एक संस्था के गठन के लिए बुलाई गई पहली बैठक में खुद आशीष ने जब यह सब बताया तो उसकी बात पर हममें से किसी को विश्वास नहीं हुआ। होता भी कैसे? हम सब तो बस, उपदेश बघारते रहते हैं जबकि आशीष ने तो आसमान में सूराख कर दिखाया!
अफसाना-ए-कामयाबी-ए-आशीष फकत इतना कि जिस दुर्गा माता को उसके मोहल्ले के लोग पता नहीं कितनी पीढ़ियों से, दो गटरों से घिरी, गली की सड़क के बीचों-बीच बैठाते चले आ रहे थे, उसी दुर्गा माता को आशीष ने एक चबूतरे पर ‘शिफ्ट’ करा दिया।
आशीष का मुहल्ला, नागरवास एक सँकरी सड़क के दोनों ओर बसा है। सड़क के दोनों ओर गटरें बनी हुई हैं, उसके बाद मकाने के चबूतरे और फिर चबूतरों से लगे मकान। नागरवास के निवासी, शारदीय नवरात्रि में, अपनी इसी सड़क के बीचों-बीच दुर्गा स्थापना करते आ रहे थे। सड़क पहले ही सँकरी, उस पर बीचों-बीच दुर्गाजी विराजमान! पूरे दस दिन रास्ता बन्द हो जाता था। दुपहिया वाहन तो दूर, पैदल निकलने के लिए भी लोगों को कसरत और सरकस का सहारा लेना पड़ता था।
आशीष को कई बातों से बेहद तकलीफ होती थी। सबसे पहली तो यह कि माताजी दो गटरों के बीच स्थापित हैं। याने, शुद्धता और पवित्रता तो पहले ही क्षण से कोसों दूर चली गईं। दूसरी यह कि रात में तो लोग जलसा मनाते किन्तु दिन में, माताजी के पीछे और गटर के बीच वाली खाली जगह में भाई लोग ताश-पत्ती खेलते रहते। पता नहीं इस खेल में मनोरंजन या ‘टाइम पास’ कितना होता था और ‘पैसों का खेल’ कितना? आशीष ने, इलाके के थानेदार से कहा भी िकवे कोई कार्रवाई भले ही न करें पर ऐसे ‘खिलाड़ियों’ को हड़काएँ तो सही। किन्तु थानेदार ने अपने कान पकड़ लिए। कहा - ‘तुम मुझे सस्पेण्ड कराने पर तुले हो। धर्म का मामला है और पुलिसवाले वैसे ही बदनाम। मुझे माफ करो।’ तीसरी बात, पूरे दस दिनों के लिए रास्ता बन्द। जिन्हें पता नहीं होता, वे अपने वाहनों वर सनसनाते आते और ऐन माताजी के मण्डप के पास आने पर उन्हें मालूम होता कि वे आगे नहीं जा सकते-उन्हें दूसरी गली में जाने के लिए लौटना होगा। ऐसे लोग, भुनभुनाते हुए, नागरवास के लोगों का नाम ले-ले कर जो कुछ कहते वह सब आशीष को खुद की बेइज्जती और खुद पर उलाहना लगता।
खुद को और माताजी को इस ‘दुर्दशा’ से बचाने के लिए आशीष ने जब कुछ लोगों से बात की तो माना तो सबने कि आशीष सौ टंच सही बात कह रहा है किन्तु साथ देने की हामी एक ने भी नहीं भरी। ‘धर्म का मामला है’ कह कर सबने अपने-अपने पाँव खींच लिए। अन्ततः आशीष ने तय किया - जो भी करेगा अब वह अकेला ही करेगा। जो होगा, देखा जाएगा।
कोई 6 बरस पहले, हर साल की तरह उस साल भी मुहल्ले के लोग दुर्गा स्थापना का चन्दा लेने के लिए आशीष के पास पहुँचे। आशीष ने साफ इंकार कर दिया। कहा - ‘आप लोग माताजी को साफ-सुथरी जगह, किसी मकान के ओटले पर बिराजित करो तो ही मैं चन्दा दूँगा।’ लोगों ने उसकी बात हँसी में उड़ा दी। समझाने की कोशिश की कि धर्म के पारम्परिक मामलों में ऐसी, नासमझी भरी जिद नहीं की जाती। सबसे बड़ा तर्क आया - ‘माताजी की स्थापना जहाँ होती रही है, वहीं करनी पड़ती है। उनकी जगह नहीं बदली जा सकती।’ लेकिन आशीष अपनी ‘नासमझी’ पर अड़ा रहा। लोगों को बिना चन्दा लिए आशीष के घर से लौटना पड़ा।
अगले साल फिर वही नवरात्रि, वही दुर्गा स्थापना, वे ही चन्दा माँगनेवाले और अपनी शर्तों पर अड़ा हुआ वही आशीष। हाँ, इस बार आशीष ने, ठहरे हुए पानी में कंकर फेंका - ‘मुहल्ले में बैठ कर मुहल्ले के सार्वजनिक काम से दूर रहना खुद मुझे बुरा लगता है। लेकिन मेरी बात कहीं से भी गलत नहीं है। और कुछ भले ही मत सोचो लेकिन गन्दी गटरों के बीच माताजी को बैठाना कहाँ का धर्म है? यदि आप लोग मेरी बात मानो और माताजी को आसपास के किसी भी मकान के चबूतरे पर स्थापित कर दो तो मैं इस साल का ही नहीं, गए साल का भी चन्दा दूँगा और इस साल के आयोजन में दो दिनों का प्रसाद (जो लगभग आठ सौ रुपये प्रतिदिन होता था) भी मेरी ओर से रहेगा। नहीं तो गए साल की तरह इस साल भी मुझे माफ करो।’ इस बार किसी ने भी ‘फौरन इंकार’ नहीं किया। कुछ ने ना-नुकुर की तो कुछ लोगों ने ना-नुकुर करनवालों को टोक दिया। महसूस किया कि आशीष आयोजन के विरोध में तो है नहीं! वह तो माताजी को गटरों के बीच से उठाने की बात कर रहा है! ओटले पर माताजी बैठेंगी तो दिन भर न केवल सुरक्षित रहेंगी बल्कि उनकी पवित्रता भी बनी रहेगी। कुत्ते, सूअर जैसे जानवरों के आने की आशंका भी नहीं रहेगी।
आशीष ने कहा - ‘पता नहीं उन्हें मेरी बातें जँचीं या कि खुद माताजी उनके हिरदे में बिराजमान हो गईं। सबने एक मत से मेरी बातें मान लीं।’
वह दिन और आज का दिन। माताजी हर साल चबूतरे पर स्थापित की जा रही हैं। दिन भर पर्दे से ढँकी, चबूतरेवाले मकान मालिक की चौकीदारी में बनी रहती हैं। अब रास्ता बन्द नहीं होता। पैदल तो क्या, दुपहिया वाहन सर्राटे से निकल जाते हैं। उल्टे, फायदा यह हुआ कि आरती के समय सब लोगों को खड़े रहने के लिए पूरी सड़क मिल जाती है जबकि पहले सामनेवाली गली में खड़ा होना पड़ता था।
इस तरह मेरे कस्बे के एक मोहल्ले में, एक आदमी ने क्रान्ति कर दिखाई - वह भी ‘धर्म’ जैसे सम्वेदनशील मामले में, जिसमें बड़ा से बड़ा समझदार, ताकतवर और प्रभावी आदमी भी हाथ डालने की कल्पना मात्र से ही चिहुँक उठता है, हाथ जोड़ लेता है।
नीयत साफ हो, इरादे बुलन्द हों और अपने प्रयत्नों पर विश्वास हो तो परिणामों को तो अनुकूल होना ही पड़ता है। मैंने आशीष को बधाई नहीं दी - उसे सलाम किया। कहा - ‘तुम मुझसे बेहतर नहीं, मेरे आदर्श हो। मैं अपने प्रयत्नों के लिए तुमसे प्रेरणा लूँगा।’
उम्र में मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे आशीष ने हँसते हुए कहा - ‘सुनो भाई साहब की बातें! इसमें मैंने क्या किया। वो तो माताजी खुद चबूतरे पर बैठना चाहती थीं, सो बैठ गईं। यह तो जगदम्बा की ही माया और प्रताप है।’
मैंने एक बार फिर आशीष को सलाम किया। वह संस्कारवश संकुचित हो गया। कुछ नहीं बोला। किन्तु यदि आप उसे मोबाइल नम्बर 98270 84996 पर उसे शाबासी देंगे तो उसे बोलना ही पड़ेगा - आपको धन्यवाद देने के लिए।
@नीयत साफ हो, इरादे बुलन्द हों और अपने प्रयत्नों पर विश्वास हो तो परिणामों को तो अनुकूल होना ही पड़ता है।
ReplyDeleteजय हो!
@इसमें मैंने क्या किया। वो तो माताजी खुद चबूतरे पर बैठना चाहती थीं, सो बैठ गईं। यह तो जगदम्बा की ही माया और प्रताप है।
भक्त की विनम्रता में भगवान की शक्ति है।
मन में ठान लें तो कोई भी कार्य कठिन नहीं है, बड़ा सराहनीय कार्य कराया है आशीष ने।
ReplyDeleteसराहनीय और अनुकरणीय...आपकी ही तरह सलाम आशीष को ..
ReplyDeleteबड़ा सराहनीय कार्य कराया है आशीष ने।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .... बधाई एवं शुभकामनायें !
मन में विश्वास हो तो हर काम आसान होता है, आशीष के बुलंद इरादों को सलाम!
ReplyDeleteमाता करे की हर मोहल्ले में एक आशीष बन जाए. आभार.
ReplyDeleteमां का आशीष.
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