‘अण्णा समूह’ के आन्दोलन को मैं ‘हमारा आन्दोलन’ मानता/कहता हूँ। किन्तु आज (यह पोस्ट मैं 02 जुलाई की रात को लिख रहा हूँ) मैं असहज और घबराया हुआ हूँ।
अपनी असहजता और घबराहट का कारण बताऊँ, उससे पहले एक जरूरी बात।
लोकपाल के अपने मसविदे के लिए समर्थन जुटाने के लिए, ‘अण्णा समूह’ द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं से मिलने पर कई लोग असहमत/अप्रसन्न हैं तो कुछ लोग उनकी खिल्ली उड़ा रहे हैं - यह कह कर कि कल तक जिन्हें अपने मंच से दूर रखते थे, आज उन्हीं की खुशामद कर रहे हैं। यह धारणा सिरे से ही गलत है। अण्णा समूह ने तब भी ठीक किया था और अभी भी ठीक कर रहे हैं। जन्तर-मन्तर पर नेता लोग अण्णा के प्रभा मण्डल से अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे थे। इसे यूँ कहना अधिक अच्छा होगा कि उमा भारती, चौटाला जैसे तमाम लोग अण्णा के जरिए अपना राजनीति कद भी ऊँचा करना चाह रहे थे और राजनीतिक स्वार्थ भी सिद्ध करना चाह रहे थे। तब अण्णा समूह ने उन्हें ‘भगाकर’ (या कि ‘खदेड़कर’) खुद की और अपने आन्दोलन की शुचिता बचाए और बनाए रखी। ऐसा करना अनिवार्य ही नहीं, अपरिहार्य था।
हर कोई जानता है कि अण्णा समूह के लोकपाल मसविदे को संसद में पारित कराने के लिए तमाम राजनीतिक दलों के समर्थन की आवश्यकता होगी। इसलिए, इन सब दलों और नेताओं को अपनी बात समझाने, इनसे अपने मसविदे के लिए समर्थन जुटाने के लिए इनसे मिलना भी अनिवार्य ही नहीं अपरिहार्य था। अण्णा समूह के इस कदम से किसी भी दल और नेता को कोई राजनीतिक लाभ न तो मिला है, न मिल रहा है और न ही मिलता लग रहा है। इसके ठीक उलट, कोई भी दल और कोई भी नेता खुलकर कुछ भी नहीं बोला है और न ही बोल रहा है। सबके सब गोलमोल भाषा में अण्णा की, उनके आन्दोलन की, उनके मुद्दों की तारीफ कर जैसे-तैसे अपनी जान छुड़ा रहे हैं। इसलिए, राजनीतिक दलों से और इनके नेताओं से सम्पर्क करने को लेकर अण्णा समूह से असहमत, अप्रसन्न होना और उनकी खिल्ली उड़ाना सिरे से ही गैरवाजिब है। इसके उल्टे, मेरा तो मानना रहा कि यह नेक काम अण्णा समूह ने बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था।
अब मेरी असहजता और घबराहट की बात।
जबसे अण्णा समूह ने राजनीतिक दलों और नेताओं से मिलना शुरु किया तबसे मैं बराबर ध्यान से देखता रहा कि प्रत्येक मुलाकात के बाद अण्णा समूह के लोग इन मुलाकातों का ब्यौरा सार्वजनिक करते हैं या नहीं। वस्तुतः मैं ‘देख’ नहीं रहा था, इस बात की ‘प्रतीक्षा’ कर रहा था। लेकिन एक भी मुलाकात के ब्यौरे किसी ने भी स्पष्ट नहीं किए। मैंने इस चुप्पी को आन्दोलन की रणनीति का हिस्सा ही माना (क्यों कि मैं होता तो मैं भी यही करता) कि युद्ध के सारे मोर्चे एक साथ नहीं खोलने चाहिए। एक के बाद एक मोर्चा फतह करना चाहिए।
किन्तु आज (02 जुलाई को) मैं यह देखकर हतप्रभ रह गया कि सोनिया गाँधी से मिलने के फौरन बार अण्णा ने न केवल इस मुलाकात के विस्तृत ब्यौरे दिए बल्कि यह धमकी भी दे दी कि यदि सरकार ने ‘अच्छा लोकपाल विधेयक’ संसद में पेश नहीं किया तो वे 16 अगस्त से अनशन शुरु कर देंगे।
यह देख-सुनकर मैं असहज हुआ। अपने आप को थोड़ा समझा/सम्हाल रहा था कि रात नौ बजे से समाचार चैनल ‘न्यूज 24’ पर अण्णा का लोगों से सीधा सम्वाद देखा-सुना। इस कार्यक्रम में अरविन्द केजरीवाल और एक अन्य सज्जन भी अण्णा के साथ थे। लगभग डेड़ घण्टे के इस पूरे कार्यक्रम में अण्णा, केजरीवाल और साथवाले तीसरे सज्जन ने पूरे समय तक सरकार को ही निशाने पर बनाए रखा। कार्यक्रम के सूत्रधार ने एक बार अण्णा से जानना चाहा कि अण्णा समूह के लोकपाल मसविदे पर विभिन्न नेताओं की राय क्या रही? किसी ने मसविदे का शब्दशः समर्थन किया या नहीं? अण्णा ने केवल अपने ‘पुराने साथी’ नीतिश कुमार (अण्णा ने इसी तरह नीतिश कुमार को उल्लेखित किया) द्धारा जताए समर्थन का उल्लेख तो किया किन्तु अन्य दलों और नेताओं के मन्तव्य पर एक शब्द भी नहीं बोले।
बात यहीं समाप्त नहीं हुई। अण्णा, केजरीवाल और तीसरे सज्जन ने बार-बार (इसे ‘लगातार’ कहना अधिक अच्छा होगा) कहा कि यदि उनके मसविदे की, असहमतिवाली 6 बातों को सरकार ने अपने मसविदे में शरीक नहीं किया तो सरकार के विरुद्ध अनशन पक्का।
इसी बात और व्यवहार ने मुझे असहज किया और मैं घबराया।
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि जब कोई भी दल और उनका कोई भी नेता, अण्णा के मसविदे के समर्थन में एक शब्द नहीं बोल रहा है तो केवल सरकार को निशाने पर लेने का क्या मतलब हुआ? अपने मुद्दों को सरकार के प्रस्ताव में शामिल कराने का यह ‘अतिआग्रह’ (अण्णा से असहमत लोग इसे ‘दुराग्रह’ कह कर तसल्ली करना चाहेंगे) क्यों? आज की तारीख में (नीतिश कुमार को छोड़ कर) तमाम दल और नेता अण्णा के विरुद्ध ही हैं! अण्णा समूह इन सब को निशाने पर क्यों नहीं ले रहा? अनशन यदि करना ही है तो केवल सरकार के विरुद्ध ही क्यों? जन लोकपाल के मसविदे पर चुप्पी साधनेवाले या आंशिक सहमति देनेवाले राजनीतिक दलों के विरुद्ध भी क्यों नहीं? इन दलों और नेताओं का नाम भी नहीं लेना और सरकार को (तथा केवल सरकार को ही) निशाने पर लिए रहना समूचे आन्दोलन की नीयत पर सन्देह करने के अवसर उपलब्ध कराता है। फिर, यदि सरकार असहमतिवाले मुद्दों को अपने प्रस्ताव में शामिल नहीं करे तो अण्णा समूह को चाहिए कि संसद में सरकार के प्रस्ताव पर बहस के दौरान, किसी भी सांसद के माध्यम से संशोधन प्रस्तुत कराए। सरकारी प्रस्ताव पर संशोधन रखने की सुविधा प्रत्येक दल और सांसद को है। असहमति वाले मुद्दों पर संशोधन रखवा कर, उन पर बहस करवा कर अण्णा समूह तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं की असलियत देश के लोगों को बता सकता है। क्या अण्णा समूह को ऐसा एक भी सांसद नहीं मिलेगा? यदि नहीं मिले तो यह तो अण्णा समूह के पक्ष में अपने आप ही बहुत बड़ा हथियार होगा। जन लोकपाल के अपने मसविदे से असहमत (या कि समर्थन न देकर गोलमोल बातें करनेवाले) दलों और नेताओं का उल्लेख अण्णा समूह सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं कर रहा? ‘इस चुप्पी’ का तो एक ही मतलब निकाला जाएगा कि अण्णा समूह केवल सरकार की फजीहत करने और कराने पर तुला हुआ है। इसका दूसरा (और तब ‘एकमात्र’) मतलब यही होगा कि अण्णा समूह तमाम प्रतिपक्षी दलों और नेताओं को राजनीतिक सुविधा उपलब्ध करा रहा है, उनके राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने में सहायक हो रहा है।
ऐसे में, यह जरूरी क्यों किया जा रहा है कि यदि सरकार, अण्णा समूह के मनोनुकूल मसविदा प्रस्तुत नहीं करती तो फौरन अनशन शुरु कर दिया जाए? क्या यह मुमकिन नहीं कि संसद में लोकपाल प्रस्ताव की अन्तिम दशा तय होने के बाद ही अनशन पर विचार किया जाए? यह मान भी लिया जाए कि संसद में पारित लोकपाल वैसा ही होगा जैसा कि सरकार चाहती है (बकौल अरविन्द केजरीवाल ‘जोकपाल’)। तो क्या वह ऐसा मसविदा होगा जिसमें भविष्य में कभी कोई संशोधन नहीं किया जा सकता? तब सरकारी प्रस्ताव पर तमाम राजनीतिक दलों की असलियत सामने आ जाएगी और अण्णा समूह सारे देश को, अधिक आसानी से यह विश्वास दिला सकेगा कि उसकी आशंकाएँ शब्दशः सच साबित हुई हैं और संसद द्वारा पारित मसविदे को सिरे से ही खारिज किया जाना चाहिए। मेरी निजी धारणा है कि ऐसा करना अधिक अच्छा होगा।
अण्णा समूह की उपरोक्त बातों से मुझे लग रहा है कि समूचे आन्दोलन पर प्रतिपक्ष के राजनीति स्वार्थ सिद्ध करने का आरोप बहुत ही आसानी से मढ़ दिया जाएगा या कि अभी जो आरोप लगाया जा रहा है, उस पर मुहर लगाने में लोगों को आसानी होगी।
इसलिए मेरी (बिना मॉंगी) राय है कि -
अण्णा समूह यदि 16 अगस्त से अनशन पर आमादा है तो वह अनशन (जन लोकपाल के मसविदे को शब्दशः समर्थन न देनेवाले) तमाम राजनीतिक दलों के विरुद्ध हो - केवल सरकार के विरुद्ध नहीं।
और/या
संसद में सरकार के प्रस्ताव की अन्तिम दशा तय होने के बाद ही अनशन करने पर विचार किया जाए।
मुमकिन है, मेरा सोचना और मेरी बातें किसी ‘घबराए हुए दिग्भ्रमित व्यक्ति’ का सोच और बातें हों। किन्तु मेरी यह दशा अपने आप नहीं हुई है। उन्हीं बातों से हुई हैं जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है।
क्या ‘ऐसा’ मैं अकेला होऊँगा?
तसल्ली और उम्मीद की बात यही है कि आज, 03 जुलाई को रही, सर्वदलीय बैठक में
काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगा।
दरअसल आम व्यक्ति के लिये घबराने वाली बात ही है, अन्ना तो मात्र जरिया भर हैं, जिन्होंने खुलेआम हिम्मत की, भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाने की, वरना तो सभी अपने घर में शेर हैं। जो कि भ्रष्टाचारियों के यहाँ पट्टे बांधकर पाले जाते हैं।
ReplyDeleteआम आदमी तो यही सोच रहा है कि जितने भी नेता हैं, सभी लगभग एक जैसे हैं, फ़िर करा क्या जाये, जब भी चुनाव होंगे तो चुनना तो एक ही व्यक्ति को होगा, भ्रष्टाचारी नहीं होगा या कम होगा या ज्यादा होगा, इसकी तो कोई गारंटी वारंटी नहीं है।
अनशन से कुछ नहीं होगा, देश की जनता को सड़क पर उतरकर विरोध करना होगा और अपनी ताकत इन भ्रष्टाचारियों को दिखानी होगी।
आशा है, सभी उद्यम का समवेत परिणाम बेहतर होगा.
ReplyDeleteभ्रष्टाचार का मुद्दा अब राजनीति से परे होकर सर्वव्यापी हो गया है, जहाँ से जैसा भी सहयोग मिले, आगे बढ़ना चाहिये।
ReplyDeleteआदरणीय विष्णु बैरागी जी
ReplyDeleteप्रणाम !
जवाब नहीं आपका भी … हर बात को कितने पहलुओं से देख-समझ कर आकलन कर लेते हैं …
आगे आगे देखते हैं होता है क्या ?
:)
हार्दिक शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार