पहले एक लोकप्रिय बोध-कथा।
जंगल में भीषण आग लगी हुई थी। हर कोई अपने-अपने संसाधनों से, अपनी-अपनी क्षमतानुरूप, आग बुझाने के जतन कर रहा था। इस भागदौड़ के बीच लोगों ने देखा कि एक नन्हीं सी चिड़िया बार-बार जल-स्रोत तक जाकर अपनी चोंच में एक बूँद पानी लाकर, आग पर डाल रही है। लोगों ने उसका उपहास उड़ाते हुए पूछा - ‘तू समझती है कि तेरी इस एक-एक बूँद से यह भीषण आग बुझ जाएगी?’ चिड़िया ने अविलम्ब उत्तर दिया - ‘मैं खूब जानती हूँ कि मेरी कोशिशों से यह विकराल आग नहीं बुझनेवाली।’ सवाल पूछनेवाले अचकचा गए। उन्होंने हैरत से पूछा - ‘तो फिर?’ चिड़िया ने उत्तर दिया - ‘तो फिर क्या? यही कि आग बुझने के बाद जब-जब इस दावानल की चर्चा होगी तब-तब मेरा नाम आग बुझाने की कोशिशें करनेवालों में होगा, दूर से तमाशा देखनेवालों में नहीं।’
अब एक पीड़ादायक सचाई।
जन सामान्य के कष्टों की परवाह किए बिना, केन्द्र सरकार ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए, डीजल, रसोई गैस के दाम बढ़ा दिए। पूरे देश में ‘त्राहि-त्राहि‘ मच गई। दुबले पर दो आषाढ़’ और ‘कोढ़ में खाज’ जैसी लोकोक्तियाँ भी अपर्याप्त अनुभव होने लगीं। केन्द्र सरकार ने अनसुनी करते हुए, बढ़ी कीमतें वापस न लेने की ‘जन विरोधी दृढ़ता’ दिखाई। हाँ, राज्य सरकारों से (और विशेष कर काँग्रेस शासित राज्य सरकारों से) आग्रह किया वे पेट्रो उत्पादों पर अपने करों में कमी कर, मँहगाई को नियन्त्रित करने और लोगों को राहत देने की कोशिशें करें। कुछ राज्य सरकारों ने फौरन ही यह नेक काम किया तो कुछ ने, कुछ दिनों बाद। प्रशंसनीय बात यह रही कि केवल काँग्रेस शासित राज्य सरकारों ने ही नहीं, अन्य दलों की कुछ राज्य सरकारों ने भी अपनी राजस्व आय में कटौती करते हुए लोगों को राहत दी। डीजल के मामले में यह राहत 27 पैसों से लेकर 77 पैसों तक रही।
किन्तु मध्य प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। उल्लेखनीय बात यह है कि पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस पर, पूरे देश में सर्वाधिक कर मध्य प्रदेश में ही लगे हुए हैं। याने, जब-जब भी इन पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ती हैं, तब-तब, मध्य प्रदेश सरकार की आय अपने आप बढ़ जाती है - बिना कोई अतिरिक्त कर लगाए और कर दरों में बढ़ोतरी किए बिना। लोगों ने जब मध्य प्रदेश के वित्त मन्त्री से माँग की तो उन्होंने, प्रदेश के नागरिकों के लिए लागू की गई विकास योजनाओं के बजट प्रावधानों का हवाला देते हुए, कर हटाने या कर दरें कम करने से, दो-टूक इंकार कर दिया। उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने भी अपने बजट को खस्ता हाल होने से बचाने के लिए (याने, पेट्रो उत्पादों के विपणन, वितरण में लगी कम्पनियों को, इन उत्पादों पर दी जा रही सबसीडी के कारण होते चले आ रहे घाटे में कमी करने के लिए) इनकी कीमतें बढ़ाने की विवशता जताई थी। याने, अपने बजट की चिन्ता करते हुए केन्द्र सरकार ने कीमतें बढ़ाईं और अपने बजट की चिन्ता करते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने कर दरें कम करके, अपने नागरिकों को राहत देने से इंकार कर दिया। यह रोचक विसंगति ही है कि अपने बजट की चिन्ता करते हुए मध्य प्रदेश सरकार लोगों को राहत देने को तैयार नहीं और केन्द्र सरकार द्वारा कीमतें बढ़ाए जाने के विरोध में पूरी की पूरी सरकार विरोध में आ गई। यह तथ्य भूल गई कि केन्द्र सरकार ने भी बजट के नाम पर ही यह सब किया है। याने, प्रदेश सरकार ने अपने बजट को बजट माना और केन्द्र सरकार के बजट को बजट नहीं माना। ऐसी दोहरी बातों का आधार और उद्देश्य ‘वोट की राजनीति’ के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?
किन्तु यह तो कुछ नहीं। चौंकाने वाली गम्भीर और विचारणीय बात मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री ने कही। करों में कमी कर लोगों को राहत देने की माँग पर मुख्यमन्त्री ने कहा कि यह कमी इतनी कम होगी कि लोगों को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा।
यह तर्क मात्र एक तर्क नहीं है। यह समूची मानसिकता प्रतिबिम्बित करता है।
केन्द्र और मध्य प्रदेश की सरकारें, परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों की हैं। इसी कारण, मध्य प्रदेश के सत्तारूढ़ दल ने, अपने केन्द्रीय नेतृत्व के निदेशों के परिपालन में, पूरे मध्य प्रदेश में, सड़कों पर आकर मूल्य वृद्धि का विरोध किया और पुतले जलाए। यहाँ तक तो ठीक था। किन्तु अपने राज्य के लोगों को राहत देने से इंकार करने के लिए मुख्य मन्त्री ने जो तर्क दिया, वह ‘वोट केन्द्रित राजनीति’ की मानसिकता के अधीन, राजनीति के क्रूर और अमानवीय हो जाने का संकेत देता है। केन्द्र सरकार द्वारा की गई मूल्य वृद्धि से लोग परेशान होंगे जिसका सीधा फायदा (‘सीधा फायदा’ याने ‘चुनावीजीत के लिए वोट का फायदा’), प्रदेश के सत्तारूढ़ दल हो होगा। राज्य सरकार द्वारा दी गई राहत को लोग शायद ही याद रखें (क्योंकि ऐसे ‘उपकारों’ को भूलने के मामले हम भारतीय ‘अद्भुत’ हैं) किन्तु केन्द्र सरकार के अत्याचार को तो नींद में भी याद रखेंगे। इसलिए, लोगों का परेशान रहना ही ‘लाभदायक’ रहेगा। इंकार करने के मामले में मुख्यमन्त्री के मुकाबले वित्त मन्त्री अधिक ईमानदार रहे। उन्होंने बजटीय प्रसवधानों की वास्तविकता के आधार पर इंकार किया जबकि मुख्यमन्त्री ने जो कुछ कहा उसे तो ‘लचर तर्क’ भी नहीं कहा जा सकता। इंकार के लिए कहे गए शब्दों के पीछे की मानसिकता का आधार केवल वोट का फायदा रहा।
अपने नागरिकों की चिन्ता के मामले में मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री यहीं मात खा गए। उनका नाम राहत देने की कोशिशें करनेवालों में नहीं, लोगों को त्रस्त दशा में बनाए रखनेवालों में या कि ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा को परे धकेलकर वोट की फसल काटने को आतुर, लालची किसान के रूप में अंकित हो गया।
एक प्रदेश का अधिकार सम्पन्न मुख्यमन्त्री एक नन्हीं सी, अज्ञात, अनाम, अचिह्नित चिड़िया से मात खा गया।
एक तरफ बढ़ेगा, एक तरफ घटेगा। अब सब्सिडी सीधे बैंक एकाउन्ट में पहुँचायी जाये।
ReplyDeleteराय अपनी अपनी, ख्याल अपना अपना।
ReplyDeleteहमें तो मुख्यमंत्री जी की बात कोई गलत नहीं लगी।
900 crores Madhya Pradesh has already lost by central govt. reducing the duty on crude petroleum product.If they reduce local taxes then how are they going to keep up with this "Jan Kalyan Kari Rajya"... where govt is in business of employing people crores of people."lacchedar hindi likh dena se samasys kam nahi ho jjayegee.
ReplyDelete@vivek said...
ReplyDeleteमेरी भाषा की प्रशंसा हेतु धन्यवाद। आपकी टिप्पणी का शेष भाग उन भाजपाइ मुख्यमन्त्रियों को समर्पित है जिन्होंने केन्द्र सरकार की मार से अपने लोगों को राहत देने के लिए करों में कमी की।