ये समझ रहे हैं, रामजी इनके भरोसे हैं

26 नवम्बर सोमवार की दोपहर। चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। भाजपा और काँग्रेस के उम्मीदवार रैलियों के जरिये, कस्बे के प्रमुख बाजारों में मतदाताओं को अपनी शकलें दिखा रहे हैं, उनके हाथ जोड़ रहे हैं। 

चुनाव की रंगीनी और गहमा-गहमी तलाशते हुए, हम सात फुरसतिये बिना किसी पूर्व योजना के, अचानक ही माणक चौक में एक ठीये पर  मिल गए हैं। सातों के सातों सत्तर पार। देश की प्रमुख सभी राजनीतिक विचारधाराएँ इनसे प्रतिनिधित्व पा रही हैं। सबके सब घुटे-घुटाए। सूरदास की ‘कारी कामरियाँ’, जिन पर दूजा रंग चढ़ने की आशंका भी नहीं। प्रत्येक अपने आप में एक मदरसा। कोई डाइबिटिक है तो कोई बीपी का मरीज। सबके अपने-अपने परहेज हैं। लेकिन जैसे गणित में ऋण-ऋण मिलकर धन हो जाता है, उसी तरह यहाँ परहेजियों के सारे परहेज, कुण्ठित चटोरापन बन कर जबान पर आ बैठे हैं। कॉमरेड की दुकान की कचौरियाँ और शंकर स्वीट्स की कड़क-मीठी चाय आ गई है। सबकी जबानें नश्तर तो हैं लेकिन नुकीली नहीं। छिलके उतार रही हैं। चुभ नहीं रहीं। कचौरियाँ कुतरने और चाय चुसकने के बीच बातें होने लगीं - 

- कश्यप जीत जाएगा।

- अभी से क्या कहें! प्रेमलता  जोरदार टक्कर दे रही है।

- क्या टक्कर दे रही है? कश्यप के सामने कहाँ लगती है? खानापूर्ति कर रही है। 

- इस मुगालते में मत रहना। अण्डर करण्ट दौड़ रहा है। बरसों बाद कोई सनातनी उम्मीदवार सामने है। 

- तुम लोग धरम-जाति से कभी ऊपर भी उठो यार! ये क्या जैन-सनातनी लगा रखा है? एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। वो तुम्हारे धरम-जात के चक्कर में नहीं पड़ती। अपने दिमाग से काम लेती है। 

- हाँ! वो तो है। लेकिन उनके सामने आप्शन क्या है? 

- ये ‘नोटा’ को वोट नहीं दे सकते?

- दे सकते हैं लेकिन देंगे नहीं। वे कमिटेड नहीं हैं। तुमसे-हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार हैं। वोट को बेकार नहीं जाने देंगे। वोट तो किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।

- हाँ। किसी न किसी पार्टी को ही देंगे। 

- देखो यार! इतने भावुक और आदर्शवादी मत बनो। अपना शहर, व्यापारी शहर है और व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता। इसलिए जीतेगा तो कश्यप ही। उसके जीतने में ही सबका फायदा है।

- लेकिन कश्यप से नाराज लोग भी कम नहीं। जीत भले ही जाए लेकिन इस बार पसीना आ रहा है। 

- अरे! यार! तुम लोग ये क्या कश्यप-प्रेमलता में उलझ गए! कल अयोध्या में जो हुआ वो मालूम है तुम्हें?

- लो! इससे मिलो! चौबीस घण्टे हो गए हैं। अखबारों और टीवी में सब आ गया। सबने कह दिया कि उद्धव ठाकरे का शो फ्लॉप हो गया। पाँच हजार भी नहीं थे उसके मजमे में।

- य्ये! येई तो सुनने के लिए मैंने इसे उचकाया था। उचक गया स्साला। उद्धव की तो बता दी लेकिन वीएचपी की नहीं बताई। जरा वीएचपी की भी तो बता दे!

- क्यों? वीएचपी की क्या बताना? भव्य प्रोग्राम रहा। 

- अच्छा! कितना भव्य रहा?

- मुझसे क्या पूछते हो? अखबार में पढ़ लो! टीवी में देख लो!

- अरे! शाणे! हमको क्या उल्लू समझता है? तीन बज रहे हैं। हम क्या सीधे बिस्तर से उठ कर चले आ रहे हैं? बिना मुँह धोये? अरेे! दुनिया की खबर ले कर आ रहे हैं! तेरे मुँह से सुनना है। बता! कितना भव्य रहा वीएचपी का मजमा?

- अरे! यार! बुड्डा हो गया है। याददाश्त चली गई है बिचारे की। मगज (बादाम) खाता तो है लेकिन असर नहीं करती। तू ही बता दे।

- वो तो मैं बता ही दूँगा। लेकिन पहले ये, उद्धव के मजमे की गिनती बतानेवाला तो कुछ बोले!

- चल! तू ही बता दे। तेरी आँखों पर तो पट्टी बँधी है। मैं कुछ भी बताऊँगा तो तू मानेगा तो नहीं। तू ही बता।

- बड़ी जल्दी मैदान छोड़ दिया तेने तो रे! अपनी जाँघ उघाड़ने में शरम आती है? चल! मैं ही बताता हूँ। दो लाख लोग इकट्ठा करने का दावा किया था। चालीस हजार भी नहीं पहुँचे! पण्डाल खाली था। 

- नहीं। चालीस नहीं। पचास हजार। लेकिन चालीस हजार भी कोई कम नहीं होते। 

- सवाल कम-ज्यादा का नहीं है रे! सवाल तो तुम्हारे होश उड़ने का है। उद्धव ने तुम्हारे होश उड़ा दिए। उसने तो तुम्हारी दुकान पर कब्जा कर ही लिया था। बाबरी डिमालेशन का क्रेडिट ले ही लिया था उसने तो। वो अयोध्या आने की बात नहीं करता तो तुम लोग ये मजमा लगाते?

- क्यों? क्रेडिट लेने की बात ही कहाँ है। वो तो हमने ही किया था।

- अच्छा! तुमने किया था? लेकिन उद्धव के दावे के जवाब में वीएचपी ने तो कबूल कर लिया कि उस डिमालेशन में केवल वीएचपी का नहीं, देश के दूसरे संगठनों का भी योगदान है!

- ये तो वीएचपी की शालीनता है। देश के सम्पूर्ण हिन्दू समाज को क्रेडिट दे रही है। लेकिन हिन्दू भावनाओं की चिन्ता तो हम ही कर रहे हैं? इसमें क्रेडिट की बात ही कहाँ है। छाती ठोक कर कहते हैं - हाँ हमने किया है। 

- अच्छा! ये छाती ठोकनेवाले तो सबके सब मादा बने हुए हैं। कोर्ट में  तो एक भी सूरमा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सबके सब एक भाव से कह रहे हैं कि बाबरी गिराने में उनका हाथ नहीं है। तुममें केवल एक ही मरद है। उमा भारती। उसी ने कहा कि वो बाबरी गिराने में शामिल है। बाकी तो तुम सबके सब मादा हो।

- अरे यार! क्यों इसके पीछे पड़ गया! हकीकत अपन सब जानते हैं।

- यही तो! जानता तो ये भी है लेकिन कबूल नहीं करता। अच्छा चल बता! अभी ये जमावड़ा क्यों किया? क्या प्रसंग था?

- क्या प्रसंग था? अरे! राम मन्दिर तो देश के हिन्दू समाज की आस्था का मामला है। बहुत राह देख ली।  अब नहीं देखेंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। बस! यही तो कह रहे हैं!

- अच्छा! साढ़े चार साल पहले जब एक साथ 282 आए थे लोक सभा में तब आते ही रामजी क्यों याद नहीं आए? चलो कोई बात नहीं। लेकिन उसके बाद अब तक क्या करते रहे? अडानी-अम्बानी के जरिए जेबें भरते रहे। पेट्रोल, नोटबन्दी और जीएसटी से लोगों की जान लेते रहे। अब जब लोग सामने आकर बोलने लगे हैं। हिसाब माँगने लगे हैं तो रामजी याद आ गए? लोग बेवकूफ नहीं हैं। सब जानते हैं। तुम तो लोगों की नब्ज टटोल रहे थे। लेकिन फ्लॉप हो गए। यही तुम्हारी परेशानी है। इसी से तुम घबरा रहे हो। तुम्हें रामजी नहीं, 2019 का चुनाव नजर आ रहा है। 

- ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव, चुनाव की जगह और राम मन्दिर अपनी जगह। मन्दिर बनाना तो हमारे जीवन का ध्येय है। तुम चाहे जितनी बाधाएँ खड़ी कर दो, मन्दिर तो बन कर रहेगा। हम ही बनाएँगे।

- अरे! यार! तुम दोनों ने चाय-कचोरी का नास कर दिया। बन्द करो यह सब। चलो! एक-एक कचोरी और चाय और बुलाओ।

- हाँ! हाँ! बुलाओ। मेरी ओर से। लेकिन एक बात तुम सब सुन लो। ये ऐसे बात कर रहा है जैसे रामजी इसके भरोसे हैं। जरा समझाओ इसे। रामजी इसके भरोसे नहीं, ये रामजी के भरोसे है। और ये ही नहीं, सारी दुनिया रामजी के भरोसे है। इसे समझाओ कि रामजी अपनी चिन्ता खुद कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए कोई और टोटका करे।

तीसरा कोई और बोलता, इससे पहले कॉमरेड की दुकान से कचोरियाँ आ र्गइं। सब उन्हीं में अपने-अपने रामजी देखने लगे।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 29 नवम्बर 2018



न सुधरनेवालों का संघर्ष

इस कलि काल में वह व्यक्ति अभागा भी होगा और दुर्लभ भी जो किसी वाट्स एप ग्रुप में शामिल न हो। प्रेम जताने का दावा करते हुए दुश्मनी कैसे निभाई जाती है, वाट्स एप ग्रुप इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।  आप हैं कि बार-बार पल्ला छुड़ाना चाहते हैं लेकिन भाई लोग हैं कि हर बार आपको पल्लू में बाँध लेते हैं। आपकी ‘त्राही! त्राही!’ की मर्मान्तक पुकार  ‘वाह! वाह!’ मानी जाती है। आप मित्रता के अत्याचार सहने को अभिशप्त हो घुटने टेक देते हैं और ग्रुप की कोड़ामार पिटाई के लिए अपनी पीठ नंगी कर मुँह मोड़ लेते हैं।

लेकिन यदि आप ग्रुप के एडमिन हैं और सबका भला चाहते हैं तो आपकी पिटाई तो सबसे ज्यादा होती है। दया की भीख माँगने की तरह आप ग्रुप का अनुशासन बनाए रखने के लिए बार-बार गिड़गिड़ाते हैं। आप पर कोई दया नहीं करता। यह सामूहिक पिटाई अचानक ही आपको याद दिलाती है कि आप भी स्वाभिमान जैसी चीज के मालिक हैं। यह याद आते ही आप चेतावनियाँ देते हैं। अंगूठा चिपका-चिपका कर सब आपका सही तो ठहराते हैं लेकिन आपकी सुनता कोई नहीं। तब आप लोगों को ‘रिमूव’ करते हैं। लेकिन ऐसा करते-करते आपको अचानक खयाल आता है कि ऐसे तो सबको रिमूव करना पड़ जाएगा! और यदि सबको रिमूव कर दिया तो फिर आप इन अपनेवालों का भला कैसे कर पाएँगे? तब आप खीझकर, एक दिन या दो दिन का ‘रिमूवल पीरीयड‘ तय कर, रिमूव किए लोगों को झुंझलाते हुए फिर ग्रुप में शामिल कर लेते हैं। रिमूव किए हुए लोग खुद को फिर से ग्रुप में शामिल देख दुगुने उत्साह से ‘अपनीवाली’ पर लौट आते हैं और आप ‘हवन करने में हाथ तो जलते ही हैं’ कह कर, सबकी पिटाई झेलने के लिए खुद को सौंप देते हैं।

मेरे एक अनदेखे मित्र, ग्रुप एडमिन की इसी दशा को भोग रहे हैं। लेकिन उनका धैर्य और हम एजेण्टों के प्रति उनकी चिन्ता देख-देख मैं उन्हें मन ही मन प्रणाम करता हूँ। उनसे मेरा फोन सम्पर्क बना रहता है। कभी मैं फोन कर लेता हूँ। कभी वे।

ये हैं बुर्ला (उड़ीसा) निवासी श्री रवि नारायण मिश्रा। एलआईसी के प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार इनकी शाखा सम्बलपुर मण्डल में आती है। उड़ियाई उच्चारण में इन्हें ‘रबि नारायण’ और बंगाली उच्चारण में ‘रोबी नारायण’ पुकारा जाता है। हम एजेण्टों की रक्षा के लिए तो हमारा संगठन ‘लियाफी’ है ही लेकिन बचाव के औजारों का खजाना इन मिश्राजी के पास है। एजेण्टों से जुड़े, एलआईसी के तमाम आदेश, तमाम परिपत्र इन मिश्राजी के पास उपलब्ध हैं। लेकिन चमत्कार तो यह कि सबकी डिजिटल प्रतियाँ इस तरह उपलब्ध करा देते हैं जैसे कोई जादूगर हवा में हाथ लहरा कर कबूतर पेश कर देता है।

लेकिन इन अनदेखे मिश्राजी की यही एकमात्र विशेषता नहीं हैं। इससे बड़ी विशेषता इनकी यह है कि ये प्रत्येक एजेण्ट को जानकारियों, सूचनाओं से लैस, समृद्ध करना चाहते हैं। ये ऐसे अनूठे और उदार ज्ञानी हैं जो प्रत्येक एजेण्ट को अपने जैसा ही ज्ञानी बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि हम एजेण्ट लोग ज्ञानी बनने के बजाय मिश्राजी पर निर्भर होने में अधिक सुख अनुभव कर रहे हैं। ऐसे मे मिश्राजी हम एजेण्टों के लिए ‘निर्बल के बल राम’ बन गए हैं।

एजेण्टों को सूचना समृद्ध बनाने के लिए मिश्राजी ने ‘ओनली इंश्योरेंस ज्ञान’ तथा ‘ग्रुप मेडिक्लेम नॉलेज’ नाम से दो ग्रुप बना रखे हैं। इनकी इच्छा और कोशिश रहती है कि इन ग्रुपों के सदस्य केवल विषय से जुड़ी बातें और सामग्री ही दें। अधिकांश लोग तो मिश्राजी की बात मानते हैं लेकिन कुछ भाई लोग हैं कि इनकी सुनने को तैयार ही नहीं होते। वे ‘गुड मार्निंग’, ‘हेप्पी टुडे’, ‘हेव ए नाइस डे’ जैसे सन्देश, चित्र चिपकाते रहते हैं। मिश्राजी तो हमारा व्यावसायिक ज्ञान बढ़ाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भाई लोग मिश्राजी सहित हम सबका जीवन सुधारने का बीड़ा उठाए हैं। ऐसे लोग उपदेशों, निर्देशों, सुभाषितों, नीति वाक्यों, नाना प्रकार के उद्धरणों से सबका जनम सफल करने का ‘अत्याचारी-उपकार’ करते रहते हैं।

मिश्राजी ने ऐसे लोगों को चेतावनी देना शुरु किया। चेतावनी का असर  न होते देख चेतावनी दी कि यदि कहा नहीं माना तो ग्रुप से निकाल देंगे। चेतावनी तो दे दी लेकिन निकाला किसी को नहीं। मिश्राजी की इस भलमनसाहत को भाई लोगों ने शायद मिश्राजी की मजबूरी समझ लिया। रुकना तो दूर रहा, वे दुगुने उत्साह से अनावश्यक, अप्रासंगिक सामग्री देने लगे। मजबूर होकर मिश्राजी ने ऐसे लोगों को एक दिन, दो दिनों के लिए ग्रुप से बाहर करना शुरु कर दिया। इसका असर तो हुआ जरूर लेकिन ‘आदत से मजबूर’ भाई लोग अभी भी काम पर लगे हुए हैं।

ऐसे लोगों से मुक्ति पाने के लिए मिश्राजी ने एक रास्ता निकाला। उन्होंने ‘बेस्ट विशेस’ नाम से एक अलग ग्रुप बनाया और कहा कि इस ग्रुप में कोई भी काम की बात नहीं की जाएगी। यहाँ केवल शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, विभिन्न प्रसंगों के सन्देश और सुभाषित, नीति उद्धरण दिए जाएँगे। मिश्राजी ने चेतावनी दी - ‘यहाँ जो भी काम की बात करेगा उसे निकाल दिया जाएगा।’ होना तो यह चाहिए था कि सब खुश होते और जी भर कर शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, बधाइयाँ देते। लेकिन हुआ उल्टा। कामवाले ग्रुपों पर फालतू सामग्री देनेवाले मित्रों ने कहा - ‘ऐसे कैसे? केवल बेस्ट विशेस का भी कोई ग्रुप होता है? ऐसे तो सब बोर हो जाएँगे! ग्रुप में तो काम की बातें होनी चाहिए!’ और भाई लोगों ने इस ग्रुप पर काम की बातें डालनी शुरु कर दीं। अब हालत यह है कि काम की बातोंवाले ग्रुप में भाई लोग बेस्ट विशेस डाल रहे हैं और बेस्ट विशेस वाले ग्रुप में काम की बातें।

फोन पर मिश्राजी से बातें करते हुए मुझे उनके मिजाज का कुछ-कुछ अनुमान हो चला है। बेस्ट विशेस ग्रुप पर भाई लोगों की प्रतिक्रियाएँ देख कर मैंने फौरन मिश्राजी को फोन लगाया। वे हतप्रभ और असहज थे। ‘कैसे लोग हैं बैरागीजी? काम की बात करने को कहो तो फालतू बातें करते हैं और फालतू बातों के लिए ग्रुप बनाया तो काम की बातें करने को कहते हैं!’ मैं ठठा कर हँसा। कहा - “यह ‘न सुधरनेवाली दो मानसिकताओं’ का संघर्ष है। आप भला करने पर तुले हुए हैं और वे अपना भला न होने देने को। न आप सुधरने को तैयार हैं न वे। दुःखी मत होईए। ऐसा ही चलते रहने दीजिए। कभी-कभी न सुधरते हुए भी आदमी सुधर जाता है।” 

अब मिश्राजी ठठाकर हँस रहे थे। 
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दुष्यन्त कुमार के ‘मुनासिब लोग’

हम पति-पत्नी के दो बैंकों में खाते हैं। पहला बैंक ऑफ बड़ौदा की स्टेशन रोड़ शाखा में और दूसरा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की कलेक्टोरेट एरिया शाखा में। बड़ौदा बैंक में हमारा खाता बरसों से चल रहा है। किन्तु, श्रीमतीजी सरकारी नौकरी में थी। उनकी पेंशन एसबीआई की इसी शाखा से मिलनी थी। इसलिए यहीं खाता खुलवाने  बाध्यता थी। एसबीआई में हमेशा इतनी भीड़ रहती है कि घुसने की ही हिम्मत नहीं होती। तीन दिन चक्कर काटे लेकिन खाता नहीं खुला। अचानक ही मालूम हुआ कि शाखा प्रबन्धक, एलआईसी की हमारी शाखा मे पदस्थ विकास अधिकारी श्री संजय गुणावत के बड़े भाई हैं। उन्होंने मदद की। खाता फौरन ही खुल गया। 

जब-जब भी एसबीआई जाने की जरूरत हुई, जाने से पहले ही हिम्मत पस्त हो जाती। ईश्वर महरबान हुआ और एक कृपालु वहाँ पदस्थ मिले। उनका काम ऐसा कि सप्ताह में तीन दिन उन्हें शाखा से बाहर रहना पड़ता है। जाने से पहले तलाश कर लेता। वे वहाँ होते तो ही जाता। नहीं होते तो जाना टाल देता।

हम पति-पत्नी नेट बैंकिंग या ई-बैंकिंग अब तक नहीं सीख पाए। एटीएम कार्ड घर बैठे आया। बच्चों ने हिम्मत बढ़ाई और सिखाया तो एटीएम से रकम निकालनी शुरु की। पाँच-सात बरस से एटीएम का उपयोग कर रहा हूँ लेकिन रकम निकालते समय आज भी हाथ काँपते हैं। श्रीमतीजी तो एटीएम का उपयोग अब तक नहीं सीख पाईं। बड़ौदा बैंक के कुछ मित्रों ने ई-बैंकिंग के लिए खूब प्रोत्साहित किया। बार-बार आग्रह किया। हिम्मत कर ई-बैंकिंग सुविधा के लिए खानापूर्ति की। किन्तु पता नहीं, प्रक्रिया के किस चरण में मुझसे कहाँ चूक हुई कि पास वर्ड उलझ गया और ऐसा उलझा कि बैंक के तमाम जानकार मित्र जूझ-जूझ कर हार गए लेकिन पास वर्ड उलझा ही रहा। अब तक उलझा हुआ ही है। मैंने तो उलझन की शुरुआत में ही घुटने टेक दिए। उसके बाद से ई-बैंकिंग के नाम से धूजनी (कँपकँपी) छूटने लगती है।

इसी के चलते, अपने खाते के ब्यौरे जानने के लिए हम लोग पास बुक पर ही निर्भर बने हुए हैं। लेकिन एसबीआई से पास बुक छपवाना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं। खिड़की पर लम्बी लाइन। अपना नम्बर आए तो बाबू पास बुक लेते हुए, मुँह बिगाड़ कर, हड़काते हुए सलाह दे - ‘मशीन से क्यों नहीं छपवा लेते?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। परिचित सज्जन ने एक बार कह ही दिया - ‘यार! सरजी! आप पास बुक मशीन से छपवा लिया करो।’ उसके बाद उनकी मदद लेने की हिम्मत भी जाती रही। 

अब, पास बुक छपवाना मेरे लिए दुनिया का सर्वाधिक दुरुह काम बन गया। इधर श्रीमतीजी हैं कि महीना-दो महीना पूरे होते ही टोकने लगती हैं।

गए दिनों अचानक ही मालूम हुआ कि मित्र निवास रोड़ पर पास बुक छापने की एक नहीं दो-दो मशीनें लगी हैं। पुष्टि करने गया। देखा, बहुत ही आसानी से पास बुकें छपवा रहे हैं। मशीन भी बहुत बढ़िया - बराबर निर्देश भी देती है और प्रक्रिया की जानकारी भी। लेकिन वहाँ भी ल ऽ ऽ ऽ म्बी ऽ ऽ लाईन। देख कर छक्के छूट गए। मेरी दशा देख एक अनुभवी ने कहा - ‘रात नौ बजे के आसपास आईए। मशीनें खाली मिलेंगी।’ मेरा दिल बल्लियों उछल गया।

मैं बुधवार 14 नवम्बर की रात गया। एक सज्जन पास बुक छपवा रहे थे। मैं दूसरी मशीन की तरफ बढ़ा। उसके पर्दे पर मशीन के काम न करने की सूचना तैर रही थी। मैं, पास बुक छपवा रहे सज्जन के पीछे आ खड़ा हुआ। उनकी पास बुक छपते ही मशीन ने पास बुक लेने का सन्देश दिया। उन्होंने पास बुक निकाली। वे हटे। मैं मशीन के सामने खड़ा हुआ। लेकिन यह क्या? क्षमा याचना करते हुए मशीन के पर्दे पर, मशीन के काम न करने का सन्देश चमक रहा था। मैंने मुझसे पहलेवाले सज्जन से मदद माँगी। वे भी हैरत में पड़ गए। उन्होंने भी अपनी सूझ-समझ के मताबिक मशीन को टटोला, मेरी पास बुक ‘स्लॉट’ में डाली। किन्तु कोई हलचल नहीं हुई। सज्जन ने कहा कि कभी-कभी अचानक लिंक टूट जाने से या सर्वर में समस्या आ जाने से ऐसा हो जाता है। थोड़ी देर मे अपने आप ठीक हो जाएगा। मैं करीब बीस मिनिट वहाँ रुका रहा। फिर थक कर लौट आया। 

मैं गुरुवार 15 नवम्बर की रात फिर गया। लेकिन दोनों मशीनें पूर्ववत निश्चल, निष्क्रिय खड़ी थीं। शुक्रवार 16 नवम्बर की रात को फिर देहलीज पर मत्था टेका। लेकिन देवियाँ नहीं पिघलीं। शनिवार 17 नवम्बर को मैंने फेस बुक पर दो पोस्टों में अपनी व्यथा-कथा सार्वजनिक की। कुछ टिप्पणियाँ आईं। एक-दो ने बैंक की व्यवस्था को कोसा। बाकी  सबने एक भाव से नेट बैंकिंग अपनाने की सलाह दी। शनिवार की मेरी दूसरी पोस्ट पर मेरे प्रिय मित्र श्री राधेश्यामजी सारस्वत ने ढाढस बँधाया कि शनिवार को यदि पास बुक नहीं छपे तो सोमवार को वे हर हालत में मेरी पास बुक छपवा देंगे। सारस्वतजी बड़े प्रेमल व्यक्ति हैं। वे कलेक्टोरेट में सेवारत हैं और मेरी सहायता करने के अवसर तलाश करते रहते हैं।

इन चार दिनों (14 से 17 नवम्बर) में श्रीमतीजी ने अपने पास बुक प्रेम के अधीन मुझे उलाहने देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर उलाहने का अन्त एक ही वाक्य से हुआ - ‘आपसे इतना सा काम भी नहीं होता? हुँह!’

शनिवार को भी मशीनें बन्द की बन्द ही मिलीं। रविवार को मैंने सारस्वतजी को फोन किया - ‘पास बुक कहाँ पहँचाऊँ?’ उन्होंने कहा कि वे सोमवार सुबह मेरे घर आकर पास बुक ले लेंगे। सोमवार सुबह दस बजे वे आए। पास बुक ली। चले गए। ग्यारह बजते-बजते उनका फोन आया - ‘सर जी! पास बुक छप गई। फोटू वाट्स एप कर रहा हूँ।’ शाम को वे घर आकर पास बुक दे गए। (यह पूरा किस्सा फेस बुक पर मेरी वाल पर 17 और 19 नवम्बर को विस्तार से दिया हुआ है।)

बात यहीं खतम हो जानी चाहिए। लेकिन यह ब्यौरा तो मेरी मूल बात की भूमिका है। मेरी बात तो यहीं से शुरु होती है। 
जैसा कि मैंने कहा है, सत्रह नवम्बर की मेरी दोनों फेस बुक पोस्टों पर और काम हो जाने के बाद 19 नवम्बर वाली फेस बुक पोस्ट पर आई टिप्पणियों में दो-एक मित्रों ने ही बैंक के प्रति खिन्नता जताई। बाकी सबने मुझे ई-बैंकिंग और/या नेट बैंकिंग अपनानेे की न केवल सलाह दी अपितु इसके फायदे भी समझाए। मेरे ऐसा न करने पर दो-एक कृपालुओं ने तो यथेष्ठ खिन्नता भी जताई।

मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इन सारे मित्रों ने मेरी चिन्ता करते हुए, मुझे कष्ट न हो, बैंक पर मेरी निर्भरता समाप्त करने के लिए मुझे यह नेक सलाह दी। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि समुचित सेवाएँ न देने के लिए इनमें से किसी ने बैंक की आलोचना करना तो दूर, बैंक का नाम भी नहीं लिया।

यह, व्यवस्था के प्रति हमारी हताशाभरी उदासीन मानसिकता का नमूना है। हमने व्यवस्था के सामने घुटने टेक दिए हैं। हमने मान लिया है कि अपने ग्राहकों के साथ बैंक का व्यवहार तो ऐसा ही रहेगा। न तो वह सुधरेगी न ही हम उसे सुधार सकेंगे। यह हमारी हताशा का चरम है कि उसे सुधार की, उसके दुरुस्त होने की बात ही हमारे मन में आनी बन्द हो गई है। मुझे नेट/ई-बैंकिंग अपनाने की सलाह देते हुए मेरे तमाम कृपालु मित्र यह याद ही नहीं रख पाए कि बैंक अपने ग्राहकों को पास बुकें जारी कर रहा है और उन्हें छापने के लिए मँहगी स्वचलित मशीनें लगवाए चला जा रहा है। जाहिर है कि बैंक स्वीकार कर रहा है कि ग्राहक को यह सेवा देना अभी भी उसकी जिम्मेदारियों में शामिल है। लेकिन हमने हार मान ली है। क्रूर व्यवस्था से परास्त होना हमने अपनी नियती मान ली है। एक दुःखी उपभोक्ता के समर्थन में खड़े होने के बजाय सब उसे समझा रहे हैं - 
‘खुुुद ही सुधर जाओ भाई!’ 

यह सब याद करते हुए मुझे दुष्यन्त कुमार याद आ गए। बरसों-बरस पहले वे कह गए हैं -

न हो कमीज तो घुटनों  से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

जहाँ हमें रीढ़ की हड्डी तानकर खड़े होना चाहिए वहाँ हम विनयावनत हो खुद को बदल लेते हैं। व्यवस्था को और चाहिए ही क्या?

हम (इस ‘हम’ में मैं भी शरीक हूँ) दुष्यन्त कुमार के ये ही ‘मुनासिब लोग’ हैं।
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मेरी छपी हुई पास बुक देने के लिए मेरे घर आए श्री राधेश्यामजी सारस्वत। 
भगवान इनका भला करे। 

वाट्स एप यूनिवर्सिटी के शिकार

निर्भीक पत्रकारिता के पर्याय बन चुके पत्रकार रवीश कुमार
अपने दर्शकों/श्रोताओं को, ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी’ की शिक्षाओं से बचने की सलाह देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु उनकी यह सलाह राजनीति में धर्मान्धता से बचने को लेकर होती है। लेकिन कहा नहीं जा सकता कि अंगुलियों की पोरों से संचालित हो रही यह यूनिवर्सिटी हमारे जीवन के किस पहलू को कब स्पर्श कर ले। इस यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर बनने के लिए न तो किसी शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता है न ही किसी परीक्षा/साक्षात्कार से गुजरना होता है। इसमें न तो भर्ती का आयु बन्धन है न ही सेवा निवृत्ति का। देश की तमाम सरकारी शिक्षा यूनिवर्सिटियों में प्रोफेसरों के हजारों पद खाली पड़े हैं लेकिन इस यूनिवर्सिटी में न तो पदों की संख्या निर्धारित है न ही स्वनियुक्त प्रोफेसरों की गिनती। घर-घर में इस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मौजूद हैं। घर में जितने मोबाइलधारक, उतने ही प्रोफेसर। इन प्रोफेसरों के न तो ‘ड्यूटी अवर्स’ तय हैं न ही पीरीयड की समय सीमा। निस्वार्थ-निष्काम, ‘अहर्निशम् सेवामहे’ भाव से ये स्वैच्छिक मानसेवी प्रोफेसर लोग आपकी-हमारी जिन्दगी सँवारने का कोई मौका नहीं छोड़ते। मुझे नहीं पता कि इन नेक सलाहों का फायदा किसी को हुआ या नहीं। किन्तु इसके एक ‘शिकार’ की व्यथा-कथा सुनने का मौका मिल गया।

श्री अरविन्द सोनी मेरे ‘मुक्त कण्ठ प्रशंसक’ हैं। वे म. प्र. विद्युत मण्डल के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। रतलाम जिला इण्टक के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। सेवा निवृत्त जरूर हो गए हैं लेकिन काम करना फितरत में है। परिचितों-मित्रों की समस्याएँ हल कराने के लिए एलआईसी कार्यालय आते रहते हैं। प्रायः ही मिलना होता है। जब भी मिलते हैं, कुछ पल बात करते ही हैं। इसी तरह, बातों ही बातों में अचानक ही ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी की सलाह का शिकार’ हो जाने की बात सामने आ गई।

हुआ यूँ कि किन्हीं कारणों से अरविन्दजी को टीएमटी करवानी पड़ी। रिपोर्ट से हृदय की धमनियों में अवरोध की आशंका के संकेत मिले। चिकित्सा शुरु की ही थी कि एक भरोसेमन्द हितचिन्तक ने वाट्स एप पर एक देसी नुस्खा भेजा। ये हितचिन्तक, मुम्बई के ख्यात-प्रतिष्ठित केईएम अस्पताल में चिकित्सक रहे हैं। परम सद्भाव और सदाशयता से भेजे गए इस सन्देश पर अरविन्दजी ने आकण्ठ विश्वास से अमल किया और नुस्खे में बताई दवा लेनी शुरु कर दी।

शुरु में तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा लेकिन कुछ दिनों बाद पेट में जलन की शिकायत शुरु हो गई। जैसा कि हम सब करते हैं, अरविन्दजी ने एसिडिटी का अनुमान लगाया और स्वचिकित्सक बन, एसिडिटी निरोधी सामान्य गोलियाँ ले लीं। लेकिन गोलियाँ निष्प्रभावी रहीं और समस्या बढ़ती गई। अरविन्दजी ने डॉक्टर से सलाह ली तो उसने बड़ी आँत में अल्सर का अन्देशा बताया। अरविन्दजी फौरन इन्दौर गए। पेट रोग विशेषज्ञ से मिले। कुछ जाँचें करवाईं जिनके आधार पर विशेषज्ञ ने बड़ी आँत में अल्सर की पुष्टि की। 

विशेषज्ञ की सलाह पर अरविन्दजी इन्दौर में ही अस्पताल में भर्ती हुए। दो दिन वहाँ ईलाज कराया। डॉक्टर के निर्देश लेकर रतलाम लौटे। पूरे दो महीने ईलाज चला तब कहीं जाकर कष्ट से मुक्ति मिली।

अरविन्दजी अब पूर्ण स्वस्थ तो हैं लेकिन आँत के अल्सर के कारण कुछ ऐसे निषेध आरोपित कर दिए गए हैं जिनका पालन करने के लिए अरविन्दजी की, चाय के ठीयों की बैठकें बन्द सी हो गईं है। बैठक में शामिल हों तो भाई लोग जबरदस्ती करने में कंजूसी नहीं करते। उनका कहा मानना याने अपनी जान से दुश्मनी। 

अब अरविन्दजी जब भी ऐसी बैठकों में शामिल होते हैं तो वाट्स एप यूनिवर्सिटी से मिला यह सबक सबसे पहले सुनाते हैं।
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‘नोटा’ बन गया ‘सोटा’: जीत गया तो फिर से होंगे चुनाव

यह किसी सपने के सच हो जाने जैसा है। 

हमारे मँहगे चुनाव मुझे देश में व्याप्त आर्थिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण लगते हैं। धनबली और बाहुबली लोग विधायी सदनों पहुँचकर हमारी तकदीरों से खेलते हैं। ‘इण्डिया’ के लोग ‘भारत’ की तकदीर बनाने का ठेका ले लेते हैं। वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में पहुँच ही नहीं पाते।

इनसे मुक्ति पाने के लिए मुझे ‘नोटा’ प्रभावी, परिणामदायी हथियार अनुभव होता है। लेकिन उसका वर्तमान स्वरूप मुझे और क्षुब्ध कर देता है। इसका वर्तमान स्वरूप, उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं की नाराजी, असहमति तो जरूर प्रकट करता है लेकिन  किसी को जीतने से रोक नहीं पाता। अपनी इसी बात को लेकर मैं 05 अक्टूबर 2018 को, ‘नोटा’ को उम्मीदवार की हैसियत दिए जाने की बात कही थी। तब मुझे सपने में भी गुमान नहीं था कि डेड़ माह से भी कम अवधि में मेरी मुराद पूरी होने की शुरुआत हो जाएगी। कल, 13 नवम्बर को अचानक ही मुझे जानकारी मिली कि ‘नोटा’ को उम्मीदवार मान लिया गया है और यदि इसे सबसे ज्यादा वोट मिल गए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने 27 सितम्बर 2013 को ‘नोटा’ का बटन, मतदान मशीन पर उपलब्ध कराने का आदेश दिया था। लेकिन आदेश में यह भी कहा गया था कि यदि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को तमाम उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिल जाएँ तब भी, (‘नोटा’ के बाद) सर्वाधिक मत हासिल करनेवाले उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया जाए। याने, चूँकि ‘नोटा’ कोई उम्मीदवार नहीं है इसलिए वह जीत कर भी हार जाएगा और उसे मिले मत, निरस्त मत माने जाएँगे। 

लेकिन महाराष्ट्र राज्य निर्वाचन आयोग (मरानिआ) इस स्थिति से एक कदम आगे बढ़ गया है। ‘मरानिआ’ के सचिव शेखर चन्ने के अनुसार अब (महाराष्ट्र में) किसी चुनाव/उप चुनाव में यदि ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिले तो किसी भी उम्मीदवार को विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा। श्री चन्ने के अनुसार यह आदेश तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। 

लेकिन यह आदेश फिलहाल महाराष्ट्र के समस्त नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों के चुनावों, उप चुनावों में ही लागू होगा।

श्री चन्ने के अनुसार, ‘नोटा’ के वर्तमान स्वरूप में मतदाताओं की नकारात्मकता अनदेखी रह जाती है इसलिए यह प्रावधान किया गया है। इसमें ‘नोटा’ को ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ (Fictional Electoral Candidate) माना जाएगा और यदि चुनावी उम्मीदवारों को इस ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ से कम मत मिले को कोई भी उम्मीदवार विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (जिस पद के लिए यह चुनाव हुआ था, उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा।

हालाँकि यह अधूरी जीत है किन्तु यह पूरी जीत की शुरुआत है। ‘मरानिआ’ का क्षेत्राधिकार चूँकि केवल राज्यस्तरीय निकायों तक सीमित है इसलिए उसने अपने क्षेत्राधिकार के मतदाताओं को यह ताकत दे दी। यह शुरुआत यहीं नहीं रुकेगी। यह ‘छूत की बीमारी’ की तरह फैलेगी ही फैलेगी। एक के बाद एक, अन्य राज्य भी अपने मतदाताओं को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए इस प्रावधान को लागू करेंगे और अन्ततः बात भारत निर्वाचन आयोग तक पहुँचेगी ही पहुँचेगी। इसमें देर लग सकती है लेकिन ऐसा होना तो तय हो गया है।

मतदाताओं को अधिक ताकतवर बनाने के लिए, उनकी नापसन्दगी को स्वीकृती दिलाने हेतु, चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे अनेक एक्टिविस्ट और एनजीओ, ‘नोटा’ का प्रावधान लागू होने के ठीक बाद से लगातार माँग कर रहे हैं कि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिलने की दशा में वहाँ फिर से चुनाव तो कराया ही जाए, मतदाताओं के इंकार को स्वीकृती देते हुए, उस चुनाव में, ‘नोटा’ के जरिए खारिज किए गए तमाम उम्मीदवारों को फिर से उस चुनाव के लिए अयोग्य भी घोषित किया जाए।

हमारे राजनेता देश को और देश के लोगों को जिस मुकाम पर ले आए हैं उसके चलते यह सब होगा। होकर रहेगा। देश को मँहगे चुनावों से मुक्ति मिलेगी, एक औसत आदमी चुनाव लड़ सकेगा, वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में नजर आएँगे। आर्थिक भ्रष्टाचार यदि समूल नष्ट नहीं भी हुआ तो भी वह न्यूनतम स्तर पर आएगा। राजनीतिक दलों के, दरियाँ-जाजम उठाने-झटकारनेवाले, झण्डे-डण्डे उठानेवाले मैदानी कार्यकर्ताओं की पूछ-परख होगी। ऐसी बातों की बहुत लम्बी सूची है। वे सब होंगी।

शुरुआत हो चुकी है। विधायी सदनों में बैठे तमाम नेता, अपने सारे मतभेद भुलाकर इसे रोकने में जुट जाएँगे। मुमकिन है, कुछ बरसों तक वे इसे रोक भी लें। लेकिन वे अन्ततः परास्त होंगे। वही ‘जनता-जनार्दन’ की जीत होगी।

अँधरे को प्रकाश की अनुपस्थिति कहते हैं। लेकिन वह तो एक प्राकृतिक स्थिति है। अँधेरा दूर करने के लिए उजाला करना पड़ता है। छोटे-छोटे जुगनू लगातार जूझ रहे हैं। हर रात की एक सुबह होती ही है। लेकिन वे इस भरोसे चुपचाप नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाने तक रुकेंगे नहीं। चैन से नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाकर ही मानेंगे।
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(यह पोस्ट मैंने, इण्डियन एक्सप्रेस के मुम्बई संस्करण में, दिनांक 13 नवम्बर 2018 को प्रकाशित समाचार के आधार पर लिखी है। इस समाचार की लिंक मुझे, ग्वालियरवाले श्री  विष्णुकान्त शर्मा Vishnukant Sharma की फेस बुक वॉल से मिली है।  श्री शर्मा की वॉल पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार वे, इस पोस्ट के लिखे जाने के समय तक, 28 नवम्बर को हो रहे विधान सभा चुनावों में ग्वालियर विधान सभा क्षेत्र 15 से प्रत्याशी हैं। 

मेरा अंग्रेजी ज्ञान बहुत कम है। मैंने, परम् सद्भाव और सदाशयता से, अपनी सूझ-समझ के अनुसार इस समाचार का यथासम्भव समुचित हिन्दी भावानुवाद किया है। समाचार का जो हिस्सा मुझे समझ नहीं पड़ा, वह मैंने छोड़ दिया है। मुझसे यदि कोई चूक हुई हो तो कृपया मुझे अविलम्ब सूचित कीजिएगा ताकि मैं खुद को सुधार सकूँ। मुझे प्राप्त समाचार लिंक यहाँ दे रहा हूँ।)

पटाखों और फुलझड़ियों से ही नहीं होती दीपावली

जिन्दगी के पनघट पर घटनाओं की रस्सियों से बने अनुभूतियों के अमिट निशान हमारी धरोहर और जीवन पाथेय बन जाते हैं। तब चीजें, बातें एक नया अर्थ, नई उपयोगिता हासिल करने लगती हैं। दीपावली को लेकर कुछ ऐसा ही मेरे साथ गए कुछ बरसों से हो चला है। लेकिन मुझे यह भ्रम नहीं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हुआ, हो रहा होगा। विश्वास करता हूँ कि मैं ऐसे अनगिनत लोगों की भीड़ का सबसे अन्तिम, सबसे छोटा हिस्सा ही हूँगा। 

बचपन में बताए, समझाए गए, दीपावली के सारे अर्थ एक के बाद एक, बदल गए। अब दीपावली केवल लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी का या तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का या फिर नई फसल के आने का त्यौहार नहीं रह गई। पहले समझाया जाता था - दीपावली खुशियों का, खुशियाँ मनाने का त्यौहार है। लेकिन अकेली खुशी भी खुश नहीं हो पाती। खुशी को भी खुश होने के लिए संगाती चाहिए। संगाती भी ऐसा जो हमारी खुशी को अपनी खुशी मानने को तैयार हो सके। कोई दुखी आदमी भला हमारी खुशी में कैसे शरीक हो सकता है? लिहाजा, अपनी खुशी का आनन्द लेने के लिए हमें किसी खुश आदमी की ही जरूरत होती है। तब ही समझ आया कि खुश होना ही पर्याप्त नहीं है। अपने आसपास के लोगों का खुश होना भी बराबरी से जरूरी है। इसलिए, यदि वे खुश नहीं हैं तो उन्हें खुश करने, खुश रखने की भावना उपजी होगी। तब ही अनुभव हुआ होगा कि लोगों को खुश रखना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। तब ही दीपावली का नया भाष्य सामने आया - दीपावली खुशियों का त्यौहार तो है जरूर लेकिन उससे पहले, खुशियाँ बाँटने का त्यौहार है। यह पवित्र भावना मन में उपजते ही त्यौहार मन जाता है। तब हम खुशियों की खेती करने लगते हैं। खुशियाँ बोते हैं और खुशियों  की फसल काटते हैं।

खुशी कोई वस्तु तो है नहीं कि बाजार से खरीद लें! वस्तुएँ खुशी दे सकती हैं लेकिन घावों पर मरहम नहीं लगा पातीं। कुछ लोगों के लिए वस्तुएँ खुशी का सबब होती हैं। लेकिन कुछ इनसे अलग होते हैं। उन्हें कुछ दिए बिना भी खुशी दी जा सकती है, यह प्रतीति कुछ बरस पहले मुझे अचानक ही हुई। तब से, हर बरस मेरी दस-बीस दीवालियाँ मन रही हैं। 

बीमे के धन्धे के कारण मैं सभी वर्गों, श्रेणियों, धर्मों, जातियों के लोगों से मिलता हूँ। इन सबसे मिलने पर बार-बार वह बात याद आती है कि सुख, खुशी और सुविधाओं, सम्पन्नता का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे महलों में दुःखी, असन्तुष्ट, क्षुब्ध लोग मिलते हैं तो झोंपड़ियों में परम प्रसन्न, सुखी, सन्तुष्ट लोग। 

एक परिवार में मुझे, जिसका बीमा करना था उसकी प्रतीक्षा करनी थी। परिवार में उसके बूढ़े पिता ही फुरसत में थे। उनसे बतियाने लगा। शुरु में तो वे कन्नी काटते रहे। कुछ-कुछ भयभीत होकर। लेकिन जल्दी ही खुल गए। उन्हें कोई कमी नहीं थी। कोई कष्ट नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। उनकी सारी जरूरतें पूरी हो रही थीं और अपेक्षानुरूप देखभाल भी। लेकिन उनसे बात करने की फुरसत किसी को नहीं थी। मुझे घण्टे भर से अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी। तब तक वे न जाने कहाँ-कहाँ की बातें करते रहे। मेरे काम की एक भी बात नहीं थी। लेकिन मैं हाँ में हाँ मिलाते हुए सुनता रहा। बीमा करानेवाला लौटा तो उन्होंने आश्चर्य से कहा - ‘अरे! तू इतनी जल्दी आ गया? काम अधूरा छोड़ कर तो नहीं आ गया?’ मुझे अपना काम निपटाना था। मैं उठने लगा तो मेरी बाँह पकड़ कर बोले - ‘आज कितने दिनों में कोई मेरे पास बैठा। आज मैंने खूब बातें कीं। आज तो आपने मेरी दीवाली कर दी।’ यही वह घटना थी जिसने मुझे पहली बार  दीवाली का नया भाष्य दिया था। मेरी गाँठ से कुछ नहीं गया। लेकिन वे बुजुर्ग परम प्रसन्न थे। उसके बाद से तो मैं ऐसी स्थितियों की तलाश करने लगा।

एक परिवार में अब मैं नियमित रूप से जाता हूँ। परिवार के सबसे वृद्ध सज्जन अपंग तो नहीं हैं लेकिन ज्यादा चल-फिर नहीं सकते। मुझे देखते ही खुश हो जाते हैं। उनके पास भी आधा-पौन घण्टा गुजार लेता हूँ। उन्हें परिवार से तो नहीं लेकिन जमाने से शिकायतें हैं। उन्हें दुनिया में कुछ भी अच्छा होता नजर नहीं आता। मैं उनसे कभी सहमत नहीं हो पाया किन्तु कभी असहमति भी नहीं जताई। मैं लौटता हूँ तो कहते हैं कि मैं तनिक जल्दी-जल्दी मिलने आया करूँ। मैं परिहास करता हूँ - ‘आप जमाने को गालियाँ देते हो। क्या गालियाँ सुनने के लिए आऊँ?’ वे कुम्हला जाते हैं। कहते हैं - ‘मैं तो ऐसा ही हूँ। लेकिन आप आते रहो। आप मेरी बातें सुन लेते हो। मुझे खुशी होती है।’

एक परिवार की वृद्धा से मेरी दोस्ती हो गई है। दो मुलाकातों में तीन हफ्तों से अधिक का अन्तराल न हो यह चेतावनी उन्होंने दे रखी है। मेरी खूब खातिरदारी करती हैं। पौन घण्टा तो मुझे रुकना ही होता है उनके पास। अपनी इकलौती बहू की खूब बुराई करती हैं। मैं टोकता हूँ - ‘इतनी तो सेवा करती है बेचारी आपकी! फिर भी बुरी है?’ वृद्धा का जवाब होता है - ‘सब दिखावा करती है। आप बहुओं को नहीं जानते। बहू कुछ भी कर ले, है तो परायी जायी।’  पौन घण्टे के इस बुराई-पीरीयड में बहू दो-तीन बार आकर पानी, चाय-नाश्ता रख जाती है। आते-जाते हँसती रहती है। लौटता हूँ तो वृद्धा मुझे भर-पेट असीसती हैं। कहती हैं - ‘आप आते हो तो मेरा आफरा (अजीर्ण) झड़ जाता है।’ बहू मुझे छोड़ने के लिए बाहर तक आती है। कहती है - ‘आप आते रहिए। मेरे पीहर में तो कोई है नहीं और ससुरालवाले वाले आते-जाते नहीं। बई (सासू माँ) ने सबसे झगड़ा कर रखा है। बई को मेरी बुराई करने में बड़ा सुख मिलता है। मेरी बुराई इनकी बीमारी की दवा है। आपसे कह देती हैं तो इनकी तबीयत ठीक रहती है।’

ये तो गिनती के नमूने हैं। ऐसे कई लोगों से मैंने घरोपा बना लिया है। मैं बीमा एजेण्ट। मेरा काम बातें करना। ऐसे मामलों में मुझे सुनना होता है। सुन लेता हूँ। हर जगह से लौटने में बड़ी सुखानुभूति होती है। लगता है, देव पूजा करके या यज्ञ में समिधा-आहुति डाल कर आ रहा हूँ। इन लोगों की खुशी देखते ही बनती है। सचमुच में अवर्णनीय। ऐसी हर आहुति के बाद लगता है, मैंने दीवाली मना ली है। 

बिना पटाखे फोड़े, बिना फुलझड़ियाँ छोड़े, आदमी के मन और आत्मा को खुशियों और उजास से भर देनेवाली ऐसी दीवालियाँ आप-हम सब, जाने-अनजाने साल भर मनाते हैं लेकिन कभी ध्यान नहीं देते हैं। अब ध्यान दीजिएगा तो खुशी कम से कम दुगुनी तो हो ही जाएगी। बच्चन की मधुशाला तो ‘दिन को होली, रात दीवाली’ मनाती है। लेकिन खुशियों की यह मधुशाला तो दिन-रात, चौबीसों घण्टे, बारहमासी दीवाली मनाती है।  
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) ने मेरी इस पोस्ट को सम्पादित रूप
में अपने दीपावली 2018 के अंक के मुखपृष्ठ पर जगह दी।