एक दशक से अधिक समय पूर्व लागू हुई आर्थिक नीतियों के प्रभाव देश के और हमारे सामाजिक तथा निजी जीवन के विभिन्न आयामों पर विभिन्न तरीकों से अनुभव किए जा रहे हैं। किन्तु, इन नीतियों का कोई सम्बन्ध ‘परिवार नियोजन’ से भी है? क्या हम भी ‘कम जनसंख्या, अधिक सुदृढ़ आर्थिक दशा’ की दिशा में चल पड़े हैं?
गए दिनों सामने आए दो प्रसंगों को मिला कर देखा तो अकस्मात ही ये प्रश्न मेरे मन में कौंधे।
पाँच वर्ष की एक पोती के दादा बने हुए मेरे मित्र एक दिन बदहवास मिले। पूछताछ की तो लगा, ‘कोई पूछे तो सही मुआमला क्या है’ की तर्ज पर वे सवाल की राह ही देख रहे थे। जमाने के बदलने को कोसते हुए बोले - ‘अब यही बाकी बचा था कि बेटे से यह सब सुनें!’ उनका इकलौता बेटा अपने माता-पिता की खूब चिन्ता और देखभाल करता है। शिकायत का कोई मौका नहीं देता। सुविधाओं और व्यवस्थाओं के मामले में माता-पिता की अव्यक्त इच्छा को हकीकत में बदलने में देर नहीं करता। ऐसे बेटे के लिए उनसे ऐसी शिकायत सुनना मुझे भी असहज कर गया।
चूँकि उन्हें बेटे से कभी कोई शिकायत नहीं होती। सो, हिम्मत कर, हौले से उन्हें सहलाया - ‘बताने जैसी बात हो तो बता दें।’ बोले - ‘छुपाने जैसा है ही क्या?’ मालूम हुआ कि पोते का मुँह देखने की ललक से उन्होंने बेटे से कहा कि गुड़िया अकेली है। साथ में खेलने के लिए उसके भाई-बहन के बारे में सोचे। अव्वल तो उन्हें अपने आज्ञाकारी बेटे से ‘पलट जवाब’ की उम्मीद नहीं थी। और यदि जवाब मिलना ही था तो ‘ऐसे जवाब’ की तो उम्मीद बिलकुल ही नहीं थी। बेटे ने कहा कि अकेली गुड़िया की शिक्षा का खर्च इतना आ रहा है कि वह और उसकी पत्नी, दूसरे बच्चे के बारे में सोचने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे। किन्तु यदि पिताजी दूसरे बच्चेे की शिक्षा के खर्च की जिम्मेदारी लें तो गुड़िया के भाई-बहन के बारे में विचार किया जा सकता है। यही जवाब ‘दादाजी’ को नागवार गुजरा और वे मिजाज नासाज कर बैठे।
दूसरा प्रसंग इससे भी अधिक कठोर और रूखा है।
मेरे इन मित्र के बेटे के विवाह को चौथा साल चल रहा है। कहाँ तो मेरे मित्र और उनकी पत्नी, बेटे के विवाह की पहली वर्ष गाँठ से पहले ही ‘दादा-दादी’ का दर्जा पाने की हुमस लिए बैठे थे और हालत यह कि चौथी वर्ष गाँठ सामने आ रही है और सब कुछ शादी के ठीक बाद वाले पहले दिन जैसा!
दूर-देस (बैंगलोर) से बेटा इस बार छुट्टी लेकर आया तो दोनों ने अपनी हुमस के अब तक ‘कुँवारी’ रहने पर क्षोभ व्यक्त किया। कहा कि उनके तमाम मित्र नाती-पोतों के साथ खेल रहे हैं और वे हैं कि मेलों-प्रदर्शनियों में झूले-पालने देख-देख कर उसाँसें छोड़ रहे हैं। तनिक कड़ी आवाज में इजहार-ए-हसरत किया तो बेटे के जवाब ने ‘सपनों के नशेमन पे बिजलियाँ’ गिरा दीं। नीची नजर, धीमी आवाज में बेहद अदब से बेटे ने सूचित किया कि वह उसकी पत्नी को एमबीए करा रहा है। अभी-अभी आखिरी सेमेस्टर की परीक्षा हुई है। केम्पस होनेवाला है। परिणाम और प्लेसमेण्ट की बाट जोही जा रही है। पहले यह सब हो जाए तब ‘बच्चा प्लान करने पर विचार करेंगे।’ मित्र ने तनिक कड़क कर कहा - ‘बच्चे तो भगवान की देन होते हैं! प्लान नहीं होते।’ नजर, आवाज और अदब को यथावत रखते हुए बेटे ने कहा - ‘पापा! आप सही कह रहे हैं। लेकिन वैसा आपके जमाने में होता था। अब वैसा नहीं होता। अब तो बच्चे प्लानिंग से ही पैदा होते हैं।’
मित्र से बोलते नहीं बना। आप बीती सुनाकर मुझसे पूछा - ‘है कोई जवाब आपके पास?’ सच कहूँ, मुझसे भी बोलते नहीं बना। प्रत्येक काल खण्ड का अपना सच होता है। हमारे काल का खण्ड का सच ‘भगवान की देन’ था तो हमारे बच्चों के काल खण्ड का सच ‘प्लानिंग’ का है।
इन दो प्रसंगों से ही मेरे मन में सवाल कौंधे थे। मेरा, परम्परावादी मन जवाब में मुझसे ‘नहीं’ कहलवाना चाह रहा है और हिम्मत है कि साथ नहीं दे रही।
अर्थ सच में प्रकृति पर हावी हो गया है, योजनात्मक भविष्य..
ReplyDeleteहम प्रकृति के साथ भी प्लानिंग कर रहे हैं, परंतु यह कड़वी सच्चाई है जिस तरह से महंगाई का आंकड़ा बड़ता जा रहा है, उससे यह सब होना भी निश्चित है।
ReplyDeleteनए जमाने के साथ हमें भी बदलना होगा ....
ReplyDeleteमगर इस व्यथा का एक दूसरा पहलु भी है ...
जब जब थक कर चूर हुए थे ,
खुद ही झाड बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते
तुमको गुरुकुल में पंहुचाते
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !सोंचों मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए !
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
सतीश जी से सहमत हूँ। वैसे आस्तिक के लिये तो प्लैनिंग भी भगवान की देन हो सकती है, उसकी सहज-स्वीकृति क्यों नहीं?
ReplyDeleteमाता पिता को भी वक्त के साथ चलना होगा.
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteभगवान की देन है - हम सगे दस भाई बहिन हैं और इन दस दम्पतियों के ९ बालक और १२ बालिकाएं, इस प्रकार २१ संताने हैं। यह भगवान की देन और प्लानिंग दोनों हैं। अब मेरे ४ मित्र ऐसे हैं जिनके प्रत्येक के ४ या पांच बालिकाएं हैं - प्लानिंग फेल और केवल भगवान् की देन है। ३ मित्र ऐसे हैं जिनको ४-४ बालिकाएं हैं मगर एक-एक अन्तिम कुमार है। यह देर से अमल मैं आ पाई प्लानिंग है। भगवान की देनं भी है।