मेरे कस्बे के एक भक्त मण्डल ने दीर्घावधि के लिए रामचरित मानस पाठ शुरु किया था किन्तु पहले ही दिन व्यवधान आ गया। भक्त मण्डल ने लाउडस्पीकर लगा कर, चारों दिशाओं में भोंगे तान दिए थे। मानस-पाठ करनेवाले तो हॉल में बैठे थे। उन्हें केवल अपनी ही आवाज सुनाई दे रही थी। सो, मान कर चल रहे थे कि बाहरवालों को भी उतनी ही आवाज आ रही होगी। वास्तविकता इसके ठीक उलट थी। लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर चल रहा था। सो, भोंगों से आ रही आवाज तेजाब की तरह कानों को जला रही थी। किसी ‘अधर्मी’ से यह सहन नहीं हुआ। उसने पुलिस में शिकायत कर दी। यह ‘अधर्मी’ अवश्य की ‘छोटी-मोटी पहुँचवाला’ रहा होगा। सो, पुलिस तत्काल ही मौके पर पहुँची और लाउडस्पीकर तथा भोंगे समेट कर ले आई। मालूम हुआ कि भोंगे लगाने की अनुमति भी नहीं ली गई थी।
जैसा कि होना था, इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया हुई। भक्त मण्डल ने पुलिस की इस ‘हरकत’ को ‘धर्म पर प्रहार’ निरुपित किया, कहा कि पुलिस के इस दुष्कृत्य से धार्मिक भावनाएँ आहत हुई हैं। कहा कि, लाउडस्पीकर के अभाव में रामचरित मानस पाठ करना असम्भव हो गया है। ऐसे मामलों में जैसी चेतावनियाँ दी जाती हैं, दी गईं।
बाद में क्या हुआ, नहीं पता। अखबारों में कुछ भी नहीं छपा सो अनुमान लगा रहा हूँ कि पुलिस ने क्षमा-याचना करते हुए सारा साज-ओ-सामान लौटा दिया होगा। ज्यादा से ज्यादा यह सलाह दी होगी कि लाउडस्पीकर की आवाज नियन्त्रित रखें। किन्तु भक्त मण्डल ने ऐसा नहीं किया होगा (मुझे विश्वास है कि वास्तव में ऐसा नहीं किया होगा। मामला ‘धर्म’ का जो ठहरा!) और ‘छोटी-मोटी पहुँच’ वाले उस ‘मूर्ख अधर्मी’ को समझ में आ गया होगा कि अत्याचार का विरोध करने का धर्म निभाना उसकी गलती थी और धर्म का अत्याचार उसे तब तक प्रसन्नतापूर्वक झेलते रहना होगा जब तक कि रामचरित मानस पाठ पूरा नहीं हो जाता।
समाचार ने मुझे प्रभावित तो नहीं किया किन्तु ध्यानाकर्षित तो किया ही। पूरे समाचार में जो बात उभर कर सामने आई वह यह कि रामचरित मानस के मुकाबले लाउडस्पीकर अधिक महत्वपूर्ण था। भक्त मण्डल के लिए यदि रामचरित मानस (और उसका पाठ) ही लक्ष्य होता तो लाउडस्पीकर के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु इस धर्म ग्रन्थ का पाठ उनका लक्ष्य शायद ही रहा हो। उनका लक्ष्य रहा होगा - लोग देखें-जानें-समझें कि वे रामचरित मानस का पाठ कर रहे हैं। जाहिर है कि वे आत्म सन्तोष या आत्म शोधन के लिए रामचरित मानस का आश्रय नहीं ले रहे थे। वे तो खुद को धार्मिक साबित करने के लिए रामचरित मानस का ‘उपयोग’ कर रहे थे। गोया, रामचरित मानस कोई धर्म ग्रन्थ न होकर, धार्मिकता प्रदर्शन का प्रभावी औजार हो गया।
रामचरित मानस और महाभारत, भारतीय समाज में विशिष्ट स्थान रखते हैं। महाभारत को ‘नीति शास्त्र’ का और रामचरित मानस को ‘आचरण शास्त्र’ का दर्जा मिला हुआ है। प्रभु श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा ही इसलिए गया है क्योंकि जो कुछ कर पाने कि कल्पना आप-हम नहीं कर सकते, वह सब प्रभु श्रीराम ने जीया। इस दृष्टि से रामचरित मानस हमें आदर्श आचरण की प्रेरणा देता है। किन्तु मेरे कस्बे के भक्त मण्डल ने रामचरित मानस के परामर्श को ताक पर रख दिया और लाउडस्पीकर को धर्म-पीठ पर स्थापित कर दिया। जो रामचरित मानस, मनुष्य को ‘उत्तम मनुष्य’ बनाता है, वही रामचरित मानस, मनुष्य द्वारा बनाए गए एक यान्त्रिक उपकरण के मुकाबले दोयम स्थान पर रख दिया गया। रामचरित मानस अपने आप में मनुष्य के परिष्कार का उपकरण है किन्तु मनुष्य निर्मित उपकरण के सामने मात खा गया - यह करिश्मा है धर्म के प्रति हमारी जड़ मानसिकता का। यह सब केवल इसलिए कि लोग हमें धार्मिक मानें, समझें।
रामचरित मानस पूर्णतः आचरण केन्द्रित ग्रन्थ है, उपदेश केन्द्रित नहीं। प्रदर्शन केन्द्रित तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन इस मामले में इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को ही प्रदर्शन का औजार बना दिया गया।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही कारणों से, हमें धार्मिक होने की आवश्यकता चैबीसों घण्टे बनी रहती है जबकि हम धार्मिक दिखने की जुगत में लगे हुए हैं।
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