यह शुद्धरूपेण ‘ठिलवईगिरी’ है। काम की कोई बात नहीं है इसमें। जिसे और कोई काम न हो, फुरसत के सिवाय और कोई साथी न हो, वही इसे पढ़े। और पढ़े भी तो अपनी जोखिम पर। पढ़ने के बाद कोई पछतावा हो तो मुझे जिम्मेदार न माना जाए।
ये हैं हरीश वर्मा। मेरे प्रिय। इतने प्रिय कि दो-तीन दिन नजर न आएँ तो मुझे बेचैनी होने लगती है। ऐसा लगने लगता है कि या तो मैं बीमार हो गया हूँ या फिर वे। इसका मतलब यह बिलकुल मत लगाइएगा कि इसके पीछे मेरा या हरीश का कोई स्वार्थ है। सब कुछ पूरी तरह निस्वार्थ। निर्मल आनन्द के लिए।
अब याद नहीं आता कि हरीश से पहली मुलाकात कब हुई थी और कब ये मेरे लिए ऐसे ‘फालतू की जरूरत’ बन गए। बैंक ऑफ बड़ौदा में नौकरी करते हैं। मेरा खाता भी इसी बैंक में है, शायद 1991 से। किन्तु यह तय है कि खाता खोलने के लिए या खाता खोलने के कारण इनसे मुलाकात नहीं हुई। यह ‘दुर्घटना’ उससे पहले ही हो चुकी थी।
अब याद नहीं आता कि हरीश से पहली मुलाकात कब हुई थी और कब ये मेरे लिए ऐसे ‘फालतू की जरूरत’ बन गए। बैंक ऑफ बड़ौदा में नौकरी करते हैं। मेरा खाता भी इसी बैंक में है, शायद 1991 से। किन्तु यह तय है कि खाता खोलने के लिए या खाता खोलने के कारण इनसे मुलाकात नहीं हुई। यह ‘दुर्घटना’ उससे पहले ही हो चुकी थी।
अन्धे व्यक्ति की पत्नी की दशा बखानने के लिए मालवी में एक कहावत है - ‘आँधा वना आँख बरे। आँधा वना घड़ी नी हरे।’ याने, पति का अन्धा होना यद्यपि दुखदायी और सामाजिक स्तर पर अवमाननाकारक है किन्तु उसके बिना, पल भर भी काम नहीं चलता। वह नजर न आए तो चैन नहीं पड़ता। हरीश के मामले में आप मेरी दशा ऐसी ही, अन्धे की पत्नी जैसी मान सकते हैं।
हरीश की सामाजिकता मुझे शुरु से ही चकित और विस्फारित करती रही। कहते हैं कि पति-पत्नी आजीवन साथ रहने के बाद भी एक दूसरे को समझ नहीं पाते। किन्तु हरीश के मामले में मैं तनिक भाग्यशाली हूँ। कुछ बरस जरूर लगे (क्योंकि दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता) किन्तु अन्ततः मुझे हरीश वर्मा समझ में आ गए - इतने कि अब मैं इनसे दुखी नहीं होता। बरसों बाद समझ पड़ी कि मैं जिसे ‘दिल की लगी’ समझ लेता था, हरीश के लिए तो वह ‘दिल्लगी’ होती थी। कुछ भी काम बताता, कोई मदद माँगता तो मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाई बोलता - ‘अरे! सर! हो जाएगा। आप बेफिकर रहो।’ मैं हरीश की बात पर भरोसा करता, बेफिकर रहता, चौबीसों घण्टे विश्वास किए रहता कि हरीश को अपना ‘वादा’ याद होगा और मेरा काम अब हुआ कि तब। किन्तु किसी विरहणी नायिका की तरह बरसों तपने के बाद सूझ पड़ी की कि ‘यार ने वादा किया है पाँचवें दिन का, किसी से सुन लिया होगा कि दुनिया चार दिन की है’ वाला शेर तो हरीश का चाल-चलन देख कर ही लिखा गया था। इस तपस्या के कारण मेरे जाले झड़ गए और अब मुझे हरीश से निर्मल आनन्द की प्राप्ति होती है। हरीश ने मुझे तत्व-ज्ञान दे दिया - अपेक्षा ही दुखों का मूल है।
हरीश की सामाजिकता आज भले ही अतीत की बात हो चुकी हो किन्तु जब तक हावी रही तब तक खुद हरीश को पता नहीं पड़ा कि वह कितनी बड़ी कीमत चुका रहा है। हालत यह कि भाई अपने घर के सिवाय और कहीं भी मिल जाए - किसी न किसी के काम में व्यस्त। उधर, अपने घर के छुटपुट काम कराने के लिए इनकी पत्नी सन्ध्या आस-पड़ौस के बच्चों की खुशामद कर रही होती। पिताजी आत्मारामजी वर्मा इतने नियमित और अनुशासन के पक्के कि मैं उन्हें (उनके सामने ही) ‘अंग्रेजों के जमाने का जेलर’ कहने लगा। लेकिन जलवा हरीश का! ‘अंग्रेजों के जमाने का यह जेलर’ भी, हरीश के भविष्य को लेकर चिन्तित रहना छोड़ कर अन्ततः ईश्वर का भरोसा करने पर मजबूर हो गया। दो बच्चों का बाप हरीश, खुद बच्चा बना हुआ, दौड़-दौड़ कर सारे जमाने के काम करता रहा। हरीश का यह ‘बच्चापन’ ही मुझे सदैव आकर्षित करता रहा, लुभाता रहा।
लेकिन अब यह सब बीते कल की बात है। हरीश का बेटा एम.बी.बी.एस. कर स्नातकोत्तर अध्ययनरत है। बेटी प्रिया भी उच्च शिक्षा के लिए निकलनेवाली है। देख रहा हूँ कि गए कुछ बरसों से हरीश के भीतर का बच्चा, सयानों की तरह व्यवहार करने लगा है। बच्चे जब बड़े होते हैं तो केवल खुद ही बड़े नहीं होते। वे अपने माँ-बाप को भी बड़ा बना देते हैं - बूढ़े होने के रास्ते पर चलने की तैयारी करनेवाले बड़े।किन्तु वो कहते हैं ना कि आदमी की फितरत कभी नहीं बदलती। इसलिए, जब भी मौका मिलता है, हरीश का ‘बच्चापन’ सारे तटबन्ध तोड़कर निर्मल आनन्द की बरसात कर देता है।
इन दिनों ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ का जुमला हरीश के होठों की ‘स्थायी नागिरिकता’ हासिल किए हुए है। इतनी सहजता से कि खुद हरीश भी यह बात नहीं जानता। उसके आसपासवाले हम सब इन दिनों इस जुमले के मजे ले रहे हैं। ग्राहकों से लेन-देन करते समय, हरीश का ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ कहना, ‘प्रति ग्राहक, कम से कम दो बार’ सुनने को मिल रहा है। हरीश कहता तो ग्राहक से है और कहता है अपने केबिन में बैठ कर किन्तु सब इस तरह सुनते हैं मानो वे सब यह सुनने की बाट जोह रहे हों और हरीश उन्हीं से कह रहा हो। जैसे ही हरीश का जुमला पूरा होता है, सहकर्मियों की सामूहिक हँसी दफ्तर का तनाव कम कर देती है।
दो दिन पहले मुझे बैंक से कुछ रकम निकालनी थी। मुझे हरीश के काउण्टर ही भेजा गया। योग की बात थी कि और कोई ग्राहक नहीं था। मुझे भुगतान तो कुछ ही सेकेण्डों में मिल गया किन्तु हरीश से देर तक बात होती रही। इस बीच वह पाँच-सात बार ‘माफी माँगना चाहूँगा सर!’ बोल चुका था। मैंने कहा - ‘आप जिस तरह से, साँस-साँस में, ‘माफी माँगना चाहता हूँ’ कहते हैं उसके लिए तो आपका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड्स में दर्ज हो सकता है।’ सुनकर हरीश ठठा कर हँस दिया। किसी दुधमुँहे शिशु की निश्छल हँसी। मुझे अच्छा लगा। मैंने छेड़ते हुए, तनिक दुष्टता से कहा - ‘आप बहुत धूर्त हैं। लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं। कहते हैं - ‘माफी माँगना चाहूँगा।’ सामनेवाला मुगालते में आ जाता है कि आप माफी माँग रहे हैं। जब कि आप माँगते नहीं, माँगने की चाहत भर जताते हैं। कभी माफी माँगिए भी तो सही!’ सुन कर हरीश ने दोनों कान छूते हुए, जबान निकाल कर, अविलम्ब, तत्क्षण ही, बिना सोचे (वो, जिसे अंग्रेजी में ‘बिना थॉट’ कहते हैं, उसी तरह) कहा - ‘अरे! आपको ऐसा लगा सर! इसके लिए मैं आपसे माँफी माँगना चाहूँगा।’ मैं हँसता, उससे पहले पूरा हॉल, हरीश के सहकर्मियों और ग्राहकों के ठहाकों से गूँज उठा। निर्मल आनन्द की जोरदार फुहार पूरे हॉल को सराबोर कर गई।
अब, ऐसे हरीश वर्मा को लेकर कुछ लिखना भी कोई लिखना होता है? और होता है तो क्या मतलब ऐसा लिखने का? यह ठिलवईगिरी नहीं तो और क्या है? इसीलिए मैंने कहा था कि यदि इसे कोई पढ़े तो अपनी जोखिम पर पढ़े। मैंने तो पहले ही सावधान कर दिया था। कोई पत्थर फेंकर सर माँडे तो इसमें मेरा क्या दोष?
@बच्चे जब बड़े होते हैं तो केवल खुद ही बड़े नहीं होते। वे अपने माँ-बाप को भी बड़ा बना देते हैं - बूढ़े होने के रास्ते पर चलने की तैयारी करनेवाले बड़े।
ReplyDeleteआप भले ही ठिलुआयी कहें, आपकी हर पोस्ट मेंज्ञान के मोती बिखरे होते हैं। बिट्वीन द लाइंस पढना तो एक कला है ही पर सदा स्पष्ट बोलना तो आजकल दुर्लभ ही होता जा रहा है। आभार!
सच है, इन जुमलों की कृत्रिमता अपना भाव खो देती है, बहुधा।
ReplyDeleteआप ने ठेल दिया.... लो, हम ने पढ़ लिया:)
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पढ़कर मन अति प्रसन्न हो गया...जिस सहृदय से आपने लिखा इस के लिए हृदय से धन्यवाद....
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त, श्री सुरेशजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteहरीश और मेरी एक इच्छा थी कि रतलाम मैं एक ऐसी संस्था बने जो अराजनीतिक व्यक्तियों की हो, किसी टैक्स चोर के भरोसे न चले, वित्तीय दृष्टि से स्वावलम्बी हो और उत्तम कोटि के भाषण सुनने के लिया श्रोताओं को जेब से कुछ खर्च करने की आदत पड़े। ''हम लोग'' बनाकर आपने यह इच्छा पूरी कर दी।
'हम लोग' बने इसके पूर्व, जब भी हरीश मिलता, यही कहता जो आपने उसके बारे मैं लिखा जो मैं नहीं कहूँगा। :):):)
मैं बहुत भाग्यशाली हूँ..क्योंकि मेरे पापा मुझसे किए वादे कभी नहीं भूलते..वह समय से पहले ही मेरे काम पूर्ण कर देते है.. :):):)
ReplyDeleteसही में आप है बैरागी, मित्र से इतना राग करते हुए भी शब्दों में बैराग को बनाए रखा है।
ReplyDeleteसरल हृदय मित्र के सीधे दिल से मुलाकात करवाने का शुक्रिया!!
पहला और आखिरी पैरा गैर-जरूरी लगाः)
ReplyDeleteभाई बैरागी जी आपने हरिशंकर पर्सी जी की याद ताजा करवा दी
ReplyDeleteआनंद आ गया