दी जाती हैं, दी गईं।

बाद में क्या हुआ, नहीं पता। अखबारों में कुछ भी नहीं छपा सो अनुमान लगा रहा हूँ कि पुलिस ने क्षमा-याचना करते हुए सारा साज-ओ-सामान लौटा दिया होगा। ज्यादा से ज्यादा यह सलाह दी होगी कि लाउडस्पीकर की आवाज नियन्त्रित रखें। किन्तु भक्त मण्डल ने ऐसा नहीं किया होगा (मुझे विश्वास है कि वास्तव में ऐसा नहीं किया होगा। मामला ‘धर्म’ का जो ठहरा!) और ‘छोटी-मोटी पहुँच’ वाले उस ‘मूर्ख अधर्मी’ को समझ में आ गया होगा कि अत्याचार का विरोध करने का धर्म निभाना उसकी गलती थी और धर्म का अत्याचार उसे तब तक प्रसन्नतापूर्वक झेलते रहना होगा जब तक कि रामचरित मानस पाठ पूरा नहीं हो जाता।

समाचार ने मुझे प्रभावित तो नहीं किया किन्तु ध्यानाकर्षित तो किया ही। पूरे समाचार में जो बात उभर कर सामने आई वह यह कि रामचरित मानस के मुकाबले लाउडस्पीकर अधिक महत्वपूर्ण था। भक्त मण्डल के लिए यदि रामचरित मानस (और उसका पाठ) ही लक्ष्य होता तो लाउडस्पीकर के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु इस धर्म ग्रन्थ का पाठ उनका लक्ष्य शायद ही रहा हो। उनका लक्ष्य रहा होगा - लोग देखें-जानें-समझें कि वे रामचरित मानस का पाठ कर रहे हैं। जाहिर है कि वे आत्म सन्तोष या आत्म शोधन के लिए रामचरित मानस का आश्रय नहीं ले रहे थे। वे तो खुद को धार्मिक साबित करने के लिए रामचरित मानस का ‘उपयोग’ कर रहे थे। गोया, रामचरित मानस कोई धर्म ग्रन्थ न होकर, धार्मिकता प्रदर्शन का प्रभावी औजार हो गया।

रामचरित मानस और महाभारत, भारतीय समाज में विशिष्ट स्थान रखते हैं। महाभारत को ‘नीति शास्त्र’ का और रामचरित मानस को ‘आचरण शास्त्र’ का दर्जा मिला हुआ है। प्रभु श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा ही इसलिए गया है क्योंकि जो कुछ कर पाने कि कल्पना आप-हम नहीं कर सकते, वह सब प्रभु श्रीराम ने जीया। इस दृष्टि से रामचरित मानस हमें आदर्श आचरण की प्रेरणा देता है। किन्तु मेरे कस्बे के भक्त मण्डल ने रामचरित मानस के परामर्श को ताक पर रख दिया और लाउडस्पीकर को धर्म-पीठ पर स्थापित कर दिया। जो रामचरित मानस, मनुष्य को ‘उत्तम मनुष्य’ बनाता है, वही रामचरित मानस, मनुष्य द्वारा बनाए गए एक यान्त्रिक उपकरण के मुकाबले दोयम स्थान पर रख दिया गया। रामचरित मानस अपने आप में मनुष्य के परिष्कार का उपकरण है किन्तु मनुष्य निर्मित उपकरण के सामने मात खा गया - यह करिश्मा है धर्म के प्रति हमारी जड़ मानसिकता का। यह सब केवल इसलिए कि लोग हमें धार्मिक मानें, समझें।

रामचरित मानस पूर्णतः आचरण केन्द्रित ग्रन्थ है, उपदेश केन्द्रित नहीं। प्रदर्शन केन्द्रित तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन इस मामले में इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को ही प्रदर्शन का औजार बना दिया गया।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही कारणों से, हमें धार्मिक होने की आवश्यकता चैबीसों घण्टे बनी रहती है जबकि हम धार्मिक दिखने की जुगत में लगे हुए हैं।
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कॉमन वेल्थ की प्रेरणा


नेताओं को पीठ पीछे गालियाँ देना, पानी पी-पी कर भ्रष्टाचार को कोसना और इन दोनों के फलने-फूलने में अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार घोषित करना, यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य और हमारी राष्ट्रीय पहचान बन गया है। ये दोनों ‘नेक काम’ करने में हमें न तो देर लगती है और न ही अकल लगानी पड़ती है। सब कुछ बड़ी सहजता से करते हैं हम लोग यह सब। सचमुच में बिना विचारे। इन दोनों मुद्दों पर हम जिस दिन सोच-विचार कर बोलना, काम करना शुरु करेंगे, उसी दिन, उसी पल से हमें कष्टों से मुक्ति मिलनी शुरु हो जाएगी। लेकिन शुरुआत कौन करे? ऐसी शुरुआत के लिए हममें से प्रत्येक खुद को अशक्त, असमर्थ और विवश पाता है। वास्तविकता यह है कि हममें से कोई भी न तो अशक्त है, न असमर्थ और न ही विवश। हम सब स्वार्थी हैं। देश के नाम की दुहाइयाँ भले ही जोर-शोर से देते हैं किन्तु वास्तव में हम केवल स्वार्थी और आत्म केन्द्रित हैं। इससे कम या ज्यादा कुछ भी नहीं। हम कहें कुछ भी किन्तु वास्तविकता तो यही है कि देश हमारी प्राथमिकता सूची में तो दूर रहा, हमारी विचार सूची में ही कहीं नहीं है।


भारतीय जीवन बीमा निगम के हम एजेण्टों को कुछ आर्थिक सुविधाएँ मिलती हैं। निस्सन्देह इन सुविधाओं के लिए एजेण्टों को ढेर सारी व्यावसायिक शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं। किन्तु, चैबीस से लेकर साठ तक की आसान मासिक किश्तों में, बिना ब्याज का ऋण न केवल आकर्षक अपितु ललचानेवाली भी सुविधा है। कार्यालय फर्नीचर ऋण भी ऐसी ही एक सुविधा है। किन्तु हम भारतीय बड़े उस्ताद लोग हैं। हम लोग सुविधाएँ भी अपनी शर्तों पर चाहते हैं। अपने मन माफिक हो जाए तो सब कुछ ठीक-ठाक और मन माफिक न हो पाए तो सारे नेता चोट्टे और पूरा देश भ्रष्ट।


अपने इसी राष्ट्रीय चरित्र वाले एक रोचक अनुभव से अभी-अभी गुजरा हूँ।


फर्नीचर ऋण सुविधा की पात्रता प्राप्त एक एजेण्ट मित्र ने मदद चाही। मुझे आश्चर्य हुआ। सब कुछ तो नियमानुसार और सुस्पष्ट है! भला मदद की आवश्यकता क्यों? मालूम हुआ - वे डेड़ लाख रुपयों का कार्यालय फर्नीचर ऋण लेकर पलंग, आलमारियों जैसा घरेलू फर्नीचर बनवाना चाहते हैं और इसीलिए मेरी मदद चाहते हैं। मैंने पूछा - ‘इसमें मैं मदद कैसे और क्या कर सकता हूँ?’ वे बोले - ‘आप किसी फर्नीचर व्यापारी से मुझे कार्यालय फर्नीचर का बिल बनवा दीजिए।’ मुझे और आश्चर्य हुआ। ऐसा भी होता है? हो सकता है? वे बोले - ‘कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता!’ मैंने जानना चाहा कि उन्होंने ऐसी कोई कोशिश की? जवाब मिला - ‘हाँ। कोशिश की। दुकानदार सेल्स टैक्स रजिस्टर्ड है और बिल भी देने को तैयार है किन्तु बिल की रकम (याने डेड़ लाख रुपये) पर साढ़े बारह परसेण्ट टैक्स माँगता है।’ मैंने कहा -‘मुझे नहीं लगता कि एलआईसी आपको ऐसा करने देगी। क्योंकि शाखा प्रबन्धक द्वारा व्यक्तिगत रूप से फर्नीचर का भौतिक सत्यापन करने के बाद ही ऋण मिल पाता है। किन्तु यदि आपको लगता है कि ऐसा करने से आपका काम हो जाएगा तो बिल ले लीजिए।’ मेरी बात उन्हें नहीं जँची। तनिक क्रुद्ध होकर बोले - ‘आपने तो बड़ी आसानी से कह दिया कि बिल ले लीजिए। साढ़े बारह परसेण्ट से पूरे पौने उन्नीस हजार रुपये बनते हैं! मैं सामान तो नहीं ले रहा! केवल बिल ही तो ले रहा हूँ?’ मैंने कहा - ‘तो आप ऑफिस फर्नीचर ही ले लीजिए।’ मेरी ‘जड़ मति’ पर तरस खाते हुए बोले - ‘आप समझ नहीं रहे। फर्नीचर तो मुझे घर के लिए बनवाना है। ऑफिस फर्नीचर का तो केवल बिल चाहिए।’ मैंने कहा - ‘मैं समझ रहा हूँ।’ इस बार तनिक अधिक गुस्से में बोले - ‘खाक समझ रहे हैं? अरे! दुकानदार सीधे-सीधे पौने उन्नीस हजार का भ्रष्टाचार कर रहा है और आप उसकी तरफदारी कर रहे हैं? उसकी बात माननी होती तो आपके पास आता ही क्यों? आपके पास इसीलिए आया हूँ कि आप दुकानदार से मेरी सिफारिश कीजिए कि वह टैक्स की रकम न ले और बिल दे दे।’ क्षण भर को तो मुझे हैरत हुई किन्तु अगले ही पल मुझे हँसी आ गई। बोला - ‘आपको दुकानदार का पौने उन्नीस हजार का भ्रष्टाचार तो नजर आ रहा है किन्तु आप पूरे एक लाख इकतीस हजार दो सौ पचास रुपयों का जो भ्रष्टाचार कर रहे हैं, वह नजर नहीं आ रहा?’ अब वे भड़क गए। बिलकुल वैसे ही जैसे कि साँड को लाल कपड़ा दिखा दिया हो। तैश में बोले - ‘वहाँ दिल्ली में कॉमन वेल्थ खेलों में एक रुपये की चीज सौ रुपयों में खरीदी जा रही है। मन्त्री और अफसर लूटखोरी में लगे हुए हैं। आपको वह सब नजर नहीं आया। मेरा भ्रष्टाचार ही नजर आया?’


उनकी ‘दुर्वासा मुद्रा’ ने मेरी हँसी और बढ़ा दी। कहा - ‘रिश्वत देना आपकी-मेरी मजबूरी हो सकती है। रिश्वत लेना मजबूरी नहीं होती। आप यदि सचमुच में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं तो सचमुच में ऑफिस फर्नीचर ही ले लीजिए। झूठा बिल बनवाकर घरेलू फर्नीचर मत बनवाइए। ऐसा करना आपकी मजबूरी नहीं है। किन्तु आप ऐसा ही करना चाह रहे हैं तो दुकानदार को टैक्स की रकम देना आपकी मजबूरी है। दुकानदार को भ्रष्टाचार करने का अवसर तो आप दे रहे हैं! यदि आप चाहते हैं कि दुकानदार यह भ्रष्टाचार न करे तो आप खुद ईमानदारी बरतें, झूठा बिल न बनवाएँ।’


मेरी बात सुनकर वे चुप तो हो गए किन्तु चेहरा बता रहा था कि सन्तुष्ट तो बिलकुल नहीं हुए। उल्टे, मदद के लिए मेरे पास आने का पछतावा उनके चेहरे को ढँकने लगा था। मानो, कोढ़ की दवा लेने आए थे और खाज साथ ले चले।


वे एजेण्ट बन्धु अभी-अभी गए हैं। मैं चाह रहा हूँ कि उन्हें मेरी बातों का बुरा लगे और वे झूठा बिल न बनवाएँ। किन्तु जानता हूँ कि मेरे चाहने से क्या होता है? वे तो कामन वेल्थ खेलों से ही प्रेरणा लेंगे, उन्हीं का अनुकरण करेंगे और अपने एक लाख इकतीस हजार दो सौ पचास रुपयों के भ्रष्टाचार की अनदेखी कर, दुकानदार के पौने उन्नीस हजार के भ्रष्टाचार को आजीवन कोसते रहेंगे। यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र है।


चौंसठवे स्वाधीनता दिवस की प्रभात वेला में, मेरी ओर से, अपने इसी राष्ट्रीय चरित्र की महक में रचे-बसे अभिनन्दन स्वीकार कीजिए।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

खुद में लौटते हुए



धीरे-धीरे सदमे से उबर रहा हूँ। लौट रहा हूँ अपने आप में। रविजी (श्री रवि रतलामी) ने कहा था - सदमे को ही दवा बना लीजिए। वही कर रहा हूँ।

5 जून को अन्तिम पोस्ट लिखी थी। (शायद) सात जून को भोपाल कोर्ट ने भोपाल गैस काण्ड पर अपना बहु प्रतीक्षित निर्णय सुनाया था। उसके बाद से देश में जो हुआ, उससे मुझे गहरा सदमा पहुँचा। विश्वास ही नहीं कर पाया कि यह सब मैं अपनी आँखों देख रहा हूँ, अपने ही देश में देख रहा हूँ।

जो निर्णय आया वह तनिक भी अनपेक्षित नहीं था। अपराधियों को दो-दो वर्ष की सजा सुनाई गई थी। सजा की अवधि ने सारे देश में बवण्डर खड़ा कर दिया। किन्तु यह निर्णय तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में ही लिख दिया था जब मुकदमे की धाराओं में परिवर्तन किया गया था! कानून की नाम मात्र की भी जानकारी रखनेवाले को पता था कि न्यायाधीश चाहे तो भी अपराधियों को दो वर्ष से अधिक की सजा नहीं सुना सकता।

किन्तु सारे देश में भूचाल आ गया। लगा, कहीं गृह युद्ध न छिड़ जाए। तमाम राजनीतिक दल और तमाम नेता खुद को पाक-साफ जताने के लिए सामनेवाले पर अंगुली तान रहे थे, यह भूलकर कि ऐसा करने में उनकी तीन अंगुलियाँ खुद ही तरफ उठ रही हैं। भाजपाई और कांग्रेसी एक दूसरे के कपड़े उतारने में पणप्राण से जुट गए थे। यह सब वे जिस सहज निर्लज्जता से कर रहे थे, उसी ने मुझे सदमा पहुँचाया।

ये सब के सब कानून के जानकार थे। प्रत्येक को पता था कि भोपाल कोर्ट का फैसला क्या होगा। इससे भी पहले इनमें से प्रत्येक को पता था कि ये सबके सब, भोपाल गैस पीड़ितों के साथ दगाबाजी कर चुके हैं। किन्तु हर कोई ऐसे बात कर रहा था मानो वह अपराधियों को मृत्यु दण्ड मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था और न्यायालय ने अन्याय कर दिया है। सबके सब मुखौटे लगा कर स्यापा किए जा रहे थे और इस तरह कर रहे थे कि मुखौटों के भी पपोटे सूज गए।

उसके बाद सबके सब खुद को पाक-साफ-बेदाग बताने और बनाने में जिस मनोयोग से जुटे उसने मुझे और अधिक हतप्रभ कर दिया। जो आज सत्ता में हैं, वे तब भी सत्ता में थे। भोपाल कोर्ट के फैसले के बाद वे जिस तरह से हरकत में आए, वह सब उन्हें, हादसे के फौरन बाद ही क्यों नहीं सूझा? जो आज प्रतिपक्ष में हैं और गैस पीड़ितों के लिए वर्धित मुआवजे की और विभिन्न स्वास्थ्य/चिकित्सा सुविधाओं की माँग कर रहे हैं, उनके पुनर्वास की योजनाएँ सुझा रहे हैं, ये सब काम उन्होंने तब क्यों नहीं किए जब वे दिल्ली और भोपाल में सत्ता में आए थे? गुजरे जमाने को भूल जाएँ तो भी भोपाल में तो वे गए साढ़े छः वर्षों से लगातार सरकार में हैं? जो पेशबन्दियाँ उन्होंने भोपाल कोर्ट के फैसले के बाद की हैं, वे पेशबन्दियाँ साढ़े छः वर्ष पहले क्यों नहीं कीं? यह पुण्य अर्जित करने में क्यों और कैसे चूक गए?

इनमें से प्रत्येक को वास्तविकता पता है। प्रत्येक जानता है कि एण्डरसन को किसने, क्यों और कैसे भगाया। दरअसल, पहलेवाले हों या बादवाले, सबने एण्डरसन के प्रति वफादारी बरती। एक ने भगाया तो दूसरे ने उसे भागते रहने दिया। सबके मुँह में चाँदी का जूता ठुँसा हुआ था और हाथ चम्पूगिरी में लगे हुए थे। क्या बोलते और क्या करते?

इनमें से प्रत्येक खूब अच्छी तरह जान रहा था कि वह बेशर्मी को गहना बना रहा है। फिर भी जिस सहजता ये सब के सब दुहाइयाँ देने में और एक दूसरे के कपड़े उतारने में जुटे हुए थे, उसीने मुझे स्तब्ध कर दिया। सदमे में ला दिया।

किन्तु यह पूरा सच नहीं है। सच तो यह है कि मैं इन्हें दोष कैसे दूँ? ये सबके सब मेरे ही तो चुने हुए, मेरे ही तो भेजे हुए, मुझसे ही स्वीकार पाकर दिल्ली, भोपाल में बैठे हुए हैं! ये सब जो भी कर रहे हैं, उसके मूल में मैं ही तो हूँ! इनकी मनमानी का, इनकी बदगुमानी का, इनकी उच्छृंखलता का मैंने कभी प्रतिकार नहीं किया। ये सब आज जो व्यवहार कर रहे हैं, वह व्यवहार करने की छूट इन सबको मैंने ही तो दी!


मैंने या तो वोट दिया ही नहीं और यदि दिया भी तो वोट देने के बाद कभी पलट कर इनकी तरफ देखा ही नहीं देखा। इन लोगों को इस मुकाम तक मैंने ही पहुँचने दिया।

इन्हीं सारी बातों के चलते मैं अब तक सदमे में बना रहा, स्तब्धता से मुक्त नहीं हो पाया। जब-जब भी अखबार देखे, जब-जब भी समाचार चैनलें देखी, मेरे सदमे में बढ़ोतरी ही हुई। बीच में तो कुछ सप्ताह ऐसे निकले जब मैंने न तो अखबार पढ़े और न ही टीवी देखा। डरता रहा कि कहीं मेरी शर्मिन्दगी में पल प्रति पल इजाफा न हो जाए।

जी कड़ा कर संसद की बहस, यथा सम्भव अधिकाधिक देखी-सुनी। एक बार फिर निराशा गहराई। कोई भी ईमानदारी नहीं बरत रहा था। सबको अपनी-अपनी राजनीति की पड़ी थी। उम्मीद थी कि सुषमा स्वराज धीर-गम्भीर और सार्थक शुरुआत करेंगी। किन्तु वे भी अपनी पार्टी को बचाने और कांग्रेसियों को दोषी ठहराने में उलझ गईं। इस शुरुआत ने पूरी बहस की दिशा तय कर दी। इसी का प्रभाव रहा कि गृह मन्त्री चिदम्बरम ने राज्य सभा में अपने उत्तर का समापन भाजपा पर इसी प्रहार से किया कि भाजपाई जो सवाल आज पूछ रहे हैं, वे सवाल यदि 2001 में पूछे होते तो उन्हें मनमाफिक उत्तर मिलता। पूरी बहस में, दोनों ही सदनों में भाजपाई और कांग्रेसी एक दूसरे को निर्वस्त्र करने में जुटे रहे और यह भूल गए कि ऐसा करने में वे सारे देश के सामने अपनी ही नंगई उजागर कर रहे हैं।

किन्तु दो सांसदों ने मुझे आश्वस्त किया - पुरी (उड़ीसा) के लोकसभा सदस्य पिनाकी मिश्र (बीजद) और कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी। पिनाकीजी की अंग्रेजी जितनी मैं समझ पाया उसके अनुसार उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि एण्डरसन के प्रत्यर्पण की और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1996 में कानूनी धाराएँ बदलनेवाले फैसले में संशोधन/परिवर्तन की बात भारत को भूल जानी चाहिए। पिनाकीजी ने ‘भारतीय नागरिक’ का समुचित मूल्यांकन कर, उसे यथेष्ठ महत्व देने और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उसके जीवन और सम्मान की रक्षा करने के उपायों पर कारगर कार्रवाई करने की बात कही।

चतुर्वेदीजी ने अपनी ही पार्टी के नेतृत्ववाली संप्रग सरकार से जानना चाहा कि भारत सरकार इस त्रासदी से क्या सबक ले रही है और ऐसे कौन से उपाय सुनिश्चित कर रही है जिनके चलते भविष्य में ऐसी त्रासदी फिर कभी न हो।

उपदेश दे पाना और अपेक्षा कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। अपने सदमे से मुझे ही उबरना होगा। अपनी स्तब्धता मुझे ही तोड़नी होगी। यह सदमा, यह स्तब्धता मुझे अकर्मण्य बना देगी। और तब मैं अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाऊँगा। वैसा ही निकम्मापन बरतता रहूँगा जो अब तक बरतता आया हूँ और जिसके कारण मेरे देश के तमाम राजनीतिक दलों और तमाम राजनेताओं को अपनी नंगई उजागर करने न तो देर लग रही है और न ही अटपटा लग रहा है।

इन सबको मैंने ही बिगाड़ा है। इन्हें दुरुस्त भी मुझे ही करना होगा।

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