वास्तविकता तो भगवान ही जाने किन्तु वे खुद को राष्ट्रवादी कहते तो हैं ही, ऐसा कहने का कोई मौका नहीं छोड़ते। नहीं मिलता है तो मौका बना लेते हैं। जैसे - ‘बहुत दिनों से आपने चाय नहीं पिलाई। चलिए! राष्ट्रवादी को चाय पिलाइए।’
वे एक सरकारी दफ्तर में अनुभाग अधिकारी हैं। मँहगी जमीनवाली पॉश कॉलोनी में, तीन हजार वर्ग फीट के प्लॉट पर बने भव्य ‘सुदामा निवास’ में रहते हैं। बड़ा बेटा इंजीनीयरिंग के पहले साल में है। छोटा बेटा, इसाई मशीनरी संचालित, अंग्रेजी माध्यम के मँहगे स्कूल में, नौंवी कक्षा में पढ़ रहा है। पत्नी के नाम पर एक जनरल स्टोर है - सुदामा निवास में ही। घर में दो कारें और दो मोटर सायकिलें हैं। इससे अधिक और कुछ हो तो पता नहीं। मुझे तो इतना ही मालूम है।
गणतन्त्र दिवस की पूर्व सन्ध्या पर मैं घर के बाहर खड़ा था। वे जाते हुए नजर आए। व्यस्त थे। बोले - ‘अपन तो राष्ट्रवादी हैं। पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को अपने घर पर राष्ट्र-ध्वज फहराते हैं। आप भी सुबह आइए।’ मैंने कहा - ‘कल की कल देखेंगे। फिलहाल मुमकिन हो तो आधा कप चाय पी लीजिए।’ मेरी बात पूरी बाद में हुई, वे फटफटी से पहले ही उतर गए।
चूँकि उनकी आदत से परिचित था सो वे कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने, ‘आक्रमण ही श्रेष्ठ बचाव है’ पर अमल करते हुए कहा - ‘आप तो राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्र के लिए क्या कर सकते हैं?’ बोले - ‘आप भी क्या सवाल करते हैं! देश के लिए जान भी दे सकता हूँ।’ मैंने कहा - ‘जान देने की जरूरत जब आएगी तब देखी जाएगी। फिलहाल तो आप यदि कर सकें तो दो-चार कुछ छोटे-छोटे काम कर दें।’ ‘कहिए! कहिए! देश का कोई काम छोटा नहीं होता।’ उत्साह से जवाब दिया उन्होंने। मैंने सन्देह से देखा और बोला - ‘मुझे नहीं लगता कि आप ये छोटे काम कर पाएँगे।’ वे बुरा मान गए। बोले - ‘आप मेरे राष्ट्रवादी होने पर शक कर रहे हैं?’ मैंने कहा - ‘आप तो बुरा मान गए। मैं भला आपके राष्ट्रवादी होने पर शक कैसे कर सकता हूँ? आपके बारे में आप जो कहेंगे वह तो मुझे मानना ही है।’ वे खुश हो गए। बोले -‘हाँ। अब ठीक है। बताइए।’ मैंने कहा - ‘आपने अपनी कोठी के सामने की सरकारी जमीन की 6 फीट की पट्टी पर अतिक्रमण कर रखा है। उसे हटा लीजिए।’ वे चिहुँक गए। आँखें तरेर कर बोले - ‘आप अपने घर बुलाकर मेरा मजाक उड़ा रहे हैं? वह अतिक्रमण है? आसपास के तमाम लोगों ने जमीन घेर रखी है। मैं तो सबके साथ चल रहा हूँ।’ मैंने कहा - ‘चलिए। छोड़िए। मुझे पता है कि आपकी दोनों कारें आपके या आपके किसी परिजन के नाम पर नहीं हैं। इन्हें अपने नाम पर करवा लीजिए।’ खुद पर काबू करते हुए बोले - ‘आज आपके इरादे नेक नहीं लग रहे। आप जानते हैं कि मैं ऐसा नहीं कर सकता फिर भी आप कह रहे हैं। कारें किसी के भी नाम हो, क्या फर्क पड़ता है? हैं तो देश में ही?’
दो सवाल हो गए थे और वे अपने राष्ट्रवादी होने का नारा बुलन्द नहीं कर पाए थे। मेरा आत्म विश्वास बढ़ गया। मैंने थोड़ी हिम्मत और की। बोला - ‘अच्छा, एक काम तो आप कर ही सकते हैं। भाभीजी के जनरल स्टोर से कोई भी सामान बिना बिल के नहीं बिके, यह तो आप कर ही सकते हैं।’ अब वे तनिक असहज हुए। आवाज का ‘दम’ अचानक ही कम हो गया। बोले - ‘वह सब तो टैक्स प्लानिंग के हिसाब से होता है। वकील साहब और सैल्स टैक्स-इनकम टैक्स के इन्सपेक्टरों-अफसरों की सलाह से होता है।’ उनसे सहमत होने का और उन पर दया दिखाने का पाखण्ड करते हुए मैंने कहा - ‘हाँ। यह बात तो है। जब वकील, इन्सपेक्टर और अफसर सलाह देते हैं तो आप कर ही क्या सकते हैं? चलिए, इसे भी छोड़ें। लेकिन बबलू को बिना लायसेन्स के मोटर सायकिल चलाने से तो आप रोक ही सकते हैं। अभी तो चौदह साल का ही है और आप जानते हैं कि अठारह साल से कम के बच्चे का, बिना लायसेन्स गाड़ी चलाना अपराध है।’ अब उनका स्वर सामान्य से भी नीचा हो गया था। बोले - ‘हाँ, गैरकानूनी तो है किन्तु क्या किया जाए? एक तो उसका स्कूल दो किलोमीटर दूर है और दूसरा, उसके सारे दोस्त मोटर सायकिलों से ही स्कूल आते हैं। मेरी तो कोई बात नहीं किन्तु बच्चों का मामला है। आप तो जानते ही हैं कि वे जल्दी बुरा मान जाते हैं। दोस्तों के बीच उसकी इज्जत का सवाल है।’ मैंने लापरवाही से कहा - ‘चलिए। इसे भी छोड़िए। लेकिन आप उससे यह तो कह ही सकते हैं कि वह अपनी मोटर सायकिल पर तीन सवारी न बैठाए। यह भी गैरकानूनी है और अपराध है।’ ‘आपकी यह बात भी सही तो है किन्तु आप तो जानते ही हैं कि आजकल के बच्चे किसी नहीं सुनते। माँ-बाप की भी नहीं। कहने का कोई फायदा नहीं।’
चाय कब की खत्म हो चुकी थी। वे जाने को कसमसाने लगे थे किन्तु ‘अच्छा! चलता हूँ’ कहने का मौका नहीं पा रहे थे। मैंने कहा - ‘आप जब भी मिलते हैं तो मुझे खुद पर गर्व हो आता है कि मैं आप जैसे राष्ट्रवादी से मिला।’ उन्हें मानो टॉनिक मिल गया। एक झटके में ताजादम हो गए। मैंने कहा - ‘कहने को तो आप सेक्शन ऑफिसर हैं किन्तु मैंने देखा है कि आपको पूरे दफ्तर का काम करना पड़ता है। इस चक्कर में आपको कई बार नाजायज व्यवहार करना पड़ता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि काम करने के नाम पर आप आम लोगों से, अपनी ओर से कुछ नहीं माँगें? बिना माँगें वे जो दे दें, वह कबूल कर लें और कोई कुछ नहीं दे तो उसे, उसका काम हो जाने के बाद चला जाने दें?’ इस बार वे अचानक ही आक्रामक हो गए। बोले - ‘आप क्या समझते हैं मैं अपने लिए लेता हूँ? मुझे तो ऊपरवालों को देने के लिए लोगों से लेना पड़ता है। और फिर! क्या मैं अकेला ही लेता हूँ? सारी दुनिया इसी पर चल रही है। आप को मैं ही मैं नजर आ रहा हूँ! घण्टे भर से आप मुझसे ऊलजलूल बातें किए जा रहे हैं, कुछ तो भी कहे जा रहे हैं। मैं तो आपको बुद्धिजीवी मानकर आपकी बातें सुने जा रहा हूँ। कोई और होता या मैं आपकी इज्जत नहीं करता तो देखते कि क्या हो जाता।’
मैं तत्काल कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर बाद जब वे सामान्य होते लगे तो बोला - ‘याने आप देश के लिए कुछ नहीं कर सकते?’ वे भड़ाक् से उठ खड़े हुए। बोले - ‘सबसे पहले यही तो बात हुई थी? मैंने कहा था ना कि मैं देश के लिए जान दे सकता हूँ। लेकिन लगता है आपने सुना ही नहीं। सारी दुनिया जानती है कि मैं राष्ट्रवादी हूँ। विश्वास न हो तो सुबह मेरे घर आइएगा। कल छब्बीस जनवरी है। मेरे घर पर झण्डावन्दन होगा। आपको पता लग जाएगा।’और मेरे नमस्कार करने से पहले ही वे अपनी मोटर सायकिल पर बैठ गए, मेरी ओर देखा भी नहीं और फुर्र हो गए।
सोच रहा हूँ कि कल उनके घर जाऊँ या नहीं? वे तो राष्ट्रवादी हैं! देश पर जान देने के लिए एक पाँव पर बैठे हैं और कृतघ्न राष्ट्र है कि उन्हें मौका ही नहीं दे रहा।
जय हिन्द! व्यंग्य ऐसा कि हंसते हुए भी टीस होती है। कल तो आपको उनके घर जाना ही पड़ेगा ताकि ध्वजारोहण के समय उनके हाथ न कांपें। बेचारे वही सब तो कर रहे हैं जो बाकी सब कर रहे हैं। पूरा विश्वास है कि उनकी फ़टफ़टी पर रजिस्ट्रेशन नम्बर की जगह "भ्रष्टाचार मिटाओ" भी लिखा होगा।
ReplyDeleteबड़ा पैना व्यंग; हमारी और व्यवस्था की बिगड़ी हालत पर.
ReplyDeleteक़ानून जब कठपुतली बन जाता है तब पुतलियाँ (आँखों की) भी काठ की हो जाती है जो न शर्म से झुकती है और न ही भविष्य के उज्जवल सपने देखती है.
आत्मावलोकन की आवश्यकता - हमारी सोच और कार्यप्रणाली दोनों के लिए.
इस प्रकार की राष्ट्रवादिता आजकल के जीवन में सफलता की कुंजी बन गयी है.
ReplyDelete''पत्नी के नाम पर एक जनरल स्टोर है'' जबरदस्त वाक्य है, मानों खाने के नाम पर रूखी-सूखी.
ReplyDeleteछोटे छोटे सुझावों पर इतनी गहरी वेदना..
ReplyDeleteबसन्त पंचमी की शुभकामनाएं .
ReplyDeleteमाँ सरस्वती की कृपा आप पर सदैव ऐसी ही बनी रहे .
आज के तथाकथित राष्ट्रवादी पर बहुत सुन्दर व्यंग
अशआर आपके अवलोकन के लिए मेरे ब्लॉग पर
फेस बुक पर श्री विजय शर्मा, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत खूब। अब समझ में आया कि राष्ट्रवादी कहाना क्यों गाली लगता है।
फेस बुक पर श्री रंजन पँवार, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteराष्ट्रीय सम्पत्ति आपकी अपनी है...बेचारे इसी ब्रह्म वाक्य का पालन कर रहे हैं।
फेस बुक पर श्री रमेश चोपडा, बदनावर (धार) की टिप्पणी -
ReplyDeleteबहुत ही मँहगी चाय।
हम तो छोटे राष्ट्रवादी हैं। एक टिप्पणी कर सकते हैं, सो किये दे रहे हैं। :-)
ReplyDelete