यह कल की ही बात है। मुहावरेवाले ‘कल की’ नहीं। सचमुच में कल, शुक्रवार, 15 जुलाई 2011 की। मैं नीमच में था। अपने एक मित्र से मिलने के लिए, केन्द्र सरकार के एक उपक्रम के जिला कार्यालय में जाना हुआ। मेरा मित्र इस जिला कार्यालय का प्रमुख है।
दोपहर लगभग बारह बजे मैं पहुँचा। वह मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा था। रतलाम से नीमच के लिए निकलते समय मैंने उसे खबर कर दी थी। यथेष्ठ आत्मीय-ऊष्मा से उसने मेरी अगवानी की। अपनी टेबल कोई काम लम्बित नहीं रखना, फाईल को तुरन्त निपटा देना उसकी ‘गन्दी आदत’ है। उसकी इस आदत से परेशान उसके अधीनस्थ, उसके पास कोई फाईल तभी भेजते हैं जिसका ‘हिसाब-किताब’ पूरी तरह हो चुका हो। सो, उसकी टेबल एकदम साफ थी। वह लगभग खाली ही बैठा था।
बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके कार्यालय का अंकेक्षण (ऑडिट) चल रहा है। क्षेत्रीय (झोनल) कार्यालय से चार अंकेक्षक (ऑडिटर) आए हुए हैं। तीन दिन पहले, मंगलवार को वे आए थे। आज उनका अन्तिम दिन था। फाईलें देखने का काम वे पूरा कर चुके थे और उनमें ‘पकड़ी गई’ अनियमितताओं के आधार पर उन्हें अपनी अन्तिम रिपोर्ट तैयार करनी थी। अनियमितताओं की सूची भी बहुत लम्बी नहीं थी। छोटी ही थी। गम्भीर तो बिलकुल ही नहीं थीं। सबकी सब, प्रक्रियागत थीं, व्यवहारगत नहीं। सो, उनके पास भी कोई अधिक काम नहीं था।
मित्र ने चाय मँगवाई तो चारों अंकेक्षकों को भी शामिल कर लिया। एक अंकेक्षक महोदय, नाम से और मेरे ‘लिखने-विखने’ से परिचत और प्रभावित भी थे। मित्र ने परिचय कराया तो प्रसन्न हुए। बातें शुरु हुईं तो बहुत ही जल्दी (लगभग तीसरे मिनिट ही) अण्णा के अभियान पर आ गईं। अण्णा का समर्थन, सरकार की आलोचना और नेताओं को गालियाँ देना आज का सर्वाधिक लोकप्रिय फैशन ही नहीं, अपनी जागरूकता और बौद्धिकता जताने का ‘प्रतीक चिह्न’ (स्टेटस सिम्बल) भी जो बन गया है! सो, वे चारों के चारों मुदित-मन और मुक्त-कण्ठ से इस ‘फैशन शो’ के ‘रेम्प’ पर इठलाते हुए, गर्वीली मुद्रा में ‘केट वॉक’ कर रहे थे। मैं तो बीच-बीच में छेड़खानी भी करता रहा किन्तु मेरा मित्र सस्मित मौन बना रहा-मानो, सबके मजे ले रहा हो।
बातों ही बातें में पता ही नहीं चला कि कब चाय आ गई और कब डेड़ बज गया। हमारे वाणी-विलास को बाधित किया कार्यालय के उप प्रमुख ने। अंकेक्षक-दल के प्रमुख को सम्बोधित करते हुए उसने कहा - ‘सर! लंच टाइम हो गया। चलिए! भोजन कर लीजिए।’ चारों उठ गए। मित्र को अविचल देख मैंने कहा - ‘मेरी वजह से तू अपना खाना खराब मत कर। तू भी जा और सबके साथ भोजन का आनन्द ले।’
मित्र ने जो कुछ बताया उसका सार यह था कि वह तो अपना भोजन साथ लेकर आता है और जहाँ तक ‘सबके साथ’ याने अंकेक्षकों के साथ भोजन करने की बात है तो उन्हें तो कार्यालय उप प्रमुख होटल में ले गया है। भोजन/आवास आदि के लिए अंकेक्षकों को यद्यपि प्रतिदिन का ‘भाड़ा भत्ता’ अलग से मिलता है किन्तु यह रकम तो उनकी ‘शुद्ध बचत’ होती है। अंकेक्षण के दौरान चारों ही दिन उनके आवास और भोजन की व्यवस्था कार्यालय खर्च पर की जाती है। इतना ही नहीं, कभी-कभार किसी ‘जरूरतमन्द’ अंकेक्षक केे परिवार के लिए कुछ आवश्यक खरीदी भी कार्यालय खर्च से करवाई जाती है। किन्तु कार्यालय की किताबों में यह खर्च इसी नाम से नहीं नहीं लिखा जाता। और यह भी कि ऐसा केवल मेरे मित्र के इस कार्यालय में नहीं होता। समस्त शासकीय, अर्द्ध शासकीय कार्यालयों में यही ‘चलन’ है। इस ‘परम्परा’ की भनक तो मुझे थी किन्तु इसकी आधिकारिक पुष्टि पहली ही बार हुई। मुझे अटपटा लगा।
मित्र ने अपना टिफिन खोला मुझे भोजन नहीं करना था। मुझे तो चले आना चाहिए था। हमारा मिलना हो चुका था और मुझे वहाँ कोई काम भी नहीं था। किन्तु मैं सोद्देश्य बैठा रहा। मित्र भोजन करता रहा और मैं उसे देखता रहा।
कोई पौन घण्टे बाद चारों अंकेक्षक लौटे। मैंने छूटते ही पूछा कि मेरे मित्र ने जो कुछ बताया था वह सच है? तीन तो चुप रहे किन्तु जो मुझे जानते और मुझसे प्रभावित थे, उन्होंने बहुत ही सहज भाव मेरे मित्र की बातों की पुष्टि की। मैंने पूछा - ‘इसके बाद भी आप भ्रष्टाचार का विरोध और अण्णा का समर्थ कर लेते हैं?’ उन्हें मेरा सवाल असम्बद्ध लगा। प्रतिप्रश्न किया - ‘इससे भ्रष्टाचार के विरोध और अण्णा के समर्थन का क्या लेना-देना?’ मैंने कहा - ‘आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार ही तो है?’ वे चौंके - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? यह तो पूरे देश में, सारे दफ्तरों में हो रहा है!’ मैंने कहा - ‘याने जो अनुचित काम सारे देश में और प्रत्येक दफ्तर में हो रहा हो, वह भ्रष्टाचार नहीं है?’ जवाब आया - ‘बिलकुल नहीं। यह तो शिष्टाचार है। सब कर रहे हैं।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर सारे देश के, सारे राजनीतिक दलों के नेता और तमाम अफसर जो अनुचित कर रहे हैं वह भ्रष्टाचार क्यों है? वह शिष्टाचार क्यों नहीं?’ उन्होंने कहा - ‘वे सब तो बड़ी-बड़ी तनख्वाह लेते हैं, दुनिया भर के ऐश-ओ-आराम उठाते हैं, सारी जनता उनकी सेवा करती है। उन्हें क्या कमी है? उन्होंने भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए।’ मैंने पूछा - ‘याने, किसी कर्मचारी का भ्रष्टाचार केवल इसलिए भ्रष्टाचार नहीं है क्योंकि वह कर्मचारी है और उसका वेतन नेताओं/अफसरों के मुकाबले कम है?’ वे बोले - ‘और नहीं तो क्या?’ मेरी सूरत निश्चय ही दर्शनीय हो गई होगी। लगभग हकलाते हुए पूछा - ‘आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं या बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध?’ उन्होंने आत्म विश्वास से कहा - ‘बड़े नेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध।’ तनिक साहस जुटा कर मैंने कहा - ‘किन्तु अण्णा तो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं!’ इस बार उन्होंने मुझे ‘चारों कोने चित्त’ कर दिया। बोले - ‘आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी! जरा ध्यान से दखिए, पढ़िए और सुनिए। पूरा देश नेताओं के भ्रष्टाचार से दुखी है। पूरे देश को बेच खाया है लोगों ने। अण्णा इन्हीं मन्त्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार का विरोध तो कर रहे हैं! पूरा देश इसीलिए तो उनके साथ हुआ है!’
मेरे पास सवाल तो और भी थे किन्तु मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी। मेरा मित्र अभी भी, पूर्ववत् सस्मित सारा सम्वाद सुन रहा था और अभी भी चुप था। मैंने सबको नमस्कार किया। विदा ली। उठने में अत्यधिक कठिनाई हुई। मित्र के दफ्तर से बाहर आया तो आँखों के आगे अँधेरा सा छाया हुआ था।
मैंने आँखें मसलीं तो मुझे अण्णा का चेहरा नजर आया। बस, उनके होठों पर सदा विराजमान मुस्कुराहट गैर हाजिर थी।
यह तो एक चुटकुला सुना दिया आपने. मैं देर तक हँसता रहा. भ्रष्टाचार हटाओ नेताओं के लिए. कर्मचारियों के लिए नहीं. खासकर ऑ़डिटरों के लिए तो बिलकुल भी नहीं जो भ्रष्टाचार या अनियमितताएँ पकड़ने का काम करते हैं!
ReplyDeleteकर्मचारी चेतना है यह, जन चेतना नहीं।
ReplyDeleteकई बार लगने लगता है कि 'भ्रष्टाचार हटाओ' मुख-सुख नारा है, जिसके बहाने कुछ बात-व्यवहार बनता-बिगड़ता रहता है.
ReplyDeleteसबको लगता है कि परेशानी उनके कारण नहीं है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा बिन्दु सामने रखा है। समाज में शुचिता चाहिये तो उसका आरम्भ तो स्वयं से ही करना पडेगा। परंतु दूसरा पक्ष यह है कि क्या स्मोकर्स को तम्बाकू को बुरा कहने का अधिकार नहीं? ग़लत को ग़लत तो कहना ही चाहिये और ऐसा करने वालों का सहयोग और समर्थन भी हो। साथ ही यह प्रयत्न भी हों कि बीमारी जड से मिटे।
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