पटाखों और फुलझड़ियों से ही नहीं होती दीपावली

जिन्दगी के पनघट पर घटनाओं की रस्सियों से बने अनुभूतियों के अमिट निशान हमारी धरोहर और जीवन पाथेय बन जाते हैं। तब चीजें, बातें एक नया अर्थ, नई उपयोगिता हासिल करने लगती हैं। दीपावली को लेकर कुछ ऐसा ही मेरे साथ गए कुछ बरसों से हो चला है। लेकिन मुझे यह भ्रम नहीं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हुआ, हो रहा होगा। विश्वास करता हूँ कि मैं ऐसे अनगिनत लोगों की भीड़ का सबसे अन्तिम, सबसे छोटा हिस्सा ही हूँगा। 

बचपन में बताए, समझाए गए, दीपावली के सारे अर्थ एक के बाद एक, बदल गए। अब दीपावली केवल लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी का या तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का या फिर नई फसल के आने का त्यौहार नहीं रह गई। पहले समझाया जाता था - दीपावली खुशियों का, खुशियाँ मनाने का त्यौहार है। लेकिन अकेली खुशी भी खुश नहीं हो पाती। खुशी को भी खुश होने के लिए संगाती चाहिए। संगाती भी ऐसा जो हमारी खुशी को अपनी खुशी मानने को तैयार हो सके। कोई दुखी आदमी भला हमारी खुशी में कैसे शरीक हो सकता है? लिहाजा, अपनी खुशी का आनन्द लेने के लिए हमें किसी खुश आदमी की ही जरूरत होती है। तब ही समझ आया कि खुश होना ही पर्याप्त नहीं है। अपने आसपास के लोगों का खुश होना भी बराबरी से जरूरी है। इसलिए, यदि वे खुश नहीं हैं तो उन्हें खुश करने, खुश रखने की भावना उपजी होगी। तब ही अनुभव हुआ होगा कि लोगों को खुश रखना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। तब ही दीपावली का नया भाष्य सामने आया - दीपावली खुशियों का त्यौहार तो है जरूर लेकिन उससे पहले, खुशियाँ बाँटने का त्यौहार है। यह पवित्र भावना मन में उपजते ही त्यौहार मन जाता है। तब हम खुशियों की खेती करने लगते हैं। खुशियाँ बोते हैं और खुशियों  की फसल काटते हैं।

खुशी कोई वस्तु तो है नहीं कि बाजार से खरीद लें! वस्तुएँ खुशी दे सकती हैं लेकिन घावों पर मरहम नहीं लगा पातीं। कुछ लोगों के लिए वस्तुएँ खुशी का सबब होती हैं। लेकिन कुछ इनसे अलग होते हैं। उन्हें कुछ दिए बिना भी खुशी दी जा सकती है, यह प्रतीति कुछ बरस पहले मुझे अचानक ही हुई। तब से, हर बरस मेरी दस-बीस दीवालियाँ मन रही हैं। 

बीमे के धन्धे के कारण मैं सभी वर्गों, श्रेणियों, धर्मों, जातियों के लोगों से मिलता हूँ। इन सबसे मिलने पर बार-बार वह बात याद आती है कि सुख, खुशी और सुविधाओं, सम्पन्नता का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे महलों में दुःखी, असन्तुष्ट, क्षुब्ध लोग मिलते हैं तो झोंपड़ियों में परम प्रसन्न, सुखी, सन्तुष्ट लोग। 

एक परिवार में मुझे, जिसका बीमा करना था उसकी प्रतीक्षा करनी थी। परिवार में उसके बूढ़े पिता ही फुरसत में थे। उनसे बतियाने लगा। शुरु में तो वे कन्नी काटते रहे। कुछ-कुछ भयभीत होकर। लेकिन जल्दी ही खुल गए। उन्हें कोई कमी नहीं थी। कोई कष्ट नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। उनकी सारी जरूरतें पूरी हो रही थीं और अपेक्षानुरूप देखभाल भी। लेकिन उनसे बात करने की फुरसत किसी को नहीं थी। मुझे घण्टे भर से अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी। तब तक वे न जाने कहाँ-कहाँ की बातें करते रहे। मेरे काम की एक भी बात नहीं थी। लेकिन मैं हाँ में हाँ मिलाते हुए सुनता रहा। बीमा करानेवाला लौटा तो उन्होंने आश्चर्य से कहा - ‘अरे! तू इतनी जल्दी आ गया? काम अधूरा छोड़ कर तो नहीं आ गया?’ मुझे अपना काम निपटाना था। मैं उठने लगा तो मेरी बाँह पकड़ कर बोले - ‘आज कितने दिनों में कोई मेरे पास बैठा। आज मैंने खूब बातें कीं। आज तो आपने मेरी दीवाली कर दी।’ यही वह घटना थी जिसने मुझे पहली बार  दीवाली का नया भाष्य दिया था। मेरी गाँठ से कुछ नहीं गया। लेकिन वे बुजुर्ग परम प्रसन्न थे। उसके बाद से तो मैं ऐसी स्थितियों की तलाश करने लगा।

एक परिवार में अब मैं नियमित रूप से जाता हूँ। परिवार के सबसे वृद्ध सज्जन अपंग तो नहीं हैं लेकिन ज्यादा चल-फिर नहीं सकते। मुझे देखते ही खुश हो जाते हैं। उनके पास भी आधा-पौन घण्टा गुजार लेता हूँ। उन्हें परिवार से तो नहीं लेकिन जमाने से शिकायतें हैं। उन्हें दुनिया में कुछ भी अच्छा होता नजर नहीं आता। मैं उनसे कभी सहमत नहीं हो पाया किन्तु कभी असहमति भी नहीं जताई। मैं लौटता हूँ तो कहते हैं कि मैं तनिक जल्दी-जल्दी मिलने आया करूँ। मैं परिहास करता हूँ - ‘आप जमाने को गालियाँ देते हो। क्या गालियाँ सुनने के लिए आऊँ?’ वे कुम्हला जाते हैं। कहते हैं - ‘मैं तो ऐसा ही हूँ। लेकिन आप आते रहो। आप मेरी बातें सुन लेते हो। मुझे खुशी होती है।’

एक परिवार की वृद्धा से मेरी दोस्ती हो गई है। दो मुलाकातों में तीन हफ्तों से अधिक का अन्तराल न हो यह चेतावनी उन्होंने दे रखी है। मेरी खूब खातिरदारी करती हैं। पौन घण्टा तो मुझे रुकना ही होता है उनके पास। अपनी इकलौती बहू की खूब बुराई करती हैं। मैं टोकता हूँ - ‘इतनी तो सेवा करती है बेचारी आपकी! फिर भी बुरी है?’ वृद्धा का जवाब होता है - ‘सब दिखावा करती है। आप बहुओं को नहीं जानते। बहू कुछ भी कर ले, है तो परायी जायी।’  पौन घण्टे के इस बुराई-पीरीयड में बहू दो-तीन बार आकर पानी, चाय-नाश्ता रख जाती है। आते-जाते हँसती रहती है। लौटता हूँ तो वृद्धा मुझे भर-पेट असीसती हैं। कहती हैं - ‘आप आते हो तो मेरा आफरा (अजीर्ण) झड़ जाता है।’ बहू मुझे छोड़ने के लिए बाहर तक आती है। कहती है - ‘आप आते रहिए। मेरे पीहर में तो कोई है नहीं और ससुरालवाले वाले आते-जाते नहीं। बई (सासू माँ) ने सबसे झगड़ा कर रखा है। बई को मेरी बुराई करने में बड़ा सुख मिलता है। मेरी बुराई इनकी बीमारी की दवा है। आपसे कह देती हैं तो इनकी तबीयत ठीक रहती है।’

ये तो गिनती के नमूने हैं। ऐसे कई लोगों से मैंने घरोपा बना लिया है। मैं बीमा एजेण्ट। मेरा काम बातें करना। ऐसे मामलों में मुझे सुनना होता है। सुन लेता हूँ। हर जगह से लौटने में बड़ी सुखानुभूति होती है। लगता है, देव पूजा करके या यज्ञ में समिधा-आहुति डाल कर आ रहा हूँ। इन लोगों की खुशी देखते ही बनती है। सचमुच में अवर्णनीय। ऐसी हर आहुति के बाद लगता है, मैंने दीवाली मना ली है। 

बिना पटाखे फोड़े, बिना फुलझड़ियाँ छोड़े, आदमी के मन और आत्मा को खुशियों और उजास से भर देनेवाली ऐसी दीवालियाँ आप-हम सब, जाने-अनजाने साल भर मनाते हैं लेकिन कभी ध्यान नहीं देते हैं। अब ध्यान दीजिएगा तो खुशी कम से कम दुगुनी तो हो ही जाएगी। बच्चन की मधुशाला तो ‘दिन को होली, रात दीवाली’ मनाती है। लेकिन खुशियों की यह मधुशाला तो दिन-रात, चौबीसों घण्टे, बारहमासी दीवाली मनाती है।  
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) ने मेरी इस पोस्ट को सम्पादित रूप
में अपने दीपावली 2018 के अंक के मुखपृष्ठ पर जगह दी। 




2 comments:

  1. बहुत सुंदर ।
    विचारणीय ।
    💐💐💐

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  2. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं|


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 07/11/2018 की बुलेटिन, " एक अनुरोध सहित दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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