आज आठवाँ दिन है। इस पोस्ट के प्रकाशित होते-होते नौवाँ दिन हो जाएगा। विचित्र सा अनमनापन छाया हुआ है। कुछ भी करने को जी नहीं होता। लिखने को इतना कुछ है कि अविराम लिखूँ तो पाँच-सात दिन लिखता रहूँ। किन्तु जब-जब भी लिखने की कोशिश की, हर बार असफल रहा। बीसियों बार लेपटॉप खोला, लिखना चाहा किन्तु एक बार भी लिख नहीं पाया। अंगुलियाँ ही नहीं चलीं। लेपटॉप के कोरे, खाली पर्दे को सूनी आँखों से देखता रहा। मन पर कोई बोझ भी नहीं है और न ही किसी से कोई कहासुनी ही हुई। सब कुछ सामान्य। किन्तु विचित्र रूप से असामान्य।
मेरा मेल बॉक्स भरा पड़ा है - सन्देशों से भी और ई-मेल से मिले ब्लॉगों से भी। सन्देश वे ही पढ़े जो बीमे से जुड़े थे या फिर दो अक्टूबर को, ‘हम लोग’ के संयोजन में होनेवाले, प्रोफेसर पुरुषोत्तमजी अग्रवाल के व्याख्यान से जुड़े थे। इन सन्देशों को खोलना मजबूरी थी - धन्धे की भी और आयोजन की जिम्मेदारी की भी।
गिनती तो नहीं की किन्तु कोई तीस-पैंतीस अनपढ़े ब्लॉग तो होंगे ही मेरे मेल बॉक्स में। सबके सब मेरे प्रिय ब्लॉग। पढ़ने की कोशिशों का हश्र भी, लिखने की कोशिशों जैसा ही रहा। भूले-भटके कोई ब्लॉग खोला भी तो एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाया। यही हाल अखबारों का भी हुआ। ‘जनसत्ता’ का पाठक केवल मैं ही हूँ मेरे घर में। इन दिनों के, ‘जनसत्ता’ के सारे अंक, बिना खोले ही रखे हुए हैं - जस के तस। कुछ इस तरह मानो उनसे मेरा कोई सरोकार ही न हो। पत्र आते कम हैं और लिखता ज्यादा हूँ। देख रहा हूँ कि इन आठ-नौ दिनों में सात अनुत्तरित पत्रों के अलावा कोई सत्ताईस-अट्ठाईस पत्र अपनी ओर से लिखने के लिए सूचीबद्ध हो गए हैं। यह नहीं कि यह अनमनापन केवल पढ़ने-लिखने तक ही सीमित रहा। इन दिनों में बेची गई पूरी उनतीस बीमा पॉलिसियों की प्रविष्टियाँ भी अपने रेकार्ड में नहीं कर पाया हूँ। समाचार देखने के लिए बुद्धू बक्सा जब-जब भी खोला, तब-तब हर बार अपने आप पर ही हैरान हुआ। पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है और क्या बोला जा रहा है - समझ ही नहीं पड़ा।
क्या हो रहा है मुझे? 27-28 सितम्बर, मंगलवार-बुधवार की सन्धि-रात्रि में, अपने आप से जूझकर यह सब लिख रहा हूँ कुछ इस तरह मानो खुद के साथ जबरदस्ती कर रहा हूँ या खुद को सजा दे रहा हूँ। यूँ तो फटाफट लिखता हूँ किन्तु इस समय मानो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगानी पड़ रही है। नितान्त अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, ऐसा लग रहा है।
यह उदासीनता है या जड़ता की शुरुआत? मैं सम्वेदनशून्य या सम्वेदनाविहीन तो नहीं हो रहा? अच्छा भला घर से निकलता हूँ, यार-दोस्तों के बीच खूब हँस रहा-हँसा रहा हूँ, जमकर अड्डेबाजी कर रहा हूँ, दोनों समय भोजन कर रहा हूँ। याने कि बाकी सब तो सामान्य और पूर्वानुसार ही। किन्तु केवल लिखने-पढ़ने के नाम पर जड़ता! कहीं यह बढ़ती उम्र का असर तो नहीं?
जानता हूँ कि सारे सवालों के जवाब मेरे अन्दर ही हैं किन्तु भरपूर कोशिशों के बाद भी उन्हें हासिल नहीं कर पा रहा हूँ। क्या इन कोशिशों के मामले में अपने आप से बेईमानी कर रहा हूँ?
यह कैसी दशा है? क्या ऐसा सबके साथ होता है? होता है तो कितने समय तक यह दशा बनी रहती है? क्या किसी वैद-हकीम से मशवरा किया जाना चाहिए? या किसी मनः चिकित्सक से?
कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ। जी करता है कोई मुझे समझाइश दे किन्तु जब भी किसी से बात की और उसने समझाना चाहा तो मुझे चिढ़ छूट गई और झल्ला कर चला आया - ‘मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाय है’ को चरितार्थ करता हुआ।
देखता हूँ, आगे क्या होता है। लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरु होता है या नहीं? होता है तो कब और कैसे?
♥
ReplyDeleteगंभीरता से पढ़ने फिर आना पड़ेगा …
आऊंगा शाम तक ।
अभी स्वीकार करें …
सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
चित्त की दशा - शून्य-आबद्ध।
ReplyDeleteबाकी तो सब चलेगा, चलता रहता है लेकिन यह
ReplyDelete''इन दिनों में बेची गई पूरी उनतीस बीमा पॉलिसियों की प्रविष्टियाँ भी अपने रेकार्ड में नहीं कर पाया हूँ।'' कैसे चलेगा.
कम से कम धंदा तो चलता रहे. राहुल जी ठीक कह रहे है. लगता है आप पर ऊँगली उठाने वाले लोग नहीं हैं.
ReplyDeleteसबसे ज्यादा तो 'अपने-आप' से ही जूझना पड़ता है। इसी का नाम तो जीवन है।
ReplyDeleteहम समझाना चाहते थे पर आपसे दुश्मनी... कभी नहीं :)
ReplyDeleteकोई अच्छा स लतीफा सुन ले या पढ़ ले, 'खोकर साहब' से टेलीफोन पर बतिया ले! खुल कर अट्टहास करने से यह अवसाद, विस्मयजनक रूप से छू-मंतर हो जाएगा.
ReplyDelete'मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाय है'
ReplyDeleteयारों नीलाम करो सुस्ती, हमसे उधार ले लो मस्ती, मस्ती का नाम तन्दरुस्ती!
yahi uhapoh asli zindagi hai !!
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