हिन्दी का पठान

किसी से धोबीपाट खाकर, चारों कोने चित्त होकर भला कोई खुश होता है? नही ना? किन्तु मैं हुआ हूँ।

हिन्दी की पक्षधरता को लेकर मैं खुद पर गुमान करने लगा था। किन्तु इस सक्रान्ति पर मेरा यह भ्रम दूर हो गया। मुझे धरती पर ला पटककर मेरी यह ‘सुखद दुर्दशा’ करनेवाले हैं महेन्द्र जैन। इनसे मिलकर, इनसे बात कर और इनकी हकीकत जानकर मुझे आत्म-ज्ञान हो गया कि हिन्दी के मामले मैं बोलता अधिक हूँ जबकि महेन्द्र भाई करते अधिक हैं।

स्टेशनरी सामान और नाना प्रकार की कलमों (पेनों) के अग्रणी व्यापारी महेन्द्र भाई की दुकान पर, जन सामान्य के आधुनिक काम-काज का अधिकांश सामान मिल जाता है। अपने मोबाइल के ‘पुनर्भरण’ (रीचार्ज) के लिए गया तो मेरा मोबाइल नम्बर पूछा। मैंने अपना नम्बर अंग्रेजी में बताया तो वे अपरिचित नजरों से मुझे देखने लगे। पूछा तो ऐसे जवाब दिया मानो किसी सदमे में डूबा कोई आदमी बोल रहा हो। बोले - ‘आप तो अंग्रेजी में बता रहे हैं?’ मैंने कहा - ‘हाँ।’ महेन्द्र भाई ने प्रतिप्रश्न किया - ‘आप तो हिन्दी का झण्डा उठाए घूमते हो?’ मैंने फिर कहा - ‘हाँ।’ महेन्द्र भाई बोले - ‘लेकिन मैं तो अंग्रेजी नहीं समझता। मुझे तो हिन्दी में अपना नम्बर बताइए।’ मैं अचकचा गया। मुझे लगा, महेन्द्र भाई के हाथ में कलम नहीं, या तो आईना है या फिर कोड़ा। या तो मुझे मेरी वास्तविकता अवगत करा रहे हैं या फटकार रहे हैं।

मैंने हिन्दी में अपना मोबाइल नम्बर बताया, अपना काम कराया, भुगतान किया लेकिन लौटा नहीं। बैठ गया। महेन्द्र भाई के सामने। इस विश्वास के साथ कि मुझे यहाँ से निश्चय ही कुछ न कुछ महत्वपूर्ण मिलेगा।

महेन्द्र भाई एम. कॉम. हैं किन्तु परीक्षा सहित अपना सारा काम हिन्दी में ही किया। यदि विवशतावश कभी कोई अंग्रेजी शब्द या वाक्य लिखना पड़ा तो वह भी नागरी लिपि में ही लिखा। दुकान का नाम यद्यपि ‘पेन सेण्टर’ हैं किन्तु लिखवाया नागरी लिपि में ही। सारी लिखत-पढ़त, बिल और हस्ताक्षर आदि के लिए हिन्दी ही प्रयुक्त करते हैं।

चूँकि व्यापार के अपने क्षेत्र में अग्रणी हैं तो सरकारी कार्यालय और संस्थान् भी इनके ग्राहकों में शामिल हैं। अब तो चूँकि सब इन्हें ‘अच्छी तरह’ जान गए हैं इसलिए अब कोई ‘लफड़ा’ नहीं होता किन्तु शुरु-शुरु में होता रहता था। एक सरकारी बैंक का वाकया इन्हें भुलाए नहीं भूलता। इनका बिल देखकर बैंक प्रबन्धक ने कहा कि बिल और विशेष कर अंक हिन्दी में होने के कारण बिल का भुगतान नहीं हो पाएगा। प्रबन्धक ने सलाह दी कि दूसरा बिल ला दें जिसमें कम से कम अंक तो अंग्रेजी में ही हों। महेन्द्र भाई ने कहा कि उन्हें तो अंग्रेजी में अंक लिखना आता ही नहीं। प्रबन्धक ने कहा - ‘तब तो बिल भुगतान करना मुश्किल होगा।’ महेन्द्र भाई ने ठण्डी आवाज में कहा - ‘मेरे इस बिल का भुगतान, आप तो क्या कोई नहीं रोक सकेगा। वह तो आपको करना ही पड़ेगा और आप ही करेंगे। किन्तु आप जो भी कह रहे हैं, मझे लिख कर दे दें और उससे पहले, आपने बाहर जो लिखवा कर टाँग रखा है कि आपको हिन्दी में काम करने में प्रसन्नता होगी, वह पहले हटवा दें। आपका लिखा मिलने पर मैं ऐसी व्यवस्था करा दूँगा कि आपको भविष्य में ऐसा कहने का मौका नहीं मिलेगा।’

महेन्द्र भाई की, बरफ जैसी ठण्डी आवाज और प्रबन्धक को आर-पार देखती तीखी-गहरी आँखों का असर यह हुआ कि प्रबन्धक ने सारे काम छोड़कर महेन्द्र भाई के बिल का भुगतान हाथों-हाथ कराया। वह दिन और आज का दिन, महेन्द्र भाई को उस बैंक में तो ठीक, किसी और बैंक में या दफ्तर मंे आज तक ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। इस घटना की जानकारी चारों ओर किसी अफवाह की तरह फैली और फिर हुआ यह कि जहाँ-जहाँ महेन्द्र भाई पहुँचे उससे पहले इस घटना की जनकारी पहुँच गई। घटना के ब्यौरे में हिन्दी का मुद्दा दूसरे नम्बर पर रहा। पहले नम्बर पर रहा - हिन्दी के प्रति महेन्द्र भाई का स्पष्ट, कठोर और अविचल आग्रह।

सुनकर मुझे वही आनन्द हुआ जैसा कि अपने कुनबे के, अब तक अज्ञात, अपने से बेहतर सदस्य से मिलने पर होता है। मैंने कहा - ‘उधारी वसूल करने के लिए पठानों का उपयोग करने की बातें मैंने सुनी ही सुनी हैं। सुनता रहा हूँ कि जो उधारी डूबती लगती थी, उसकी उगाही किसी पठान के जिम्मे करने पर वह वसूल हो जाती थी। इसीलिए ‘पठानी वसूली’ शब्द-युग्म चलन में आया। यह घटना सुनने के बाद अब मैं आपको ‘हिन्दी का पठान’ कहूँगा।’

यदि आपको लगता है कि हिन्दी के इस ‘पठान’ का यह आचरण सराहनीय है तो इन्हें मोबाइल नम्बर 098272 00059 पर बधाई देने में न तो देर करें और न ही कंजूसी।

15 comments:

  1. विष्णु जी, अब यह तय हो गया कि आपका कुछ नहीं हो सकता ... आप अगर कभी विषय से भटकना चाहते भी तो ऐसे अटल मित्रों की जमात आपको डिगने नहीं देती। ऐसे उदाहरण सामने रखते रहिये ताकि हर मुद्दे पर शिकायत करते निराश मनों को भी आशा की किरण दिखने लगे। महेन्द्र भाई धन्य हैं। बैंक वाली घटना में उनके व्यवहार से बहुत लोग सबक ले सकते हैं। शुभकामनायें!

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  2. फेस बुक पर, हिमांशु राय, भोपाल की टिप्‍पणी -

    पेन सेण्‍टर और महेन्‍द्रजी, दोनों को मेरा सात्विक और निर्भीक नमन।

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  3. हिंदी के प्रति महेंद्र भाई जी की निष्ठां की सराहना करता हूँ. यह बताना अनुचित न होगा की जिन अंकों को अंग्रेजी समझा जा रहा है वे वास्तव में हिन्दू मूल के हैं. अंकों के लेखन की यह प्रणाली भारतीय गणितज्ञों द्वारा विकसित की गयी थी और फ़ारसी में अपनाया गया. इसे ही अरबी में भी प्रयुक्त किया गया और कालान्तर में पश्चिम के देशों द्वारा भी. राज भाषा अधिनियम के अंतर्गत इन्हें ही अंगीकार किया गया है.

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    1. जी, आपसे पूर्ण सहमति है और इस जानकारी का प्रसार होना चाहिये।

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  4. ये हुयी दमदार बात, लोगों को कभी कभी ऐसे ही समझाना होता है...

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  5. महेन्द्र भाई को साधुवाद। काम तो मैं भी हि्न्दी में ही करना चाहता हूँ। अधिकतम करता भी हूँ। लेकिन पेशे के कारण अंग्रेजी का उपयोग करना भी जरूरी हो जाता है। हाँ अंक तो अंग्रेजी वाले ही प्रयोग करता हूँ। वैसे सारी दुनिया की भाषाओं ने इन्हें अपना लिया है, हिन्दी ने भी।

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  6. इस जानकारी का प्रसार होना चाहिये।

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  7. मेरी बेटी को अंग्रेजी मे पहाड़े याद नहीं होते थे... एक बार हिन्दी मे सिखाया तो एकदम से सीख गयी... यद्यपि अंग्रेजी के अंक लिखने के लिए स्वीकार किए जा सकते हैं क्योंकि इन्हें तकनीकी रूप से लिखा जाना आसान है।
    हिन्दी के पठान को सादर नमन !

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  8. असहज-सा लगता है, खैर शुभकामनाएं कि 'पेन सेंटर', लेखनी भंडार बन कर फले-फूले.

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  9. kripya jeevan aanand lic policy ke bare me bataye?

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    1. मैं ऐसे निमन्‍त्रण की प्रतीक्षा करता हूँ। जल्‍दी ही 'जीवन आनन्‍द' के बारे में विस्‍तार से जानकारी प्रस्‍तुत करूँगा। यदि आप अपना ई-मेल पता दे दें तो वह जानकारी आपको सीधे ही भेज सकूँगा।

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  10. Lahjaa to Gabbarwala hai, "Pathan" kahne me vajan nahi aa raha.

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  11. बहुत ही सुन्दर बात है ‌कि आज भी ‌हिन्दी पूरी तरह से जी‌वित है... आभार

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  12. बहुत ही सुन्दर बात है ‌कि आज भी ‌हिन्दी पूरी तरह से जी‌वित है... आभार

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  13. ई-मेल से, श्री आशीष दशोत्‍तर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    हिन्दी को लेकर इतनी सख्ती कहीं इसके लिए खतरनाक न हो जाए। जो आसानियाँ भाषा में हम कर सकते हैं उसे हमें स्वीकारना चाहिए। अक्सर इस तरह की कड़ाई से ही हम किसी भाषा या विधा को आम लोगों से दूर कर देते है। जिस तरह आज की कविता के प्रति बरती गई नियमबद्धता से यह हो गया है कि लोग या तो कविता का उपहास करने लगे हैं या उसके प्रति गम्भीर नहीं रहे है। इसलिए यह मेरा निजी मत है कि अंक ही क्या अन्य बातें जो आम लोगों द्वारा भाषा में स्वीकार ली गई हैं, उन्हें हम अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने के लिए ग़लत साबित ना करें।

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