अब ‘इसके लिए’ भी ‘चाय-पानी’?

अफसरशाही से सारा देश दुखी और परेशान है। इतना और ऐसा कि, आजादी के पैंसठ बरस बाद भी, व्यथित और क्षुब्ध स्वरों में, ‘इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था।’ वाला वाक्य एक-दो दिनों में सुनने को मिल जाता है। यह अकारण नहीं है। ‘जन सेवा’ के नाम पर भारी-भरकम वेतन राशि पानेवाले हमारे अधिकारीगण, अपने अधिकारों के प्रति तो चौबीसों घण्टे सजग, सन्नद्ध और चिन्तित रहते हैं किन्तु लोगों के काम करने के प्रति न केवल उतने ही उनींदे, आलसी और निश्चिन्त रहते हैं बल्कि लोगों के प्रति सामान्य शिष्टाचार निभाना भी भूल गए हैं।

एक यन्त्रणादायक अनुभव से गुजरने के बाद ही मैं यह सब कहने को विवश हुआ हूँ।

घर से निकल रहा था कि सड़क पर पड़ा, एक बिजली-बिल दिखाई दिया। सरसरी नजर डाली। यह मेरा बिल था! किन्तु आँकड़ा देख कर सुधबुध खो बैठा। पाँच हजार रुपयों से अधिक का बिल था। मुझे लगा, यह मेरा नहीं, किसी छोटे-मोटे कारखाने का बिल होगा। सो, ध्यान से एक बार फिर देखा। नहीं, यह मेरा ही बिल था। इतनी बड़ी रकम एक साथ चुकाना मेरे लिए कठिन बात थी। सो, मानो मेरी पूँछ में आग लग गई हो, कुछ ऐसी ही दशा में, सारे काम छोड़कर बिजली कम्पनी के कार्यालय पहुँचा। कुछ जाने-पहचाने चेहरे दिखाई दिए। मेरी बौखलाहट देख मुस्कुरा दिए। मैं कुछ कहता उससे पहले ही पूछा - ‘बड़ा बिल आ गया है?’ उनकी मुस्कुराहट देख और पूछने से पहले ही उन्हें सवाल करते देख अनुमान हुआ कि मुझ जैसे बदहवासों से मिलना उनके लिए रोज की सामान्य बात है। उन्होंने मुझे और मेरे बिल को हाथों-हाथ लिया। सरसरी नजर डालते हुए बोले - ‘आपकी मीटर रीडिंग नहीं हुई होगी।’ मेरे मुहल्ले की डायरी मँगवाई, पन्ने पलटे और अपने अनुमान की पुष्टि कर दी - ‘तीन महीनों से आपके मीटर की रीडिंग नहीं ली गई थी।’ मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। अगस्त 1977 से जून 1991 के तक मैं किराये के मकानों में रहा। किन्तु जुलाई 1991 से मेरे नाम का बिजली कनेक्शन रहा है। इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ!

परिचितों ने ढाढस बँधाया। मुझे पानी पिलाया। चाय का आग्रह किया किन्तु ‘पाँच हजार’ का आतंक मुझे असहज किए हुए था। मना कर दिया। वे अनुभवी थे। मेरे कहे बिना ही वह सब कर दिया जो मेरे आर्थिक हित सुरक्षित करने के लिए किया जाना था। फिर भी आँकड़ा पाँच हजार के पार था। मेरी घबराहट कम नहीं हो रही थी। किन्तु वे इससे अधिक और कर ही क्या सकते थे? अब केवल एक काम बाकी था - बिल की रकम जमा कराना। वह तो मेरा ही काम था!

लौटते-लौटते विचार आया - इस घटना की जानकारी सम्बन्धित सक्षम अधिकारी को अवश्य देनी चाहिए ताकि व्यवस्था सुचारू हो और मैं ही नहीं, तमाम लोग ऐसी ‘दुर्घटना’ से कम्पनी कार्यालय के काटने से बच सकें। मुझे एक कमरा बताया गया। अनुमति प्राप्त कर अन्दर गया। एक भद्र महिला कुर्सी पर विाजित थीं। देख कर पहला भाव मन में आया - ‘महिला है। अधिक सहृदय व्यवहार मिलेगा।’ किन्तु उनके पहले ही वाक्य से यह भाव हवा हो गया।

उनके सामने 6 कुर्सियाँ, व्यवस्थित रूप से रखी हुई थीं। सबकी सब खाली। मैंने अपना परिचय दिया और कहा - ‘मेरी मीटर रीडिंग तीन महीनों से नहीं हुई और पाँच हजार का बिल आ गया। मेरे लिए यह रकम भारी है।’ मानो कोई मशीन बोल रही हो, इस तरह से जवाब आया - ‘लिख कर दे दीजिए। मैं मीटर रीडर को हटा दूँगी।’ मैंने कहा - ‘यह बिल मुझे, मेरे घर के सामने, सड़क पर मिला है।’ वे फिर से यन्त्रवत बोलीं - ‘यह भी लिख कर दे दीजिए। मैं बिल बाँटनेवाले को बदल दूँगी।’ मैंने कहा कि मेरी रुचि मीटर रीडर या बिल बाँटनेवाले को बदलने में नहीं, अपितु नियमित रूप से मीटर रीडिंग होने में और बिल वितरण व्यवस्थित होने में है। मैं चाहता हूँ कि मेरा बिल मुझे व्यक्तिगत रूप से मिले और यदि मेरे घर पर ताला लगा हो तो बिल, दरवाजे के नीचे से सरका दिया जाए। उत्त्र में उन्होंने जो कुछ कहा उसका आशय था कि अव्वल तो मुझे पता ही नहीं है कि मेरी समस्या क्या और न ही मुझे अपनी समस्या बताना आता है। दूसरी बात यह कि मीटर रीडिंग प्रति माह नियमित रूप से कराने और बिल वितरण व्यवस्थित कराने की सुनिश्चितता कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं हो सकेगा। वे तो केवल काम न करनेवालों पर कार्रवाई कर सकती हैं, उन्हें हटा सकती हैं या फिर दण्डित कर सकती हैं।

उनके स्वरों की शुष्कता और यान्त्रिकता ने मुझे स्तब्ध कर दिया था। मैं उम्मीद कर रहा था कि उन्हें सगर्व यह भान होगा कि वे ऐसी उपभोक्ता सेवा से जुड़ीं हैं जिस पर कस्बे की पूरी आबदी निर्भर है और जिस (सेवा) पर उनकी कम्पनी का एकाधिकार है। निश्चत रूप से प्रशासकीय पद पर हैं किन्तु उनका पहला काम अपने उपभोक्ताओं की चिन्ता करना है। पता नहीं क्यों मैंने यह भी सोचने की मूर्खता कर ली थी कि जिस प्रकार मैं अपने पॉलिसीधारकों को अपना ‘अन्नदाता’ मानता हूँ उसी प्रकार वे भी अपने उपभोक्ताओं को अपना ‘वेतनदाता’ मानती होंगी, उनके प्रति (कृतज्ञता भाव न सही) विनय भाव तो रखती ही होंगी। किन्तु वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। वहाँ तो एक वरिष्ठ नागरिक को कुर्सी पर बैठने का आग्रह भी नहीं था! उन्हें अपने अधिकार भली प्रकार मालूम थे। वे जानती थीं (और सामनेवाले को जता रही थीं) कि अपने अधीनस्थों को दण्डित कर सकती हैं। नहीं जानती थीं तो बस यही कि वे अपने उपभोक्ताओं के लिए वहाँ बैठाई गईं हैं और उन्हीं उपभोक्ताओं के प्रति जिम्मेदार भी हैं। उनके कमरे से निकलते समय मुझे बरबस ही हँसी आ गई। अच्छा हुआ कि उपभोक्ता उनके अधीनस्थ नहीं हैं। वर्ना, वे उपभोक्ताओं को भी दण्डित करना शुरु कर देतीं। मुझे इस विचार ने भी गुदगुदा दिया कि उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठने का आग्रह भी शायद इसीलिए नहीं किया क्योंकि वह दण्ड नहीं था।

इसी के समानान्तर मुझे लग रहा है कि अधिकारियों को (और उपभोक्ता सेवाओं से जुडे़ अधिकारियों को तो विशेष रूप से) शिष्टाचार बरतने और नागरिकों से नम्रता से पेश आने हेतु विशेष प्रशिक्षण दिए जाने चाहिए। अपना वेतन जुटानेवाले नागरिकों/उपभोक्ताओं से वे (अधिकारी) मन ही मन भले ही घृणा करें किन्तु शिष्टाचार का दिखावा तो कर ही सकते हैं!


अब इसके लिए भी ‘चाय-पानी’ करनी पड़ेगी?

11 comments:

  1. दण्ड भी मुखर है, उद्दण्ड भी मुखर है।

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  2. अधीनस्थों को दण्डित करने, अधिकारियों को मक्खन लगाने और उपभोक्ताओं को नज़रअन्दाज़ करने के अलावा कुछ भी किये बिना आज तक काम चला है, और आगे भी चलेगा। ये भारत है, चपरासी से लेकर प्रधानमंत्री तक यहाँ किसी को भी किसी क्रांति का भय नहीं है। यह लाटसाहबों का देश है।
    कुछ दिन इन्तज़ार कीजिये, शायद इनका नाम पद्मश्री या मगसायसाय पुरस्कार विजेताओं की सूची में भी मिले।
    शर्मनाक हादसा मगर अनूठा बिल्कुल नहीं।

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  3. आधाधुंध के राज मे गधा पंजीरी खाय...
    ऊपर से नीचे तक सिस्टम इतना करप्ट हो चुका है कि अब तो भय भी नहीं लगता है आधिकारियों और कर्मचारियों को। अधिकारी और कर्मचारी अपने डीए,वेतन,एरियर और फर्जी बाउचर छापने मे लगे हुए हैं और कोई पूछने वाला नहीं है। शिकायत जिससे करेंगे वो भी उसी सिस्टम का हिस्सा है। .... मै इसी विभाग मे हूँ इस लिए अच्छी तरह से और गहराई से देख रहा हूँ। आज स्थिति यह है कि विभाग का चेयरमैन बिना मायावती की इजाज़त लिए एक छोटे से कर्मचारी का स्थानांतरण नहीं कर सकता... इसी के चलते सब मौज मे हैं। सब पंजीरी खा रहे हैं।

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  4. ई-मेल से प्राप्‍त, श्री सुरेशजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -


    विष्णुजी! गनीमत है कि आप से कुछ चन्‍दी नहीं ली गयी। वर्ना पेंशन प्राप्त करने वाले कोई परिचित हों,तो उनसे पूछिए कि जिन जिला अधिकारियों को हम मालाएं पहिनाते हैं,वे पेंशन या देयक मंजूर करने के लिए कितना परेशां करतें हैं और कितना चन्‍दी चारा लेते हैं। वह पेंशनर आपसे कहेगा कि इन अधिकारियों को हार,माला नहीं बल्कि जूते,चप्पल की माला पहिनानी चाहिए।

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  5. चलिए, यह ठीक हुआ कि आपको हंसी आ गई...

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  6. सरकारी अधिकारीयों की मानसिकता और बंद दिमाग उन्हें आगे समझाने की इजाज़त ही नहीं देता ! सामाजिक चेतना इन्हें बदलेगी ...
    शुभकामनायें आपको !
    पुनश्च : अरे हाँ आपको सड़क पर पड़े कागज को उठाने की जरूरत क्या थी ??? :-)

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  7. ''पुनश्च : अरे हाँ आपको सड़क पर पड़े कागज को उठाने की जरूरत क्या थी ??? :-) ''
    ई-मेल से श्री सतीश सक्‍सेना की टिप्‍पणी -

    सरकारी अधिकारीयों की मानसिकता और बंद दिमाग उन्हें आगे समझाने की इजाज़त ही नहीं देता ! सामाजिक चेतना इन्हें बदलेगी ...
    शुभकामनायें आपको !
    पुनश्च : अरे हाँ आपको सड़क पर पड़े कागज को उठाने की जरूरत क्या थी ??? :-)

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  8. श्रीयुत सतीशजी सक्‍सेना के लिए -

    सडक पर पडा कागज उठाने की जरूरत दो कारणों से हुई।

    एक - बीमा एजेण्‍ट हूँ। मेरे लिए, सडक से संसद तक अपार सम्‍भावनाऍं सदैव बनी रहती हैं।

    दो - सातवीं कक्षा तक मैं ने दरवाजे-दरवाजे जा कर मुट्ठी-मुट्ठी आटा मॉंगा है। अब आप तो भली प्रकार जानते ही हैं कि मॉंगनेवाले की नजर कहॉं-कहॉं नहीं रहती? :) :) :)

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  9. ई-मेल पर, खण्‍डवा/इन्‍दौर से श्री रविकुमार शर्मा की टिप्‍पणी -

    "Aapka Anubhav...eke tees peda kar raha he,Hum kabhi nahee sudhrenge,kyo ki hum sudharna hi nahee chahte."

    (''आपका अनुभव...एक टीस पैदा कर रहा है। हम कभी नहीं सुधरेंगे क्‍योंकि हम सुधरना ही नहीं चाहते।'')

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  10. कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
    कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए .....दुष्यंत॥

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  11. पत्र से प्राप्‍त, डॉक्‍टर विनोद वैरागी, उज्‍जैन की टिप्‍पणी -
    ब्‍लॉग पर टिप्‍पणी करना मुझे नहीं आता इसलिए पत्र लिख रहा हूँ।

    यह लेख पढकर अच्‍छा लगा। अच्‍छा याने ऐसा लगा कि अपनी आपबीती पढ रहा हूँ। मेरे कुछ सम्‍बन्‍धी विद्युत कम्‍पनी में काम करते हैं। मुझे कुछ काम पडा। सोचा कि अपनेवालों को तकलीफ नहीं दूँ। किन्‍तु मुझे इस तरह चक्‍कर दिए गए कि अपनेवालों की मदद लेनी ही पडी। आखिरकार अपनेवाले ही काम आए।

    अफसरलोग तो बिल बढाने का जाल बुनते हैं। किन्‍तु जब अपने पर बीतती है तो कितना बुरा लगता है, यह मुझ जैसे अनेक भुक्‍तभोगी ही जानते हैं। आपने मुझ जैसों की बात जन-जन तक पहुँचाई। धन्‍यवाद।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.