आजादी मिलने के बाद के पहले ही क्षण से हम यदि निरन्तर वैसा की करते जैसा जय प्रकाश भट्ट ने किया तो हमारे तमाम नेताओं का दिमाग दुरुस्त रहता, वे उच्छृंखल, अनियन्त्रित न होते, सब पटरी पर और अपने कपड़ों में ही रहते, हमें कभी भी जेपी या अण्णा की आवश्यकता नहीं होती और हम वे सारे अधिकार, सुख-सुविधा भोग रहे होते जिनसे वंचित किए जाने का रोना, चौबीसों घण्टों रोते रहते हैं।
जय प्रकाश भट्ट को मैं नहीं जानता। वे मेरे कस्बे के एक वकील हैं और उनका नाम मैंने पहली बार गए दिनों अखबारों से जाना। उन्होंने अनुभव किया कि उनकी वार्ड पार्षद अपने तमाम चुनावी वादे भूल गई हैं और वादे पूरे करना तो दूर, वार्ड में अपनी शकल दिखानी भी बन्द कर दी है। भट्ट साहब के अनुसार, पार्षद की इस अकर्मण्यता और वचन-भंग के कारण पूरा वार्ड समस्याग्रस्त और वार्ड के रहवासी परेशान हो गए। मुझे नहीं पता कि भट्ट साहब ने पार्षद से कितनी बार सम्पर्क किया या कि सम्पर्क किया भी या नहीं किन्तु एक दिन अखबारों में पढ़ा कि उन्होंने अपनी वार्ड पार्षद को कानूनी सूचना पत्र दिया जिसमें कहा गया था कि वे अपने चुनावी वादे पूरे करने में असफल हो रही हैं और वार्ड के रहवासी आधारभूत सुविधाओं से वंचित तथा त्रस्त हो गए हैं इसलिए क्यों नहीं उन्हें पार्षद पद से पृथक करने की कार्रवाई की जाए? अखबारों के अनुसार (जिसकी पुष्टि भट्ट साहब ने मुझे फोन पर की), इस कानूनी नोटिस का ‘बिजली जैसा असर’ हुआ और वार्ड पार्षद न केवल वार्ड में प्रकट हुईं अपितु वार्ड की समस्याएँ हल होनी भी शुरु हो गईं। भट्ट साहब को फोन मैंने ही किया था। उन्होंने बताया कि पार्षद पति ने उनसे व्यक्तिशः सम्पर्क कर न केवल खेद प्रकट किया अपितु यह भी बताया कि निगम प्रशासन किस तरह उनकी पत्नी (वार्ड पार्षद) की अनदेखी, अनसुनी और उपेक्षा करता है। बहरहाल, भट्ट साहब सन्तुष्ट भी हैं और प्रसन्न भी। मैंने उन्हें पहले बधाई दी, फिर धन्यवाद दिया और आग्रह किया कि वे अपनी यह सक्रियता भविष्य में भी बनाए रखें और यदि मुझ जैसा कोई काम हो तो अवश्य बताएँ।
भट्ट साहब के अनुसार, किसी वार्ड पार्षद को इस प्रकार कानूनी नोटिस देने का, मध्य प्रदेश में यह अब तक का पहला ही प्रकरण है। मुझे पूरा भरोसा है कि भट्ट साहब के वार्ड के अधिसंख्य लोगों ने भट्ट साहब की इस महत्वपूर्ण पहल की अनदेखी ही की होगी। शायद ही किसी ने धन्यवाद दिया हो। सबने इसे भट्ट साहब का निजी काम ही समझा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। किन्तु इस प्रकरण से, कम से कम दो बातें तो स्पष्ट होती ही हैं। पहली - अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए, सावधान और चिन्तित रहते हुए खुद को ही पहल करनी होगी। और दूसरी - परिणाम केवल प्रयत्नों को ही मिलते हैं।
इन दोनों मामलों में हम चरम आलसी और गैर जिम्मेदार हैं। बिलकुल ही उस आलसी आदमी की तरह जो प्रतीक्षा कर रहा है कि कोई आए और उस कुत्त्े को भगाए जो उसका मुँह चाट रहा है। हम कुछ भी नहीं करना चाहते, कोई जोखिम नहीं लेना चाहते, किसी को टोकना नहीं चाहते और चाहते हैं कि हमें हमारे सारे अधिकार मिल जाएँ, हमारी सारी समस्याएँ हल हो जाएँ। हम अवतारों की प्रतीक्षा में बैठे अकर्मण्य समाज में परिवर्तित हो गए हैं। हम अपने नेताओं को गालियाँ दे कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। इसका मतलब यह बिलकुल ही नहीं है कि हमें अपनी जिम्मेदारी का ज्ञान और भान नहीं। है तो लेकिन किसी नेता को टोकने का खतरा कौन उठाए और क्यों उठाए? भट्ट साहब ने यह खतरा उठाया और न केवल उन्हें अपितु उनके पूरे वार्ड को उसके सुफल मिले।
जो कुछ मेरे कस्बे के भट्ट वकील साहब ने किया, वही हम सब, आजादी मिलने के ठीक बादवाले क्षण से कर रहे होते तो हमें न तो जेपी की आवश्यकता होती और न ही अण्ण हजारे की। उल्लेखनीय बात यह है कि दोनों ने सत्त को खुलकर चुनौती दी लेकिन निरंकुश सत्त दोनों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। हमने देखा है कि दोनों के सामने सत्त को घुटने टेकने पड़े। किन्तु फिर भी हम खुद कुछ करने को तैयार नहीं होंगे।
हम कुछ नहीं करेंगे और बेशर्मी को मात देनेवाली सीनाजोरी से पूछेंगे - देश ने आखिर हमें दिया ही क्या है?
यदि प्रारम्भ से ही दबाव बना कर रखा गया होता तो यह स्थिति नहीं आती।
ReplyDeleteकुछ तो करना ही होगा। जनसक्रियता के बिना लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं।
ReplyDeleteपहले समाज सेवी को नेता माना जाता था, आज धनबल पर नेता है और समाज सेवी पैरोकार मात्र बन गया है :(
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