मेरी 6 जनवरी की भ्रष्टाचार लाइव शीर्षक पोस्ट पढ़कर, सेवानिवृत्त प्राचार्य और मेरे कक्षापाठी के अग्रज श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने मुझे पोस्ट कार्ड में एक संस्मरण लिख भेजा है। वही संस्मरण बिना किसी घालमेल के प्रस्तुत है।
यह कोई 30 वर्ष पूर्व की बात है। रावटी के लोकसन्त ‘बापाजी’ द्वारा आयोजित एक भण्डारे में, बापाजी के, रतलाम निवासी एक सत्संगी का बेटा दिल्ली से (जो वहाँ इंजीनीयर के पद पर नौकरी कर रहा था) आया। उसकी शिक्षा रतलाम में ही हुई थी। बापाजी के भण्डारे के साथ ही साथ, माता-पिता से मिलना, जन्मस्थली के प्रति प्रेम और बालसखाओं, सहपाठियों से मिलने का उछाह भी उसे रतलाम खींच लाया था। वह आया तो था एक दिन की छुट्टी लेकर किन्तु आने के बाद उपरोल्लेखित सारे कारकों/कारणों ने मानो उसके पैर बाँध लिए। कुछ दिन और रतलाम ही रह जाने की इच्छा बलवती हो गई। उसने दो-तीन सरकारी डॉक्टरों से अपनी समस्या बताई और मदद माँगी। करमरकरजी भी उसके साथ थे। एक भी डॉक्टर ने मदद नहीं की। झूठा प्रमाण-पत्र देने से सबने मना कर दिया।
उन दिनों दिल्ली में पीलिया फैला हुआ था। करमरकरजी के नेक परामर्श पर अमल करते हुए उसने चौथे डॉक्टर से कहा कि वह दिल्ली से आया है, वहाँ होटल का भोजन करता है। रतलाम आने के बाद से उसे कमजोरी अनुभव हो रही है, भूख नहीं लग रही, आँखों के सामने अचानक ही अँधेरा छाने लगता है आदि-आदि। डॉक्टर ने उसकी सामान्य जाँच की, दो-तीन बार पेट दबाया और पूछा - ‘तुम दिल्ली से आये हो?’ लड़के ने उत्तर में ‘हाँ’ कहा तो डॉक्टर ने कहा - ‘तुम्हें तो जाइण्डिस का इन्फेक्शन है।’ लड़का कुछ कहता उससे पहले करमरकरजी ने कहा कि उन्हें भी ऐसा ही लगा था किन्तु यह लड़का मान नहीं रहा। दिल्ली जाने की जिद कर रहा है। सुनकर डॉक्टर ने कहा कि इस समय तो लड़के के दिल्ली जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। लड़के को तो कमसे कम आठ दिन रतलाम में ही आराम करना चाहिए। कह कर डॉक्टर ने दवाइयों की फेहरिस्तवाला पर्चा थमा दिया। माँगने पर बीमार होने का प्रमाण-पत्र भी बना दिया।
डॉक्टर की फीस चुकाकर, दवाइयों की फेहरिस्तवाला पर्चा और डॉक्टर का प्रमाण पत्र लेकर दोनों आए। पर्चा जेब में रखा और प्रमाण-पत्र, आरएमएस से दिल्ली पोस्ट कर दिया।
लड़का पूरे आठ दिन माता-पिता, मित्रों के साथ प्रेमपूर्वक रतलाम में रहा। लड़का, उसके माँ-बाप और उसके तमाम मित्र - सब खुश।
इस संस्मरण का भाष्य कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है।
यह तो सुना है, बड़ा आजमाया हुआ तरीका है बहुतों के लिये
ReplyDeleteमकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई…
ReplyDeleteइसे भ्रष्टाचार कहें या फिर छुट्टी मांगने का मजबूरी में अपनाया गया तरीक़ा। निजी संस्थानों में शायद ही कोई ऐसा हो जो कर्मचारी के सच बोलने पर उसे छुट्टी दे देता हो।
ReplyDeleteसदाचार, भ्रष्टाचार और आचार, मुखौटे बदल कर भ्रम में डालता है.
ReplyDeleteआपका ब्लॉग आनंद वाला है ...मकर संक्रांति की शुभ कामना .....
ReplyDeleteकिसिम किसिम के भ्रष्टाचार - कोई मासूम [किसी को आहत नहीं} कोई गुनाह से लबरेज़ [मासूम जनता के खून से सना]
ReplyDeleteसत्यमेव जयते!
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त, श्री रवि कुमार शर्मा, इन्दौर/खण्डवा की टिप्पणी -
ReplyDelete- छुट्टी के लिए ऐसा होता ही है। 99 प्रतिशत लोग आज भी फर्जी मेडिकल सर्टिफिकेट मजबूरी में बनाते हैं। सच बोलकर छुट्टी तो मिलने से रही।