ताकि तोड़ी जा सके

इन दिनों मेरे कस्बे में शपथ ग्रहण समारोहों की बहार आई हुई है। प्रतिदिन एक के औसत से, समारोह हो रहे हैं। कभी किसी सेवा संगठन का तो कभी सामाजिक संगठन का। लगता है, सावन में केवल ‘जल वर्षा’ नहीं, ‘शपथ ग्रहण समारोह वर्षा’ भी होती है। ऐसे आयोजनों के बुलावे कभी-कभी मुझे भी आते हैं। कुछ में जा पाता हूँ। कुछ में नहीं। एक-दो संगठनों के सदस्य के रूप में शामिल हुआ हूँ तो एक-दो समारोहों में अतिथि या अध्यक्ष बन कर भी गया हूँ किन्तु भरपूर समय पहले। अब भी कभी-कभार (मुख्य अतिथि/अध्यक्ष बनने के) ऐसे बुलावे आते हैं किन्तु सविनय अस्वीकार कर देता हूँ।

ऐसे समारोहों का औचित्य और आवश्यकता मुझे अब तक समझ नहीं पड़ी है। जब-जब भी विचार किया तब-तब, हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि ऐसे समारोह न हों तो भी संगठन की सेहत और उसके कामकाज पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस निष्कर्ष पर भी पहुँचा कि शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करने को लेकर जितनी चिन्ता, गम्भीरता, सतर्कता बरती जाती है उस सबका सहस्त्रांश भी यदि शपथ निभाने में लग जाए तो देश की काया पलट जाए।

बानगी के लिए, शपथ ग्रहण समारोह के ठीक बाद, शपथ ग्रहण करनेवाले कुछ ‘शपथ गृहिताओं’ से शपथ के बारे में पूछा तो सबके सब बगलें झाँकते मिले। एक भी नहीं बता पाया कि उसने क्या शपथ ली है। मेरी बात पर भरोसा बिलकुल मत कीजिए किन्तु अपने स्तर पर इसे आजमाइए अवश्य। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि आपका अनुभव भी मेरे अनुभव से मेल खाएगा।

ऐसा सम्भवतः केवल इसलिए हो रहा है कि हम समारोहीकरण और खानापूर्ति में ही विश्वास करने लगे हैं। यह स्थिति शिखर से लेकर धरातल तक समान है। हमारे विधायी पदों के लिए शपथ लेना अनिवार्यता है। कोई सम्विधान के नाम पर तो कोई ईश्वर के नाम पर शपथ लेता है। सेवा/सामाजिक संगठनों में किसी का नाम लेना आवश्यक नहीं होता। सम्भवतः इसलिए कि वहाँ शपथ ग्रहण करने का प्रावधान ही नहीं होता। कुछ संगठनों में यह स्वतः मान लिया जाता है कि निर्धारित दिनांक से नए पदारूढ़ व्यक्ति ने अपना काम शुरु कर दिया है।

‘शपथ’ के प्रति हम लेशमात्र भी शायद ही ईमानदार हों। सम्विधान या ईश्वर के नाम पर शपथ लेनेवाले किस निर्लज्जता से सम्विधान की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं और ईश्वर की शपथ लेनेवाले किस सीनाजोरी से ईश्वर को झक्कू टिका रहे हैं - यह हम प्रतिदिन देख ही रहे हैं। हम अपने आसपास ही नजर डालें तो पाएँगे कि चारों ओर लगभग यही दशा है। बैंक मे कार्यरत मेरे एक मित्र, वादा करके उसे न निभाने में विशेषज्ञ हैं। उनसे मित्रता के शुरुआती दिनों में, उन पर विश्वास कर मेरे कई काम अत्यधिक विलम्ब से पूरे हो पाए। वे वादा करते। मैं विश्वास कर उनकी प्रतीक्षा करता। थोड़े अन्तराल के बाद उन्हें याद दिलाता। वे खेद प्रकट कर, वादा दुहराते। मैं फिर प्रतीक्षा करता। लेकिन उन्होंने एक बार भी मेरी प्रतीक्षा को मंगल सूत्र नहीं पहनाया। अनेक अनुभवों के बाद मुझे समझ आया कि वे हमारे नेताओं के ‘मित्र संस्करण’ हैं - वादा करो, भूल जाओ, निभाओ कभी मत। अकल आने पर मैं उन्हें ‘यूबीएम साहब’ कह कर पुकारने लगा। मैंने उनसे कहा - ‘अब मैं आपको वही काम बताऊँगा जो मुझे किसी से नहीं करवाना होगा।’ ताकि तोड़ी जा सके ‘यूबीएम’ का मतलब आप भी जान लें - उल्लू बनाने की मशीन।

मेरे एक और मित्र हैं। मुख्य बाजार के मुख्य चौराहे पर उनकी अच्छी-भली दुकान है। सन्त स्वभाव के हैं। लालची और स्वार्थी बिलकुल नहीं। निजी आचरण में शत प्रतिशत सात्विक। किन्तु वादा करने और उसे न निभाने में वे भी ‘जूनीयर यूबीएम साहब’ हैं। इनको समझने में भी मुझे अपने अनेक काम विलम्बित करने पड़े। मुझे कहीं से एक शे’र मिला जो मैंने ताबड़तोड़ इन्हें लिख भेजा -


ये तेरी फितरत है कि वादा कर ले
मेरी हिम्मत है कि भरोसा करता हूँ

हमारे यहाँ तीन ‘भय’ बताए गए हैं - देव-भय, राज-भय और लोक-भय। ‘देव-भय’ अर्थात् ईश्वर का भय। जिससे सबसे पहले डरना चाहिए, उसे तो हम घोल कर पी गए। कल ही एक अभिकर्ता मित्र ने एक कथन (सम्भवतः विवेकानन्द का) सुनाया - ‘मैं केवल ईश्वर से डरता हूँ और ईश्वर के बाद उस आदमी से डरता हूँ जो ईश्वर से नहीं डरता।’ मुझे लगता है, हमारे चारों ओर अब (मुझ सहित )ऐसे ही लोग हैं जिनसे विवेकानन्द को डरना पड़ेगा। ‘राज-भय’ की क्या बात की जाए? जिस देश का प्रधानमन्त्री ‘गठबन्धन की मजबूरी’ की दुहाई देकर भ्रष्टाचार होते रहने का औचित्य सिद्ध करे, वहाँ कौन सा राज-भय? रही बात ‘लोक-भय’ की, अर्थात् ‘लोग क्या कहेंगे’ की तो, यह तो प्राथमिक शालाओं के बच्चों के चुटकुले से भी कमतर लगता है। ऐसे में, ‘शपथ ग्रहण’ को इतनी गम्भीरता से लेना अपनी मूर्खता का सहज प्रमाण देने से अधिक और है ही क्या?

वादा करने और उसे न निभाने की आदत को लेकर मेरे गुरु स्वर्गीय हेमेन्द्र कुमारजी त्यागी ये पंक्तियाँ सुनाया करते थे -

तौबा मेरी जाम-ए-शिकन
जाम-ए-मेरी तौबा शिकन
सामने है ढेर
टूटे हुए पैमानों का।

जब आदमी खुद से किए गए वादे, अकेले में ली गई शपथ ही नहीं निभाए तो उसे सार्वजनिक स्तर पर शपथ-भंग अथवा वादा खिलाफी करने में न तो पल भर की देर लगेगी और न ही रंच मात्र असुविधा होगी।

सोच रहा हूँ - कितना अच्छा हुआ कि सूरज, चाँद, धरती, प्रकृति ने अपना-अपना काम करते रहने के लिए कोई शपथ ग्रहण नहीं की और न ही, ऐसा करने के लिए कोई समारोह आयोजित किया। यदि ये सब भी वैसा ही करते जैसा हम कर रहे हैं तो?

लाखों में एक : भाभी भी और रोग भी

मेरी भाभी नहीं रहीं। सोमवार, अठारह जुलाई को सुबह दस बजकर पैंतीस मिनिट पर उनका निधन हो गया। मेरा ई-मेल बॉक्स सम्वेदना सन्देशों से भरा पड़ा है। अनेक कृपालुओं ने मेरी भाभी के बारे में जानकारी चाही है।



भाभी को लेकर क्या लिखूँ और क्या नहीं - तय कर पाना मेरे लिए दुरुह नहीं, नितान्त असम्भव है। जो भी और जितना भी लिखूँ, स्थायी रूप से अधूरा ही होगा होगा। समन्दर को शब्दों में समेट पाना शायद अधिक सुगम होगा मेरे लिए। इतना ही कह सकता हूँ कि यदि वे दादा के जीवन में और हमारे परिवार में नहीं आई होतीं तो मैं यह ब्लॉग नहीं लिख रहा होता। तब मैं और मेरा पूरा परिवार सम्भवतः भीख ही माँग रहा होता।



उनका पूरा नाम श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी था। (‘था’ क्यों? यह नाम तो अब भी है!) इस तेईस अगस्त को वे अपनी आयु के बहत्तर वर्ष पूर्ण कर चुकी होतीं। जननी तो वे दो बेटों की थीं किन्तु हम तीन भाई-बहन (मैं और मेरी दो बहनें) भी उनकी सन्तान बने रहे। अपने दोनों बेटों से अधिक चिन्ता उन्होंने हम तीनों की की।



दादा से उनका विवाह कमोबेश ‘प्रेम विवाह’ जैसा ही था। जैसा कि दादा खुद बताते हैं, यह 1951-52 के आसपास की बात रही होगी। तब दादा अपने मूल नाम ‘नन्दराम दास’ के साथ ‘पागल’ उपनाम लगाकर कविताएँ लिखते थे। भाभी के पिताजी श्री सु. देव. सुन्दरम्, जावद (जिला-नीमच) में ‘नईदुनिया’ के न्यूज पेपर एजेण्ट थे। दादा की एक कविता ‘नई दुनिया’ में छपी जिसकी पहली पंक्ति थी - ‘मधुमास बीता जा रहा है, सजो बाले! सजो बाले!’ कविता के नीचे नाम छपा था - नन्दराम दास बैरागी ‘पागल’। भाभी ने (तब निश्चय ही वे मेरी भाभी नहीं थीं) अपने पिताजी से कहा कि यह कविता लिखनेवाला भी बैरागी है। न हो तो इसीसे उनका विवाह करा दिया जाए। लगभग तेरह वर्षीया अबोध किशोरी की यह इच्छा कैसे परवान चढ़ी, यह अपने आप में सम्पूर्ण स्वतन्त्र कथा है।


1953 में वे दादा की जीवन संगिनी बन कर हमारे परिवार में आईं। तब उनकी अवस्था 14 वर्ष और दादा की अवस्था 23 वर्ष थी। दादा कहते हैं कि तब मेरे गृह नगर मनासा की जनसंख्या लगभग 6 हजार रही होगी। 53 वर्ष पहले, उस बस्ती में वे ‘बिना घूँघट वाली पहली बहू’ बनकर आई थीं। दादा बताते हैं कि बारात की बस से उतर कर, वे दोनों जब बस अड्डे से ताँगे में बैठकर घर के लिए चले तो भाभी को देखने के लिए पूरे रास्ते भर, लोग-लुगाइयों की भीड़ से, गलियों-मुहल्लों के दोनों ओर के, ओटले-चबूतरे छोटे पड़ गए थे। तब ‘इज्जतदार, शरीफ और खानदानी’ महिलाएँ, खुले मुँह घर से बाहर नहीं निकलती थीं। लिहाजा, भाभी को लेकर वे सारी टिप्पणियाँ हुईं जो ऐसे में होनी थीं।

लेकिन मैं यह सब क्या ले बैठा? इस तरह तो पता नहीं मैं वह सब कब बता पाऊँगा जो बताने के लिए मैंने यह बात शुरु की है। अतीत को यहीं छोड़ कर मुझे ‘आज’ पर आ जाना चाहिए।


2006 में भाभी को चिकनगुनिया हुआ जो 2007 में, ‘एप्लास्टिक एनीमिया’ में बदलगया। मोटे तौर पर इसे ’खून बनना बन्द हो जाना’ कहा जा सकता है जबकि चिकित्सा शास्त्र की शब्दावली में, ‘प्लेटलेट’ का बनना बन्द हो जाना कहा जाता है। इसका एक ही उपचार है - रोगी के शरीर को (जिस प्रकार खून दिया जाता है, उसी प्रकार) प्लेटलेट दिए जाएँ। रोग का और चिकित्सा दिशा (डायग्नोसिस तथा लाइन ऑफ ट्रीटमेण्ट) का निर्धारण ‘एम्स’ (दिल्ली) में हुआ जो भाभी की मृत्यु के अन्तिम क्षण तक जारी रहा।

प्लेटलेट चढ़ाने के लिए फरवरी में भाभी को इन्दौर स्थित बॉम्बे हास्पिटल में भर्ती कराया गया। खबर मिली तो मैं और मेरी उत्तमार्द्ध पहुँचे। दादा तो थे ही, मेरा छोटा भतीजा गोर्की और उसकी उत्तमार्द्ध मीरू (नीरजा) सेवा-सुश्रुषा में लगे हुए थे। भाभी के रोग की गम्भीरता का अनुभव मुझे गोर्की से पहली बार हुआ। मैंने गोर्की से पूछा - ‘भाभी पूरी तरह से कब ठीक हो जाएँगी?’ गोर्की ने सूनी आँखों से मुझे देखा और सपाट आवाज में बोला - ‘कभी नहीं।’ मुझे झटका लगा। कोई बेटा अपनी माँ के लिए ऐसा कैसे कह सकता है? मेरी शकल देख कर गोर्की बोला - ‘ऐसा है बब्बू भई (मेरा, घर का यही नाम है)! अभी साल में दो-तीन बार प्लेटलेट चढ़ रहे हैं। प्लेटलेट चढ़ाने का यह अन्तराल दिन-ब-दिन कम होता जाएगा और एक दिन वह आएगा जब शरीर इन प्लेटलेटों को स्वीकार करने से इंकार कर देगा। बस, उसी क्षण से भाभी की मृत्यु की प्रतीक्षा शुरु हो जाएगी।’



बिलकुल, शब्दशः यही हुआ। 5 जुलाई को गोर्की का फोन आया। वह उदयपुर से बोल रहा था। उसने कहा कि भाभी को गम्भीर हालत में सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया है और ‘आप रतलाम में ही बने रहना।’ 10 जुलाई की रात को लगभग आठ बजे फिर गोर्की का और थोड़ी ही देर बाद मीरू का फोन आया। दोनों बता रहे थे कि भाभी को नीमच ले आए हैं। हालत ठीक नहीं है और मैं किसी भी क्षण, अप्रिय समाचार के लिए तैयार रहूँ। 15 जुलाई को हम पति-पत्नी भाभी से मिलने नीमच पहुँचे। वे अपनी सम्पूर्ण चेतना से हमसे मिलीं। बातें की। पूरा परिवार उनकी सेवा में लगा हुआ था। शाम को हम लोग लौट आए। 18 को सुबह लगभग ग्यारह बजे गोर्की का फोन आया। सुबकते हुए उसने कुल चार शब्द कहे - ‘बब्बू भई! आ जाओ।’ थोड़ी ही देर में मीरू फोन पर थी। उससे बोला नहीं जा रहा था। बमुश्किल बोली - ‘पापा से बात कीजिए।’ दादा ने कहा - ‘अभी दस पैंतीस पर सुशील चली गई। हम लोग मनासा के लिए निकल रहे हैं। तू सीधा वहीं पहुँच। अन्तिम संस्कार वहीं करेंगे।’ हम लोग पहुँचे तब तक अन्तिम चाल-चलावा कर, उनकी पार्थिव देह बरामदे में रख दी गई थी। मैंने देखा, भाभी के चेहरे पर पीड़ा का कोई चिह्न नहीं था। हमारा पूरा कुटुम्ब मौजूद था। लोगों का आना शुरु हो चुका था। दादा का फार्म हाउस छोटा पड़ गया था। कोई डेड़-दो हजार लोगों ने भाभी को अन्तिम बिदा दी।

दादा ने अद्भुत दृढ़ता दिखाई। उनकी आँखें एक पल को भी सजल नजर नहीं आई और न ही उनका गला रुँधा। उन्होंने कहा - ‘कोई रोना-धोना नहीं होगा। यह मृत्यु नहीं, महोत्सव है।’ अर्थी उठते समय, दादा की इकलौती साली चित्कार करने लगी तो गुस्से में दादा ने उसे ऐसा धकेला कि वह गिरते-गिरते बची। मेरी छोटी बहन नीलू भी क्रन्दन करने लगी तो दादा ने उसे ऐसा डाँटा कि वह नाराज होकर उठावने में शरीक नहीं हुई।


रात में दादा ने बताया कि 13 जुलाई को भाभी को फिर उदयपुर ले गए थे। प्लेटलेट चढ़ाने की प्रक्रिया शुरु की किन्तु शरीर ने अस्वीकार कर दिया। गोर्की की बात सच होने लगी। 14 को डॉक्टरों ने कहा - ‘बैरागीजी! इन्हें घर ले जाईए। अधिकतम 6 दिनों की बात है।’ किन्तु भाभी तो पाँचवें दिन ही चली गईं। अपने तईं मैं दादा कोजितना जानता हूँ, उसके मुताबिक तो भाभी का दाह संस्कार नीमच में ही हो जाना चाहिए था। दादा ने कहा - ‘यह सुशील की इच्छा थी। उसने कहा था - ‘आप मुझ ब्याह कर मनासा लाए थे। वहीं मेरा अन्तिम संस्कार करना।’


बातों ही बातों में दादा ने जब बताया कि यह रोग (एप्लास्टिक एनीमिया) लाखों में एक व्यक्ति को होता है तो मुझे झुरझुरी हो आई। मेरी भाभी लाखों में एक थी। उन्होंने रोग पाला तो वह भी लाखों में एक वाला!

सच हो गई एक लोकोक्ति

रमेश पांचाल ने साबित कर दिया कि लोकोक्तियाँ यूँही नहीं बनतीं। उनके पीछे जीवन के अनुभूत सत्य होते हैं।


एक ही सन्देश देनेवाली लोकोक्तियाँ शायद पूरी धरती पर पाई जाती होंगी। फर्क होता होगा उनकी भाषा, उनके प्रतीकों और कहने के अन्दाज का। ऐसी ही एक लोकोक्ति है जिसका भावानुवाद कुछ ऐसा हो सकता है - ‘एक इंकार, मिटाए आफत हजार।’ रमेश ने इसी लोकोक्ति को साकार किया।


सामान्य स्थिति होती तो कहता - ‘रमेश भी मेरी ही तरह बीमा अभिकर्ता है।’ किन्तु रमेश का मामला तनिक असामान्य है। उसने मुझसे बाद में काम शुरु किया किन्तु आज वह मुझसे कोसों आगे है। वह ग्रामीण क्षेत्र में काम करता है। रतलाम से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर, शिवगढ़ में रहता है और अपने ग्राहकों को विक्रयोपरान्त सेवाएँ देने हेतु लगभग प्रतिदिन उसे रतलाम आना पड़ता है। भारतीय जीवन बीमा निगम की जिस शाखा से मैं सम्बद्ध हूँ (जिसे आगे मैं ‘मेरी शाखा’ कहूँगा), उस शाखा में सर्वाधिक पॉलिसियाँ बेचनेवाला एजेण्ट रमेश ही होगा। इस वर्ष वह, एक और मामले में, मेरी शाखा में सर्वोच्च स्थान पर रहा। वित्तीय वर्ष 2010-11 में सर्वाधिक कमीशन प्राप्त करनेवाला एजेण्ट भी रमेश ही रहा। जैसे-जैसे हम लोगों को यह जानकारी मिलती गई वैसे-वैसे, एक के बाद एक, हम सबने रमेश को बारी-बारी से बधाइयाँ दीं।


जब-जब भी अवसर आता है, ‘निगम’ प्रबन्ध हम अभिकर्ताओं को ‘नींव के पत्थर’ कहकर हमारा महिमा मण्डन करता है। यह अलग बात है कि अधिकांश अभिकर्ता इस महिमा मण्डन को वाणी विलास या ‘दिल बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’ ही मानते हैं। इसके समानान्तर ही एक स्थिति और है। नियमित रूप से काम करनेवाले प्रत्येक अभिकर्ता की मित्रता, शाखा के प्रत्येक कर्मचारी से होती है किन्तु ‘वर्गीय’ आधार पर कर्मचारी लोग नींव के इन पत्थरों से परहेज ही करते हैं। कड़वा सच होने के बाद भी मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इस ‘जन्नत की हकीकत’ को मैं बदल नहीं सकता, परहेज का यह भाव ‘आनुवांशिक गुण’ की तरह स्थायी बन चुका है। फिर भी मेरी कोशिश रहती है कि कुछ क्षणों के लिए ही सही या खुद को भरमाने के लिए ही सही, इस दूरी को ढँक दिया जाए। इसलिए, जब भी कोई अभिकर्ता कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो मैं उसे, पूरी शाखा में मिठाई बाँटने के लिए प्रेरित करता हूँ। अभिकर्ता मित्रों का बड़प्पन और उपकार है कि वे मेरे इस अनुरोध को प्रायः ही मान लेते हैं। ऐसे प्रयासों के कुछ न कुछ तो ‘मीठे परिणाम’ मिलते ही हैं। मैं खुद भी ऐसा करने के अवसर ढूँढता रहता हूँ।


सो, जब रमेश ने, शाखा में सर्वाधिक कमीशन अर्जित करने की उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की तो उसे बधाई देते हुए, लगभग आदेशित किया - ‘कल आते ही सबसे पहला काम करना - शाखा में मिठाई बाँट देना।’ रमेश बोला कुछ नहीं। स्वीकारोक्ति में गरदन हिला दी। यह बात थी अप्रेल के दूसरे सप्ताह की। अगले तीन दिनों तक मैं शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। चौथे दिन पहुँचा तो मालूम हुआ कि रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। अपराह्न में रमेश आया तो मैंने पूछा - ‘मिठाई नहीं बाँटी?’ उसने नजरें झुका कर कहा - ‘हाँ, यार सा‘ब! नहीं बाँटी।’ मैंने कहा - ‘आज बाँट ही देना।’ कह कर, रमेश के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मैं अपने काम में लग गया।


किन्तु वह दिन और लगभग पौने तीन महीने बाद आज का दिन। रमेश ने मिठाई नहीं बाँटी। इस बीच मैंने बार-बार उसे टोका, डाँटा, प्रताड़ित किया, अभिकर्ताओं के बीच उसकी खिल्ली उड़ाई, उसे कंजूस साबित करने के लिए सहयोग राशि के एक रूपये का चन्दा देने का ढोंग किया। याने कि क्या-क्या नहीं किया? किन्तु रमेश ने न तो बुरा माना और न ही मिठाई बाँटी।


किन्तु समस्या को कब तक स्थगित रखा जा सकता है? एक दिन पहले जब मैंने तनिक अधिक तीखेपन से रमेश की फजीहत करनी चाही तो इस बार उसने मुझे टोक दिया। बोला - ‘आज आप सुन लो कि मैं मिठाई क्यों नहीं बाँट रहा हूँ।’ कह कर उसने अपना कारण बताया। मैंने उसके कारण को अनुचित या अपर्याप्त बताने की कोई कोशिश नहीं की। बस, इतना पूछा - ‘जब मैंने तुझसे, मिठाई बाँटने के लिए पहली बार कहा था तभी यह कारण बता कर मना क्यों नहीं कर दिया?’ रमेश ने कहा - ‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ। आपकी बुजुर्गीयत का लिहाज करके चुप रहा।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आज वह लिहाज कहाँ चला गया? आज मेरी बुजुर्गीयत कहाँ चली गई? आज मेरी बेइज्जती क्यों कर दी?’ तनिक सकपकाकर रमेश बोला - ‘आज मेरी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया।’ मैंने कहा - ‘भैया! जब लिहाज तोड़ना ही था और मेरी बुजुर्गीयत का, मेरी इज्जत का फलूदा करना ही था तो पौने तीन माह तक प्रतीक्षा क्यों की? बार-बार तेरी मजाक उड़ाने का अपराध मुझसे क्यों कराया? कोई मुहूर्त देख रहा था?’ रमेश के पास कोई जवाब नहीं था। बात ही नहीं, पूरा मुद्दा ही यहीं समाप्त हो गया। हम दोनों अपने-अपने काम पर लग गए।


कुछ देर बाद मैंने रमेश को लोकोक्ति सुनाई तो बोला - ‘यार सा’ब! गलती हो गई। अब यह गलती नहीं दुहराऊँगा। जो काम नहीं कर सकूँगा, उसके लिए पहली ही बार में मना कर दूँगा।’


रमेश की बात सुनकर मुझे अच्छा तो लगा लेकिन मन में अपराध बोध भी उग आया। मैंने उसकी कितनी खिल्ली उड़ाई? कितनी अवमानना की? मैं इस सबसे बच सकता था। लेकिन अपने आप को यह कह कर तसल्ली दे रहा हूँ कि मुझे उस गलती की सजा मिली जो मैंने नहीं, रमेश ने की थी। रमेश का एक इंकार उसे ही नहीं, मुझे भी इस अपराध बोध से बचा सकता था।

अण्णा का भ्रष्टाचार : इनका शिष्टाचार

यह कल की ही बात है। मुहावरेवाले ‘कल की’ नहीं। सचमुच में कल, शुक्रवार, 15 जुलाई 2011 की। मैं नीमच में था। अपने एक मित्र से मिलने के लिए, केन्द्र सरकार के एक उपक्रम के जिला कार्यालय में जाना हुआ। मेरा मित्र इस जिला कार्यालय का प्रमुख है।

दोपहर लगभग बारह बजे मैं पहुँचा। वह मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा था। रतलाम से नीमच के लिए निकलते समय मैंने उसे खबर कर दी थी। यथेष्ठ आत्मीय-ऊष्मा से उसने मेरी अगवानी की। अपनी टेबल कोई काम लम्बित नहीं रखना, फाईल को तुरन्त निपटा देना उसकी ‘गन्दी आदत’ है। उसकी इस आदत से परेशान उसके अधीनस्थ, उसके पास कोई फाईल तभी भेजते हैं जिसका ‘हिसाब-किताब’ पूरी तरह हो चुका हो। सो, उसकी टेबल एकदम साफ थी। वह लगभग खाली ही बैठा था।

बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके कार्यालय का अंकेक्षण (ऑडिट) चल रहा है। क्षेत्रीय (झोनल) कार्यालय से चार अंकेक्षक (ऑडिटर) आए हुए हैं। तीन दिन पहले, मंगलवार को वे आए थे। आज उनका अन्तिम दिन था। फाईलें देखने का काम वे पूरा कर चुके थे और उनमें ‘पकड़ी गई’ अनियमितताओं के आधार पर उन्हें अपनी अन्तिम रिपोर्ट तैयार करनी थी। अनियमितताओं की सूची भी बहुत लम्बी नहीं थी। छोटी ही थी। गम्भीर तो बिलकुल ही नहीं थीं। सबकी सब, प्रक्रियागत थीं, व्यवहारगत नहीं। सो, उनके पास भी कोई अधिक काम नहीं था।

मित्र ने चाय मँगवाई तो चारों अंकेक्षकों को भी शामिल कर लिया। एक अंकेक्षक महोदय, नाम से और मेरे ‘लिखने-विखने’ से परिचत और प्रभावित भी थे। मित्र ने परिचय कराया तो प्रसन्न हुए। बातें शुरु हुईं तो बहुत ही जल्दी (लगभग तीसरे मिनिट ही) अण्णा के अभियान पर आ गईं। अण्णा का समर्थन, सरकार की आलोचना और नेताओं को गालियाँ देना आज का सर्वाधिक लोकप्रिय फैशन ही नहीं, अपनी जागरूकता और बौद्धिकता जताने का ‘प्रतीक चिह्न’ (स्टेटस सिम्बल) भी जो बन गया है! सो, वे चारों के चारों मुदित-मन और मुक्त-कण्ठ से इस ‘फैशन शो’ के ‘रेम्प’ पर इठलाते हुए, गर्वीली मुद्रा में ‘केट वॉक’ कर रहे थे। मैं तो बीच-बीच में छेड़खानी भी करता रहा किन्तु मेरा मित्र सस्मित मौन बना रहा-मानो, सबके मजे ले रहा हो।

बातों ही बातें में पता ही नहीं चला कि कब चाय आ गई और कब डेड़ बज गया। हमारे वाणी-विलास को बाधित किया कार्यालय के उप प्रमुख ने। अंकेक्षक-दल के प्रमुख को सम्बोधित करते हुए उसने कहा - ‘सर! लंच टाइम हो गया। चलिए! भोजन कर लीजिए।’ चारों उठ गए। मित्र को अविचल देख मैंने कहा - ‘मेरी वजह से तू अपना खाना खराब मत कर। तू भी जा और सबके साथ भोजन का आनन्द ले।’

मित्र ने जो कुछ बताया उसका सार यह था कि वह तो अपना भोजन साथ लेकर आता है और जहाँ तक ‘सबके साथ’ याने अंकेक्षकों के साथ भोजन करने की बात है तो उन्हें तो कार्यालय उप प्रमुख होटल में ले गया है। भोजन/आवास आदि के लिए अंकेक्षकों को यद्यपि प्रतिदिन का ‘भाड़ा भत्ता’ अलग से मिलता है किन्तु यह रकम तो उनकी ‘शुद्ध बचत’ होती है। अंकेक्षण के दौरान चारों ही दिन उनके आवास और भोजन की व्यवस्था कार्यालय खर्च पर की जाती है। इतना ही नहीं, कभी-कभार किसी ‘जरूरतमन्द’ अंकेक्षक केे परिवार के लिए कुछ आवश्यक खरीदी भी कार्यालय खर्च से करवाई जाती है। किन्तु कार्यालय की किताबों में यह खर्च इसी नाम से नहीं नहीं लिखा जाता। और यह भी कि ऐसा केवल मेरे मित्र के इस कार्यालय में नहीं होता। समस्त शासकीय, अर्द्ध शासकीय कार्यालयों में यही ‘चलन’ है। इस ‘परम्परा’ की भनक तो मुझे थी किन्तु इसकी आधिकारिक पुष्टि पहली ही बार हुई। मुझे अटपटा लगा।

मित्र ने अपना टिफिन खोला मुझे भोजन नहीं करना था। मुझे तो चले आना चाहिए था। हमारा मिलना हो चुका था और मुझे वहाँ कोई काम भी नहीं था। किन्तु मैं सोद्देश्य बैठा रहा। मित्र भोजन करता रहा और मैं उसे देखता रहा।

कोई पौन घण्टे बाद चारों अंकेक्षक लौटे। मैंने छूटते ही पूछा कि मेरे मित्र ने जो कुछ बताया था वह सच है? तीन तो चुप रहे किन्तु जो मुझे जानते और मुझसे प्रभावित थे, उन्होंने बहुत ही सहज भाव मेरे मित्र की बातों की पुष्टि की। मैंने पूछा - ‘इसके बाद भी आप भ्रष्टाचार का विरोध और अण्णा का समर्थ कर लेते हैं?’ उन्हें मेरा सवाल असम्बद्ध लगा। प्रतिप्रश्न किया - ‘इससे भ्रष्टाचार के विरोध और अण्णा के समर्थन का क्या लेना-देना?’ मैंने कहा - ‘आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार ही तो है?’ वे चौंके - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? यह तो पूरे देश में, सारे दफ्तरों में हो रहा है!’ मैंने कहा - ‘याने जो अनुचित काम सारे देश में और प्रत्येक दफ्तर में हो रहा हो, वह भ्रष्टाचार नहीं है?’ जवाब आया - ‘बिलकुल नहीं। यह तो शिष्टाचार है। सब कर रहे हैं।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर सारे देश के, सारे राजनीतिक दलों के नेता और तमाम अफसर जो अनुचित कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार क्यों है? वह शिष्टाचार क्यों नहीं?’ उन्होंने कहा - ‘वे सब तो बड़ी-बड़ी तनख्वाह लेते हैं, दुनिया भर के ऐश-ओ-आराम उठाते हैं, सारी जनता उनकी सेवा करती है। उन्हें क्या कमी है? उन्होंने भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए।’ मैंने पूछा - ‘याने, किसी कर्मचारी का भ्रष्टाचार केवल इसलिए भ्रष्टाचार नहीं है क्योंकि वह कर्मचारी है और उसका वेतन नेताओं/अफसरों के मुकाबले कम है?’ वे बोले - ‘और नहीं तो क्या?’ मेरी सूरत निश्चय ही दर्शनीय हो गई होगी। लगभग हकलाते हुए पूछा - ‘आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं या बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध?’ उन्होंने आत्म विश्वास से कहा - ‘बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध।’ तनिक साहस जुटा कर मैंने कहा - ‘किन्तु अण्णा तो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं!’ इस बार उन्होंने मुझे ‘चारों कोने चित्त’ कर दिया। बोले - ‘आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी! जरा ध्यान से दखिए, पढ़िए और सुनिए। पूरा देश नेताओं के भ्रष्टाचार से दुखी है। पूरे देश को बेच खाया है लोगों ने। अण्णा इन्हीं मन्त्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार का विरोध तो कर रहे हैं! पूरा देश इसीलिए तो उनके साथ हुआ है!’

मेरे पास सवाल तो और भी थे किन्तु मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी। मेरा मित्र अभी भी, पूर्ववत् सस्मित सारा सम्वाद सुन रहा था और अभी भी चुप था। मैंने सबको नमस्कार किया। विदा ली। उठने में अत्यधिक कठिनाई हुई। मित्र के दफ्तर से बाहर आया तो आँखों के आगे अँधेरा सा छाया हुआ था।


मैंने आँखें मसलीं तो मुझे अण्णा का चेहरा नजर आया। बस, उनके होठों पर सदा विराजमान मुस्कुराहट गैर हाजिर थी।

‘अण्णा’ ही बने रहिए अण्णा

शुक्रवार, 8 जुलाई की रात 8 बजे मैंने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर लिखा - ‘हे भगवान! अण्णा को शहीद होते देखने को उतावले मूर्ख मित्रों से बचाना। हमें अण्णा की आवश्यकता है।’ मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस टिप्पणी पर (मेरी ‘प्रति प्रतिक्रियाओं’ सहित) 20 से अधिक प्रतिक्रियाएँ दर्ज हुईं। मैं आत्म-मुग्ध होने ही वाला था कि मेरे विवेक ने टोका - ‘अपने कपड़ों में रहो! विषय की महत्ता के चलते तुम्हें ये प्रतिक्रियाएँ मिली हैं, तुम्हारी बात पर नहीं।’ और मैं खुद पर इतराने की आत्मघाती मूर्खता से बच गया।

तीन प्रतिक्रियाएँ मुझे महत्वपूर्ण लगीं। मेरी टिप्पणी दर्ज होने के 22 मिनिट बाद ही डॉक्टर प्रदीपजी त्रिवेदी (ई-मेल pk_trivedi@rediffmail.com मोबाइल नम्‍बर 9425106549) ने दो हिस्सों में लिखा -‘ये बात मुझे समझ में नहीं आती कि अण्णा और उनकी टीम तथा बाबा रामदेव चुनाव क्यों नहीं लड़ना चाहते? यदि बदलाव लाना है तो संसद से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। बजाय अनशन करने के।’

प्रसंगवश उल्लेख है कि डॉक्टर त्रिवेदी नीमच के हैं और मेरे पॉलिसीधारक भी। ‘प्रति प्रतिक्रिया’ में मैंने लिखा - ‘डॉक्टर त्रिवेदी साहब! यह सवाल केवल आपका नहीं, असंख्य लोगों का है। लेकिन यह सवाल सबसे अन्त में पूछे जानेवाला है। मौजूदा चुनाव प्रणाली में केवल बाहुबली, धनबली और ऐसे ही अन्य बली ही जीत सकते हैं। अण्णा की माँग और नीयत पर मुझे कोई सन्देह नहीं है किन्तु मैं यह भी मान रहा हूँ कि लोकपाल से पहले चुनाव सुधारों पर काम किया जाना चाहिए। लोकपाल तो भ्रष्टाचार हो जाने के बाद हरकत में आएगा जबकि यदि वाजिब चुनाव सुधार हो जाएँ तो मुमकिन है, लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं रहे। किन्तु इसके बाद भी, मैं अण्णा के साथ इस नीयत से हूँ कि लोगों ने इस बारे में सोचना तो शुरु किया। बहुत जल्दी मैं चुनाव सुधारों पर अपने मन की बात लिखनेवाला हूँ। आप पढेंगे तो शायद मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। मुझ पर नजर बनाए रखिएगा।’

लम्बे समय से मैं चुनाव सुधारों पर अपनी बात लिखना चाह रहा हूँ किन्तु हर बार आलस्य का शिकार हो रहा हूँ। ‘जन लोकपाल मसविदे’ को लेकर देश में जो उद्वेलन छाया हुआ है, उसे देखते हुए मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ कि यदि वांच्छित चुनाव सुधार हो जाते तो परिदृष्य कुछ दूसरा ही होता। तब, लोकपाल और लोकपाल का कार्यालय उपेक्षित (और लगभग अनावश्यक) रहता। कोई पूछनेवाला शायद ही मिलता। यह मेरी ऐसी धारणा है जिस पर आज खुल कर हँसने का अधिकार और सुविधा सबको उपलब्ध है किन्तु मुझे विश्वास है कि चुनाव सुधारों से सम्बन्धित मेरे मन्तव्य निश्चय ही सबको अपना दृष्टिकोण बदलने को विवश करेंगे। किन्तु यह तभी हो सकेगा जब मैं आलस्य से मुक्ति पाऊँ।

दूसरी प्रतिक्रिया श्री अनीक गुप्ता( http://facebook.com/ANEEKGUPTA) की आई। यह भी दो अंशों में रही। पहला भाग सीधा-सपाट, दो-टूक था - ‘क्षमा करें श्रीमान्! वे (अण्णा) संसदीय लोकतन्त्र को नकारते हैं।’ दूसरा हिस्सा तनिक आक्रोशभरा और अण्णा तथा उनके साथियों की बखिया उधेड़नेवाला है। गुप्ताजी ने जो कुछ लिखा, उसकी अधिकांश बातें मैं पहले से ही जानता हूँ। यह दूसरा हिस्सा मैं यहाँ उद्धृत नहीं कर रहा। क्योंकि गुप्ताजी से सहमत और अण्णा से आंशिक रूप से असहमत होने के बावजूद मैं अण्णा की नीयत पर सन्देह नहीं करना चाह रहा। चाह रहा हूँ कि अण्णा के अभियान को पूरी न सही, आंशिक सफलता तो मिले ही मिले। इसलिए मैंने गुप्ताजी से उनका ई-मेल पता और फोन नम्बर माँगा जो उन्होंने उपलब्ध करा दिया। उनसे, अलग से अपनी बात कहूँगा।

किन्तु आशीष कुमार ‘अंशु’ (ई-मेल ashishkumaranshu@gmail.com मोबाइल - 9868419453) ने मानो मेरे मन का चोर पकड़ लिया। अगले दिन, शनिवार को दोपहर लगभग दो बजे उन्होंने लिखा - जिस अन्ना की आपको आवश्यकता है, वह ‘अन्ना’ बने रहें, इस बात की अधिक आवश्यकता है। ‘बहुत मुश्किल है दुनियाँ में बड़े बनकर बने रहना।’ उन्हें मेरा जवाब था - ‘दोपहर तक तो मैं आपसे सहमत न होता किन्तु दोपहर बाद समाचार चैनलों पर अण्णा को सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हुए देख कर मुझे आपसे सहमत होना पड़ रहा है। अण्णा को खुद को लोकपाल मसविदे तक सीमित रखना चाहिए।’

ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा है, त्यों-त्यों अण्णा अनावश्यक, अप्रासंगिक, असम्बद्ध वक्तव्य देते नजर आ रहे हैं। वे सरकार और मन्त्रियों पर आरोप लगा रहे हैं, व्यंग्योक्तियाँ कर रहे हैं, उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। वे सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग कर रहे हैं और 65 वर्ष से अधिक के राजनेताओं को स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति का परामर्श दे रहे हैं। अनायास ही लगने लगता है कि असम्बद्ध-अप्रासंगिक-अनावश्यक वक्तव्यबाजी करने का ‘रामदेव प्रभाव’ कहीं अण्णा पर तो नहीं आ गया? इन सब बातों से ‘जन लोकपाल मसविदे’ का क्या लेना-देना? मुझे डर लग रहा है कि ये तमाम बातें, अण्णा के अभियान को गम्भीर क्षति पहुँचा सकती हैं। ऐसी बातें सुन-सुन कर सरकार और उसके मन्त्री खुश ही होते होंगे। ऐसी बातें, मुद्दे को पीछे धकेलने में और विषय को बदलने में अत्यधिक सहायक होंगी। सरकार और उसके मन्त्री यही तो चाहते हैं!

सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से निकालने की, अण्णा की माँग चौंकानेवाली है। सिब्बल के प्रति व्यक्तिगत अरुचि के सिवाय और कोई कारण इस माँग पीछे नजर नहीं आता। अण्णा को याद रखना पड़ेगा कि लोग उन्हें गाँधी से जोड़ते हैं और उनमें गाँधी की न केवल छवि देखते हैं अपितु अपेक्षा भी करते हैं कि अण्णा का आचरण गाँधी जैसा हो। गाँधी ने निजी बैर भाव को अपने चिन्तन, मनन, वचन, आचरण में कभी स्थान नहीं दिया। उन्होंने जब भी, जो कुछ भी कहा, सदैव ही वृत्ति को केन्द्र में रखकर ही कहा। नील की खेती को लेकर चलाए अपने आन्दोलन में गाँधी ने किसानों के लिए न्याय माँगा था - नीलगर किसानों को बन्दी बनाकर और उन पर अत्याचार करनेवाले अंग्रेजों के विरुद्व किसी कार्रवाई की माँग नहीं की थी। यहाँ अण्णा जब सिब्बल को मन्त्रिमण्डल से बाहर करने की माँग करते हैं तो वे गाँधी को परे धकेल कर, निजी घृणा-अप्रसन्नता को परवान चढ़ाते नजर आते हैं।

ऐसी बातें और ऐसी स्थितियाँ अण्णा और उनके साथियों के विरुद्ध व्यक्तिगत मोर्चे खोलेंगी। होना तो यह चाहिए कि मामले को केवल जन लोकपाल मसविदे तक ही सीमित और उसी पर केन्द्रित रखा जाए। यदि मन्त्रियों पर व्यक्तिगत छींटाकशी की जाएगी, उनकी जग हँसाई की जाएगी और सरकार तथा मन्त्रियों को गरियाया जाएगा तो अण्णा के साथियों की कमजोरियों को मुख्य विषय बनाकर लोकपाल को पार्श्व में धकेल दिया जाएगा। तब, व्यापक जनहितों को लेकर चल रहे आन्दोलनों से इन लोगों की दूरी, इन लोगों को मिलनेवाली आर्थिक सहायता के स्रोतों की शुचिता, केवल सरकारी भ्रष्टाचार पर हमला करना और कार्पोरेट भ्रष्टाचार से आँखें चुराना आदि को मुख्य विषय बनाकर वह दशा कर दी जाएगी कि इन लोगों को बोलना मुश्किल हो जाएगा। तब, अभियान की दिशा भले ही न बदले, ‘दशा’ बदलने का खतरा अवश्य पैदा हो जाएगा।

इसलिए यह केवल जरूरी नहीं, अनिवार्य है कि अण्णा खुद को केवल लोकपाल मसविदे तक ही सीमित रखें। कोई कुछ भी कहे, कुछ भी करे, उन्हें कितना ही उकसाए, उत्तेजित करे, करने दें। कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करें। मुद्दे को भटकने न दें। याने जैसा कि भाई आशीष कुमार ‘अंशु’ ने कहा है - अण्णा केवल ‘अण्णा’ ही बने रहें। वे यदि रंचमात्र भी अण्णा से इतर कुछ और हो गए बेड़ा गर्क और सब कुछ तो बण्टाढार हो जाएगा।

नाव की दिशा में यदि एक अंश (डिग्री) का अन्तर आ जाए तो उसके गन्तव्य में कुछ मीटरों का ही अन्तर होगा। किन्तु दिशा में एक अंश (डिग्री) का यही बदलाव, जहाज के गन्तव्य में सैंकड़ों मीलों का अन्तर ला देता है। तब, ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ वाली स्थिति हो जाती है।

सो! अण्णा!! मेरी नहीं, ‘अंशु’ की सुनिए। अण्णा ही बने रहिए।

व्यवस्थित शोकसभा

क्या सम्वेदनाएँ भी ‘तकनीकी’ हो सकती हैं? इन्हें ‘सेवा शर्तों’ का हिस्सा बनाया जा सकता है? शायद नहीं। ‘शायद’ क्या, बिलकुल ही नहीं। एक समाचार पढ़कर ये सवाल मेरे मन में उभरे। समाचार पढ़कर पहले तो मैं ठठाकर हँसा था - अकेले में ही। किन्तु अगले ही क्षण उदास हो गया था।

समाचार के अनुसार, मेरे कस्बे के महाविद्यालय के, चतुर्थ श्रेणी के एक कर्मचारी के पिता का निधन हो गया। कर्मचारियों ने शोक सभा करने का निर्णय लिया। किन्तु शोक सभा में छोटा सा हंगामा हो गया। शोक सभा में बहुत ही कम लोग उपस्थित थे। प्राध्यापक समुदाय तो लगभग पूरा का पूरा अनुपस्थित था - कोई पचपन प्राध्यापकों में से कुल दो ही उपस्थित थे। इसके विपरीत, महाविद्यालय में कार्यरत तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के अतिरिक्त, कस्बे के विभिन्न शासकीय कार्यालयों के, इन वर्गों के कर्मचारी संगठनों के अनेक पदाधिकारी उपस्थित थे।


यह देखकर, चतुर्थ श्रेणी के सारे कर्मचारी उत्तेजित और आक्रोशित हो गए। शोक सभा का मूल भाव तिरोहित हो गया और स्थिति ‘कर्मचारी आन्दोलन’ जैसी बन गई। कुछ क्षण तो स्थिति यह हो गई कि लोग, दिवंगत को भूल गए और अनुपस्थितों को ही याद करने लगे। प्राध्यापकों की न केवल प्राध्यापकों की अनुपस्थिति पर अपितु प्राचार्य द्वारा शोक सभा का समय सायंकाल पाँच बजे रखने पर भी आपत्ति जताई, क्योंकि उस समय सारे प्राध्यापक जा चुके होते हैं। कर्मचारियों का कहना था कि शोक सभा जल्दी, उस समय रखी जानी चाहिए थी जब प्राध्यापकों सहित समस्त कर्मचारी उपस्थित रहते हैं। इस स्थिति को ‘छोटे कर्मचारियों के प्रति उपेक्षा और असम्मान’ तथा ‘मौत-मरण के सम्वेदनशील मामलों में भेदभाव’ निरूपित किया गया।

शाक सभा में उपस्थित, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ग के कर्मचािरयों ने तथा इन वर्गों के विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों ने, महाविद्यालय के प्राचार्य से ‘विधिवत औपचारिक भेंट’ कर अपनी अप्रसन्नता और प्रतिवाद प्रकट किया। प्रत्युत्तर में, प्राचार्य ने आश्वस्त किया कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा और आगे से ‘व्यवस्थित शोकसभा’ आयोजित की जाएगी।



यह न तो प्राध्यापकों की अनुपस्थिति का बचाव है और न ही कर्मचारियों के व्यवहार पर आपत्ति। हमारी खुशी में लोग शरीक हों, यह हम सबकी इच्छा भी होती है और अपनी इस इच्छा पूर्ति हेतु हम यथासम्भव प्रयास भी करते हैं। आमन्त्रितों से किए जानेवाले आग्रह हमारी इन्हीं कोशिशों का हिस्सा होते हैं और न आने पर हमारी अप्रसन्नता और उलाहना देते हुए इस अप्रसन्नता का प्रकटीकरण हमारा अधिकार भी होता है। किन्तु हमारे शोक में किसी के आने न आने पर यह स्थिति नहीं होती। ऐसे प्रसंगों पर, अपनों की उपस्थिति की अपेक्षा हम सबको होती तो है किन्तु किसी के न आने पर उलाहना देने या कि अप्रसन्नता जताने की अपनी भावनाएँ हम सब दबा लेते हैं।


किन्तु यह उदाहरण हमारे लोक मानस में आ रहे परिवर्तन का, सचेत करनेवाला उदाहरण है। इस परिवर्तन का आधार क्या हो सकता है? कोई आर्थिक-सामाजिक कारण है या शासक-शासित के बीच स्थापित असन्तोष इसका कारण है?

चिड़िया से मात खा गया मुख्यमन्त्री

पहले एक लोकप्रिय बोध-कथा।


जंगल में भीषण आग लगी हुई थी। हर कोई अपने-अपने संसाधनों से, अपनी-अपनी क्षमतानुरूप, आग बुझाने के जतन कर रहा था। इस भागदौड़ के बीच लोगों ने देखा कि एक नन्हीं सी चिड़िया बार-बार जल-स्रोत तक जाकर अपनी चोंच में एक बूँद पानी लाकर, आग पर डाल रही है। लोगों ने उसका उपहास उड़ाते हुए पूछा - ‘तू समझती है कि तेरी इस एक-एक बूँद से यह भीषण आग बुझ जाएगी?’ चिड़िया ने अविलम्ब उत्तर दिया - ‘मैं खूब जानती हूँ कि मेरी कोशिशों से यह विकराल आग नहीं बुझनेवाली।’ सवाल पूछनेवाले अचकचा गए। उन्होंने हैरत से पूछा - ‘तो फिर?’ चिड़िया ने उत्तर दिया - ‘तो फिर क्या? यही कि आग बुझने के बाद जब-जब इस दावानल की चर्चा होगी तब-तब मेरा नाम आग बुझाने की कोशिशें करनेवालों में होगा, दूर से तमाशा देखनेवालों में नहीं।’

अब एक पीड़ादायक सचाई।

जन सामान्य के कष्टों की परवाह किए बिना, केन्द्र सरकार ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए, डीजल, रसोई गैस के दाम बढ़ा दिए। पूरे देश में ‘त्राहि-त्राहि‘ मच गई। दुबले पर दो आषाढ़’ और ‘कोढ़ में खाज’ जैसी लोकोक्तियाँ भी अपर्याप्त अनुभव होने लगीं। केन्द्र सरकार ने अनसुनी करते हुए, बढ़ी कीमतें वापस न लेने की ‘जन विरोधी दृढ़ता’ दिखाई। हाँ, राज्य सरकारों से (और विशेष कर काँग्रेस शासित राज्य सरकारों से) आग्रह किया वे पेट्रो उत्पादों पर अपने करों में कमी कर, मँहगाई को नियन्त्रित करने और लोगों को राहत देने की कोशिशें करें। कुछ राज्य सरकारों ने फौरन ही यह नेक काम किया तो कुछ ने, कुछ दिनों बाद। प्रशंसनीय बात यह रही कि केवल काँग्रेस शासित राज्य सरकारों ने ही नहीं, अन्य दलों की कुछ राज्य सरकारों ने भी अपनी राजस्व आय में कटौती करते हुए लोगों को राहत दी। डीजल के मामले में यह राहत 27 पैसों से लेकर 77 पैसों तक रही।

किन्तु मध्य प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। उल्लेखनीय बात यह है कि पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस पर, पूरे देश में सर्वाधिक कर मध्य प्रदेश में ही लगे हुए हैं। याने, जब-जब भी इन पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ती हैं, तब-तब, मध्य प्रदेश सरकार की आय अपने आप बढ़ जाती है - बिना कोई अतिरिक्त कर लगाए और कर दरों में बढ़ोतरी किए बिना। लोगों ने जब मध्य प्रदेश के वित्त मन्त्री से माँग की तो उन्होंने, प्रदेश के नागरिकों के लिए लागू की गई विकास योजनाओं के बजट प्रावधानों का हवाला देते हुए, कर हटाने या कर दरें कम करने से, दो-टूक इंकार कर दिया। उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने भी अपने बजट को खस्ता हाल होने से बचाने के लिए (याने, पेट्रो उत्पादों के विपणन, वितरण में लगी कम्पनियों को, इन उत्पादों पर दी जा रही सबसीडी के कारण होते चले आ रहे घाटे में कमी करने के लिए) इनकी कीमतें बढ़ाने की विवशता जताई थी। याने, अपने बजट की चिन्ता करते हुए केन्द्र सरकार ने कीमतें बढ़ाईं और अपने बजट की चिन्ता करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने कर दरें कम करके, अपने नागरिकों को राहत देने से इंकार कर दिया। यह रोचक विसंगति ही है कि अपने बजट की चिन्ता करते हुए मध्य प्रदेश सरकार लोगों को राहत देने को तैयार नहीं और केन्द्र सरकार द्वारा कीमतें बढ़ाए जाने के विरोध में पूरी की पूरी सरकार विरोध में आ गई। यह तथ्य भूल गई कि केन्द्र सरकार ने भी बजट के नाम पर ही यह सब किया है। याने, प्रदेश सरकार ने अपने बजट को बजट माना और केन्द्र सरकार के बजट को बजट नहीं माना। ऐसी दोहरी बातों का आधार और उद्देश्य ‘वोट की राजनीति’ के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?

किन्तु यह तो कुछ नहीं। चौंकाने वाली गम्भीर और विचारणीय बात मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री ने कही। करों में कमी कर लोगों को राहत देने की माँग पर मुख्यमन्त्री ने कहा कि यह कमी इतनी कम होगी कि लोगों को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा।

यह तर्क मात्र एक तर्क नहीं है। यह समूची मानसिकता प्रतिबिम्बित करता है।

केन्द्र और मध्य प्रदेश की सरकारें, परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों की हैं। इसी कारण, मध्य प्रदेश के सत्तारूढ़ दल ने, अपने केन्द्रीय नेतृत्व के निदेशों के परिपालन में, पूरे मध्य प्रदेश में, सड़कों पर आकर मूल्य वृद्धि का विरोध किया और पुतले जलाए। यहाँ तक तो ठीक था। किन्तु अपने राज्य के लोगों को राहत देने से इंकार करने के लिए मुख्य मन्त्री ने जो तर्क दिया, वह ‘वोट केन्द्रित राजनीति’ की मानसिकता के अधीन, राजनीति के क्रूर और अमानवीय हो जाने का संकेत देता है। केन्द्र सरकार द्वारा की गई मूल्य वृद्धि से लोग परेशान होंगे जिसका सीधा फायदा (‘सीधा फायदा’ याने ‘चुनावीजीत के लिए वोट का फायदा’), प्रदेश के सत्तारूढ़ दल हो होगा। राज्य सरकार द्वारा दी गई राहत को लोग शायद ही याद रखें (क्योंकि ऐसे ‘उपकारों’ को भूलने के मामले हम भारतीय ‘अद्भुत’ हैं) किन्तु केन्द्र सरकार के अत्याचार को तो नींद में भी याद रखेंगे। इसलिए, लोगों का परेशान रहना ही ‘लाभदायक’ रहेगा। इंकार करने के मामले में मुख्यमन्त्री के मुकाबले वित्त मन्त्री अधिक ईमानदार रहे। उन्होंने बजटीय प्रसवधानों की वास्तविकता के आधार पर इंकार किया जबकि मुख्यमन्त्री ने जो कुछ कहा उसे तो ‘लचर तर्क’ भी नहीं कहा जा सकता। इंकार के लिए कहे गए शब्दों के पीछे की मानसिकता का आधार केवल वोट का फायदा रहा।

अपने नागरिकों की चिन्ता के मामले में मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री यहीं मात खा गए। उनका नाम राहत देने की कोशिशें करनेवालों में नहीं, लोगों को त्रस्त दशा में बनाए रखनेवालों में या कि ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को परे धकेलकर वोट की फसल काटने को आतुर, लालची किसान के रूप में अंकित हो गया।


एक प्रदेश का अधिकार सम्पन्न मुख्यमन्त्री एक नन्हीं सी, अज्ञात, अनाम, अचिह्नित चिड़िया से मात खा गया।

नहीं अण्णा! 16 से अनशन बिलकुल नहीं

सरकार द्वारा ‘अच्छा लोकपाल विधेयक’ प्रस्तुत न करने की दशा में, 16 अगस्त से, अण्णा के अनशन पर बैठने का निर्णय, अण्णा-समूह को, निम्नांकित कुछ ‘जग जाहिर’ कारणों से, फिलहाल स्थगित कर देना चाहिए -


- चार जुलाई की सर्वदलीय बैठक में यह बात साफ हो गई है कि जिन 6 मुद्दों पर अण्णा-समूह और केन्द्र सरकार में असहमति बनी हुई है, उनमें से, कम से कम 5 मुद्दों पर लगभग सारे के सारे दल, केन्द्र सरकार के साथ हैं। केवल, लोकपाल के दायरे में प्रधानमन्त्री को लाए जानेवाले (एक ही) मुद्दे पर कुछ दल सहमत हैं।

- यह भी साफ है कि ‘अच्छे लोकपाल विधेयक’ की बात करनेवाली काँग्रेस और केन्द्र सरकार वैसा विधेयक तो नहीं ही लाएगी जैसा कि अण्णा-समूह चाहता है।


- कोई भी (एक भी) दल, उस मसविदे के शब्दशः समर्थन में नहीं है जो अण्णा-समूह ने प्रस्तुत किया है।

- रोचक, विसंगत और हास्यास्पद बात यह है कि भाजपा सहित प्रत्येक राजनीतिक दल ‘मजबूत लोकपाल विधेयक’ की बात तो कर रहा है किन्तु कोई भी नहीं बता रहा कि ‘मजबूत लोकपाल विधेयक’ से उसका आशय क्या है।


- जाहिर है, प्रत्येक राजनीतिक दल इसकी आड़ में अपनी-अपनी राजनीति रोटियाँ सेकने की सुविधा अपने पास सुरक्षित रख रहा है।

- यदि इन सबकी नीयत साफ है तो ये सब, ‘मजबूत लोकपाल विधेयक’ की अपनी-अपनी व्याख्या स्पष्ट क्यों नहीं कर रहे?


- जाहिर है कि इनमें से कोई भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के लिए गम्भीर और ईमानदार नहीं है। राष्ट्रहित की रक्षा और भ्रष्टाचार का विरोध इनका लक्ष्य बिलकुल ही नहीं है।

- केन्द्र सरकार और काँग्रेस की मजबूरी नहीं होती तो वह भी अपने मसविदे के मुख्य बिन्दु सार्वजनिक नहीं करती।


- हम सबको भले ही बुरा लगे और हमें चिढ़ छूटे, यह बात तो सच है कि बड़बोले सिब्बल समेत तमाम सत्ताधारियों ने, विधेयक को मानूसन सत्र में प्रस्तुत करने की बात कही थी। इसी सत्र में पारित कराने की बात तो किसी ने, कभी नहीं कही।

- ऐसे में (जबकि एक भी दल, अण्णा-समूह के ‘जन लोकपाल मसविदे’ के शब्दशः समर्थन में नहीं है) सामान्य समझ वाला प्रत्येक आदमी भली प्रकार जानता-समझता है कि सरकार तो वही मसविदा प्रस्तुत करेगी जो उसे (और तमाम राजनीतिक दलों को) अनुकूल तथा सुविधाजनक होगा।


- इस मसविदे के आधार पर यदि अण्णा 16 अगस्त से अनशन पर बैठ गए तो तमाम राजनीतिक दल, अण्णा का नाम लेकर, अण्णा की दुहाई दे-दे कर सरकार की खटिया खड़ी करके अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने में लग जाएँगे।

- इस स्थिति में, अण्णा पर यह आरोप चस्पा कर दिया जाएगा कि वे सरकार के विरोध में, विरोधी दलों के हाथों में खेल रहे हैं।


- सरकार यही चाहती है कि अण्णा के अभियान को विरोधी दलों का अभियान साबित घोषित कर दिया जाए।

- अण्ण-समूह, सरकार की यह ‘शुभेच्छा’ पूरी होनेे का सुनहरा मौका उपलब्ध न कराए।


- अच्छा होगा कि, सरकारी प्रस्ताव पर, संसद में बहस होने दी जाए। तब प्रत्येक राजनीतिक दल के पत्ते जाजम पर सामने आ जाएँगे।

- तब हम भौंचक्के होकर देखेंगे कि वे तमाम लोग, जो आज अण्णा की आड़ लेकर सरकार और काँग्रेस पर हमला कर रहे हैं, ‘अण्णा-लाइन’ के बजाय ‘पार्टी लाइन’ पर बोल रहे हैं।


- इसके बाद ही अण्णा-समूह की ‘मूल पूँजी’ सामने आ सकेगी।

- पूरा चित्र स्पष्ट होने के बाद ही अगले कदम के बारे में विचार किया जाना बेहतर और श्रेयस्कर होगा।


- इसलिए, इस क्षण तो यही उचित अनुभव हो रहा है कि 16 अगस्त से, अण्णा के अनशन पर बैठने के निर्णय को, अण्णा-समूह स्थगित करे।

लगे हाथों कुछ बातें और।


- यह स्पष्ट है कि अण्णा-समूह वाला प्रस्तावित ‘जन लोकपाल मसविदा’ भी यदि शब्दशः लागू हो जाए तो भी इस देश से भ्रष्टाचार मिटेगा नहीं। ‘लोकपाल’ कैसा भी हो, वह भ्रष्टाचार हो जाने के बाद ही हरकत में आ सकेगा। याने, ‘लोकपाल’ भ्रष्टाचार की जड़ो पर प्रहार नहीं करता। वह तो भ्रष्टाचार की फुनगियों की छँटाई मात्र करता है।

- ऐसे में, भ्रष्टाचार को जड़ों से नष्ट करने के लिए, चुनाव सुधारों सहित अन्य उपायों पर ध्यान देना और उन्हें लागू कराना अनिवार्य होगा।


- ‘मजबूत लोकपाल मसविदे’ के साथ-साथ इन ‘अन्य उपयों’ पर भी अभी से विचार शुरु करना श्रेयस्कर होगा।

बुरी नीयत से किया अच्छा काम

मैं जयललिता को बधाई और धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने तमिलनाडु में विधान परिषद् के गठन का निर्णय निरस्त कर दिया। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि मैं जयललिता की राजसी जीवन शैली, उनकी मनमानी और उनके भ्रष्टाचार का समर्थन कर रहा हूँ। भली प्रकार जानता हूँ उन्होंने यह निर्णय जनता की भलाई के लिए नहीं, करुणानिधि से प्रतिशोध लेने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए लिया है। किन्तु अन्ततः इससे, जन-धन की स्थायी रूप से होने वाली हानि रुकेगी और तमिलनाडु के लोगों को एक विधायी सदन में होनेवाली राजनीतिक नौटंकियों से मुक्ति मिलेगी।

राज्य सभा और विधान परिषदें अपनी मूल अवधारणा खो चुकी हैं और आज ये संस्थाएँ राजनीतिक तुष्टिकरण और अपनेवालों को लाभान्वित करने का माध्यम बन कर रह गई हैं। इनके गठन का मूल लक्ष्य पूरी तरह से परास्त कर दिया गया है।

इन विधायी सदनों की परिकल्पना इसलिए की गई थी कि देश को, अपने-अपने क्षेत्र के उन विशेषज्ञों और विद्वानों का योगदान मिल सके जो चुनाव लड़ने की और जीतने की कला नहीं जानते या जो चुनावी राजनीति से दूर रहते हैं। किन्तु आज वैसा लेश मात्र भी नहीं है। राज्य सभा अब राज्य सभा नहीं रह गई है। आज तो वहाँ, मतदाताओं द्वारा नकारे गए लोग नजर आते हैं। सारी दुनिया जानती है कि प्रधानमन्त्री मनमोहनसिंह दिल्ली के निवासी हैं किन्तु राज्य सभा में वे असम का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ऐसा यह इकलौता उदाहरण नहीं है। तमाम राजनीतिक दल इस पाखण्ड को निभाए जा रहे हैं। हमें भी कहाँ अन्तर पड़ रहा है?


कहते हैं कि भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। अच्छा हुआ जो मुझे वे अधिकार और शक्तियाँ नहीं मिली हैं जिनके दम पर मैं ‘कुछ’ कर पाता। तब मैं, राज्य सभा और विधान परिषदों को उनके मूल स्वरूप् में ले आता और यदि ऐसा नहीं कर पाता तो फिर इन सबको स्थायी रूप से भंग कर देता।

.....तो जेपी और अण्णा की जरुरत नहीं होती

आजादी मिलने के बाद के पहले ही क्षण से हम यदि निरन्तर वैसा की करते जैसा जय प्रकाश भट्ट ने किया तो हमारे तमाम नेताओं का दिमाग दुरुस्त रहता, वे उच्छृंखल, अनियन्त्रित न होते, सब पटरी पर और अपने कपड़ों में ही रहते, हमें कभी भी जेपी या अण्णा की आवश्यकता नहीं होती और हम वे सारे अधिकार, सुख-सुविधा भोग रहे होते जिनसे वंचित किए जाने का रोना, चौबीसों घण्टों रोते रहते हैं।

जय प्रकाश भट्ट को मैं नहीं जानता। वे मेरे कस्बे के एक वकील हैं और उनका नाम मैंने पहली बार गए दिनों अखबारों से जाना। उन्होंने अनुभव किया कि उनकी वार्ड पार्षद अपने तमाम चुनावी वादे भूल गई हैं और वादे पूरे करना तो दूर, वार्ड में अपनी शकल दिखानी भी बन्द कर दी है। भट्ट साहब के अनुसार, पार्षद की इस अकर्मण्यता और वचन-भंग के कारण पूरा वार्ड समस्याग्रस्त और वार्ड के रहवासी परेशान हो गए। मुझे नहीं पता कि भट्ट साहब ने पार्षद से कितनी बार सम्पर्क किया या कि सम्पर्क किया भी या नहीं किन्तु एक दिन अखबारों में पढ़ा कि उन्होंने अपनी वार्ड पार्षद को कानूनी सूचना पत्र दिया जिसमें कहा गया था कि वे अपने चुनावी वादे पूरे करने में असफल हो रही हैं और वार्ड के रहवासी आधारभूत सुविधाओं से वंचित तथा त्रस्त हो गए हैं इसलिए क्यों नहीं उन्हें पार्षद पद से पृथक करने की कार्रवाई की जाए? अखबारों के अनुसार (जिसकी पुष्टि भट्ट साहब ने मुझे फोन पर की), इस कानूनी नोटिस का ‘बिजली जैसा असर’ हुआ और वार्ड पार्षद न केवल वार्ड में प्रकट हुईं अपितु वार्ड की समस्याएँ हल होनी भी शुरु हो गईं। भट्ट साहब को फोन मैंने ही किया था। उन्होंने बताया कि पार्षद पति ने उनसे व्यक्तिशः सम्पर्क कर न केवल खेद प्रकट किया अपितु यह भी बताया कि निगम प्रशासन किस तरह उनकी पत्नी (वार्ड पार्षद) की अनदेखी, अनसुनी और उपेक्षा करता है। बहरहाल, भट्ट साहब सन्तुष्ट भी हैं और प्रसन्न भी। मैंने उन्हें पहले बधाई दी, फिर धन्यवाद दिया और आग्रह किया कि वे अपनी यह सक्रियता भविष्य में भी बनाए रखें और यदि मुझ जैसा कोई काम हो तो अवश्य बताएँ।


भट्ट साहब के अनुसार, किसी वार्ड पार्षद को इस प्रकार कानूनी नोटिस देने का, मध्य प्रदेश में यह अब तक का पहला ही प्रकरण है। मुझे पूरा भरोसा है कि भट्ट साहब के वार्ड के अधिसंख्य लोगों ने भट्ट साहब की इस महत्वपूर्ण पहल की अनदेखी ही की होगी। शायद ही किसी ने धन्यवाद दिया हो। सबने इसे भट्ट साहब का निजी काम ही समझा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। किन्तु इस प्रकरण से, कम से कम दो बातें तो स्पष्ट होती ही हैं। पहली - अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए, सावधान और चिन्तित रहते हुए खुद को ही पहल करनी होगी। और दूसरी - परिणाम केवल प्रयत्नों को ही मिलते हैं।

इन दोनों मामलों में हम चरम आलसी और गैर जिम्मेदार हैं। बिलकुल ही उस आलसी आदमी की तरह जो प्रतीक्षा कर रहा है कि कोई आए और उस कुत्त्े को भगाए जो उसका मुँह चाट रहा है। हम कुछ भी नहीं करना चाहते, कोई जोखिम नहीं लेना चाहते, किसी को टोकना नहीं चाहते और चाहते हैं कि हमें हमारे सारे अधिकार मिल जाएँ, हमारी सारी समस्याएँ हल हो जाएँ। हम अवतारों की प्रतीक्षा में बैठे अकर्मण्य समाज में परिवर्तित हो गए हैं। हम अपने नेताओं को गालियाँ दे कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। इसका मतलब यह बिलकुल ही नहीं है कि हमें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान और भान नहीं। है तो लेकिन किसी नेता को टोकने का खतरा कौन उठाए और क्यों उठाए? भट्ट साहब ने यह खतरा उठाया और न केवल उन्हें अपितु उनके पूरे वार्ड को उसके सुफल मिले।


जो कुछ मेरे कस्बे के भट्ट वकील साहब ने किया, वही हम सब, आजादी मिलने के ठीक बादवाले क्षण से कर रहे होते तो हमें न तो जेपी की आवश्यकता होती और न ही अण्ण हजारे की। उल्लेखनीय बात यह है कि दोनों ने सत्त को खुलकर चुनौती दी लेकिन निरंकुश सत्त दोनों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। हमने देखा है कि दोनों के सामने सत्त को घुटने टेकने पड़े। किन्तु फिर भी हम खुद कुछ करने को तैयार नहीं होंगे।

हम कुछ नहीं करेंगे और बेशर्मी को मात देनेवाली सीनाजोरी से पूछेंगे - देश ने आखिर हमें दिया ही क्या है?

मेरे शहर के हज़ल शहंशाह

जब तीसरे स्रोत से न्यौता मिला तो लगा, ईश्वर चाहता है कि मैं इस गजल गोष्ठी में जाऊँ। हिम्मत की। डरते-डरते गया लेकिन खुश होकर लौटा। इतना खुश कि अगली बार फिर जाने की हिम्मत कर सकूँ।

कवि गोष्ठियों को लेकर मेरा अनुभव गोष्ठी-प्रति-गोष्ठी कसैला होता चला गया और स्थिति यह हो गई कि किसी कवि गोष्ठी का न्यौता मिलते ही जान घबराने लगी। मुझे कविता की या साहित्य की समझ नहीं है। किन्तु कवियों/साहित्यकारों के आसपास बने रहना, उनकी बातें सुनना अच्छा लगता है। हर बार वहाँ से कुछ न कुछ मिलता ही है। लेकिन कुछ बरसों से लगने लगा कि भरपूर समय लगाने के बाद भी कुछ नहीं मिल रहा। कवि गोष्ठियों ने इस मनःस्थिति को हर बार बढ़ाया और अन्ततः मैं कवि गोष्ठियों के प्रति विकर्षक हो गया। होता यह था कि तीस-तीस, पैंतीस-पैंतीस कवि होते और श्रोता मैं अकेला। वे सबके सब अपनी-अपनी डायरी बगल में दबाए होते। अपनी बारी आने तक, अपने से पहलेवालों की कविताओं पर खूब उत्साह से वाह! वाह! करते और अपनी बारी आने पर अपनी कविता पढ़ कर प्रस्थान कर जाते। अधिकांश कविताएँ पहले ही कई-कई बार पढ़ी हुई होतीं किन्तु वे हर बार ऐसे सुनाते और सुनते (और दाद देते) मानो पहली ही बार पढ़-सुन रहे हों। कविता की समझ न होने पर भी इतना तो समझ आने लगा था कि किस कविता में प्राण हैं और किसमें नहीं। अधिकांश कविताएँ निष्प्राण होतीं। धीरे-धीरे लगने लगा कि ऐसी कवि गोष्ठियाँ या तो खानापूर्ति हो गई हैं या फिर अपनी कविता सुनाने की ललक पूरी करने का निमित्त् मात्र। ऐसा लगने लगा मानो कवियों ने परस्पर अघोषित/अलिखित समझौता कर लिया है - ‘तू मेरी कविता पर वाह! वाह! कर, मैं तेरी कविता पर करूँगा।’ कुछ गोष्ठियों में, काव्य पाठ के पश्चात् मैंने किसी कवि से उसकी कविता के बारे में कुछ जिज्ञासाएँ रखीं तो मुझे कोई उत्त्र नहीं मिला। दो-चार बार ऐसा होने पर मैंने कवि गोष्ठियों में जाना बन्द कर दिया। बाद-बाद में ऐसा होने लगा था कि मेरे कस्बे के जन कवि श्याम भाई माहेश्वरी जब भी मुझे कवि गोष्ठी का न्यौता देते और गोष्ठी के बाद होनेवाले भोजन के लिए निर्धारित रकम माँगते तो मैं कहता - ‘नहीं श्याम भाई! मैं नहीं आऊँगा। सुननेवाला मैं अकेला और सुनानेवाले तीस-पैंतीस। मेरे मुँह से झाग आने लगेगें और मैं बेहोश हो जाऊँगा। जब आऊँगा ही नहीं तो पैसे देने का तो सवाल ही नहीं उठता। फिर भी आप चाहते हैं कि मैं आऊँ तो मुझे सुनने का पारिश्रमिक दें तो आने पर सोचूँ।’ श्याम भाई मेरी टप्पल में एक धौल टिकाते और मुझे ठेठ मालवी में गरियाते - ‘मीं ऐसा वेंडी बई का नी के थने दाल-बाटी भी खवाड़ाँ ने पईसा भी दाँ। नी चावे म्हाके ऐसा श्रोता। चल! भाग!’ (हम किसी विक्षिप्त माँ की सन्तान नहीं कि तुझे दाल बाटी भी खिलाएँ और रुपये भी दें। नहीं चाहिए हमें ऐसा श्रोता। चल, भाग।) और हम दोनों हँसते-हँसते एक दूसरे को मुक्त कर देते।

किन्तु इस गोष्ठी में ऐसा नहीं हुआ। ‘उस दिन’ पहली सूचना अनायास ही मिली भाई सिद्दीक रतलामी और आशीष दशोत्त्र से। बोले - ‘आज शाम को एक छोटी सी गजल गोष्ठी है। जरूर आईए। आपको अच्छा लगेगा।’ मैंने सुनने का शिष्टाचार निभाते हुए अनसुनी कर दी। दोपहर में खोकर साहब ने कहा - ‘मैं जानता हूँ कि आप कवि गोष्ठियों से आतंकित हैं। किन्तु आज शाम को जरूर आईए। पाँच-सात लोग अपनी गजलें पढ़ेंगे। ‘तरही नशिस्त’ है और बमुश्किल घण्टे- डेड़ घण्टे की होगी।’ खोकर साहब भारतीय जीवन बीमा निगम में विकास अधिकारी हैं और उसी शाखा में पदस्थ हैं जिससे मैं सम्बद्ध हूँ। हमारे (भा.जी.बी.नि. के) कार्यक्रमों का संचालन उन्हें ही करना पड़ता है। अच्छे गजलकार हैं और मंचों पर अपना मुकाम बना चुके हैं। मैं उनके प्रति मोहग्रस्त हूँ। जवाब दिया - ‘कोशिश करूँगा।’ उन्होंने सस्मित आग्रह दोहराया और कहा - ‘ईमानदारी से कोशिश कीजिएगा। आपको वाकई में अच्छा लगेगा।’

घर लौटा। भोजन किया और पसर गया। नींद आ गई। जोशीजी के फोन से नींद खुली। वे हमारे शाखा प्रबन्धक हैं। पूरा नाम हरिश्चन्द्र जोशी है किन्तु लिखते ‘हरीश चन्द्र जोशी’ हैं। पूछ रहे थे - ‘गोष्ठी में चल रहे हैं ना?’ मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना बोले - ‘घर के बाहर तैयार मिलिए। दस मिनिट में गाड़ी लेकर आ रहा हूँ।’ उसी क्षण मुझे लगा, ईश्वर चाहता है कि मैं इस गजल गोष्ठी में जाऊँ।

हम लोग पहुँचे तो सिद्दीक भाई अपनी गजल पढ़ रहे थे। एक शायर पढ़ चुके थे। जैसा कि खोकर साहब ने बताया था, यह ‘तरही नशिस्त’ थी जिसे हिन्दी में ‘समस्या पूर्ति गोष्ठी’ कहा जा सकता है। सबको पहले ही एक काव्य पंक्ति दे दी गई थी जिसे आधार बना कर प्रत्येक को अपनी गजल कहनी थी। इस बार की पंक्ति थी - ‘नये लोग होंगे, नई बात होगी।’ कुल जमा दस शायरों ने अपनी-अपनी गजलें पढ़ीं। किसी ने भी दो से अधिक गजलें नहीं पढ़ीं। कुछ ने एक, समस्या पूर्तिवाली, गजल ही पढ़ी। मुझे सचमुच में बहुत आनन्द आया। बहुत दिनों (बरसों) बाद किसी गोष्ठी में इतना आनन्द आया। मेरी जितनी भी और जैसी भी समझ है, उसके मुताबिक कहूँ तो इस गोष्ठी में पढ़ी गई गजलें निस्सन्देह बेहतरीन की श्रेणी में रख जा सकती हैं।


किन्तु मेरा ध्यानाकर्षित किया खोकर साहब ने। उन्होंने कभी संकेत दिया था कि उन्होंने खुद को गजल की हास्य-व्यंग्य की विधा ‘हज़ल’ (जिसे मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी ने ‘व्यंजल’ नाम दिया है) पर केन्द्रित कर लिया है और इन दिनों उसी में लगे हुए हैं। इस गोष्ठी में उन्होंने समस्या पूर्ति पर जो गजल पढ़ी वह भी ‘हज़ल’ को स्पर्श करती लगी। दूसरी रचना शुद्ध ‘हज़ल’ थी और कहना न होगा कि उसने ‘मजा ला दिया।’ जी तो कर रहा है कि खोकर साहब की ढेर सारी हज़लें यहाँ दे दूँ किन्तु वह न तो उचित है और न ही सम्भव। बस, दो-तीन शेरों से उनके मिजाज का अनुमान लगाया जा सकता है -

न जलसा न शादी न बारात होगी
न बच्चों की हर साल सौगात होगी

यही सोच कर फिर करेगा वो शादी
नये लोग होंगे, नई बात होगी

मोहल्ले के कुत्ते, मुझे काटते हैं
बगीचे में अपनी, मुलाकात होगी

पड़ौसी से कह दो, छुपे हैं जो कातिल
हमें सौंप देना, तभी बात होगी

मुमकिन है मेरी बात ‘नादानी’ या छोटे मुँह बड़ी बात’ हो किन्तु मुझे आकण्ठ लग रहा है कि हज़ल की दुनिया में आनेवाला समय खोकर साहब का है और यदि उन्हें ठीक-ठीक मौके और रास्ते मिल गए तो वे हज़ल को नई पहचान दे सकते हैं। तब वे, यकीनन रतलाम की पहचान और पर्याय होंगे और मैं गर्व से कहूँगा कि मैं खोकर साहब को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ।

मेरी बातों पर आप जिस प्रकार आँख मूँदकर विश्वास करते हैं उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि आप भी कम से कम एक बार तो खोकर साहब को सुनना पसन्द करेंगे ही। वे मोबाइल नम्बर 98270 63451 और 94253 55777 पर उपलब्ध रहते हैं। लेकिन यदि आप उन्हें सुनने के बारे में विचार करें तो मेरा अनुरोध है कि मुफ्तखोरी की मानसिकता के अधीन उनका ही नहीं, किसी भी रचनाकार का शोषण बिलकुल न करें।

अण्णा! आरोप को सच होने से बचाइए

‘अण्णा समूह’ के आन्दोलन को मैं ‘हमारा आन्दोलन’ मानता/कहता हूँ। किन्तु आज (यह पोस्ट मैं 02 जुलाई की रात को लिख रहा हूँ) मैं असहज और घबराया हुआ हूँ।

अपनी असहजता और घबराहट का कारण बताऊँ, उससे पहले एक जरूरी बात।

लोकपाल के अपने मसविदे के लिए समर्थन जुटाने के लिए, ‘अण्णा समूह’ द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं से मिलने पर कई लोग असहमत/अप्रसन्न हैं तो कुछ लोग उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं - यह कह कर कि कल तक जिन्हें अपने मंच से दूर रखते थे, आज उन्हीं की खुशामद कर रहे हैं। यह धारणा सिरे से ही गलत है। अण्णा समूह ने तब भी ठीक किया था और अभी भी ठीक कर रहे हैं। जन्तर-मन्तर पर नेता लोग अण्णा के प्रभा मण्डल से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे थे। इसे यूँ कहना अधिक अच्छा होगा कि उमा भारती, चौटाला जैसे तमाम लोग अण्णा के जरिए अपना राजनीति कद भी ऊँचा करना चाह रहे थे और राजनीतिक स्वार्थ भी सिद्ध करना चाह रहे थे। तब अण्णा समूह ने उन्हें ‘भगाकर’ (या कि ‘खदेड़कर’) खुद की और अपने आन्दोलन की शुचिता बचाए और बनाए रखी। ऐसा करना अनिवार्य ही नहीं, अपरिहार्य था।


हर कोई जानता है कि अण्णा समूह के लोकपाल मसविदे को संसद में पारित कराने के लिए तमाम राजनीतिक दलों के समर्थन की आवश्यकता होगी। इसलिए, इन सब दलों और नेताओं को अपनी बात समझाने, इनसे अपने मसविदे के लिए समर्थन जुटाने के लिए इनसे मिलना भी अनिवार्य ही नहीं अपरिहार्य था। अण्णा समूह के इस कदम से किसी भी दल और नेता को कोई राजनीतिक लाभ न तो मिला है, न मिल रहा है और न ही मिलता लग रहा है। इसके ठीक उलट, कोई भी दल और कोई भी नेता खुलकर कुछ भी नहीं बोला है और न ही बोल रहा है। सबके सब गोलमोल भाषा में अण्णा की, उनके आन्दोलन की, उनके मुद्दों की तारीफ कर जैसे-तैसे अपनी जान छुड़ा रहे हैं। इसलिए, राजनीतिक दलों से और इनके नेताओं से सम्पर्क करने को लेकर अण्णा समूह से असहमत, अप्रसन्न होना और उनकी खिल्ली उड़ाना सिरे से ही गैरवाजिब है। इसके उल्टे, मेरा तो मानना रहा कि यह नेक काम अण्णा समूह ने बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था।

अब मेरी असहजता और घबराहट की बात।


जबसे अण्णा समूह ने राजनीतिक दलों और नेताओं से मिलना शुरु किया तबसे मैं बराबर ध्यान से देखता रहा कि प्रत्येक मुलाकात के बाद अण्णा समूह के लोग इन मुलाकातों का ब्यौरा सार्वजनिक करते हैं या नहीं। वस्तुतः मैं ‘देख’ नहीं रहा था, इस बात की ‘प्रतीक्षा’ कर रहा था। लेकिन एक भी मुलाकात के ब्यौरे किसी ने भी स्पष्ट नहीं किए। मैंने इस चुप्पी को आन्दोलन की रणनीति का हिस्सा ही माना (क्यों कि मैं होता तो मैं भी यही करता) कि युद्ध के सारे मोर्चे एक साथ नहीं खोलने चाहिए। एक के बाद एक मोर्चा फतह करना चाहिए।

किन्तु आज (02 जुलाई को) मैं यह देखकर हतप्रभ रह गया कि सोनिया गाँधी से मिलने के फौरन बार अण्णा ने न केवल इस मुलाकात के विस्तृत ब्यौरे दिए बल्कि यह धमकी भी दे दी कि यदि सरकार ने ‘अच्छा लोकपाल विधेयक’ संसद में पेश नहीं किया तो वे 16 अगस्त से अनशन शुरु कर देंगे।


यह देख-सुनकर मैं असहज हुआ। अपने आप को थोड़ा समझा/सम्हाल रहा था कि रात नौ बजे से समाचार चैनल ‘न्यूज 24’ पर अण्णा का लोगों से सीधा सम्वाद देखा-सुना। इस कार्यक्रम में अरविन्द केजरीवाल और एक अन्य सज्जन भी अण्णा के साथ थे। लगभग डेड़ घण्टे के इस पूरे कार्यक्रम में अण्णा, केजरीवाल और साथवाले तीसरे सज्जन ने पूरे समय तक सरकार को ही निशाने पर बनाए रखा। कार्यक्रम के सूत्रधार ने एक बार अण्णा से जानना चाहा कि अण्णा समूह के लोकपाल मसविदे पर विभिन्न नेताओं की राय क्या रही? किसी ने मसविदे का शब्दशः समर्थन किया या नहीं? अण्णा ने केवल अपने ‘पुराने साथी’ नीतिश कुमार (अण्णा ने इसी तरह नीतिश कुमार को उल्लेखित किया) द्धारा जताए समर्थन का उल्लेख तो किया किन्तु अन्य दलों और नेताओं के मन्तव्य पर एक शब्द भी नहीं बोले।

बात यहीं समाप्त नहीं हुई। अण्णा, केजरीवाल और तीसरे सज्जन ने बार-बार (इसे ‘लगातार’ कहना अधिक अच्छा होगा) कहा कि यदि उनके मसविदे की, असहमतिवाली 6 बातों को सरकार ने अपने मसविदे में शरीक नहीं किया तो सरकार के विरुद्ध अनशन पक्का।

इसी बात और व्यवहार ने मुझे असहज किया और मैं घबराया।

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि जब कोई भी दल और उनका कोई भी नेता, अण्णा के मसविदे के समर्थन में एक शब्द नहीं बोल रहा है तो केवल सरकार को निशाने पर लेने का क्या मतलब हुआ? अपने मुद्दों को सरकार के प्रस्ताव में शामिल कराने का यह ‘अतिआग्रह’ (अण्णा से असहमत लोग इसे ‘दुराग्रह’ कह कर तसल्ली करना चाहेंगे) क्यों? आज की तारीख में (नीतिश कुमार को छोड़ कर) तमाम दल और नेता अण्णा के विरुद्ध ही हैं! अण्णा समूह इन सब को निशाने पर क्यों नहीं ले रहा? अनशन यदि करना ही है तो केवल सरकार के विरुद्ध ही क्यों? जन लोकपाल के मसविदे पर चुप्पी साधनेवाले या आंशिक सहमति देनेवाले राजनीतिक दलों के विरुद्ध भी क्यों नहीं? इन दलों और नेताओं का नाम भी नहीं लेना और सरकार को (तथा केवल सरकार को ही) निशाने पर लिए रहना समूचे आन्दोलन की नीयत पर सन्देह करने के अवसर उपलब्ध कराता है। फिर, यदि सरकार असहमतिवाले मुद्दों को अपने प्रस्ताव में शामिल नहीं करे तो अण्णा समूह को चाहिए कि संसद में सरकार के प्रस्ताव पर बहस के दौरान, किसी भी सांसद के माध्यम से संशोधन प्रस्तुत कराए। सरकारी प्रस्ताव पर संशोधन रखने की सुविधा प्रत्येक दल और सांसद को है। असहमति वाले मुद्दों पर संशोधन रखवा कर, उन पर बहस करवा कर अण्णा समूह तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं की असलियत देश के लोगों को बता सकता है। क्या अण्णा समूह को ऐसा एक भी सांसद नहीं मिलेगा? यदि नहीं मिले तो यह तो अण्णा समूह के पक्ष में अपने आप ही बहुत बड़ा हथियार होगा। जन लोकपाल के अपने मसविदे से असहमत (या कि समर्थन न देकर गोलमोल बातें करनेवाले) दलों और नेताओं का उल्लेख अण्णा समूह सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं कर रहा? ‘इस चुप्पी’ का तो एक ही मतलब निकाला जाएगा कि अण्णा समूह केवल सरकार की फजीहत करने और कराने पर तुला हुआ है। इसका दूसरा (और तब ‘एकमात्र’) मतलब यही होगा कि अण्णा समूह तमाम प्रतिपक्षी दलों और नेताओं को राजनीतिक सुविधा उपलब्ध करा रहा है, उनके राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने में सहायक हो रहा है।


ऐसे में, यह जरूरी क्यों किया जा रहा है कि यदि सरकार, अण्णा समूह के मनोनुकूल मसविदा प्रस्तुत नहीं करती तो फौरन अनशन शुरु कर दिया जाए? क्या यह मुमकिन नहीं कि संसद में लोकपाल प्रस्ताव की अन्तिम दशा तय होने के बाद ही अनशन पर विचार किया जाए? यह मान भी लिया जाए कि संसद में पारित लोकपाल वैसा ही होगा जैसा कि सरकार चाहती है (बकौल अरविन्द केजरीवाल ‘जोकपाल’)। तो क्या वह ऐसा मसविदा होगा जिसमें भविष्य में कभी कोई संशोधन नहीं किया जा सकता? तब सरकारी प्रस्ताव पर तमाम राजनीतिक दलों की असलियत सामने आ जाएगी और अण्णा समूह सारे देश को, अधिक आसानी से यह विश्वास दिला सकेगा कि उसकी आशंकाएँ शब्दशः सच साबित हुई हैं और संसद द्वारा पारित मसविदे को सिरे से ही खारिज किया जाना चाहिए। मेरी निजी धारणा है कि ऐसा करना अधिक अच्छा होगा।

अण्णा समूह की उपरोक्त बातों से मुझे लग रहा है कि समूचे आन्दोलन पर प्रतिपक्ष के राजनीति स्वार्थ सिद्ध करने का आरोप बहुत ही आसानी से मढ़ दिया जाएगा या कि अभी जो आरोप लगाया जा रहा है, उस पर मुहर लगाने में लोगों को आसानी होगी।


इसलिए मेरी (बिना मॉंगी) राय है कि -

अण्णा समूह यदि 16 अगस्त से अनशन पर आमादा है तो वह अनशन (जन लोकपाल के मसविदे को शब्दशः समर्थन न देनेवाले) तमाम राजनीतिक दलों के विरुद्ध हो - केवल सरकार के विरुद्ध नहीं।


और/या


संसद में सरकार के प्रस्ताव की अन्तिम दशा तय होने के बाद ही अनशन करने पर विचार किया जाए।

मुमकिन है, मेरा सोचना और मेरी बातें किसी ‘घबराए हुए दिग्भ्रमित व्यक्ति’ का सोच और बातें हों। किन्तु मेरी यह दशा अपने आप नहीं हुई है। उन्हीं बातों से हुई हैं जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है।

क्या ‘ऐसा’ मैं अकेला होऊँगा?


तसल्ली और उम्मीद की बात यही है कि आज, 03 जुलाई को रही, सर्वदलीय बैठक में

काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगा।

पाखण्ड याने आचरण से प्रतीक तक की यात्रा

यह ऐसा रोचक अनुभव रहा जो निराशाजनक भी था और असहज कर देनेवाला भी।

मुझे और मेरी उत्त्मार्द्ध को, देहरादून एक्सप्रेस से, शामगढ़ से रतलाम आना था। हम लोगों के पास स्लीपर श्रेणी के टिकिट तो थे किन्तु हमारा आरक्षण नहीं हुआ था। हमारे नाम प्रतीक्षा सूची में थे। ऐसे में हमने वही किया जो हम जैसे तमाम लोग करते हैं। हम लोग स्लीपर डिब्बे में चढ़ गए, इस शुभेच्छा से कि कोई न कोई तो हमें बैठने की जगह दे ही देगा। ऐसा हुआ तो अवश्य किन्तु, जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा है, ऐसे अनुभव सहित जो निराशाजनक भी था और असहज कर देनेवाला भी।
डिब्बे में भीड़ की बात तो दूर रही, हमारे सिवाय अनारक्षित यात्री एक भी नहीं था। यह देखकर, जगह मिलने की मेरी आशा, पहले ही क्षण विश्वास में बदल गई। यात्रियों को देखकर मेरे विश्वास को प्रसन्नता का साथ भी मिल गया। लगभग 50-55 ऐसे यात्री थे जो शान्ति-कुंज (हरिद्वार) से लौट रहे थे। चारों ओर, पीताभ पृष्ठ भूमि पर गेरुए रंग में छपी इबारतोंवाले, गायत्री परिवार के झोले और यात्रियों के हाथों में, गायत्री परिवार प्रकाशन की गुजराती पत्रिकाएँ नजर आ रही थीं। इस दल में महिलाएँ अधिसंख्य थीं - चालीस से अधिक। शेष पुरुष और बच्चे थे। सबके सब गुजरात निवासी। गुजरात निवासियों की जग प्रसिद्ध दयालुता और सहृदयता से मैं अनेकबार उपकृत हुआ हूँ। सो, मेरी बाँछे ऐसी खिलीं कि बन्द होने का नाम नहीं ले रही थीं। पहली बात जो मन में आई वह यह कि बैठने की सुविधा तो मिलेगी ही, मीठे व्यवहार और पारिवारिकता के पर्याय समाज के धार्मिक लोगों का सामीप्य भी मिलेगा। सोने पर सुहागा। गोया हम लोगों की तो लॉटरी ही खुल गई थी।


किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जल्दी ही सब कुछ निराशा में बदल गया। बैठने की जगह देने के हमारे प्रत्येक अनुरोध को वितृष्णापूर्वक, तिरस्कृत और अस्वीकार कर दिया गया। मुझे न सही, मेरी उत्त्मार्द्ध को तो बैठने की जगह देने के मेरे अनुरोध को भी इसी शैली में लौटा दिया गया। यह सब हुआ सो तो ठीक किन्तु ऐसा करने के लिए जो आचरण किया गया उसने मेरा ध्यानाकर्षित किया।

तीन की बर्थ पर कोई चौथा न बैठ जाए, यह सावधानी बरतते हुए महिलाएँ अधिक खुल कर बैठ रही थीं। डिब्बे में दौड़ भाग कर रहे बच्चों को डाट डपटकर अपनी जगह पर बैठने को कहा जा रहा था। जो बच्चे अपने स्थान पर बैठ कर मस्ती कर रहे थे, उन्हें आँखें तरेरकर समझाया जा रहा था कि वे जगह खाली न रखें वर्ना ‘कोई’ बैठ जाएगा। समूह चर्चा में भाग लेने के लिए, अपनी जगह से उठकर, पास वाले खाँचे में जानेवाले यात्री की खाली जगह को भरने के लिए महिलाएँ जबरन ही अधलेटी होने लगीं। बाजू वाली (साइड) बर्थ से जैसे ही कोई महिला उठकर अन्यत्र जाती, दूसरी महिला फौरन ही लेट जाती। ऐसी ही एक बैठक थोड़ी देर के लिए खाली हुई तो समूह के एक अधेड़ पुरुष यात्री ने मेरी उत्त्मार्द्ध को बैठने का कहा। यह सुनते ही, बैठी हुई दूसरी महिला ने उन्हें ‘केम गोविन्द भाई! तमे शूँ करो छो?’ कह कर डपटा और फौरन ही लेट गई। 6-6 बर्थों के खाँचे में 8-8, 10-10 महिलाएँ बैठकर बातें कर रही थीं किन्तु उनके वहाँ जाने से खाली हुई एक भी सीट खाली नहीं रहने दी जा रही थी। सब कुछ बड़ी सावधानी से और यत्नपूर्वक किया जा रहा था।


शुरु-शुरु में हमें गुस्सा आया, फिर यह गुस्सा ताज्जुब में बदला और यह सब देख-देख कर हम दोनों को अन्ततः हँसी आने लगी। हमें जगह न देने के लिए महिलाओं द्वारा किए जा रहे उपाय हमारे लिए मनोरंजन का साधन बन रहे थे। हमें बैठने की सुविधा से वंचित करने के लिए वे सब महिलाएँ खुद कितने कष्ट उठा रही थीं?

कोई आधा-पौन घण्टे में ही हमें स्पष्ट हो गया कि रतलाम तक की यात्रा हमें खड़े-खड़े ही करनी थी। फिर भी हम इस बात के लिए उन्हें मन ही मन धन्यवाद दे रहे थे कि डिब्बे में हमारी उपस्थिति पर वे आपत्त् िनहीं उठा रहे थे। हम ईश्वर को भी धन्यवाद दे रहे थे कि हम कम से कम इतने आराम से तो खड़े हैं कि हाथ-पाँव फैला सकें और डिब्बे में आ रही हवा का आनन्द ले सकें।


किन्तु आश्चर्य अभी शेष था। बगल (साइड) की ऊपरी बर्थ पर लेटे हुए एक वृद्ध सज्जन ने, अपने बेटे-बहू को निर्देशित किया कि वे तनिक खिसक कर हम दोनों को बैठने के लिए जगह दें। उनके बेटे-बहू अपने दो बच्चों के साथ आमने-सामने बैठे थे। उन्होंने बिजली की चपलता बरतते हुए अपने पिता के निर्देशों का पालन किया। हम दोनों के लिए भरपूर जगह बनाई और हमसे बैठने का अनुरोध किया। हमें अच्छा तो लगा किन्तु आश्चर्य भी हुआ। यह जगह हमें भी नजर तो आ रही थी किन्तु हमारे साथ अब तक जो गुजरी थी, उससे सबक लेकर हमने इस परिवार से जगह देने के लिए अनुरोध नहीं किया था। मुझे ‘माँगे से भीख नहीं मिलती, बिन माँगे मोती मिल जाते हैं’ वाली उक्ति याद आ गई। उन बुजुर्ग को और उनके बच्चों को धन्यवाद देते हुए हम बैठ गए। शुरु में तो सकुचा कर बैठे किन्तु धीरे-धीरे पसर गए। तीन घण्टों की यात्रा में से कोई दो-सवा दो घण्टों की यात्रा हमने भरपूर आराम से की। उतरते समय हम दोनों ने, हमें जगह देने के लिए उन सबके प्रति आभार प्रकट करते हुए फिर धन्यवाद दिया।

साथ-साथ बैठकर बातों ही बातों में मालूम हुआ कि हमें जगह देनेवाला परिवार, मुसलमान परिवार है। वे लोग रुड़की से बैठे थे और मुम्बई जा रहे थे। यह उनकी धार्मिक यात्रा थी। वे हाजी बन्दर की मस्जिद जा रहे थे। इस परिवार के पास किसी भी प्रकार का ऐसा कोई भी उपकरण नहीं था जो इनकी या इनकी यात्रा की धर्मिकता प्रकट करता हो।


मेरे इस अनुभव को किसी पर टिप्पणी न समझा जाए। आप यदि अपने स्तर पर कोई अर्थ निकालें तो यह आपकी इच्छा, आपकी सुविधा और आपका अधिकार। किन्तु धार्मिक सन्दर्भों से परे, यह कहने से नहीं रुका जा रहा कि महिलाओं को आज भी सर्वाधिक उपेक्षा, सर्वाधिक असहयोग महिलाओं से ही झेलना पड़ रहा है।

और यह भी कि धर्म हमारे आचरण से प्रकट होता है, उपकरणों से नहीं। आचरण को जब प्रतीकों में बदला जाता है तो उसका एक ही नाम होता है - पाखण्ड।

जन लोकपाल : संघर्ष की शुरुआत तो अब हुई है

जन लोकपाल को लेकर परिदृष्य रोचक होता जा रहा है। मुमकिन है कि ‘अण्णा समूह’ को तो शुरु से ही पता रहा हो किन्तु जन सामान्य को अब धीरे-धीरे मालूम होने लगा है कि -

- ‘अण्णा समूह’ का रास्ता आसान नहीं है। और


- केवल काँग्रेस या केन्द्र सरकार नहीं बल्कि तमाम राजनीतिक दल ‘अण्णा समूह’ के विरोध में एक जुट खड़े हुए हैं।

- और यह भी कि ‘अण्णा समूह’ और उनके अभियान को हथियार बनाकर भाजपा सहित तमाम प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों ने खुलकर और जी भरकर अपनी-अपनी राजनीति कर ली और ‘अण्णा समूह’ को मझधार में छोड़ दिया। दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। ठेंगा दिखा दिया।


जन लोकपाल के अपने मसविदे पर समर्थन जुटाने के लिए ‘अण्णा समूह’ ने एक के बाद एक, सारे राजनीतिक दलों से मिलने का क्रम शुरु किया। यह काफी पहले ही कर लिया जाना चाहिए था। क्योंकि सरकार जैसा भी मसविदा पेश करेगी, जाएगा तो वह अन्ततः संसद के सामने ही जहाँ ये सारे राजनीतिक दल अपनी-अपनी तलवारों की धार तेज किए बैठे हैं। ‘अण्णा समूह’ की यह शुरुआत, ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ ही कही जाएगी।

इस शुरुआत के बाद से जो कुछ भी सामने आ रहा है वह हमारे तमाम राजनीतिक दलों की असलियत उजागर कर रहा है। जिस-जिस भी राजनीतिक दल और उनके नेताओं से अण्णा और उनके लोग मिले हैं उन सबने अण्णा की और अण्णा के अभियान की खुलकर तारीफ की और कहा कि वे सब, 16 अगस्त से शुरु होनेवाले अण्णा के अनशन को समर्थन देंगे। किन्तु एक भी दल और एक भी नेता ने, ‘अण्णा समूह’ के ‘जन लोकपाल मसविदे’ का समर्थन नहीं करने की चतुराई भरी सावधानी बरती। यह सचमुच में रोचक अजूबा है कि अण्णा के अभियान और उनके अनशन का तो समर्थन किया जा रहा है किन्तु उनके मसविदे के समर्थन में गलती से भी एक शब्द भी नहीं कहा जा रहा है। जाहिर है कि अण्णा के चाहे न चाहे, अण्णा के जाने-अनजाने, उन्हें हथियार बनाकर केवल राजनीति की गई और यह क्रम जारी है।


‘अण्णा समूह’ ने एक मामले में अवश्य चौंकाया। मन्त्रियों और ‘सिविल सोसायटी’ की संयुक्त मसविदा समिति की बैठकों के बाद, ‘सिविल सोसायटी’ की ओर से अण्णा, केजरीवाल, भूषण आदि जिस प्रकार बैठकों की कार्रवाई की विस्तृत जानकारी मीडिया को देते थे और सरकार को कटघरे में खड़ा करते थे, वैसा कुछ भी इन्होंने, इन दलों और नेताओं से मिलने के बाद एक बार भी नहीं किया। अच्छा होता कि प्रत्येक दल और उनके नेताओं से मुलाकात के बाद अण्णा और/या उनके साथी, इन चर्चाओं की विस्तृत जानकारी भी सार्वजनिक करते। तब, देश के लोगों को अधिक जल्दी तथा अधिक स्पष्टता से ‘हमाम के नंगों’ की असलियत मालूम हो पाती। लेकिन शायद अण्णा और उनके साथियों ने जानबूझकर, (सम्भवतः, सारे मोर्चे एक साथ न खोलने की) किसी रणनीति के तहत यह ‘भलमनसाहत और उदारता’ बरती हो।

‘अण्णा समूह’ को तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से मिलकर अब तक जो कुछ मिलता नजर आ रहा है, अण्णा और उनके साथियों के चेहरों पर जो उदासियाँ नजर आ रही हैं उससे साफ लग रहा है कि शेष दलों और उनके नेताओं से इन्हें आगे भी ‘शून्य’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलनेवाला।

समूचा परिदृष्य पल प्रति पल रोचक होता जा रहा है। संघर्ष का वास्तविक स्वरूप और वास्तविक साथियों की शकलें तो अब सामने आएँगी।