जन लोकपाल : संघर्ष की शुरुआत तो अब हुई है

जन लोकपाल को लेकर परिदृष्य रोचक होता जा रहा है। मुमकिन है कि ‘अण्णा समूह’ को तो शुरु से ही पता रहा हो किन्तु जन सामान्य को अब धीरे-धीरे मालूम होने लगा है कि -

- ‘अण्णा समूह’ का रास्ता आसान नहीं है। और


- केवल काँग्रेस या केन्द्र सरकार नहीं बल्कि तमाम राजनीतिक दल ‘अण्णा समूह’ के विरोध में एक जुट खड़े हुए हैं।

- और यह भी कि ‘अण्णा समूह’ और उनके अभियान को हथियार बनाकर भाजपा सहित तमाम प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों ने खुलकर और जी भरकर अपनी-अपनी राजनीति कर ली और ‘अण्णा समूह’ को मझधार में छोड़ दिया। दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। ठेंगा दिखा दिया।


जन लोकपाल के अपने मसविदे पर समर्थन जुटाने के लिए ‘अण्णा समूह’ ने एक के बाद एक, सारे राजनीतिक दलों से मिलने का क्रम शुरु किया। यह काफी पहले ही कर लिया जाना चाहिए था। क्योंकि सरकार जैसा भी मसविदा पेश करेगी, जाएगा तो वह अन्ततः संसद के सामने ही जहाँ ये सारे राजनीतिक दल अपनी-अपनी तलवारों की धार तेज किए बैठे हैं। ‘अण्णा समूह’ की यह शुरुआत, ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ ही कही जाएगी।

इस शुरुआत के बाद से जो कुछ भी सामने आ रहा है वह हमारे तमाम राजनीतिक दलों की असलियत उजागर कर रहा है। जिस-जिस भी राजनीतिक दल और उनके नेताओं से अण्णा और उनके लोग मिले हैं उन सबने अण्णा की और अण्णा के अभियान की खुलकर तारीफ की और कहा कि वे सब, 16 अगस्त से शुरु होनेवाले अण्णा के अनशन को समर्थन देंगे। किन्तु एक भी दल और एक भी नेता ने, ‘अण्णा समूह’ के ‘जन लोकपाल मसविदे’ का समर्थन नहीं करने की चतुराई भरी सावधानी बरती। यह सचमुच में रोचक अजूबा है कि अण्णा के अभियान और उनके अनशन का तो समर्थन किया जा रहा है किन्तु उनके मसविदे के समर्थन में गलती से भी एक शब्द भी नहीं कहा जा रहा है। जाहिर है कि अण्णा के चाहे न चाहे, अण्णा के जाने-अनजाने, उन्हें हथियार बनाकर केवल राजनीति की गई और यह क्रम जारी है।


‘अण्णा समूह’ ने एक मामले में अवश्य चौंकाया। मन्त्रियों और ‘सिविल सोसायटी’ की संयुक्त मसविदा समिति की बैठकों के बाद, ‘सिविल सोसायटी’ की ओर से अण्णा, केजरीवाल, भूषण आदि जिस प्रकार बैठकों की कार्रवाई की विस्तृत जानकारी मीडिया को देते थे और सरकार को कटघरे में खड़ा करते थे, वैसा कुछ भी इन्होंने, इन दलों और नेताओं से मिलने के बाद एक बार भी नहीं किया। अच्छा होता कि प्रत्येक दल और उनके नेताओं से मुलाकात के बाद अण्णा और/या उनके साथी, इन चर्चाओं की विस्तृत जानकारी भी सार्वजनिक करते। तब, देश के लोगों को अधिक जल्दी तथा अधिक स्पष्टता से ‘हमाम के नंगों’ की असलियत मालूम हो पाती। लेकिन शायद अण्णा और उनके साथियों ने जानबूझकर, (सम्भवतः, सारे मोर्चे एक साथ न खोलने की) किसी रणनीति के तहत यह ‘भलमनसाहत और उदारता’ बरती हो।

‘अण्णा समूह’ को तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से मिलकर अब तक जो कुछ मिलता नजर आ रहा है, अण्णा और उनके साथियों के चेहरों पर जो उदासियाँ नजर आ रही हैं उससे साफ लग रहा है कि शेष दलों और उनके नेताओं से इन्हें आगे भी ‘शून्य’ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलनेवाला।

समूचा परिदृष्य पल प्रति पल रोचक होता जा रहा है। संघर्ष का वास्तविक स्वरूप और वास्तविक साथियों की शकलें तो अब सामने आएँगी।

4 comments:

  1. देश पर सबका अधिकार है, पर अधिकारों पर किसका अधिकार है।

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  2. हर दर की "जबह साई"* से तंग आ गया है दिल, [*पेशानी रगड़ना/खुशामद करना]
    महँगी पड़ी है कितनी शिकस्ते 'अना' मुझे.

    http://aatm-manthan.com

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  3. जनांदोलन को सरकारी आंदोलन बना दिया, तब ही इसकी हवा उतर गई थी॥ अब अन्ना भी फिर वह हवा नहीं बना पायेंगे और राजनीतिक सियार गांधीवाद को गहरे पाताल में गाड़ देंगे॥

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  4. उम्‍मीद है कि जन लोकपाल की धार, आते तक बनी रहेगी.

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