उनके जाने के बाद समझ पड़ा कि अनुजवत मेरे वे मित्र अपना अहम् तुष्ट करने के सुनिश्चित उद्देश्य से आए थे किन्तु मेरा दुर्भाग्य कि मेरी अल्पज्ञतावश, यह सुख प्राप्त करने के स्थान पर वे आहत-अहम् लौटे।
हम ‘असहमत मित्र’ हैं। वे ‘कट्टर हिन्दुत्ववादी’ और मैं ‘औसत हिन्दुत्ववादी।’ ‘मुझे चिढ़ाने और खिजाने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है’ यह बात मुझे दीर्घावधि में समझ आई और मैंने ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ पर अमल करने की समझदारी बरतते हुए चिढ़ने-खीझने के बजाय चुप रहना शुरु कर दिया। मेरी चुप्पी को उन्होंने हर बार मेरी मात माना और हर बार ‘कोई जवाब नहीं है मेरी बातों का आपके पास’ कहते हुए, खुश-खुश लौटते रहे। किन्तु इस बार ऐसा नहीं हो पाया।
वे पोलीथीन की छोटी सी थैली में दो पेड़े लेकर आए थे। बोले - ‘मुँह मीठा कीजिए। भतीजे का विवाह हो गया।’ प्रत्युत्तर में मैंने बधाइयाँ तो दी ही, विवाह में न बुलाने का उलाहना भी दिया। मेरी बात से अप्रभावित हो जवाब दिया - ‘उसने अवसर ही नहीं दिया। हमें भी तभी मालूम हुआ जब वह प्रेम विवाह कर, बहू के साथ घर आया।’ मैं प्रेम विवाह का (और विशेषतः अन्तर्जातीय विवाह का, क्योंकि मेरा विश्वास है कि जाति प्रथा के रहते हमारा उद्धार सम्भव नहीं) समर्थक हूँ। सो, बहू की पारिवारिक पृष्ठ भूमि के बारे में पूछताछ कर ली। जिस तत्परता से उन्होंने उत्तर दिया, उससे लगा कि मैंने यह सवाल पूछने में बड़ी देर कर दी थी। उन्होेंने सगर्व सूचित किया - ‘अन्तर्जातीय ही नहीं, अन्तर्धर्मी विवाह किया है उसने। एक मुसलमान लड़की को हिन्दू बनाने का कारनामा किया है उसने।’ मुझे अवाक् नहीं होना चाहिए था किन्तु उनकी मुख-मुद्रा और दर्पित-वाणी ने कुछ क्षण तो मुझे सचमुच में अवाक् कर दिया। उसी मुद्रा और वाणी में वे बोले - ‘चौंक गए ना आप? आप तो हमारे पीछे हाथ धोकर और लट्ठ लेकर पड़े रहते हैं। मेरे भतीजे ने हिन्दू धर्म की जो सेवा की है, वैसा तो आप सोच भी नहीं सकते।’
अब तक मैं अपने आप में लौट आया था। उनकी बात, उनका तर्क, उनकी दर्प भरी मुख मुद्रा और गर्वित-गर्जना पर मुझे सहानुभूति हुई जो अगले ही क्षण दया में बदल गई। मेरी नजरों में अपने प्रति दया भाव ताड़ने में उन्हें पल भी भी नहीं लगा। तनिक आवेश में बोले - ‘आप तो ऐसे देख रहे हैं जैसे मेरे भतीजे ने कोई जघन्य पाप कर लिया है?’ मैंने कहा - ‘पता नहीं आप क्या समझेंगे किन्तु मुझे ताज्जुब तो इस बात का है कि जिस कृत्य पर आपको चरम आत्मग्लानि और परम अपराध बोध होना चाहिए था उस पर आप गर्व कर रहे हैं?’ मानो वज्र प्रहार हुआ हो, कुछ इसी तरह वे हड़बड़ाए और तमतमा कर सवाल किया - ‘क्या मतलब आपका?’ अब मैं पूरी तरह संयत और वे आपे से बाहर थे।
मैंने कहा - ‘आप तो हिन्दू परम्पराओं के अच्छे-भले जानकार हैं। जरा बताइए कि हिन्दू धर्म में तीन ऋण कौन-कौन से बताए गए हैं?’ अविलम्ब जवाब आया - ‘गुरु ऋण, मातृ ऋण और पितृ ऋण।’ ‘अब जरा यह भी बता दीजिए कि इन ऋणों से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है?’ मैंने पूछा। उन्होंने परम आत्म विश्वास और आधिकारिकता से मेरी ज्ञान वृद्धि की - ‘गुरु को उनके द्वारा चाही गई दक्षिणा दे कर गुरु ऋण से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि मातृ ऋण से आदमी मृत्यु पर्यन्त उऋण नहीं हो पाता और रही पितृ ऋण से मुक्ति की बात तो पिता का वंश बढ़ा कर आदमी उससे मुक्त हो जाता है।’
जवाब मुझे पहले से ही मालूम था। सो, मनोनुकूल जवाब से अब बाजी पूरी तरह से मेरे नियन्त्रण में थी। मैंने कहा - ‘पितृ ऋण से मुक्त होने की हिन्दू धर्म की परम्परा निभाने के लिए आपके भतीजे को एक यवन कन्या पर आश्रित होना पड़ रहा है। क्या यह उचित और धर्मानुकूल है? फिर, मेरी बात को अन्यथा बिलकुल मत लीजिएगा, यह एक सन्दर्भ मात्र है कि मातृत्व तो प्राकृतिक और जैविक सत्य है जबकि पितृत्व केवल ‘विश्वास’ और आप तो जानते-समझते हैं कि विश्वास भले ही भंग हो जाए, प्राकृतिक और जैविक सत्य तो रंचमात्र भी संदिग्ध नहीं होता।’
हमारा सम्वाद इस मुकाम पर पहुँच जाएगा, यह हम दोनों के लिए अकल्पनीय था। वे हक्के-बक्के और मैं अपनी इस अशालीन हरकत पर अकबकाया था। किन्तु जो होना था, हो चुका था। दुरुस्ती की कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी। हम दोनों ही मौन थे। कौन बोले और क्या बोले?
सन्नाटा मैंने ही तोड़ा। हिम्मत जुटा कर बोला - ‘आप तो बात को दिल पर ले बैठे। ये तो तर्क हैं जो आसानी से जुटाए जा सकते हैं और तर्कों से हम वहीं पहुँचते हैं जहाँ हम पहुँचना चाहते हैं।’ मन्द स्वर में, कुछ इस तरह मानो स्वगत कथन कर रहे हों, बोले - ‘बात तो आपकी यह भी ठीक है किन्तु मेरे पास तो कोई तर्क ही नहीं है।’ मैंने कहा - ‘चलिए! छोड़िए इस बात को। यह बताइए कि आप शाहनवाज हुसैन को जानते हैं?’ ‘व्यक्तिगत स्तर पर नहीं जानता। बस इतना जानता हूँ कि वे भाजपा के बड़े नेता हैं। बिहार से हैं और अटलजी की सरकार में मन्त्री थे।’ जवाब दिया उन्होंने। मैंने कहा - ‘हाँ। वही। उन्हीं की बात कर रहा हूँ मैं। आपको उनकी पत्नी के बारे में पता है?’ उन्होंने इंकार में मुण्डी हिलाई। मैंने कहा - ‘उनकी पत्नी हिन्दू है। रेणु नाम है उनका। इन दोनों ने भी अन्तर्धार्मिक प्रेम विवाह किया है। किन्तु शाहनवाजजी ने रेणु का धर्म नहीं बदला। उनका हिन्दुत्व जस का तस बनाए रखा।’ उन्होंने अविश्वास से मेरी ओर देखा। मैंने कहा - ‘आप अपनेवालों से पूछिएगा।’ मन्द स्वर में जवाब आया - ‘पूछूँगा जरूर किन्तु आप कह रहे हैं तो सच ही होगा। मैंने अगला सवाल किया - ‘अच्छा! यह तो आपको पता है ना कि इस साल ईद और हरतालिका तीज एक ही दिन थी।’ उन्होंने हामी भरी। मैंने कहा - ‘उस दिन शाहनवाजजी के बंगले पर दो आयोजन हुए थे। पहला आयोजन ईद का था और दूसरा आयोजन तीज पूजन का था। उधर मेहमान सेवइयों का मजा ले रहे थे, उधर रेणुजी हाथों में मेंहदी लगाए, महिलाओं से घिरी बैठी थीं।’ सुनकर उनकी आँखें फैल गईं - ‘अच्छा? सच्ची में?’ मैंने कहा - ‘आप यह भी तलाश कर लीजिएगा।’ वही जवाब इस बार भी आया - ‘जरूर तलाश करूँगा। लेकिन आप कह रहे हैं तो सच ही होगा।’
अब मुझे बाजी समेटनी थी। कहा - ‘तलाश कीजिएगा। मेरी बात सच पाएँगे।’ मेरे पूर्वानुमान को सच करते हुए वे कुछ नहीं बोले, चुप ही रहे। मैंने कहा - ‘बन्धु! आप मेरी इस बात से कभी सहमत नहीं हुए कि धर्म नितान्त निजी मामला है। आज भी मत मानिएगा किन्तु मेरी बात पर विचार जरूर कीजिएगा।’ अब उनकी चुप्पी अकेली नहीं थी। दयनीयता उसकी सहेली बन कर उनके चेहरे पर आ बैठी थी।
शह और मात के अन्दाज मैंने अन्तिम चाल चली - ‘आपके भतीजे ने हिन्दुत्व की कितनी रक्षा या सेवा की यह तो आप तय करते रहिएगा किन्तु शाहनवाज ने साबित कर दिया कि हिन्दुत्व की सच्ची और पूरी-पूरी रक्षा तो उसी ने की। इतनी कि कोई हिन्दू भी क्या करेगा?’
बिना किसी भूमिका के वे उठ खड़े हुए। वे पूरी तरह असहज हो गए थे। इतने कि जब चलने को हुए तो ‘अरे! अरे!! इन्हें कहाँ लिए जा रहे हैं? ये तो मुझे दे दीजिए’ कहते हुए मुझे उनके हाथ से पेड़े झटकने पड़े।
पेड़े अच्छे थे? काफ़ी अलग तरह की बात कही आपने। हम सामान्य लोग एक परिपाटी पर ही सोचते हैं और अलग सी बात कई बार हमें तगड़ा झटका दे देती है। अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक विवाह के बारे में मैं आपके विचारों से सहमत हूँ। हमारे देश में विभिन्न समुदायों के बीच फ़ायरवाल जैसा अलगाव रहता है जिसे तोड़े बिना परस्पर विश्वास आना कठिन है।
ReplyDeleteगंभीर वार्तालाप को बड़े व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया हे आपने. वैसे शास्त्रों में मातृ-ऋण जैसा कोई उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया है.
ReplyDeleteहिन्दुत्व का उदार स्वरूप ही हिन्दी की रक्षा कर रहा है।
ReplyDelete*हिन्दुत्व की
ReplyDeleteनयी व्याख्या और नया दृष्टिकोण हमेशा ही हिंदू समाज में स्वीकार किया गया है यही कारण है की धर्म पुरातन होने के बावजूद मान्य है ...
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