भ्रष्टाचार का आतंक

भ्रष्टाचार को लेकर एक अत्यन्त कारुणिक संस्मरण बार-बार मेरी आँखें गीली कर देता है।

यह 1993 की बात है। बीमा अभिकर्ता बने मुझे तीसरा वर्ष चल रहा था। नया-नया अभिकर्ता बना था और अत्यधिक जरूरतमन्द था। सो, खूब मेहनत करता था। लोगों को गृह ऋण (होम लोन) देने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम ने ‘भाजीबीनि गृह वित्त’ (एलआईसी हउसिंग फायनेन्स लि., जिसे इन दिनों ‘एल आई सी एच एफ एल’ के संक्षिप्त नाम से पहचाना/पुकारा जाता है) नाम से अपनी स्वतन्त्र कम्पनी शुरु की ही थी। इस कम्पनी के जरिए अधिकाधिक लोगों को गृह ऋण दिलाने हेतु हम अभिकर्ताओं को कहा जाता था। गृह ऋण पर अभिकर्ताओं को किसी भी रूप में कमीशन तो नहीं मिलता था किन्तु ऋण स्वीकृती की शर्तों में, आवेदक को, ऋण राशि के बराबर बीमा कराने की शर्त होती थी। यह नया बीमा ही हम अभिकर्ताओं के लिए लालच होता था। सो, मैं भी ऐसे आवेदकों को हाथों-हाथ लेकर गृह ऋण दिला रहा था।


इसी क्रम में, एक शासकीय प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक को 46 हजार रुपयों का गृह ऋण स्वीकृत हुआ। शिक्षकजी को ऋण मिल गया। मकान, म. प्र. गृह निर्माण मण्डल का था। मकान की कीमत मिलते ही गृह निर्माण मण्डल ने शिक्षकजी के पक्ष में मकान की रजिस्ट्री करा दी। हमारी कम्पनी ने ऋण की ग्यारण्टी के रूप में रजिस्ट्री अपने पास रख ली। शिक्षकजी अपने खुद के मकान में आ गए। ऋण की मासिक किश्तों (ईएमआई) का भुगतान शुरु हो गया।


सब कुछ सामान्य चल रहा था कि कोई आठ माह बाद एक दिन सवेरे-सवेरे वे शिक्षक अचानक ही मेरे घर आए। परस्पर कुशल-क्षेम पूछताछ के बाद मैंने उनके आने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने प्रति-प्रश्न किया - ‘मेरे लोन में क्या गड़गड़ है?’ बात मेरी समझ में नहीं आई। मुझे लगा, कम्पनी ने कोई पत्र भेजा होगा। मैंने पत्र लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा - ‘बताइए। कौन सा पत्र आया है?’ वे बोले - ‘नहीं। कोई पत्र-वत्र नहीं आया है।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर।’ उत्तर में शिक्षकजी ने जो कुछ कहा, उसने मुझे हिला दिया। बोले - ‘ मैं एक शिक्षक हूँ। मुझे अपने सौ-पचास रुपयों के मेडिकल बिलों की रकम लेने के लिए चाय-पानी करनी पड़ती है। आपने मुझे हजार-पाँच सौ का नहीं, पूरे 46 हजार का लोन दिलाया है और इसके लिए किसी ने मुझसे चाय भी नहीं माँगी। इसी बात से मुझे खटका बना हुआ है। इस जमाने में ऐसा कहीं होता है? दो महीनों से मैं बीमार चल रहा हूँ। पता नहीं कब, क्या होनी-अनहोनी हो जाए। मेरे मरने के बाद मेरे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। इसलिए आप साफ-साफ बता दो कि मेरे लोन मामले में मुझे कितना भुगतान करना है। जो भी करना है, मैं कर देता हूँ ताकि मेरे बच्चे मकान का पूरा सुख उठा सकें।’


शिक्षकजी की बात सुनकर पहले क्षण तो मुझे खुद पर और अपनी संस्था पर गर्व हो आया। किन्तु अगले ही क्षण, शिक्षकजी की मनःस्थिति का अनुमान कर मेरा जी भर आया। तनिक संयत होकर मैंने कहा - ‘सर! आठ महीने हो गए हैं। कम्पनी की ओर से किसी के आने की बात तो दूर रही, आपके पास कोई पत्र भी नहीं आया है। सब कुछ ठीक चल रहा है। आप मन में कोई शंका न पालें। आपको इस लोन के लिए किसी को, कुछ भी नहीं देना है। बस! लोन की मासिक किश्तें समय पर चुकाने की सावधानी अवश्य बरतिएगा ताकि आप ‘डिफाल्टर’ न हों और आपको चक्रवर्ती ब्याज न देना पड़े।’


शिक्षकजी को मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। जब उन्होंने चौथी बार अपनी शंका जताई तो मुझे डर लगा। मैंने उन्हें सावधन किया - ‘सर! यदि कभी कोई आदमी आकर आपसे कम्पनी के नाम से कोई रकम माँगे तो दे मत दीजिएगा। मुझे फौरन खबर कीजिएगा। कही ऐसा न हो कि आप बिना बात के हजार-दो हजार के नीचे आ जाएँ।’ मेरी इस चेतावनी ने उन पर बिजली सा असर किया। अविश्वास से बोले - ‘ क्या सच्ची में मुझे इतने बड़े लोन के लिए कभी भी, किसी को भी, कुछ भी नहीं देना है?’ मैंने अपनी बात एक बार फिर दुहराई। पूरा विश्वास उन्हें तब भी नहीं हुआ। खरी-पक्की करते हुए बोले - ‘साफ कह रहा हूँ। मैंने अपनी ओर से आपसे पाँच बार पूछ लिया और रकम देने की बात कह दी। आपने हर बार मना कर दिया। अब अगर किसी ने मुझसे पैसे माँगे तो मैं उसे लेकर आपके पास आ जाऊँगा। आप जानना और वो जाने। मैं एक पाई भी नहीं दूँगा।’ मैंने कहा कि ऐसा ही होगा और यदि उन्हें कोई रिश्वत देनी पड़ी तो वह मैं अपनी जेब से दूँगा। वे चले तो गए किन्तु उन्हें मेरी बात पर आकण्ठ विश्वास नहीं हुआ है - यह मैं उनके चेहरे पर साफ-साफ देख पा रहा था।


उनके ऋण वापसी की अवधि, उनकी सेवा निवृत्ति के दिनांक के आधार पर अठारह वर्ष निर्धारित हुई थी। गए साल वे ऋण-मुक्त हो गए। उनके मकान की रजिस्ट्री उन्हें मिल गई। इन्दौर से रजिस्ट्री लेकर अपने घर जाने से पहले वे मेरे घर आए। बोले - ‘सब कुछ बिलकुल वैसा ही हुआ जैसा आपने कहा था। मेरा लोन पूरा हो गया है। रजिस्ट्री मेरे हाथ में है। इन्दौर से रतलाम के रास्ते भर मैं इस रजिस्ट्री को उलटता-पुलटता रहा। पर आप सच मानिए, मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा कि मुझे बिना रिश्वत के इतना बड़ा लोन मिला था। आपसे बस यह कहने आया हूँ कि रजिस्ट्री मिलने के बाद अब मुझे तसल्ली हुई है कि लोन को लेकर मेरे बच्चों को कोई तकलीफ नहीं होगी।’


वे धन्यवाद देकर चले गए। उनके जाने के बाद मैं देर तक सिसकता रहा। खुशी के मारे नहीं। केवल इसलिए कि सब कुछ साफ-सुथरा और सुस्पष्ट होने के बाद भी एक व्यक्ति पूरे अठारह वर्षों तक भ्रष्टाचार की छाया से कितना आतंकित रहा!

4 comments:

  1. ऐसी ढेरों घटनाएं होती हैं, लेकिन इनकी चर्चा कम होती है, (क्‍योंकि इसमें तो कुछ भी नहीं हुआ, जैसा शिक्षकजी को भी महसूस हुआ.)

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  2. यह घटना पढकर मन में मिश्रित भावनायें आ रही हैं। 18 साल पहले का अविश्वास इस आधार पर समझ रहा हूँ कि शायद उनके सभी पूर्व अनुभव बेईमानों के साथ रहे होंगे मगर इन 18 सालों में भी वे इस इकलौते लेन-देन के अलावा एक भी ईमानदार व्यक्ति न पा सके यह बात समझ पाना मेरे लिये काफ़ी तकलीफ़देह है।

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  3. भ्रष्टाचार की आतंकी परिस्थितियों में ऐसी घटनायें ठंडी हवा के झोकों सी आती हैं।

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  4. चाय पानी करानी की जरूरत गुरूजी को अन्य मामलों में रही है अतः वैसी उनकी सोच बन गयी और परेशान होते रहे. कभी कभी ऐसा भी होता है.

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